वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 44
From जैनकोष
तिहि तिण्णि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परियरिओ ।
दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई ।।44।।
परमात्मतत्त्व के ध्यान के अर्थ मन-वचन-काय से वर्षा शीत ग्रैष्म योगों का धारण―तीन के द्वारा तीन को धारणकर तीन से रहित, तीन से सहित दोषों से पृथक् योगी परमात्मा का ध्यान करता है । इस गाथा में यह बताया है कि कैसा योगी परमात्मा का ध्यान कर पाता है । परमात्मा शब्द से दो धामों का बोध होता है―एक तो रागद्वेषरहित, कर्म से रहित सर्वज्ञ वीतराग अरहंत सिद्ध परमात्मा का बोध होता है यह कहलाता है पर्यायशुद्ध परमात्मा और परमात्मा शब्द से बोध होता है अपने आपके आत्मा का अपने ही सत्त्व के कारण जो सहज स्वरूप है, जो कि अन्य पदार्थों से जुदा है और अपने आपके सहज स्वभाव में तन्मय है उसे भी परमात्मा कहते हैं । यह कहलाता है कारण-परमात्मा । तो योगीजन कार्य-परमात्मा का ध्यान करते हैं सो तो ठीक है, पर इससे भी ऊ̐चा ध्यान होता है इस कारण-परमात्मा का ध्यान, शुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान, सो ऐसे परमात्मा का ध्यान कौन सा योगी करता है यह बात बतला रहे हैं । जिसने तीन के द्वारा तीन को धारण किया, मन, वचन, काय के द्वारा वर्षाकाल, शीतकाल और ग्रीष्मकाल के योग को धारण किया है । जो योगी इतना निस्पृह होता है कि वर्षा, शीत, गर्मी के दिनों में कुछ भी बचाव का भाव न रखता, शरीर को ऐसा पृथक् समझता है कि इससे उपेक्षा है वह योगी विशेषतया तीन योगों को धारण करता है ।
वर्षायोग का दिग्दर्शन―वर्षायोग का धारण कैसे ? वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे खड़े हुए ध्यान करना, पानी बरस रहा है और पेड़ पर, पत्तों पर गिर-गिरकर मोटी बूंद बनकर उसके शरीर में पड़ते रहते हैं और अपने ध्यान में वह रत रहता है । ऐसा वर्षायोग करने का कारण एक तो उत्तर गुण है, तपश्चरण है, दूसरी बात वृक्ष पर पानी पड़कर जो नीचे बूंद आती हैं वे प्रासुक बूंद हैं । तीसरी बात―मैदान में खड़े हुए वर्षा को सह लेना आसान है, पर वृक्ष के नीचे खड़े होकर मोटी बूंदों को सह लेना आसान नहीं । हां यदि थोड़ी वर्षा होती हो तब तो पेड़ के नीचे लोग बैठ जाते हैं कि वर्षा से बच जायेंगे, किंतु जब तेज वर्षा चल रही हो तो मैदान में उतना कष्ट नहीं होता जितना कि वृक्ष के नीचे मोटी बूंदों के पड़ने से होता है, वह भी एक तपश्चरण है । ऐसे वर्षायोग को मन से उत्साहित होकर, वचन से अनुमोदना कर करके, शरीर चेष्टा तो वहाँ है ही, इन तीन योगों से वर्षायोग को धारण करने वाले साधु इतने दृढ़ ज्ञानी, दृढ़ चित्त, धीर होते हैं कि वे शुद्ध आत्मा का ध्यान करने में सफल होते हैं ।
शीतयोग का दिग्दर्शन―योग शीतकाल का लीजिए । ठंड के दिनों में ठंड का बचाव करने के लिए किसी घर में बैठे, गुफा में बैठे, कहीं एक आवरण में बैठे तो ऐसा बैठना मूलगुण में दोष नहीं लाता फिर भी थोड़ा तो कुछ ख्याल आया । शरीर का संकट न सह सके, परीषहजय न कर सके, तो जो मुनि ऐसे उत्तर गुणों को धारण करता है, कि शरीर की उपेक्षा है, सहज जहाँ बैठे वहाँ ही ध्यान कर रहे हैं, नदी के किनारे बैठे हैं, मैदान में बैठे हैं, बड़ी ओस चल रही है, ठंडी हवा चल रही हे तिस पर भी उपयोग चूंकि आत्मस्वरूप में है इस कारण उन्हें कोई बाधा नहीं मालूम होती । एक बात तो हम आप भी अनुभव कर सकते हैं कि किसी बीमारी में, किसी परिस्थिति में यदि अपने उपयोग को शुद्ध बना रखा और आत्मा के सहज स्वरूप में लगाया तो उसके प्रसाद से संकट भी कम होता और रोग भी दूर होने लगता है, यह एक परम औषधि है व्याधि के विनाश की । करते नहीं बनता इसलिए उसका कुछ भी ध्यान नहीं है और बाहरी उपचार आत्मा में विश्वास है, पर इसी की दृढ़ भावना हो और एक अपने आपके स्वरूपनिर्णय में ही उतरा हो और अपना उपयोग सहज आत्मस्वरूप की ओर करे तो उसकी व्याधि भी शांत हो लेगी, रोग भी दूर होने लगता है । भला जिस आत्मध्यान के प्रताप से केवलज्ञान होने से पहले शरीर निगोदरहित हो जाता है और पश्चात् स्फटिक के समान शुद्ध हो जाता है, तो भाव शुद्ध यदि यहाँ भी बने किसी से तो ये व्याधियां शांत हो जायें तो इसमें क्या आश्चर्य ? ठंड के परीषह, ठंड की बाधा न रहे और भीतर ध्यान-अग्नि से एक तपन चल रहा है तो ऐसी स्थिति होती है योगी पुरुषों की । तो वह योगी मन से, वचन से, काय से इस शीतकाल के योग को धारण करता है ।
ग्रैष्मयोग का दिग्दर्शन―आतापनयोग―गर्मी के दिनों में शरीर के बचाव का कुछ भी चित्त में ध्यान न जाये, पर्वत पर हैं, जहाँ हैं, मैदान में खड़े ध्यान कर रहे, जब यह उपयोग आत्मस्वरूप में लगता है वहाँ कर्मों का कुछ ध्यान नहीं रहता और शरीर पर भी कोई बाधायें नहीं आती, तपश्चरण का ऐसा प्रताप है ꠰ चार्वाक लोग बताया करते हैं जीव को कि यह चार भूतों से उत्पन्न होता, मगर आयुर्वेद शास्त्र बताता है शरीर को कि इस शरीर में चार भूत जैसे तत्त्व पाये जाते हैं । इस सारे शरीर को लोग माटी कहते हैं, बोलते ना यह मिट्टी का पुतला एक दिन माटी में मिल जायेगा । यद्यपि सिद्धांतशास्त्रों के अनुसार मिट्टी पृथ्वीकाय है, और यहाँ हम आप त्रस काय हैं, लेकिन साहष्य तो चलता ही है । तब ही देखिये प्राकृत चिकित्सा में अनेक रोग मिट्टी के द्वारा शमन कर दिए जाते हैं, पेट पर मिट्टी रखकर या मस्तक में मिट्टी का लेप करके, सारे शरीर में मिट्टी का लेप करके अनेकों प्रकार के रोग दूर कर लिए जाते हैं । शरीर में जलतत्त्व का साहष्य है, देह में जल तत्त्व पाया जाता है । और कितने ही देह के इलाज जल से किए जाते हैं, टब में नहाना या भाप देना या पानी के छींटे देना आदिक इन प्रक्रियावों से भी अनेक रोग दूर किए जाते हैं । अग्नि तत्त्व―देह में अग्नि हैं, भाप से, धूप से या अग्नि के ताप से कितनी ही व्याधियां शांत हो जाती हैं । और वायुतत्त्व―शरीर में हवा का शुद्ध वातावरण चाहिये । यदि हवा न मिले तो ये पेड़ पौधे तक भी जिंदा नहीं रह सकते, हम आप लोगों की तो बात ही क्या ? तो यह शरीर इसीलिए भौतिक कहा जाता है, इसका जो लोग अधिक ध्यान रखते वही जिंदा रह सकते ऐसी बात नहीं है । जो लोग इस शरीर की उपेक्षा करते हैं, ख्याल भी नहीं करते उनका शरीर तो उनसे भी अधिक ठीक रहता है । केवलज्ञान होने पर भगवान का शरीर करोड़ों वर्षों तक बिना आहार पानी के अनंत वीर्य से संपन्न रहा करता है । आतापनयोग―जिनके आत्मज्ञान जगा, ज्ञानबल प्रकट हुआ उनके लिए ये सब योग आसान है । कैसे योगी शुद्धआत्मा का ध्यान करते हैं उसको बताते कि वे योगी जो तीन के द्वारा, मन, वचन, काय के द्वारा तीन को धारण करते, वर्षा, शीत और ग्रीष्म संबंधी योग को धारण करते वे परमात्मा का ध्यान करते हैं ।
परमात्मतत्त्व के ध्यान के पौरुषी महापुरुषों की निःशल्यता के प्रसंग में मायाशल्य का दिग्दर्शन―कैसे साधु शुद्ध आत्मा का ध्यान करते? जो तीन से रहित हैं―(1) माया, (2) मिथ्या और (3) निदान, इन तीन दोषों से रहित हैं । जिनके ये तीन शल्य पाये जाते उनके तो सम्यक्त्व भी नहीं है । माया मायने छल, कपट ꠰ जिनको देह में आत्मा की मान्यता है, जो इस लौकिक वैभव से अपने को महान समझते उनके माया शल्य बनी रहती है । परिग्रह का परिमाण है नहीं तो तृष्णा का भी परिमाण नहीं है, और वैभवों को संचित करने के लिए चित्त में अनेक मायाजाल, छल, कपट होते हैं । तो जिनके परिग्रह का परिमाण नहीं होता उनके तो कोई सीमा ही नहीं है । तृष्णा है उसके कारण माया के व्यवहार होते हैं । जिनके छल, कपट है वे योगी शुद्ध आत्मा का ध्यान नहीं कर सकते । अपने में सरलता होनी चाहिए । किसके लिए छल, कपट करना ? ‘‘मन में हो सो वचन उचरिये । वचन होय सो मन से करिये ।’’ तो जो माया से, कपट से रहित हैं वे योगी शुद्धआत्मा का ध्यान करते हैं । अब देखिये कि यदि छल, कपट आया तो समझिये वहाँ सम्यक्त्व नहीं है । किसी गृहस्थ में किसी समय यदि कोई माया की बात आये तो कह सकते हैं कि परिस्थितियों ने उसे बाध्य किया है । यद्यपि वहाँ भी ऐसा न होना चाहिए मगर माया के रूप तो अनेक होते हैं―सूक्ष्म अंश की माया, मध्यम अंश की माया और बड़े अंश की माया । पर दिगंबर वेश धरकर कोई छल, कपट करते हैं तो यह बहाना न चलेगा कि क्या करें, परिस्थितिवश मैंने माया किया, योगी की क्या है, वह तो अकेले आत्मतत्त्व के ध्यान के लिए दीक्षित हुआ है ।
समता से भ्रष्ट साधु की असाधुता―जैसा ही बाहर में होता रहे, ‘‘अरि-मित्र महल-श्मशान कंचन-कांच निंदन-थ्युतिकरण, अर्घावतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन ।’’ ऐसी स्थिति है मुनि की । मुनि का कैसा उदार मन है कि उसके लिए शत्रु मित्र बराबर हैं, और जिसके चित्त में माया बसी हो कि वह अच्छा, वह बुरा, वह अपने निर्ग्रंथपद को कलंकित कर लेता है ꠰ महल और श्मशान जिनके लिए एक समान हैं पर जिनकी रुचि ऐसी बनी है कि हमें फर्स्टक्लास कोठी रहने के लिए चाहिए, हमको बहुत बड़ी सफाई चाहिये । हमारी घड़ी, पेन, चश्मा आदि बहुत अच्छी क्वालिटी के चाहिए । भला बतलाओ कि ऐसी आकांक्षा जिनके बसी है वे शुद्ध आत्मा का ध्यान कैसे कर सकते हैं ? उनके लिए महल श्मशान एक समान हैं । कहीं कूड़ा-करकट भी पड़ा हो, जहाँ से गुजरकर जा रहे या जहाँ कहीं बस रहे वहाँ बड़ी गंदगी हो फिर भी उनकी भौंह नहीं सिकुड़ सकती, उनको ग्लानि नहीं आ सकती । वे सर्व तत्त्वों के मात्र जाननहार हैं । कितनी ऊ̐ची उदारता है मुनिराज में कि कंचन कांच जिनके लिए बराबर हैं, मगर जहाँ रईसों जैसा खर्च अपने साथ लगा रखा हो । मानो किसी रईस का 5 हजार रुपये मासिक का खर्च है तो वह सोचता कि हमारा स्टैंडर्ड इससे नीचे नहीं गिरना चाहिए बल्कि इससे भी बढ़ा हुआ होना चाहिए, पहरेदार चाहिए, सब प्रकार के सेवक चाहिए, एक राजसी जैसा रूपक बनाया तो भले ही आज का यह मूढ़ जगत् उनको आदर्श रूप में देखे मगर जैन-सिद्धांत तो यह कहता है कि जहाँ इतना लगाव-लपेट है, भीतर में इतनी बात बसी है, उन्हीं को ही द्रव्यलिंगी कहा करते हैं, शुद्धआत्मा का ध्यान वे कहां कर पायेंगे ? जिनको अपने शरीर की भी सुध नहीं रहती है, उपेक्षा रहती है, फिर उनको बाहरी बातों की क्या सुध रहेगी ? मेरे साथ ऐसे लोग रहें, ऐसे सेवक रहें, ऐसे सिपाही रहे, इस प्रकार से भोग-विषय के साधनों में खर्च कराना एक मामूली-सा खेल बना हुआ है तो ऐसे लोगों का दिल इतना गिरा हुआ है, यहाँ वहाँ डोलने वाला है कि वे अपने अंत: बसे हुए सहज शुद्ध परमात्मा का ध्यान नहीं कर सकते । थुतिकरन, अर्घावतारन में याने चाहे कोई स्तुति करे चाहे निंदा करे तो भी वह ज्ञानी योगी विरक्त महापुरुष विरक्त होता ही है, क्योंकि उसकी धुन सहज चैतन्यस्वरूप परमात्मतत्त्व में लगी है । उसके लिए निंदा और स्तुति दोनों समान हैं । वह न तो स्तुति करने वाले पर प्रसन्न होता है, यह मेरा बड़ा अच्छा है सेवक, और न निंदा करने वाले पर क्रोध करता है कि यह नालायक है । सर्व में समानभाव होता है । वह अपने को अब मनुष्य नहीं समझता, मनुष्य जानता ही नहीं है योगी अपने को किंतु चैतन्यस्वरूप सहज परमात्मपदार्थ जानता है । मनुष्य तो देह के साथ है, पर उसका उपयोग देह में नहीं है, ऐसा एक उत्कृष्ट पद है, और तब ही पंच परमेष्ठियों में उनका नाम है, लेकिन जो समता के विरुद्ध चलते हैं, याने स्वच्छंद चलते हैं उनकी दुर्गति तो है ही, पर उनके सेवकों की भी दुर्गति जैन-सिद्धांत में बतायी है । जहाँ अर्घ उतारना और शस्त्र का प्रहार होना दोनों एक समान जंच रहे हों ऐसे योगी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं । हां तो जो परिग्रह से रहित है, आत्मस्वभाव की धुन में रहता है वह मायाशल्य से दूर रहता है ।
मिथ्या व निदान शल्य का दिग्दर्शन―दूसरा शल्य है मिथ्यात्व, मिथ्याभाव । देह को आपा मानना, प्रशंसा पूजा से अपने को महान समझना―ये सब मिथ्यात्वभाव हैं ꠰ मिथ्याभाव से युक्त योगी शुद्ध आत्मा का, परमात्मा का ध्यान नहीं कर सकते, किंतु मिथ्या-शल्यरहित योगी परमात्मतत्त्व का ध्यान करते हैं । मिथ्याभाव कहां तक छिपे रहते हैं और इस जीव को हैरान करते हैं कि सर्व कुछ भी त्याग दे, निर्ग्रंथ दिगंबर भी हो जाये पर जब तक यह भाव है अपने बारे में कि मैं मुनि बन गया हूँ, मैं साधु हूँ, मैं श्रावकों से पूज्य हूँ, देह को देखकर ही यदि ये भाव चल रहे हैं मिथ्या अंश उनको हैरान कर रहे । अनुभवना चाहिये था यह कि मैं एक चैतन्यस्वरूप आत्मपदार्थ हूँ, और वह सुध तो भूल जाये, चूंकि मैं मुनि हूँ, मुझको इनसे ऊ̐चा आसन चाहिए । मैं आचार्य हो गया हूँ, मुझे इनसे भी ऊ̐चा चाहिए । अरे ! ऊ̐चा-नीचा क्या ? साधक का तो गुण बताया है भूमि में सोना । तखत तो कदाचित श्रावक लोग अपनी बरजोरी से रख दें वह बात दूसरी है, नहीं तो वह तो तखत भी नहीं चाहता । साधक की ऐसी भावना होती है कि सबके समान बैठकर आत्मा में विश्राम पाऊ̐ । बहुत ऊ̐चे बैठकर मन में विश्राम नहीं मिलता है, क्योंकि मन में व्यायाम चला करता है मान कषाय का । मिथ्याभाव की बात कह रहे हैं । जहाँ देह से अपना लगाव है वहाँ मिथ्याभाव है । जहाँ आत्मस्वरूप में ही आत्मत्व का अनुभव है वहाँ देह की कोई सुध ही नहीं । वर्त रहा, क्या हो रहा कुछ पता ही नहीं, मिथ्याभाव से रहित योगी परमात्मा का ध्यान करते हैं । कोई आकांक्षा जिनको नहीं होती किसी तरह की इच्छा चित में नहीं है उसका नाम है मुनि और मुनि परमात्मस्वरूप का ध्यान कर रहा है । तीसरा शल्य है निदान । मैं मरकर इंद्र बनूं, मैं मरकर ऐसा सेठ बनूं, राजा बनूं या जिस किसी से प्रेम हुआ तो सोचता है कि मैं उसका साथी बनूं आदिक प्रकार के जो निदान हैं वह बड़ी शल्य है और ऐसे निदान शल्य की हालत में योगी परमात्मा का ध्यान कैसे कर सकता है ? तो जो माया, मिथ्या, निदान इन तीन शल्यों से रहित है वह योगी परमात्मा का ध्यान करता है ।
परमात्मतत्त्व के ध्यान के पौरुषी योगी की रत्नत्रययुक्तता―कैसा योगी ध्यान करता है ? जो तीन से सहित है । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से युक्त है । रत्नत्रय के विषय में बहुत कुछ वर्णन हुआ है, फिर भी ऐसा जानें कि “परद्रव्यन ते भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है ।” परद्रव्यों से भिन्न सहज आत्मस्वरूप में रुचि जगे, यही मैं हूँ, यही आदेय है, यही स्वरूप है, यह ही सहज है और चाहिए क्या ? इसी को ही निरखता रहूं, ऐसा ही अनुभवता रहूं ऐसी आत्मस्वरूप में रुचि होना सम्यग्दर्शन है, यथार्थस्वरूप वस्तु का परिचय होना सम्यग्ज्ञान है और पुण्यभाव का परिहार होना और शुद्धचेतना-वृत्ति चलना, बस ज्ञातादृष्टा रहना, यह है सम्यक्चारित्र । यों रत्नत्रय से युक्त योगी परमात्मा का ध्यान करता है ।
परमात्मतत्त्व के ध्यान के अर्थ योगी की रागद्वेषविमुक्तता―एक अंतिम विशेषण है―दो दोषों से रहित योगी परमात्मा का ध्यान करता है । वे दो दोष हैं राग और द्वेष । जहाँ रागद्वेष बस रहे हैं वहाँ अन्य जीवों से और मुनि में क्या अंतर रहा ? एक कथानक प्रसिद्ध है कि कोई मुनि किसी नदी के तट पर एक शिला पर बैठकर ध्यान किया करता था और उसी शिला पर एक धोबी आकर कपड़े भी धोता था । एक दिन की बात है कि आहार करके वह मुनि उसी शिला पर आकर बैठ गए, इतने में ही धोबी कपड़े धोने के लिए आया । धोबी ने कहा―महाराज ! आप इस शिला से उठिये, हम इस पर कपड़े धोयेंगे, तो वह मुनि बोला―ऐसा कैसे हो सकता, हम तो इस पर बैठकर ध्यान करेंगे, तुम और कहीं धोलो । अरे ! और कहां धोलूं, उठो-उठो, यह तो मेरी शिला है । अरे नहीं भाई ऐसा न करो ? क्यों न ऐसा करें, आप जल्दी उठें । हम नहीं उठेंगे । लो, इतने में तेज लड़ाई-सी होने लगी, दोनों खड़े होकर हाथापाई करने लगे । इतने में धोबी का तहमद खुल गया, वह भी मुनि की तरह नग्न हो गया । अब ऐसी स्थिति के बीच वह मुनि घबड़ाया और देवताओं से रक्षा करने के लिए प्रार्थना करने लगा । अरे ! देवताओं क्या तुम्हें कुछ खबर नहीं, मुनि पर उपसर्ग हो रहा है और तुम लोग रक्षा नहीं करते, जल्दी रक्षा करो, रक्षा करो । तो मानो कोई देव बोला―हाँं हम लोग तो रक्षा करने के लिए तैयार खड़े हैं, पर इस समय हम लोग इस भ्रम में पड़े हैं कि आखिर इन दोनों में मुनि कौन है ? तो यहाँ रागद्वेष की बात बता रहे कि जिन योगियों में रागद्वेष बस रहा है वे परमात्मा का ध्यान नहीं कर सकते । पवित्रता परमात्मस्वरूप के ध्यान में है, कर्मों की निर्जरा भी है, इस तरह उस ध्यान के अधिकार की बात वहाँ कह रहे हैं ।