वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 18
From जैनकोष
दुट्ठट्ठकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गह णिच्चं ।
सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाण हवदि सद्दव्वं ।।18।।
शुद्ध आत्मतत्त्व की दुष्टाष्टकर्मरहितता―ऊपर की गाथा में बताया कि सर्वज्ञदेव ने यह कहा है कि आत्मस्वभाव के अतिरिक्त अन्य जो भी पदार्थ है वे सब परद्रव्य हैं । तो स्वद्रव्य क्या है, इसका वर्णन इस गाथा में है । जो दुष्ट अष्ट कर्मों से रहित है, उपमा रहित है, ज्ञान ही जिसका शरीर है, नित्य है, शुद्ध है ऐसे आत्मा को स्वद्रव्य कहते हैं । जो भी पदार्थ है वह अपना सत्त्व लिए हुए है, उसमें कोई भी दूसरा पदार्थ नहीं रहता । मैं भी कुछ पदार्थ हूँ, अगर नहीं हूँ कुछ तब तो बहुत ही भला है, फिर दु:ख ही किसमें हो ? तो मैं हूँ और जब मैं हूँ तो अपने ही सत्त्व से हूँ, अपना ही स्वरूप मुझमें है, मुझमें अन्य का स्वरूप नहीं है, तो मुझमें देह भी नहीं है, कर्म भी नहीं है, पर हमारी गल्ती से कर्म और देह का जोग जुड़ रहा है, स्वरूप में तो नहीं है । वस्तु वह कहता है कि मुझमें अन्य कुछ चीज नहीं । पर में विकार करके, मोह करके अन्य चीजों के साथ जुड़ता हू̐ और बंधन में पड़ता हूँ । यह गल्ती पुद्गल नहीं कर पाता क्योंकि पुद᳭गल पुद्गल है । जानता नहीं वह, तो इसमें स्वत: ही स्निग्ध-रुक्ष गुण के कारण बंध होता है, पर आत्मा चूंकि जानकार है तो जब यह बिगड़ा जाननहार है तो इसकी ये सारी सृष्टियां चलती रहती हैं । तो मैं आत्मा अष्टकर्मों से रहित हूँ क्योंकि मैं स्वत:सिद्ध हूँ, और जो हूँ सो ही हूँ । एक सत्त्व का दूसरे सत्त्व से भिड़ना नहीं होता है ।
शुद्ध आत्मतत्त्व की अनुपमता―मैं आत्मपदार्थ उपमारहित हूँ । इस आत्मद्रव्य को समझाने के लिए किसकी उपमा दी जाये ? कोई दूसरा ऐसा पदार्थ ही नहीं कि जिसका कुछ दृष्टांत दिया जाये । दिखने में जो भी आते हैं ये सब जड़ पुद्गल हैं, उनकी उपमा दी नहीं जा सकती, और जो कुछ ये मनुष्य पशु आदिक समझ में आते हैं ये भी शुद्ध आत्मद्रव्य नहीं, ये विकार परिणमन हैं, इनकी भी उपमा इस आत्मद्रव्य से नहीं लग सकती । तो यह आत्मद्रव्य अनुपम है, उपमारहित है । अगर उपमा कोई दे तो यह कहेंगे कि यह आत्मा आत्मा की तरह है, यह आत्मा परमात्मा की तरह है, पर अन्य द्रव्य में उपमा नहीं चल सकती । जैसे कवि लोग मानो जब श्री रामचंद्रजी की उपमा देना है तो किससे उपमा दी जाये । तो वहाँ लिखते हैं कि राम राम की तरह है । राम रावण का युद्ध हुआ था तो उसकी उपमा किससे दें ? तो कहा कि राम रावण का युद्ध उनके ही युद्ध की तरह है । जिसकी उपमा न दी जा सके ऐसा जंचे तो उसकी उससे ही उपमा दी जाती है । तो यह आत्मा अनुपम है, उसकी उपमा के लायक यहाँ कोई पदार्थ नहीं । यदि अपने आपके अंदर झुककर निरखें तो ज्ञात होगा कि मैं आत्मा तो कृतार्थ हूँ । मेरे को दुनिया में कोई करने का काम भी नहीं और इस मुझमें कोई उपद्रव भी नहीं । मैं सत् हूँ और परिणमता रहता हूँ, इतना ही सबमें काम है, पुद्गल, धर्म, अधर्म आदिक जितने भी पदार्थ हैं सबका एक ही व्रत है । वह है और परिणमता रहता है, मैं हूँ और परिणमता रहता हूँ । मेरा विनाश नहीं हो सकता कभी, मेरे में कुछ अधूरापन नहीं हो सकता कभी । मैं हर समय पूरा हूँ और अपने स्वभाव के निरखें तो वहाँ कोई भार नहीं है, वहाँ कोई कष्ट नहीं है । पर कैसा मोह का फंदा है कि यह अपने स्वरूप पर तो टिकता नहीं और बाह्य पदार्थों पर दृष्टि डालता है जो कि बिल्कुल व्यर्थ है । बाह्य पदार्थों का लगाव बनाने में इस जीव को क्या लाभ मिलता है ? लाभ तो जाने दो, उल्टा कष्ट ही कष्ट पाता रहता है । तो व्यर्थ का कष्ट उठाने का परिश्रम क्यों करते ? बाह्य पदार्थों में लगाव रखने से मन, वचन, काय का परिश्रम करना पड़ता है । तो जो जैसा है वैसा जान लीजिए, तो वह मैं निज क्या हूँ, स्वद्रव्य क्या हूँ, उसकी पद्धति में कह रहे हैं कि यह मैं आत्मद्रव्य उपमा रहित हूँ ।
ज्ञानविग्रह शुद्ध आत्मा का दिग्दर्शन―हमें किस ढंग से आत्मा का ध्यान करना चाहिए ? बस ज्ञानरूप । इसका ज्ञान, इसकी बाडी (शरीर) ज्ञान ही है, ज्ञान सिवाय इस आत्मा में कुछ नहीं है । अपने आपको ज्ञानमात्र तको, मैं ज्ञान-ही-ज्ञान हूँ । ज्ञानमात्र एक जानन, कैसा विचित्र पदार्थ है इसीलिए बताया है कि आत्मा सब पदार्थ में सारभूत है । अन्य द्रव्य सब अचेतन हैं, पड़े हैं, पर आत्मद्रव्य अन्य द्रव्यों की भांति परिणमता भी है और अपनी भांति जानता भी है । समयसार में दो शब्द हैं, समय और सार । तो समय का अर्थ बताया है कि जो दोनों एक साथ काम करें । अन्य द्रव्यों की भांति परिणमें, यह सामान्यतया दिखता है और जाने भी । अन्य द्रव्य सिर्फ परिणमते हैं, पर जानते नहीं हैं और आत्मा परिणमन भी करता है और जानता भी है । तो जो परिणमन करे सो द्रव्य हुआ और जो जाने सो आत्मा हुआ । द्रव्य तो है ही, पर जाननहार होने से यह आत्मा कहलाता है । तो इसका ज्ञान ही शरीर है, ज्ञान ही मुद्रा है, ज्ञान सिवाय अन्य कुछ इसकी मुद्रा नहीं है । ज्ञानविग्रह: आत्मा ।
शुद्ध आत्मतत्त्व की नित्यता―यह आत्मा नित्य है, सदा रहता है, पदार्थ तो सभी ही सदा रहते हैं । किसी पदार्थ का विनाश नहीं होता । यह जीव अपने नाश को सुनकर कांप जाता है―मेरा मरण हो जायेगा, मेरा नाश हो जायेगा । यदि यह आत्मा अपने आपके स्वरूपमात्र ही दूसरे को माने तो इसको मरण का डर हो ही नहीं सकता । जो यह अज्ञानी देह से लगाव रखे हैं, वैभव से लगाव रखे हैं तो उसको मरण का भय लगा है । बहुतसा धन कमाया इस जिंदगी में तो उसको मरणसमय कष्ट क्यों होता कि बड़े परिश्रम से कमाया हुआ धन आज हम से छूटा जा रहा है, इस बात का ख्याल करके वह बड़ा कष्ट मानता है । तो मरणसमय में जितना भी कष्ट है वह सब परिग्रह की ममता का कष्ट है । यदि परिग्रह का ममत्व नहीं है और अपने स्वरूप पर ही दृष्टि है तो वह जान रहा है कि लो मैं इतना हूँ और पूरा-का-पूरा यहाँ से अब जा रहा हूँ । जैसे कोई पुराना घर छोड़कर नये मकान में उमंग से जाता है, उद्घाटन कराता है, बाजे बजवाता है, समारोह करता है, आज नये घर में प्रवेश हो रहा है तो वह दुःख नहीं मानता कि हाय ! मैं इस पुराने घर को छोड़कर जा रहा हूँ । तो यही हाल इस जीव का है, जिसका शरीर अत्यंत वृद्ध हो गया, शरीर का सारा बल भी खतम हो गया, बड़ी तकलीफ भोग रहा फिर भी वह मरण से डर रहा है । अरे ! पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर में पहुंचने से क्या डर, पर कैसा मोह का उदय है कि इस जीव को कुछ चेत नहीं है, विवेक नहीं है । यही बात जवानों में भी देखिये―ये जीव न जाने कितने-कितने प्रकार के विकल्प करते हैं, यह कार्य अभी नहीं हुआ, यों-यों न हुआ,यह कार्य अधूरा ही रह गया, अभी मुझे इतना और करना है । यों विकल्प-विकल्प में चल रहा है, और यदि यह सोचे कि मैं तो ज्ञानस्वरूप हूँ, बस जानते रहना जानने के लिए, इतना ही मेरा काम है, इसके आगे कुछ काम नहीं । बाह्य पदार्थों में मैं कुछ कर सकता नहीं । मैं हूँ और जानता चला जा रहा हूँ, सो जानते चले जानने से कभी टोटा नहीं पड़ता । यह तो स्वरूप है, जानता ही रहेगा, फिर कौनसी हानि इस जीव में आयी ? पर यह अपने स्वरूप पर टिकता नहीं है इसलिए दुःखी होता है । इस आत्मा का सर्वस्व ज्ञान है और वह नित्य है, सदा रहने वाला है । इसका कभी विनाश नहीं होता ।
स्वद्रव्यरत निकटभव्य की नि:शंकता―कर्म अधिक से अधिक दु:ख के कारण बनते हैं तो 2 प्रकार के दुःख के कारण बनते हैं (1) निर्धनता और मरण । वैसे तो और भी कष्ट हैं मगर उन सब कष्टों के राजा दो हैं (1) निर्धनता और (2) मरण । सो सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव निर्धनता का बड़ा आदर करते हैं । निर्ग्रंथ दिगंबर होना, इसके मायने क्या है कि सारे धन को त्यागकर वे खुश हो रहे हैं । तो जो निर्धनता में आनंद मानता और मरण को मरण ही नहीं समझता वह तो यह जानता है कि मैं आत्मा तो कभी मरता ही नहीं, सदा रहता हूँ । चलो यहाँ न रहे, कहीं दूसरी जगह चले गए । तो जो मरण को मरण नहीं समझते, निर्धनता का आदर रखते हैं, अब उनको कर्म और क्या सतावेंगे ? कर्म अब मेरा कुछ नहीं कर सकते । जब तक कोई डर रहा है तब ही तक बंदर उसका पीछा कर रहा, जब तक कोई लड़का गाली दे रहा है तब तक ही वह बड़े लड़के से पिट रहा है । गाली देना बंद कर वे तो उसका पिटना बंद हो जायेगा । जब तक यह जीव परद्रव्यों में राग कर रहा है तब तक यह कर्म से पिट रहा है । यदि परद्रव्य का राग ही न रहे तो कर्म फिर उसका क्या कर लेंगे ? वहाँ फिर कर्म का कुछ प्रभाव नहीं रहता । तो यह आत्मा नित्य है, मरणरहित है, ऐसा जिनको विदित है उनको किसी प्रकार की शंका नहीं रहती । स्वद्रव्य क्या है, वह बात इस गाथा में बतायी जा रही है । यह आत्मा शुद्ध है, कर्ममल कलंक से रहित है । केवल स्वरूप को देखो चैतन्यमात्र, ज्ञानमात्र । उस ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व में किसी प्रकार का कलंक नहीं है, पर जब अपने स्वरूप से च्युत हुए कि कलंक-ही-कलंक आ जाते । ज्ञानी जीव निशंक और निर्भय होता है, क्योंकि उसके सदैव यह ही प्रतीति रहती है कि सर्व परद्रव्यों से निराला, अनंत ज्ञानानंद की शक्ति से भरपूर यह मैं आत्मतत्त्व हूँ । परपदार्थों में अपनी पहुंच न बनाये तो उसके लिए वह कुछ परिचय नहीं है । आत्मपरिचय है तो उसके सब कुछ है । तो जिसने अपने आत्मतत्त्व का अनुभव किया, परिचय किया उसे कर्ममलकलंक कहां सता सकते ? कहते हैं कि नारकी जीव जो सम्यग्दृष्टि हो, वह नरक में मर-पिट करके भी भीतर में व्याकुल नहीं होता, उसका कारण क्या है कि उसको अपने आपकी प्रतीति है कि यह मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ तो यह तो सदा काल रहने वाला हूँ और ये तो कर्म के खेल हैं । स्वर्गों के जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टि देव हैं वे हजारों देवियों के बीच रहकर भी उनमें लिप्त नहीं होते, क्योंकि ज्ञानी जानता है कि ये सब परद्रव्य हैं, बाह्य पदार्थ हैं, इनसे मेरा क्या संबंध है ? इनको पाकर क्या लीन होना है ? तो जिन्होंने इस शुद्ध अंतस्तत्व को जाना है, जो कि कर्मकलंक से रहित है, उन्होंने अपने आत्मा को (स्वद्रव्य को) प्राप्त किया । जो स्वद्रव्य में रत है, लीन है वह सम्यग्दृष्टि है और वह निर्वाण को प्राप्त होता है ।