वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 33
From जैनकोष
पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तोसु गुत्तीसु ।
रयणत्तयूसजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह ꠰꠰33।।
पंच महाव्रतों से मुक्त योगी को ध्यानाध्ययन का उपदेश―कुंदकुंदाचार्य मुनियों को उपदेश कर रहे हैं कि 5 महाव्रतों से युक्त होकर 5 समिति 3 गुप्तियों में संयुक्त होकर रत्नत्रय की मूर्ति बनकर ध्यान और अध्ययन सदा करें । लक्ष्य एक ही है कि अविकार सहज ज्ञानस्वभाव में अपना अनुभव करना कि यह हूँ मैं । इसके लिए ही सर्वप्रकार के व्यवहारधर्म बताये गए हैं, तो जो कर्तव्य व्यवहार में बताये गए उनके खिलाफ यदि क्रिया करे तो उसमें आलस्य और विकल्प रहते हैं जिससे आत्मध्यान नहीं बनता, जैसे अहिंसा महाव्रत । यदि इसके विरुद्ध हिंसा का परिणाम रखे तो उसका परजीवों की ओर चित्त चला गया और किसी पर के बारे में विकल्प बना रहा उसे आत्मध्यान क्या बनेगा ? सत्यमहाव्रत इसके खिलाफ यदि चले, झूठ बोले, झूठ बोलने की आदत रखे, झूठ से स्नेह रखे तो उसका उपयोग ही बदल गया, किसी परतत्त्व की ओर उसको शल्य हुई है । तो ऐसा पुरुष आत्मध्यान कैसे करेगा ? इससे वह सत्यमहाव्रत का पालनहार है, अहिंसाव्रत का पालनहार है । अचौर्य व्रत के खिलाफ चोरी का विकल्प बने, चाहे वह छोटा हो, बड़ा हो, किसी भी परवस्तु के बारे में चित्त डिगाना या हटाना, घुमाना ये सब विकल्प हैं चोरी के, ऐसा खोटा विकल्प रखते हुए कोई आत्मध्यान में कैसे बढ़ेगा ? ब्रह्मचर्य महाव्रत के विरुद्ध कुशील पाप, किसी भी परस्त्री विषयक या अन्य किसी प्रकार कामवासनायें बनाना ऐसा जहाँ अशुभोपयोग चल रहा हो वहाँ आत्मध्यान नहीं होता । अत: इस पाप का त्याग करना, ब्रह्मचर्य महाव्रत की साधना में रहने वाले भव्य जीव अपने आत्मध्यान के लक्ष्य में रहते हैं । परिग्रहत्याग महाव्रत के खिलाफ क्या करेगा ? परिग्रहसंचय, तो उस तृष्णा में रहने वाले प्राणी कैसे आत्मध्यान की दृढ़ता कर सकेंगे ? तो पंच महाव्रत से संयुक्त होना मुनियों का कर्तव्य है ।
पंच समितियों से युक्त योगी को सदा ध्यानाध्यन करने का उपदेश―5 समिति ꠰ ईर्यासमिति में मुनि महाराज चार हाथ आगे जमीन देखकर चलते हैं, दिन में चलते हैं, अच्छे काम के लिए चलते हैं, अच्छे भाव रखकर चलते हैं, ईर्यासमिति में चार बातें होती हैं । केवल इसका ही नाम ईर्यासमिति नहीं है कि आगे जमीन देखकर चलना और हिंसा टालना वह भी एक अंग है, मगर चार बातें साथ हों तो उसका नाम ईर्यासमिति है । मान लो रात को गमन करते हैं, तेज उजाला रखकर विहार करते हैं तो देखकर तो चल रहे मगर वह ईर्यासमिति नहीं है । दिन में ही विहार हो, कोई दिन में ही विहार कर रहा और जमीन देखकर चल रहा, पर जा रहा है किसी खोटे कार्य के लिए तो उसकी वह ईर्यासमिति नहीं है । मानो वह अच्छे कार्य के लिए जा रहा है तीर्थयात्रा के लिए जा रहा, दिन में जा रहा, चार हाथ आगे जमीन निरखकर जा रहा, मगर क्रोधपूर्वक जा रहा, रोषसहित जा रहा तो वह ईर्यासमिति नहीं है । समिति का प्रयोजन है आत्मा को ऐसा संयत रखना कि वह शुद्ध तत्त्व के ध्यान का पात्र रहे । दूसरी भाषासामिति―हित-मित-प्रिय वचन बोलना । कोई हितकारी भी वचन बोले मगर अपरिमित और अप्रियता के ढंग से बोले तो वह भाषासमिति नहीं है । कोई परिमित बोल रहा, प्रिय बोल रहा, पर हितकारी नहीं है, किसी विषय की ओर लगाने वाला वचन है वह भाषासमिति नहीं है । कोई हित और मित दोनों बोल रहा मगर अप्रिय शब्दों से बोल रहा तो वह भाषासमिति नहीं है । इसमें भी तीनों ही बातें होनी चाहिए । तो ऐसी समिति से युक्त मुनि अपने आपको ऐसा साफ निःशल्य रखता है कि जब चाहे उसे आत्मध्यान का अवसर मिलता है । एषणासमिति―शुद्ध निर्दोष आहार लेना यह एषणासमिति है । एषणा शब्द का अर्थ है खोज । भिक्षावृत्तिपूर्वक शुद्ध निर्दोष आहार लिया तो परिणाम एक सावधान रखा गया वहाँं, जिससे कि यदवा तदवा प्रवृत्ति नहीं होती है । तो ऐसे सावधान हृदय में आत्मध्यान होने की योग्यता रहती है । आदाननिक्षेपणसमिति―मुनि महाराज किसी चीज को उठायें, पिछी से साफ करें और उस वस्तु को नीचे से भी साफ कर उठायेंगे, रखेंगे तो इस प्रकार शुद्ध करके रखेंगे, यह सब आदाननिक्षेपण समिति है । प्रतिष्ठापना समिति―मलमूत्र, खकार, थूक आदिक को ऐसी जगह क्षेपेंगे जहाँ जंतु न हों, जंतुरहित जमीन पर मल मूत्रादिक क्षेपण करें । समितियों में रह रहे मुनिजन रत्नत्रय से संयुक्त होते हुए ध्यान और अध्ययन को करें, ऐसा आचार्यदेव का उपदेश है ।
तीन गुप्तियों से सहित व रत्नत्रय से मुक्त होकर सदा ध्यानअध्ययन करने का योगियों को उपदेश―तीन गुप्तियां मुनि महाराज साधते हैं । मन को वश करना, वचन को वश करना और काय को वश करना । जब सहज अंतस्तत्व का परिचय नहीं है और सहजतत्त्व परमात्मतत्त्व की अनुभूति से जगने वाले सहज आनंद का अनुभव नहीं है तो ऐसे पुरुषों को मन वश करने की बात में संदेह होता है कि ऐसा कैसे हो सकता ? किंतु जिसकी दृष्टि सहज ज्ञानानंद के अनुभव के कारण आत्मस्वरूप पर ही टिकी हुई है ऐसा ही अपने को अनुभवना, यही कल्याण का मार्ग है । तो जिनको सहज अंतस्तत्त्व की धुन लगी है उनको मन, वचन, काय वश करना सुगम हो जाता है । तो इन तीन गुप्तियों में रहकर योगीजन ध्यान और अध्ययन को सदा करें । आत्मा के स्वरूप का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है―मैं यह हूँ, श्रद्धान के साथ यह बात लगी हुई है कि उस तत्त्व के बारे में ऐसा निर्णय है कि यही हितरूप है । और फिर जैसा श्रद्धान में आया उस तत्त्व का ज्ञान बनाये रहना, उसी का ही उपयोग रखना ज्ञान है । और ऐसा ही यह उपयोग जब स्थिर रह जाये तो उसी को ही कहते हैं चारित्र । तो यों रत्नत्रय से संयुक्त होते हुए योगीजन सदा ध्यान और अध्ययन को करें ।