वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 99
From जैनकोष
छायालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण ।
पत्तोसि महाक्सणं तिरियगईए अणप्पवसो ।।99।।
(358) मुनिपद में दोष न लगाने का आदेश―मुनिवरों को संबोधा है कि हे मुनिजन ! 46 दोष दूषित आहार को खाकर अशुद्ध भावों से जीवन बिताकर पराधीन होकर तू तिर्यंचगति में गया और महान दुर्दशा को प्राप्त किया । बताया है एषणासमिति में कि छियालिस दोष बिना सुकुल श्रावकतने घर अशन को । लें तप बढ़ावन हेत नहिं तन पोषते तजि रसन को । जो अंतरंग से विरक्त हैं वे मुनि 46 दोष टालकर आहार करते हैं । तो 46 दोष कौन से हैं सो अभी बतावेंगे । सो अशुद्ध भावों से दोषदूषित भोजन को करके यह पराधीन होकर अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है, जन्ममरण करता है । वे अशुद्ध भाव क्या थे जिनके वश होकर अटपट क्रियायें की? ख्याति की चाह से मुनि बने―मेरी विशेषता होगी, लोग जयकारा करेंगे । अनेकों की आज भी क्रिया चारित्र देखकर पहिचान सकते हैं कि किसके कौन से भाव थे जिससे प्रेरित होकर वह मुनि हुआ । कोई पूजा की चाह से मुनि बना । तो जब मूल में ही भूल रही, उद्देश्य ही गंदा रहा तो साधु बनकर अटपट काम करते हैं और फिर वे कठिन दुःख को प्राप्त करते हैं, क्योंकि यहाँ कोई ठग ले तो ठग ले, पर खोटे भाव करेगा, कर्मबंध होगा, उसे कोई नहीं बचा सकता । एक बात और यहाँ जानना कि कोई साधु अशुद्ध परिणाम कर रहा है तो श्रावक यह सोचें कि यह अपनी करनी का फल पायेगा, हमें तो इसकी भक्ति करना है, तो यह जैनशासन में नहीं बताया गया । जो अनुचित है, मिथ्यात्व से ग्रस्त है, लोकपूजा की चाह आदिक में मग्न है सो उनके साथ उनके सेवक भी खोटी गति में जाते हैं, ऐसा जैनशासन में बताया है । तब थोड़ा अपने को भी चेत होनी चाहिए, और गुरुजनों के प्रति प्रीति होनी चाहिए कि उनके प्रति सही व्यवहार हो । अनेक व्यवहार ऐसे होते हैं कि कोई मुनि पहले दिखा तो उसकी परीक्षा करके नमस्कार करें, ऐसा नहीं है, किंतु मुद्रा जब देखी तो उन्हें नमस्कार करना ही चाहिए । जब बहुत कुछ अपने परिचय में आया है और सन्मार्ग पर बिल्कुल नहीं है ऐसा जचा है तो उसकी उपेक्षा कर दें, किंतु छोटे मोटे दोषों से मुनि नहीं गिरता, आखिर साधना कर रहा है तो दोष तो होगे, मगर महादोष अगर आ जायें तो वहाँ मुनिपद नहीं रहता । इससे थोड़ी कुछ जानकारी करना चाहिए कि मुनिपद मायने क्या है?
(359) मुनिपद का संक्षिप्त परिचय―प्रथम तो यह बात है कि आत्मा में ज्ञान का प्रकाश हो, निज सहज ज्ञानस्वभाव में रमने की धुन हो, जिससे बाहरी लोक में न प्रीति करता, न द्वेष करता । यदि कोई प्रकट ऐसा दिखे कि अपमान करने वाले पर, निंदा करने वाले पर उपेक्षा करने वाले पर कोई मुनि नाराज हो रहा तो समझो कि वहाँ मुनिपना नहीं है । उसे नाराज या गुस्सा होने की क्या आवश्यकता है? जब उसने व्रत ले लिया है―अरि मित्र महल मसान कंचन काच निंदन थुति करन, अर्घावतारण असिप्रहारण में सदा समता धरन । चाहे शत्रु हो, मित्र हो, सबमें साम्य परिणाम । दुश्मन से द्वेष न करे । चाहे कंचन हो या कांच हो, निंदा हो या स्तुति, दोनों में समता रखें । अज्ञानवश हैं, इसलिए अपने को नहीं सम्हाल पाते, लेकिन जो लोक में पूजा होती है आखिर वे शत्रु भी चरणों में नम जाते हैं उनकी समता निरखकर । तो मुनि में समता की मुख्यता हो, रागद्वेष न हो, अपने स्वरूप में दृष्टि हो, आत्मकल्याण की धुन हो, यह ही सब मुनि का परिचय है । इतनी बात तो होनी ही चाहिए । और कदाचित् कहीं ये बातें न मिलें, अंधभक्ति से उनको बढ़ावा दिया तो यह उनका अकल्याण है ꠰ उन्हें समझाना चाहिये कि महाराज शुद्ध ढंग से प्रवृति बनायें तो आपका भी कल्याण है और हम भक्तों का भी उद्धार है ।
(360) निर्दोष आहार ही ग्रहण करने का मुनिवरों को आदेश―यहां बहुत प्रकाश से मुनिवरों को भावशुद्धि के लिए संबोधा है । यह कुंदकुंदाचार्य द्वारा रचित भावपाहुड़ का ग्रंथ है । इसका विषय ही यह है । कहते हैं कि शुद्ध भावों से 46 दोषों से दूषित आहार करके मौज मानते हैं वे मनुष्य परवश होकर तिर्यंचगति में जन्म लेकर दुःख प्राप्त करते हैं । 46 दोष क्या-क्या हैं सुनो―16 उद्गम दोष, 16 उत्पादन दोष, 10 एषणा दोष, 4 संयोजन दोष, ये सब 46 दोष होते हैं ꠰ उद्गम दोष गृहस्थ के सहारे हैं । आहार बनाने वाला गृहस्थ 16 प्रकार के दोषों का अगर आहार बनाये तो वह मुनिजनों के लिए अग्राह्य है । वे 16 उद्गम दोष क्या हैं उन्हें भी ध्यान से सुनो, क्योंकि आहार चौका बनाने वाले के सहारे ये दोष उत्पन्न होते हैं । ये दोष गृहस्थ से बनते हैं । ऐसा दोष किया है गृहस्थ ने तो वहाँ मुनि आहार न लेगा, वे गृहस्थ द्वारा किए गए दोष कौन-कौन हैं? इसे बताने से पहले एक बात समझें कि सबसे महान दोष होता है हिंसा युक्त भोजन याने बिना म्याद का आटा हो, पानी हो, अभक्ष्य हो, खूब घसीट-घसीटकर भोजन बनाया है, चौकी बार-बार सरकाना, बर्तन फेंकना, ऐसी असावधानी रखते हुए जो भोजन बनता है उसे महादोष कहा है । इसका नाम है अध: कर्म । यह सबसे महान दोष है । अन्य दोष तो बाद के हैं । तो अधःकर्म दोष जहाँ लगते हैं वहाँ चाहे अन्य दोष बचाया हो तो भी वह बड़ा भारी दोष है । और यह बात आगे तुलना में मिलेगी ।
(361) उद्दिष्ट नामक प्रथम गृहस्थाश्रित उद्गम दोष―उद्गम दोष में (2) प्रथम दोष है उद्दिष्ट दोष । मुनि के ही उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन उद्दिष्ट दोष है । इसको बहुत ध्यान देकर सुनना है । दो बातें होती हैं―उद्दिष्ट और अतिथिसम्विभाग । अतिथिसंविभाग तो कायदे में है । कोई व्रती है, रोज का नियम लिए हुए है यह कि मैं एक अतिथि को, मुनि आदिक को आहार कराकर भोजन करूंगा । न मिलें मुनि वह बात अलग है । मिलते हों तो उनको आहार कराकर भोजन करें । यह अतिथिसंविभाग व्रत है । इसमें उद्दिष्ट का दोष नहीं लगा । भले ही उसने सोचा कि मैं मुनि को आहार दूंगा, यों सोचे हुए भोजन से उद्दिष्ट नहीं होता, किंतु किस तरह उद्दिष्ट होता कि यह मुनि के लिये ही आहार बनाया है अथवा जितने भी मुनि आयें उनके लिए मैं यह आहार बना रहा हूँ । याने खुद उसे निर्माल्य सा समझे, खुद न खाये और एक ऐसा सोच लिया कि यह तो मुनियों के लिए ही बन रहा है तो वह उद्दिष्ट है ꠰ या अन्य साधुवों के लिए बन रहा हो तो उद्दिष्ट है या जो कोई भी आयगा उसके लिए ही बन रहा है तो यह उद्दिष्ट है और चाहे मुनि का नाम लेकर भी बने, किंतु खुद भी उसमें खा सके, ऐसा भाव रखकर भोजन बनाये तो वहाँ उद्दिष्ट नहीं है, वह तो अतिथिसंविभाग है । यदि ऐसा न हो तो चौथे काल में भी भोजन नहीं मिल सकता । आज जो उद्दिष्ट का नाम लेकर एक बहुत बड़ा तूल मचाया है लोगों ने मुनियों के खिलाफ वह उचित नहीं है, क्योंकि एक तो उद्दिष्ट दोष महादोष नहीं है । प्रथम तो यह बात है । जैसे अन्य 45 दोष हैं उनमें भी एक साधारण दोष है । अध: कर्म महा दोष है । फिर दूसरी बात मुनि मन, वचन, काय, कृतकारित अनुमोदना इन 9 बातों से उस आहार में शामिल हो तो मुनि का दोष है, पर जो मुनि न तो मन से सोचता कि यह ठीक बना रहा, बनाने दो, न वचन से कहता न काय से चेष्टा करता, स्वयं करता नहीं, कराता नहीं, अनुमोदना करता नहीं, चाहे गृहस्थ मुनि को ही सोचकर बना रहा हो शुद्ध भोजन पर उसमें मुनि का यदि मन, वचन, काय, कृतकारित अनुमोदना नहीं है तो वह मुनि के लिए उद्दिष्ट दोष वाला भोजन नहीं कहलाता । आलोचना करने वाले लोगों का यदि आशय धर्मसंबंधित हो तो उन्हें खुद शुद्ध भोजन करना चाहिये और अतिथिसंविभागव्रत पालना चाहिये तथा श्रावकों की आलोचना व उन्हें डाटना चाहिये कि उद्दिष्ट दोष गृहस्थ के आश्रित है अंत: गृहस्थ को शुद्धभोजन करना कराना चाहिये व अतिथिसंविभाग करना चाहिये । कोई यदि रोज अमर्यादित भोजन करता है वह किसी दिन नियम करे कि आज मैं शुद्ध भोजन करूंगा व अतिथि संविभाग करूंगा तो भी उसका अनुदि᳭दष्ट आहार है ꠰
(362) अध्यधिनामक उद᳭गम दोष―(2) दूसरा दोष है अध्यवधि, गृहस्थ भोजन बना रहा है और सुना कि अमुक मुनि आ रहे, उस बीच में ही कुछ चावल और डाल दिए तो यह अध्यवधि दोष है । यह भी गृहस्थ के आश्रित दोष है । उसे मुनि ने नहीं किया, गृहस्थ ने ऐसा सोचा और किया, अथवा भोजन बनाने में देर हो रही है और मुनि को आहार चर्या के लिए उठने का समय हो गया है तो उन्हें जरा देर में उठना चाहिए, ऐसा भाव रखकर गृहस्थ उनको बातों में लगाये, किसी तरह से वह उठने में देर कर दें तो वह भी अध्यवधि दोष है ।
(363) मुनियोग्य आहार का एक संक्षिप्त निर्देशन―एक बात यह जानना कि मुनि का भोजन बहुत सुगम भोजन होता है । जब ही उसे क्षुधा लगी चाहे 9 बजे दिन में, चाहे 10 बजे, चाहे 1 बजे चाहे 2 बजे...., यों दिन में किसी भी समय वह आहार चर्या के लिए उठना चाहे उठ सकता । उस समय सुगमतया जो आहार मुनि को मिल गया वह उसके लिए योग्य आहार है । तो दोष बताने का अर्थ यह है कि आहार के लिए गृहस्थ को कष्ट न उठाना पड़े । जब आप एक कुंजी जान जायेंगे तो ये सब बातें भली प्रकार विदित होने लगेंगी । आहार बनते हुए में मुनि पहुंच जाये तों उस काल में आरंभ स्थगित करके आहार दे दिया । अब यदि कोई एक घंटा पहले से ही चूल्हा बुझा दे, चूल्हे की राख साफ कर दे और चूल्हा पोत कर रख दे और पात्रदान करने के पश्चात् फिर चालू करे तो यह तो एक बनावटी बात है और इतना बनावटी होकर भी आहार लिया जाये जानकर तो यह उनकी एक अजानकारी है । एक कुंजी रख लीजिए कि जिसमें गृहस्थ को आहार संबंधी कष्ट न उठाना पड़े, ऐसा सुगम भोजन मुनियों का भोजन कहलाता है, हां शुद्ध जरूर होना चाहिए, क्योंकि अशुद्ध होगा तो उसमें अध:कर्म में दोष लगता है, वह महादोष है । तो जितने भी दोष निषिद्ध बताये जायेंगे आप उनमें यही बात पायेंगे कि इसमें गृहस्थ को अलग से कष्ट कुछ उठाना पड़ा । यदि गृहस्थ को आहारसंबंधी कष्ट उठाना पड़ा तो यह मुनियों के लिए योग्य आहार नहीं है, अथवा उसमें किसी प्रकार की हिंसा का दोष आया है तो मुनि के लिए योग्य नहीं है । पहले ऐसा ही रिवाज था । लोग एक अंतराय बताते कि जलती हुई आग दिखे तो वह मुनि के लिए अंतराय है, मगर उसका प्रयोजन यह था कि नहीं ऐसी आग जल रही हो कि असावधानी हो कि कहीं-कहीं कोई अन्न जल जाये, किसी की साड़ी जल जाये, कपड़ा जल जाये तो ऐसी संभावना होती हो जिस अग्नि के जलने में उसे देखकर अंतराय है, पहले यह बात खूब अच्छी तरह जान लें । मुनि कभी यह नहीं चाहता कि मेरे लिए गृहस्थ को कष्ट उठाना पड़े । गृहस्थ शुद्ध बना रहा, उस बीच मुनि पहुंच गया और आहार ग्रहण किया बस लौटकर अपनी धर्मसाधना में लग गए । आहार का समारोह कोई मुख्य बात नहीं है, विशेषतया किसी को पता ही न पड़े कि कब आये और कब आहार कर गए । एक ज्ञान ध्यान ही उनका मुख्य कर्तव्य है ।
(364) पूतिनामक उद᳭गम दोष―(3) तीसरा दोष है पूतिदोष । जिन बर्तनों में, जिन ढंगों में अन्य भेषी कुभेषी कुगुरुवों को भोजन दिया जाता हो उसमें पकाया हुआ भोजन मुनि के लिए अग्राह्य है । देखिये गृहस्थ है, उस पर बहुत सी सम्हाल की जिम्मेदारी है । जो भी आया कोई मांगने वाला, उसे भी भोजन देना पड़ता और ऐसी साधारण सी बात है कि कोई खोटा गुरु अन्य भेषधारी भी आ गाया तो गृहस्थ का कुछ ऐसा कोमल मन है कि वह भक्ति से तो नहीं देता मगर लोकाचार करुणावश या व्यवहार वश देना पड़ता है । तो ऐसे पात्र में और ऐसी विधि में बना हुआ भोजन मुनि के लिए अग्राह्य है । मुनि को तो केवल एक यह विचार है कि गृहस्थ ने शुद्ध भोजन बनाया, जैसा घरवाले खायेंगे, उसमें से उसे भी दे दिया । अत: एक बात का ध्यान रखना आवश्यक हो जाता कि आहार दान देने के दिन घर वालों को शुद्ध भोजन करने का नियम रखना चाहिए ꠰ चाहे वह रोज अमर्यादित भोजन करता हो, पर जिस दिन आहार दान करे उस दिन उस घर वालों को शुद्ध भोजन करना चाहिए, तब दोष से बच सकेगा अन्यथा नहीं बच सकता । वहाँ एक दो चार लोगों का तो नियम होना ही चाहिए कि आज के दिन मैं शुद्ध भोजन करूंगा । फिर बने तो वह आहार उनके योग्य होता है ।
(365) मिश्र एवं स्थापितनाम के उद᳭गम दोष―(4) चौथा दोष है मिश्र नाम का दोष । जो आहार अप्रासुक आहार से मिला हो याने गर्म ठंडा मिलाकर जो भोजन रखा हो वह मिश्र दोष कहलाता है । वह भी आहार मुनि के लिए उचित नहीं है । देखिये मुनि को यदि इस प्रकार के दोष का पता पड़ जाये तो उसे स्वयं यह सोचना चाहिए कि इस प्रकार का दोष वाला आहार लेना योग्य नहीं । प्रासुक में अप्रासुक मिला दिया जैसे प्रासुक पानी में बिना प्रासुक का ताजा छना पानी मिला दिया तो यह प्रासुक दोष कहलाता है, और ये सब दोष गृहस्थ के आश्रय हैं । मुनि तो कृतकारित, अनुमोदना, मन, वचन, काय, नवकोटि से विशुद्ध है । उसे कोई संकल्प ही नहीं है कि ऐसा खाये, ऐसा बने, न उसके प्रति आकर्षण है । वह तो ज्ञान ध्यान की साधना को अपनी जिंदगी में सहायक जानकर जिंदगी की रक्षा के लिए, केवल क्षुधा मेटने के लिए आहार करता है । (5) पांचवां दोष है स्थापित । जिस बर्तन में भोजन पकाया गया उसमें से निकाल कर जो अन्न अपने घर के या दूसरे के घर के या अन्य बर्तन में रखा जाये तो वह स्थापित दोष है । इसके मायने यह है कि ज्यादह अदल बदल आहार क्रिया में न होना चाहिए, किंतु उस बर्तन से ही निकालकर सीधा उन बर्तनों में रख लें जिनसे कि आहार देना है, थाली सजाना है अनेक बर्तनों में अदल बदल नहीं की जानी चाहिए ।
(366) बलि एवं प्राभृत नाम के उद्गम दोष―(6) छठा दोष है बलि दोष―यक्ष की भेंट के लिए, भूत प्रेत आदिक कुछ मान्यतावों के लिए जो भोजन बनाया जाता है उसी भोजन को मुनि को देना यह बलि दोष है । या कोई मुनि जन आयेंगे, तो उनका आहार अलग रख दिया और भूत प्रेत आदिक को अलग रख दिया तो ऐसा अलग-अलग रखना भी योग्य नहीं । अलग उस समय किया जाता जिस समय मुनि घर आ गया हो । पहलेसे अलग करके रखना कि यह आहार मुनि के लिए, यह आहार अन्य जनों के लिए तो इसे कहेंगे स्थापन दोष । (7) सातवां दोष है प्राभृत दोष ये सब दोष गृहस्थ को लगते हैं, मुनि को नहीं लगते, पर यह बतला रहे हैं कि ऐसा दोषयुक्त आहार लेना मुनि को योग्य नहीं । मैं आहार इस ऋतु मे दूंगा, इस दिन दूंगा, इस प्रकार का भाव रखना अथवा जिस दिन के लिए नियम रखा है कि मैं चतुर्थी को, पंचमी को आहारदान करूंगा और उस दिन को टालकर दूसरे दिन सोचे तो प्राभृत दोष कहते हैं । यहाँ एक बात यह जानना कि पहले ऐसा नियम रहा करता था कि किसीने नियम लिया कि मैं पूर्णिमा को आहारदान दूंगा या दोज को आहारदान करूंगा, तीज को आहारदान करूंगा, इस तरह का नियम रखते थे । अन्य दिन अमर्यादित भोजन बनता था, एक दिन शुद्ध भोजन बनेगा शुद्ध भोजन करूंगा और अगर योग मिला तो आहार दान करूंगा, ऐसा नियम रहा करता था, तो उस नियम का हेर फेर करना यह प्राभृत दोष है ।
(367) प्राविष्कृत एवं क्रीत नाम के उद्गम दोष―(8) आठवां दोष है प्राविष्कृत दोष । पहले से ही यह जताना कि महाराज यह मेरा घर है अथवा बर्तनों को बहुत-बहुत हेरफेर करना, बड़ी जल्दी-जल्दी टाल मटोल करना ऐसी स्थिति का जो आहार है वह मुनियों के लिए युक्त नहीं है । इस दोष को मुनि नहीं करता, गृहस्थ करता । चाहे गृहस्थ रोज शुद्ध भोजन नहीं बनाता, लेकिन जिस दिन बनाया गया उस दिन खुद के लिए नियम होना चाहिए कि मैं आज शुद्ध भोजन करूंगा । और ठीक समिति से भली प्रकार करे, फिर उसमें से आहार दे तो दोष नहीं है । (9) नवां दोष है क्रीत दोष । मुनि आहार कर रहे और उसी बीच बड़ी भाग-दौड़ मचाना कि जावो सेव ले आवो, संतरा ले आवो, अमुक चीज ले आओ । यों खरीदकर आया अशन हो तो यह क्रीत दोष है । अरे ये सब सामान तो पहले से ही मंगाकर रख लेना चाहिए । और फिर अनुचित कमाये हुए द्रव्य से खरीदकर लाये तो वह है सदैव ही क्रीत दोष ।
(368) प्राभृष्य नामक उद्गम दोष―(10) दसवां दोष है प्राभृष्य दोष । किसी से कर्ज लेकर आहार संबंधी चीज सामान जुटाना यह भी दोष में शामिल है । इन सब दोषों को सुनकर एक कुंजी जानना कि जो सुगम भोजन हो, जिसमें श्रावक को कष्ट न हो वह आहार साधु के लिए आदेय है और उसके ही श्रावक और मुनि का यह सब व्यवहार निभता है । जिस आहार का इंतजाम करने में बड़ी कठिनाई हुई हो, बड़ा श्रम करना पड़ा हो, एकदम कुछ नई घटनासी लग रही हो तो ऐसा आहार उचित नहीं होता, किंतु कोई कष्ट न हो, सामान्यतया सीधे ढंग से बने तो वह भोजन मुनि के लिए योग्य होता है । यहाँ इतनी बात जानना कि यदि चूल्हे की सब राख निकाल दी और चूल्हा पोतकर रखा तो वह बनावटी कहलाता है । भले ही कुछ प्रथा चल गई तो ऐसा लगता है कि यह तो कुछ अयोग्य नहीं है, ऐसा ही करना चाहिए, मगर बच्चों की तरह का भोजन बताया है मुनि का । जैसे बच्चे को जब भूख लगी तो झट वह खाने के लिए पहुंचा और कहा―मां जी मुझे भूख लगी, खाना खिला दो, तो उसकी मां झट उसे खाना खिला देती है, ऐसे ही मुनि मुख से तो न कहेगा कि मुझे भूख लगी, किंतु जो संकेत है―जैसे कंधे पर हाथ रखकर आहारचर्या के लिए मुनि का निकलना तो उसका अर्थ है कि मां मैं क्षुधा निवृत्ति के लिए आया हूँ, तो झट उसे खिला दिया, तो इस प्रकारकी पहले एक साधारण व्यवस्था थी । उसमें जो विशेष बनावट की बात बनी तो वह अटपट दोष से सहित बात बनती रहती है, और आज चर्चा तो इसीलिए बहुत है कि बहुत बनावट आ गई है आहारदान करने में । चाहिये तो यह था कि बन रहा था आहार सो थोड़ी देर को आरंभ छोड़कर आहार दे दिया, जब आहार करके मुनि चले गए तो अपना फिर रसोई का काम कर लिया । उसमें यह बात न होना चाहिए कि बीच में ही चूल्हा बुझाकर राख साफ कर दिया और चूल्हा पोत दिया । यह तो बनावट में आ जायेगा, क्योंकि रोज तो इस तरह से चूल्हा पोतकर नही रखते थे । यदि जलती हुई आग को देखकर अंतराय मान लिया जाये तो फिर सुगम आहार का मिलना बड़ा कठिन पड़ जायेगा । हां ज्वाला वाली आग न हो । बनावटीपन की बढ़वारी से मुनिधर्म के प्रसार में कुछ कमीसी आ गई है । नहीं तो कितने ही मुनिराज हों आहारदान शुद्ध होना चाहिए । बहुतसी बातें जो की जाती हैं विडंबना की, जिन में कष्ट है, उनको नहीं करना चाहिए । गृहस्थ की ओर से जो दोष होते हैं वे बतला रहे हैं ।
(369) परिवर्तित नाम का उद᳭गम दोष―(11) एक होता है परिवर्तित दोष । कोई चीज किसी को देना, उसके एवज में कोई दूसरी चीज उससे लेकर आहारदान देना, जैसे अपने घर में मोटे चावल हैं और किसी दूसरे के घर जरा अच्छे वाले चावल हैं तो उन्हें बदलकर आहार में देना, यह परिवर्त दोष कहलाता है । देखिये―सब जगह एक कुंजी मिलेगी कि गृहस्थ को कष्ट न होना चाहिए । वह बनाये सीधा अपने लिए शुद्धभोजन और उसी बीच भोजन करके मुनिराज चले गए, सो तो ठीक है, पर किसी से चीज सामान अदल-बदलकर आहार लगाना यह परिवर्त दोष से सहित होता है ।
(370) अभिहृत नामक उद्गम दोष―(12) बारहवां दोष है―अभिहृत दोष । किसी दूसरे गांव से या किसी दूसरे मौहल्ले से बना हुआ आहार आया हो वह आहार भी मुनि के लिए योग्य नहीं । देखिए सीधी पंक्ति में दूसरे घर का आहार तो आ सकता है, पर कहीं सड़क पार करना पड़े या अनेक मार्गों से कैसा ही घूमकर आना पड़े इस प्रकार का आहार यहाँ योग्य नहीं बताया । कुंजी क्या है कि गृहस्थ को कष्ट न होना चाहिए । कई गलियां छोड़कर आना है तो बचाकर आयेगा देखकर आयेगा, उसे थोड़ा कष्ट होगा तो वह आहार योग्य नहीं । इन दोषों के वर्णन से आप निरखते जायें कि मुनि का आहार कैसा सुगम आहार हुआ करता है । बस फर्क इतना है कि भोजन शुद्ध हो, मर्यादित हो, गृहस्थ को कुछ आभास ही न हो कि कष्ट है, पर जहाँ ऐसी बनावट चल गयी कि कोई अगर दो तीन दिन आहार दे तो वह इतना थक जायेगा कि कहो कुछ ज्वरसा भी आने लगे या चौका बंदसा करना पड़े, तो ऐसा आहार न हो । बन रहा है शुद्ध । उसी में पहुंच गए, हो गया आहार । इन बातों से मुख्य बात एक वह लेना कि आपका बना हुआ आहार है उसी में पहुंच जाये और उस बनते हुए के समय में ही थोड़ी देर को वह आरंभ कार्य बंद करके आहार दे दिया तो उसमें कोई बनावट नहीं आती । मगर बहुत सुबह से अंधेरे से आहार तैयार करना और एक घंटा पहले तैयार करके रख लेना और फिर रसोईघर को पोतकर साफ कर देना, यहाँ तक कि वहाँ राख तक भी न दिखाई दे तो यह तो एक कष्ट की चीज है और बनावट की चीज है । यह शिवपथ में अप्राकृतिक बात है, पर कुछ जिनको ज्ञान ध्यान से फुरसत नहीं वे मुनिजन कुछ अधिक निगरानी नहीं करते, सीधे थोड़ा क्षुधानिवृत्ति की और वापिस आकर ज्ञान ध्यान में लग जाते । कहीं-कहीं तो चौके का सोला देखते ही बनता । वह सोला ऐसा चलता कि जिसमें बड़ी छू छैया चलती । चौकी की लकीर से जरा भी हाथ या पैर का अंग लग गया या जरा भी किवाड़ वगैरह से धोती छू गई तो बस चौका अशुद्ध । चौके की लकीर पार करना हुआ तो उसमें भी कई उचककर जाते । भला बताओ चौके की शुद्धि में इतने छुआछूत बढ़ा रखने की क्या आवश्यकता थी? अरे मुनियों का आहार तो जंगलों में भी हुआ करता था । जंगलों में तो अनेकों पशु-पक्षी पास भी आ जाया करते थे । बताओ उनसे भी अशुद्ध हो गए क्या ये घर के लोग? अरे उनसे तो अधिक शोध है ही गृहस्थ के घर । तो मुनियों का आहार तो एक उत्सर्ग मात्र है, पर एक इतना बड़ा शोध बढ़ा दिया कि जो एक मर्यादा से अधिक है तो वह सब बनावट फिर एक तीर्थं के मुनिधर्म के प्रसार में बाधक हो जाती है । तौ इन दोषों से यह ज्ञात होता कि श्रावक को कष्ट न होना चाहिए ऐसा आहार मुनि के लिए योग्य हैं ।
(371) उदि᳭भन्न एवं मालारोहण नाम के उद्गम दोष―यह जीव निराहार स्वभावी है । आहार करना इस जीव का स्वभाव नहीं है, इस कारण जो तत्त्वज्ञान की रुचि से निराहार रहकर समाधि में स्थित होते हैं वह कार्य तो अपूर्व ही है, किंतु जो कर्मविपाकवश समाधिस्थ होने में समर्थ नहीं हैं, क्षुधा की वेदना से अधीर हो जाते हैं उनको आहार करना आवश्यक हो जाता है । सो यदि अपनी आयु बढ़ाने के लिए अर्थात् मैं खूब जिंदा रहूं इसके लिए या शरीर को पुष्ट करने के लिए आहार करता है तब तो वह मुनि के व्यवहार धर्म में नहीं आता, किंतु संयम के प्रयोजन से आहार चर्या करता है, तो वह व्यवहार चारित्र का अंग बनता है । मुनि किस प्रकार आहार करे, कौन से दोष टाले, यह प्रकरण चल रहा है । 16 उद्गम के दोष जिन्हें श्रावक करता है, जिन दोषों का भागी श्रावक है उन दोषों का वर्णन चल रहा है । 13 तेरहवां दोष है उद्भिन्न । जो भोजन उघड़ा पड़ा है, ढका नहीं है उसे उद्भिन्न कहते हैं । जो उघड़ा पड़ा हो भोजन वह उद्भिन्न दोष क्यों है, कि उसमें हिंसा का संशय रहता है । कोई मक्खी बैठ जाये, मच्छर बैठ जाये तो उसको हिंसा का आस्रव जानकर मुनिजन उस आहार का त्याग कर देते हैं । (14) चौदहवां दोष है मालारोहण । मुनि आहार कर रहे हैं, उस समय श्रावक का भाव हुआ कि अटारी पर मटके में लड्डू रखे हैं वे भी मंगाकर आहार दें, तो वह सीढ़ी पर चढ़ेगा और वहाँं से उतरेगा तो ऐसा लाया हुआ आहार मुनि नहीं लेते । उसमें दोष क्या आता कि यदि यह परंपरा रही कि सीढ़ी पर जल्दी से उतरे, इसी प्रसंग में कहीं पैर फिसल गया तो पैर टूट सकता है या कुछ भी चोट आ सकती है, इस प्रकार का आहार मुनि के योग्य नहीं है ।
(372) आच्छेद्य व अनिसृष्ट नाम के उद्गम दोष―(15) पंद्रहवां है आच्छेद्य दोष किसी राजा या चोर के भय से कोई चीज छिपाकर यदि मुनि को दी जाती है तो वह आच्छेद्य दोष है । जैसे किसी चीज के प्रति राजाज्ञा है कि नहीं दे सकते, यों ही चोरों का भी डर है । अकाल जैसे जमाने भी अनेक आते कि दे रहे आहार, उन दिनों लोग भूखों मरते हैं, कहो हाथ पर रखी हुई चीज भी उठा ले जायें, सभी तरह के जमाने की संभावना से बताया जा रहा है कि लुक छिपकर यदि मुनि को कोई चीज दी जा रही है तो उसमें आच्छेद्य दोष है, क्योंकि इसमें मुनि के सिंहवृत्ति नहीं रहती । (16) सोलहवां दोष है अनिसृष्ट दोष । घर के मालिक की सम्मति बिना जो आहार दिया जाता है उसमें अनिसृष्ट दोष है । यदि घर का मालिक नहीं चाहता और उस घर के बच्चों का भाव है कि मैं आहारदान दूं तो वह सदोष आहार है । मालिक की सम्मति अवश्य होनी चाहिए ।
(373) उद्गम दोष टालने के लिये श्रावकों को प्रतिबोधन की आवश्यकता―उक्त प्रकार 16 उद्गम दोष है । ये श्रावक के आश्रित दोष होते हैं । इनके जिम्मेदारी श्रावक के ऊपर है । इसी में आया है वह उद्दिष्ट दोष जिसकी जिम्मेदारी श्रावक पर है । यदि मुनिधर्म से प्रेम हो तो आज उद्दिष्ट का नाम लेकर मुनि धर्म का विरोध करने वाले श्रावकों को फटकारते कि हे श्रावक, शुद्ध भोजन कर ताकि उद्दिष्ट दोष न लगे तो एक श्रावक को तो बोलते नहीं, न स्वयं शुद्ध भोजन करते और आलोचना करते तो नियम से यह खोटे भाव पूर्वक ही प्रचार प्रसार कहलायेगा, क्योंकि जब उद्दिष्ट दोष श्रावक के आश्रित हैं तो यदि खुद श्रावक है तो उसे अपनी गल्ती महसूस करना चाहिए । तो श्रावक को अधिक उपदेश करते कि उद्दिष्ट दोष न आ सके । मुनि को तो नवकोटिविशुद्ध आहार करने से दोष नहीं रहता ।
(374) प्रारंभिक सात उत्पादन दोष―अब 16 दोष हैं उत्पादन दोष । ये दोष मुनि के आश्रित हैं, मुनि करता है इन दोषों को । सो उस आहार को मुनि नहीं लेता । (1) पहला दोष है धात्रीवृत्ति । गृहस्थ को बच्चों के पालन की कला का उपदेश देकर, बताकर प्रयोग कराकर गृहस्थ को प्रभावित करना, फिर प्रभावित कर जो आहार लिया जाये वह धात्री दोष है । ऐसी एक कल्पना करो कि बहुत गरीब जनता है तो मुश्किल पड़ता है खुद का भी जीवन निर्वाह करना, तब ही लाजवश देना ही पड़ता ऐसा आहार । किसी क्षेत्र में आहार मिलने की संभावना नहीं है तो आहार मिले इसके लिए मुनिजन कोई अपनी चतुराई बनायें तो वह दोषी माना गया है, उसी में यह एक धात्री दोष है । बच्चों को ऐसा पाले, ऐसा खिलावे ऐसी बात कहकर एक गृहस्थ का अनुराग बने ताकि वह आहार प्रक्रिया बनाये यह धात्रीदोष है । (2) दूसरा दोष है दूतत्व, दूतपना । मुनि आहार को जा रहे हैं तो यहाँ के किसी आदमी का संदेश लाना और वहाँ सुनाना, वह तुम्हारा अमुक संबंधी है, उसने तुम को यों कहा है, ऐसा कुछ व्यवहार बनाकर अनुराग बढ़ाना गृहस्थ का यह दुतदोष कहलाता हे । (3) तीसरा दोष है भिषग्वृति दोष, वैद्यपने की वृत्ति । लोगो को अनेक प्रकार की दवाइयां बताकर आहार ग्रहण करना यह भिषग्वृत्ति दोष है । आशय की बातें हैं, यह बात कभी किसी को बता भी दे पर आशय में उसके एवज में अपने आहार का जोग जुड़ाना, यह न हो तो यह बात नहीं आती अगर इसमें अपने आहार का जोग जुड़ाना, यह आशय बनता है तो यह सब दोष कहलाता है । (4) चौथा है निमित्त नाम का दोष । निमित्त की बातें दिखाकर श्रावकों को अपनी ओर आकर्षित कर आहार लेना । जैसे ग्रह, तिल, मस्सा, हस्तरेखा आदिक, स्वप्न के फल वगैरह बताकर आहार ग्रहण करना, यह निमित्त दोष है । (5) पांचवां है इच्छाविभाषण दोष । कोई श्रावक पूछता है―क्या कुत्तों को रोटी खिलाने से पुण्य है? पुण्य हो या पाप हो, यह बात अलग है, मगर यह मुनि उस आश्रय से उसकी इच्छा के अनुसार बोलते हैं―हां पुण्य है, ठीक है, मायने किसी प्रकार श्रावक आकर्षित हो, राज़ी हो और फिर वहाँ आहार लेना, यह इच्छाविभाषण दोष है । (6) छठा दोष है पूर्व स्तुति दोष । श्रावक की कुछ प्रशंसा कर देना, अहो सेठ तुम जगत में प्रसिद्ध दातार हो....यों कुछ भी वचन बोलकर उसे हर्ष उत्पन्न कराना और वहाँ आहार लेना यह पूर्वस्तुति दोष है । यह दोष इस ध्यान से जल्दी समझ में आयेगा कि मानो कहीं आहार की व्यवस्था नहीं बनती है, कम बनती है तो वहाँ ऐसा जोग जुड़ने की यदि मुनि चेष्टा करता है तो यह सब दोष है । (7) सातवां है पश्चातस्तु᳭ति दोष । आहार करने बाद उस गृहस्थ की प्रशंसा करना―तुम बहुत धर्मात्मा हो, बहुत दानी हो, मुनियों के प्रति तुम्हारा बड़ा ख्याल है, यों किसी प्रकार स्तवन करे, मानों ऐसा तैयार कर देना कि हम अभी कई दिन आगे पड़े हैं, सो व्यवस्था बनती रहेगी, यह पश्चात᳭स्तुति दोष है ।
(375) अंतिम नौ उत्पादन दोष―(8) आठवां है क्रोध दोष―क्रोध दिखाकर आहार करना क्रोध दोष है । आहार की ठीक-ठीक व्यवस्था नहीं बनती सो खूब डांटना फटकारना इस तरह से आहार विधि कराना क्रोध दोष है । (9) नवां है मान दोष―मानघमंड दिखाकर आहार करना यह सब क्या चतुराई है? वह दोष में है । (10) मायादोष―माया दिखाकर कुछ कपट वृत्ति कर किसी प्रकार आहार प्राप्त करना मायादोष है । (11) लोभदोष―लोभ दिखाकर आहार प्राप्त करना लोभ दोष है । आहारदान करने से अमृत मिलेगा, भोगभूमि के जीव बनोगे कुछ बात कहकर उसका जोग जुड़ाना यह लोभदोष है । (12) वश्यकर्मदोष वशीकरण का, मंत्र-तंत्र का उपदेश देकर आहार प्राप्त करना वश्यकर्म दोष है । गृहस्थी में झगड़े तो चलते हैं । कोई स्त्री चाहती है कि पति वश में नहीं है, उल्टा चलता है, यह मेरे वश में हो जाये, तो वह स्त्री उस मुनि से कहे और वह उसे उसका उपाय बताये―ऐसा जाप जपो, अमुक तंत्र करो और फिर आहार ले, ये सब दोष हैं । प्रथम तो कहना ही न चाहिए और फिर आशय बनाया आहार का तो यह दोष है । (13) तेरहवां दोष है स्वगुणस्तवन । अपने ज्ञान, तप, जातिकुल का वर्णन करके अपनी एक प्रशंसा द्वारा लोगों के दिल में यह बात बैठाना कि यह बहुत ऊंचे साधु हैं, फिर आहार प्राप्त करे तो यह स्वगुणस्तवन दोष है । (14) चौदहवां दोष है विद्योपजीवन दोष । सिद्ध की हुई विद्या को दिखाकर आकर्षण कर आहारग्रहण करना यह विद्योपजीवन दोष है । (15) पंद्रहवां दोष है मंत्रोपजीवन दोष―मंत्रों का उपदेश देना, कोई लोग आकर पूछे कि मेरी बड़ी गरीबी की स्थिति है अब मेरा कोई कामकाज नहीं चल रहा, मेरे पास कैसे धन हो जाये? तो वह उसे तंत्र मंत्र बताये और फिर उनके यहाँ आहार ग्रहण करे तो यह मंत्रोपजीवन दोष है । (16) सोलहवां दोष है―चूर्णोपजीवन दोष जैसे मंत्रादिक बताकर आहार लिया, ऐसे ही अनेक प्रकार के चूर्ण आदिक का उपदेश देकर या अन्य कोई आजीविका की वस्तु के बताने का उपदेश देकर फिर आहार ग्रहण करे तो यह चूर्णोपजीवन दोष है । तो सोलह दोष तो गृहस्थों के आश्रित थे, ये 16 दोष पात्र के आश्रित हैं । इन्हें कोई मुनि करता है । यहाँ तक 32 दोष बताये गए ।
(376) अशन संबंधी दस दोष―अब 10 दोष देखिये आहारसंबंधी । 1―शंकित दोष―जिस भोजन के बारे में शंका हो जाये कि यह शुद्ध है या अशुद्ध है, फिर उस भोजन को न लेना चाहिए । (2) भ्रक्षित दोष―चिकने हाथ से या चिकने बर्तन से जो आहार दिया जाये उसमें भ्रक्षित दोष लगता है, क्योंकि चिकने का प्रयोग करने से कोई मक्खी, मच्छर वगैरह उड़ता हुआ चिपक जाये तो उसमें हिंसा का संदेह है । (3) तीसरा है निक्षिप्त दोष―निक्षिप्त वस्तु पर भोजन रखा हो तो वह निक्षिप्त दोष है । वह आहार नहीं लिया जा सकता । (4) चौथा दोष है पिहित दोष । सचित्त पत्ते आदिक से ढका हुआ जो भोजन है उसमें पिहित दोष है । वह भोजन भी नहीं लिया जा सकता । (5) पांचवां है उज्झित दोष याने ज्यादह गुरु पदार्थ हो या जिसमें से थोड़ा ही खाने योग्य पदार्थ हो, बाकी सब फेंकना पड़ता है, ऐसा आहार मुनि नहीं लेते । ऐसे आहार में उज्झित दोष होता है । (6) छठा है व्यवहारदोष―जल्दी-जल्दी में जैसे मुनि आ रहे हैं तो केवल हड़बड़ाहट होती है या आदर अधिक करने का भाव होता हो उस समय झट-झट काम करे बर्तन घसीटने, वस्त्र घसीटने आदि के तो यह व्यवहार दोष कहलाता है । (7) सातवां है दातृ दोष―याने कैसा व्यक्ति आहार देने वाला होना चाहिए, उसके विरुद्ध हो तो वह दार्तृ दोष है । जैसे कोई शराबी हो व शराब पी लेने से बेहोश हो गया हो या अंधा हो या मृतक श्मशान में गया हो, तीव्र रोगी हो, जिसके शरीर में फोड़ा फुंसी के बड़े-बड़े घाव हों, जिसने मिथ्यादृष्टि का भेष रखा हो....ये सब अयोग्य दाता है अथवा 5 मास से अधिक जिस स्त्री के गर्भ हो, वेश्या हो, दासी हो, पर्दे के भीतर छिपकर खड़ी हो आदिक अनेक अयोग्य दातार हैं । अयोग्य दातार से आहारग्रहण करना दातृ दोष कहलाता है । 8वां अशन दोष है मिश्र―जिस आहार में छहकाय के जीव मिल गये हों वह मिश्रदोष दूषित अशन है । 9वां अशनदोष है अपक्व―अग्नि आदि से जो पक न पाया हो, कच्चा हो, जिसके वर्ण गंध रसादि परिवर्तित न हुए हों वह अपक्व दोषदूषित अशन है । 10वां अशनदोष है लिप्त―घी आदि से लिप्त चम्मच आदि से जो आहार दिया जाये अथवा अप्रासुक जल मिट्टी आदि से लिप्त बर्तनों से आहार दिया जाये तो वह लिप्तदोष दूषित अशन दोष है ।
(377) मुनि को आहारप्रक्रिया में टालने योग्य चार अन्य दोष―साधु जनों को 46 दोष टालकर आहार करना चाहिए, यह प्रकरण चल रहा है जिसमें 42 दोषों का वर्णन हो चुका । 16 उद्गम दोष और 12 उत्पादन दोष और 10 एषणा दोष । अब शेष के चार दोषों का वर्णन करते हैं । ये चार दोष महादोष हैं । सबसे अधिक महान दोष तो अध:कर्म है । वह तो इतना बड़ा दोष है कि उसे दोष में नहीं कहा, किंतु वह तो अंग में आता है । इन चार दोषों में प्रथम दोष का नाम है संयोजन । स्वाद के लिए भोजन को एक में दूसरा मिला देना वह संयोजन दोष है । जैसी ठंडी वस्तु में गर्म मिलाना, गर्म में ठंडा मिलाना, यह संयोजन दोष अनेक रोगों का कारण है और इसमें असंयम होता है । दूसरा दोष है अप्रमाण दोष । विधि यह है कि आहार आधा करना चाहिये । इसे कहते हैं आधा पेट आहार करें, चौथाई पेट पानी से भरें और चौथाई पेट खाली रखे, जिसमें वायु का संचार होता रहे । इसके विरुद्ध अगर अधिक आहार करे तो वह अप्रमाण दोष है । इस अप्रमाण दोष से क्या नुक्सान है? ध्यान में भंग रहेगा, अधिक खाने से आलस्य आयेगा, पड़े रहेंगे, अध्ययन न कर सकेंगे । शरीर में पीड़ा होगी, निद्रा अधिक आयगी, आलस्य विशेष होगा तब मोक्षमार्ग में प्रकट बाधा है, इस कारण आहार करना इस ढंग से बताया गया है । आधा पेट भोजन, चौथाई पेट पानी और चौथाई खाली । तीसरा दोष है अंगार दोष । जैसे भोजन रुचिकर हो ऐसा भोजन मिले तो रागभाव से उसे खाना, रुचि से प्रेम से मौज मान करके खाना यह अंगार दोष है, क्योंकि साधुवों को इष्ट और अनिष्ट विषयों में रागद्वेष न करना चाहिए । एक क्षुधानिवृत्ति के लिए आहार है, इसी कारण इसका नाम गर्तपूरण वृत्ति है । जैसे कि कोई गड्ढे को भरना, है तो उसमें ईंट डालो तो, मिट्टी डालो तो, इसमें कोई यह ख्याल नहीं करता कि अरे इसमें कूड़ा क्यों डालते? चाहे टूटी ईंट डाले, चाहे कुछ डाले, कुछ भी पड़े वह गडढा भरना चाहिये, तो ऐसे ही साधु जन अपनी इस क्षुधानिवृत्ति के लिए गड्ढा जैसा भरते चाहे नीरस मिले, चाहे सरस मिले । हां इतना यहाँ विवेक रहता कि अशुद्ध ग्रहण न करेगा, उसमें इष्टअनिष्ट का भाव न रखेगा । अगर रागभाव से सेवन करे तो अंगार दोष है । चौथा दोष है धूमदोष । कुछ अच्छा न मिले, नीरस मिले, अनिष्ट मिले तो द्वेषपूर्वक उस आहार को करे, मन में बुरा लगता, बराबर क्रोध भी आता जा रहा और कर रहे हैं तो यह धूमदोष है । ये चार दोष भी साधुजन बचाते हैं ।
(378) आहार लेने के मुनि के प्रयोजन का दिग्दर्शन―आहार लेने का प्रयोजन है । क्षुधा की शांति । खूब रसवान भोजन करने पर जो रसीले भोजन करते हैं वे ही बतायें कि उनको लाभ क्या मिलता है बाद में, केवल एक रागवश करते हैं और लाभ की तो बात छोड़ो, नुक्सान ही पाते हैं । तो आहार करने का प्रयोजन है क्षुधा की शांति । यह साधुवों की चर्चा चल रही कि जिनको आत्मा के ध्यान की धुन लगी है, इस ज्ञानप्रकाश में ही रहने का जिनको प्रयोजन रहा करता है उनको कहा ऐसी फुरसत कि आहार करने में मौज माने, राग करें? हां क्षुधा एक ऐसी वेदना है कि आहार बिना जीवन नहीं चलता । तो क्षुधा की शांति के लिए आहार करना साधुवों का होता है । आहार का प्रयोजन है की थोड़ा बल रहेगा तो आवश्यक कार्य अच्छी तरह से किए जा सकते हैं । वंदना; स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित, स्वाध्याय, ध्यान आदि ये भले प्रकार होते रहें, इसके लिए आहार ग्रहण करते हैं, क्योंकि यह मानवजीवन ऐसा है कि जिसमें संयम सधता है, ज्ञान की विशेष जागृति होती है । तो प्राणों की रक्षा रहे तो संयम में प्रवृत्ति चलती रहेगी । असमय में मरण का फल अच्छा नहीं होता यहाँ से मरकर न जाने किस गांव में गए, संयम नहीं बने । इसलिए प्राणरक्षा के अर्थ आहार करते हैं, और मेरा धर्मपालन हो, चारित्र का पालन हो, अन्य मुनिजन की सेवा करते रहें, इसके लिए मुनि जन आहार करते हैं । आहार प्रयोजन विषय नहीं है, किंतु संयम, सेवा, ध्यान, ये सधते रहें, इसलिए आहार ग्रहण करते हैं मुनिजन कब-कब आहार छोड़ देते हैं? ऐसी कौनसी स्थितियां है कि जब वे आहार ग्रहण नहीं करते? उन पर कोई बड़ा उपसर्ग आ रहा हों, कोई बड़े भय की घटना चल रही हो अथवा सन्यास मरण ले लिया हो या अनशन, उपवास, तपश्चरण धारण कर लिया हो अथवा ब्रह्मचर्य में कुछ दोष लगने जैसा वातावरण बनता हो तो वे आहार का परित्याग कर देते हैं । तो मुनिजन इन 46 दोषों को टालकर आहार करते हैं । सो कुंदकुंदाचार्य यहाँ उपदेश कर रहे हैं कि टाले बिना अशुद्ध भाव से जैसा चाहे खाकर विषयों में मौज मानकर खोटी योनियों को प्राप्त होता है यह जीव, इस कारण भावशुद्धि पर ध्यान देना चाहिए ।
(379) मांसादिवीक्षण, काकाद्यमेध्यपात, वमन व स्वनिरोधन नाम के अंतराय―अब निरखिये कि आहार करते समय या पहले ऐसी कौन सी घटनायें होती हैं जहाँ अंतराय कर देना पड़ता है? उनका भी परिचय करें । ऐसे अंतराय 32 हैं उनमें पहला अंतराय है कि कोई पीप, हड्डी, मांस, रक्त चमड़ी, आदिक दिख जायें तो वहाँ अंतराय है । उनके शरीर पर कोई पक्षी बीट कर दे, चर्या को जा रहे हैं, कोई उड़ता हुआ पक्षी बीट कर दे या घर में आहार होते समय कोई मलोत्सर्ग कर दे तो अंतराय हो जाता है । थोड़ा ही आहार कर पाया, स्वयं मुनि को वमन हो जाये तो वहाँ अंतराय हो जाता है । कोई पुरुष उन्हें आहार करने से रोक दे, कुछ कह दे कि आप मत आहार करें, किसी ढंग से रोके तो अंतराय है, फिर वे आहार नहीं करते ।
(380) अश्रुपात, पिंडपात, काकादिपिंडहरण व त्यक्तसेवन नाम के अंतराय―कोई ऐसा दुःख माने कि आंसू आ जायें या किसी को ऐसा दुःखी ले कि जो आंसू धारकर रो रहा हो तो ऐसी स्थिति में उनके भोजन करने का भाव नहीं होता । ये तो अंतराय बतलाये जा रहे हैं, सो इनमें कुछ तो हैं अशुद्धता के कारण और कुछ हैं व्यथा के कारण । या कायरता न जगे इस कारण अंतराय किए जाते हैं । मुनिजन आहार कर रहे हैं और हाथ का ग्रास गिर जाये तो उन्हें अंतराय हो जाता है । इस अंतराय में कई बातें ऐसी मिलेगी कि अगर अंतराय न करें तो यों जंचेगा कि इसको खाने में बड़ी आसक्ति है । जैसे कौर गिर गया और फिर भी लेते जा रहे हैं तो साधुजनों के लिए यह आसक्ति जैसा सूचक बन जाता है । कौवा आदि कोई पक्षी उनके हाथ में ग्रास उठाकर भाग जाये क्योंकि खुले मैदान में भी उनका आहार होता, हाथ पर रोटी रखी गई और कोई पक्षी उड़ करके कौर को ले जाये तो उन्हें अंतराय हो जाता । यहाँ यह बात परखते जाइये कि साधु कितना मनस्वी पुरुष है कि उसके खाने के विषय की लालसा नहीं है, तब ही ऐसी घटनाओं से वह अंतराय कर दिया करता है । कोई वस्तु छोड़ी हुई हो और वह खाने में आ जाये तो वहाँ अंतराय हो जाता है । जैसे मान लो मीठा छोड़ रखा हो और दूध में मीठा पड़ा हो और भोजन में आ जाये, क्योंकि दूध में मीठा दिखता तो नहीं है । जिस दिन आ गया तो वे अंतराय कर देंगे ।
(381) पादांतरालपंचेंद्रियगमन, स्वोदरकृम्यादिनिर्गम व निष्ठीवन नाम के अंतराय-―मुनिजन खड़े होकर आहार लेते हैं । इसके दो कारण हैं―एक तो यह कि वे यह परीक्षा करते हैं कि मेरे पैरों में जब तक खड़े होने की शक्ति है तब तक इस शरीर नौकर की सेवा की जायेगी । जब खड़े होगे की शक्ति न रही तो इस शरीर की सेवा से क्या लाभ? फिर तो वे समाधिमरण कर लेते हैं । एक तो यह कारण है । दूसरा कारण है यह जो हमको अपने ख्याल से लग रहा है कि उन साधुवों को इतनी फुरसत नहीं है कि वे ऐसा आराम से खूब बैठकर मौज मानकर खायें । जैसे खेलने वाले बच्चे को आराम से बैठकर खाने की फुरसत नहीं, उसकी मां जबरदस्ती पकड़कर बैठा लेती और खाना खिला देती, बड़ी जल्दी से वह थोड़ासा खाना खाता और खेलने निकल जाता ठीक इसी प्रकार मुनिजन जो कि अपने आत्मा में रमण करते हैं, अपने आत्मवैभव से खेलते हैं उनको इतनी फुरसत नहीं कि वे आराम से बैठकर खायें । पैरों के बीच से कोई पशु या पक्षी निकल जाये तो उनको अंतराय हो जाया करता है ꠰ कभी किसी रोगवश उनके पेट से कीड़ा मल मूत्र रक्त पीप आदिक कुछ भी निकल जाये तो उनको अंतराय हो जाता है । वे थूक दें तो अंतराय है । तब ही चर्या के समय भोज्य के समय उन्हें कभी थूकते न देखेंगे । एक बात और जानना कि अधिक थूकने की आदत बहुत गंदी है । थूक जब तक मुख के अंदर है तब तक खराब चीज नहीं है, बल्कि थूक तो एक निरोगता को उत्पन्न करता है, जठाराग्नि बढ़ती है, थूक कोई ऐसी अशुद्ध वस्तु नहीं है जब तक मुख के अंदर है । कभी कोई खांसी हो, कोई बात हो तो थूक दे सो तो ठीक है, पर जरा जरासी बात में थूकने की आदत भली नहीं होती । तो खास करके आहार के समय अगर थूक दे तो वह अंतराय हो जाता है ।
(382) सदंष्ट्रांगिदर्शन, उपवेशन, पाणिवक्त्ररोमादिदर्शन प्रहर व ग्रामदाह नाम के अंतराय―किसी हिंसक जानवर को या किसी भी विशिष्ट घटना को देख लिया तो अंतराय है । खड़े हैं मुनिराज आहार के लिए, न खड़े रह सकें, बैठना पड़ जाये तो फिर अंतराय हो जाता है । उनके हाथ में या मुख में कोई बाल आदिक दिख जाये तो अंतराय है । कोई उन पर प्रहार करे तो अंतराय है । कहीं गांव जलता हुआ दिख जाये तो अंतराय है । देखिये यहाँ रसोईघर में आग दिखी उसका अंतराय नहीं आया । खूब ग्रंथों में देख लो कोई बात बहुत बढ़ा चढ़ाकर की जाती है तो वह मार्ग को सुगम नहीं बनाती । रोटियां कहीं आकाश से नहीं उतरती । हां कोई लकड़ी की आग ऐसी जले कि जिसमें यह संदेह रहे कि किसी की साड़ी कपड़ा या कोई शरीर का अंग न जल जाये, कोई प्रकार का अनर्थ न हो जाये, उसकी तो टाल होती है, मगर यहाँ बतला रहे हैं ग्रामदाह । ऐसी तेज आग दिख जाये कि जिससे गांव जला जा रहा हो तो वह अंतराय है ।
(383) अशुभोग्रवीभत्सवाक᳭श्रवण, उपसर्ग, पात्रपतन, अयोग्यगृहवेशन च जान्वध: स्पर्श नाम के अंतराय―कोई खोटी वाणी बोल जाये या कोई निर्दयता के भयानक शब्द सुनने में आ जायें तो वह अंतराय है । कोई उपसर्ग आ जाये तो अंतराय है । दातार के हाथ से गिरता हुआ कोई बर्तन दिख जाये तो वह अंतराय है किसी अयोग्य घर में प्रवेश हो जाये, किसी हिंसक के घर में, क्योंकि उनकी तो चर्या है । मुनि घर में वहाँ तक जा सकता है जहाँ तक आग न हो । जहाँ प्राय: अनेक लोग जाते रहते हैं । वहाँ तो द्वार पर ही कोई पड़गाहन करता है तब भीतर जाते हैं । न भी कोई द्वार पर मिले तो भी घरके भीतर वहाँ तक जा सकता है जहाँ तक प्राय: और लोग भी जाया करते हैं । वैसे भी पड़गाहा हो तो चले जायेंगे चौके में, नहीं तो लौट आयेंगे । तो ऐसे अगर किसी अयोग्य घर में प्रवेश हो गया तो वह अंतराय है । कभी घुटने के आस-पास या घुटने के नीचे कोई मान लो मच्छर ने काट लिया हो, किसी भी कारण से मुनि का हाथ यदि घुटने या घुटने के नीचे तक चला जाये तो वह अंतराय है । अब देखना कि कितना वह गंभीर महापुरुष है । शंका कर सकते कि इसमें क्या अंतराय हो गया कि अगर घुटने सुजा लिये? तो देखो―वहां यह बात तो जाहिर होती है कि शरीर में इसके बहुत तीव्र राग है । चर्या में जा रहा है सिंहवृत्ति से और न सहा गया थोड़ासा भी काटना तो वह बीच में अपने पैर खुजा रहा है । तो यह स्थिति साधु के लिए शोभायुक्त नहीं है । वह अंतराय है । ऐसी कुछ घटनायें घटी कि दिल खुद स्वीकार कर लेता है, मनुष्य में कमी आयी या जीवदया में कमी आयी, ऐसी घटनाओं को देखकर उनके अंतराय हो जाता है । इस कारण साधुजनों को उपदेश है कि वे योग्य द्रव्य, क्षेत्र काल भाव जानकर उस प्रकार से चेष्टा करें तो ऐसी शुद्ध निर्दोष चर्या से तो आत्मध्यान के लिए उमंग रहती है और जो इस चर्या में चल रहे याने उन दोषों को छुपाकर आहार लें तो उसका भाव अशुद्ध हैं और ऐसे अशुद्ध भाव से रहने पर वह स्फूर्ति नहीं आती है कि जिससे आत्मध्यान के लिए उमंग बढ़े । अत: इन दोषों को टाल कर चर्या करके जीवन यापन करें और आत्मध्यान में बढ़े ।