वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 100
From जैनकोष
सच्चित्तंभत्तपाणं गिद्धीं दप्पेणऽधी पभुत्तूण ।
पत्तोसिं तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चित्त ।।100।।
(384) गृद्धि व दर्प से सचित्तभक्तपान का फल तीव्रदुःखसहन―हे आत्मन् ! तूने बुद्धि बुद्धीहीन होकर याने विवेक छोड़कर आहार की तीव्र इच्छा की । ऐसा गर्व हुआ, अहंकार हुआ या लोभ आया कि सचित वस्तुओं को भी ग्रहण किया, तो मुनिव्रत धारण करके भी निर्दोष वृत्ति न रहने से अनादिकाल से दुःख ही पाता रहा, अशुद्धता से दुःख ही पा रहा था, और कभी मुनिभेष भी धारण किया और गृद्धता न छोड़ी तो वह अपना जन्ममरण नहीं मेट सकता । भोजन की लंपटता अज्ञानदशा में होती है । लोक में कहावत है कि घाटी नीचे माटी, इस गले से जहाँ ग्रास नीचे उतरा कि वह माटी हो गया, लेकिन मोह ऐसा होता कि खाते समय स्वाद लेते वह तो लेते ही हैं, मगर खा चुकने के बाद भी घंटों या अनेक दिन अपने स्वाद लेने का अहंकार बताते हैं कि मैंने ऐसा-ऐसा बढ़िया खाया । अरे जो खाया सो तो मिट्टी हो गया, पर अब वह लगाव रख रहा है । तो अज्ञानदशा में भोजन की लंपटता की, बल पाया या कोई चमत्कार पाया तो गर्व से यथा तथा भोजन किया, बारबार उपभोग कर अनादिकाल से नरकादिक गतियों के तीव्र दुःख पाये । यहाँ तो खूब खाने पीने का मौज है और मरकर नरक गये तो क्या हाल होगा? बताया है ना कि “तीन लोक का नाज जु खाय । मिटे न भूख, कणा न लहाय ।” सारा अन्न खा ले नारकी जीव फिर भी भूख नहीं मिटती । मगर वहाँ खाने को एक दाना नहीं मिलता ।
(385) ज्ञानानुभूति के प्रकरणों से ही सुयोग्य सुविधा पाने की सफलता―जरा अपने आपके बारे में तो चिंतन करें । आपके इस भिन्ड नगर में देखने में आता कि सभी गलियों में सैकड़ों सुवर फिरा करते हैं । उनका सारा शरीर मल से लिपटा रहता है । उनका मुख हमेशा गंदी चीज से भिड़ा रहता है, वे कितनी अशुद्ध दशा में हैं । बताओ हम आपकी भी क्या ऐसी स्थिति न हो सकती थी? आज हम आप कितना पवित्र स्थिति में हैं । इन घोड़ा खच्चर गधा, झोंटा, भेड़, बकरी आदि पशुओं की दशायें देखो, उनकी अपेक्षा हम आपकी कितनी अच्छी स्थिति है । आपके इस नगर में तो ऊंट भी बहुत दिखते, जिनके नाक में नकेल लगी है, जिन्हें लोग डंडों से मारते, वे चिल्ला-चिल्लाकर इधर-उधर भागते फिरते । उनकी अपेक्षा तो हम आप बहुत कुछ ठीक स्थिति में हैं, सब प्रकार के आराम के साधन मिले हैं फिर भी संतोष नहीं है । तृष्णा बनी हुई है । धन वैभव के संचय का बड़ा ख्याल रखते हैं । यदि अपने आत्मा के अनुभव की तृष्णा बन जाये तब तो कल्याण हो जाये, पर यह क्यों नहीं बनती? मैं अपने को ज्ञानस्वरूप ही निरखा करूं ऐसा ध्यान मेरे निरंतर रहे, यह बात धुन में आनी चाहिए । तब तो मनुष्य जीवन पाना सफल हैं, और यदि एक विषयों की ठाठ बाट में ही अपना समय गमाया तो उससे अपनी बरबादी ही है । आज तो मन करता कि अच्छे महल चाहिए, सोफा सेट चाहिए, बड़े ठाठ बाट के साधन चाहिए, पर क्या लाभ मिलेगा उनसे । क्या पहले कभी ये सब साधन नहीं पाये? अरे कितने ही बार पाये और छोड़े फिर भी आज कुछ पास नहीं हैं । ज्यों के त्यों हैं । आज भी बहुत कुछ संग्रह करके धर जायें मगर मरने के बाद क्या है मेरा ? मरे और सब गया । तो बाहरी बातों में तृष्णा का होना इस जीव पर बड़ी विपत्ति है । अब आप समझलो, चैन नहीं पड़ती । तो जो हो सो हो, जो होगा सो भाग्य के अनुकूल अल्प प्रयास से ही हो जायेगा । उसके लिए अधिक क्या सोचना? सोचिये तो अपने आत्मस्वरूप को कि जिसके जाने बिना अनंत काल भ्रमण किया । तो इस जीव ने आत्मज्ञान बिना विषय साधनों में रह रहकर नरकादिक गतियों में उत्पन्न हो, होकर अनेक कष्ट पाये । अब हे मुनि तुमने मुनि अवस्था प्राप्त की तो कुछ विवेक जगाओ । अगर विवेक न जगा और दोष होते ही रहे तो उसी प्रकार दुःख उठाना पड़ेगा जैसे कि भोगते आये इस कारण अपनी चर्या में दोष मत लगे, ऐसा आचार्य कुंदकुंद देव इस अष्टपाहुड़ ग्रंथ में मुनिश्रेष्ठ को समझा रहे हैं ।