वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 45
From जैनकोष
मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो ।
णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तम सोक्खं ꠰꠰45।।
कष्ट की बनावट―जो जीव मद, माया, क्रोध, लोभ से दूर है वह निर्मल स्वभाव से युक्त होता हुआ उत्तम सुख को प्राप्त होता है । आत्मा का स्वरूप आनंद है, दुःख नहीं है स्वरूप, जो बात अपने आप न हो सके वह स्वरूप नहीं होता । दुःख जीव को अपने आप नहीं हो सकता, कर्म का उदय चाहिए, बाहरी वस्तुओं में दिल लगा होना चाहिए तब क्रोध उपजेगा और आनंद जीव को अपने आप सहज हो जाता है । किसी का ख्याल न करें, अपने आपके ध्यान में रहें, स्वयं आनंद जगेगा । तो क्लेश जो है वह आत्मा का स्वरूप नहीं है, ये जीव अज्ञानवश क्लेश ही क्लेश पा रहे हैं । यदि वस्तु का स्वरूप जान लें कि प्रत्येक वस्तु जुदा-जुदा है, मेरा किसी से संबंध नहीं है, मेरा कोई कर्ता-धर्ता नहीं है, मैं अपने में अपने वस्तुत्व के कारण परिणमता रहता हूँ, प्रत्येकपदार्थ अपने सत्त्व में परिणमता रहता है, ऐसी निगाह अगर बन जाये कि प्रत्येक पदार्थ अपने आपमें स्वयं स्वतंत्र है, कष्ट कैसे होगा ? जब यह है तो नहीं अपना और मानता है अपना तो इस उद्दंडता के कारण स्वयं कष्ट पा रहा । घर, वैभव, मकान, कुटुंब ये क्या किसी के हुए ? स्पष्ट देखते हैं कि मरने पर सब छूट जाते हैं और वस्तुस्वरूप की दृष्टि से देखें तो प्रत्येक पदार्थ का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उस ही में है । उससे बाहर नहीं है, फिर एक का दूसरा कैसे हो सकता है ? पर ऐसा जो नहीं मानता उसको कष्ट भोगना पड़ता है ।
कष्टमुक्त होने के लिये मोह और कषाय के परिहार की अनिवार्यता―कष्ट मिटे और शाश्वत सहज आत्मा का आनंद जगे उसका उपाय क्या है कि पहले तो चार कषायों से दूर होवे । ये चार कषायें जीव को दुःख देने वाली हैं । जब क्रोध उत्पन्न होता है तो यह जीव जिसे कहते हैं आग बबूला मानो आग में तप रहा है ऐसी स्थिति बनाता हुआ दुःख भोगता है । जब मान कषाय आता है तो अपने को यह भूल जाता है और जगत् के जीवों को अपने से छोटा तुच्छ मान लेता है । यह ख्याल नहीं रखता उस समय कि जैसा मेरा जीव है वैसा ही सबका जीव है । जीव के स्वरूप में कोई अंतर नहीं । रह गया बाहरी अंतर, कोई धनिक है कोई गरीब है, कोई बोलने कला है, कोई कम बोलने वाला है, किसी में कला आयी है किसी में नहीं है । तो यह जो अंतर पड़ा है यह तो कर्मकृत अंतर है, जीव के स्वरूप में यह अंतर नहीं बसा है । तो ऐसा देखें कि सब मेरे स्वरूप के समान हैं, भगवान के स्वरूप के समान हैं । रह गया अंतर सो इस अंतर को, इस खोटी दशा को यह जीव नहीं कर रहा है किंतु हो रहा है । जैसे सिनेमाघर में एक सफेद स्वचल पर्दा होता है और पीछे दूसरे कमरे में या उसी हाल में फिल्म लगाने वाला आदमी मशीन से फिल्म चलाता जाता है और पर्दे पर वे रंग बिरंगे फोटो आते रहते हैं, पर यह बतलावो कि उन रंग-बिरंगे चित्रों को करने वाला पर्दा है क्या ? अरे ! पर्दा अपने आप अपने स्वरूप से रंग-बिरंगे चित्रों को नहीं कर रहा यह बात सब लोग जान रहे हैं । यह भी जानते हैं कि यदि फिल्म का अक्स सामने न होता तो उस पर्दे पर वे चित्र न आ सकते थे । तो ऐसे ही उस पर्दे की भांति तो है आत्मा और फिल्म की भांति हैं ये कर्म के चक्कर । जैसे कि फिल्म का चक्कर चलता है और वही लाइट चलती रहती है तो उस पर्दे पर अक्स आता रहता है, ऐसे ही इस आत्मा में ये कर्म के चक्कर चल रहे हैं, विपाक उदय हो रहा है तो उनका अक्स, उनका प्रतिफलन इस आत्मा पर आता रहता है । तो जो अज्ञानी है वह यह जानता है कि जो यहाँ अक्स है, चित्रण है, कषाय है सो यह ही मेरा स्वरूप है, यह ही मैं हूँ । ऐसा मानकर मोही बनकर संसार में जन्ममरण कर कष्ट पाता रहता है । और जो ज्ञानी जीव है वह जानता है कि मेरी उपयोग-भूमि पर ये कषाय उदय के प्रतिफलन हुए हैं पर ये मेरे स्वरूप नहीं हैं । मैं तो अंत: अपने स्वरूप में केवल ज्ञायकभावमात्र हूँ । ऐसा अपने ज्ञानस्वरूप की सुध लेता रहता है यह ज्ञानी, इसलिए कष्ट नहीं पाता ।
कष्ट पाने व कष्ट न पाने का मूलतंत्र―देखो कष्ट पाने का और न पाने का केवल एक यह ही तंत्र है दूसरा कुछ है ही नहीं । जिनको कष्ट न पाने की इच्छा हो उनको खूब सोचना चाहिए । किसी बाहरी पदार्थ से कष्ट नहीं आता, किंतु यहाँ ही कर्म के उदय चलते रहते हैं और उन कर्मों के उदय का प्रतिफलन होता रहता है, एक झांकी-सी होती रहती है और उस कषाय को, उस कर्म विपाक को यह जीव अपना लेता है कि मैं यह हूँ । उसको कष्ट नियम से होगा और जो उस कषाय-प्रतिफलन को नहीं अपनाता और भीतर यह समझे कि मेरे सहज स्वरूप के कारण जो मेरे में प्रकाश है, ज्ञान है, प्रतिभास है इतना ही मात्र मैं हूँ, और यहाँ ही जो ज्ञान की तरंग चलती है उतना ही मेरा काम है, और उस ज्ञान की तरंग चलने से जो मेरे में सहज आनंद जगता रहता है उतना ही मेरा भोग-उपभोग है, इससे बाहर मेरी दुनिया नहीं, ऐसा जो निर्णय करके बैठे उसको कष्ट आ ही नहीं सकता । तो कष्ट यदि नहीं पाना है तो उसका तपश्चरण पौरुष तो यह है कि वह क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों से दूर हो । मायाचारी में, छल-कपट में कहां अपने आत्मस्वरूप की सुध रहती है ? अपने आपमें ही एक की बात दूसरे से भिड़ाया, दूसरे की बात तीसरे से भिड़ाया, अपनी ख्याति करने के लिए बड़ी मायाचारी की गई तो इसके फल में कष्ट कौन पायेगा ? खुद ही पायेगा, दूसरा नहीं । जो करेगा सो भरेगा इस नियम को कोई नहीं टाल सकता । अच्छा करेगा तो अच्छा फल पायेगा, बुरा करेगा तो बुरा फल पायेगा । सबसे अधिक बुरा तो मोह मिथ्यात्व है, अपने आपकी कुछ सुध न रखना, बाहरी पदार्थों को अपनाना, उनमें लगाव रखना, आज प्राय: जितने भी मनुष्य दिखते हैं कुछ को छोड़कर करीब सभी धन, वैभव, कुटुंब में लगाव लगाये हुए हैं, उनको अपनी कुछ सुध नहीं है और इस लगाव में जिंदगीभर दुःख पायेंगे और उससे जो कर्मबंध करेंगे सो भविष्यकाल में भी दुःख पायेंगे । कोई बिरला की ही होनहार ऐसी है कि जो चेतता है, उसे अपने आपके स्वरूप का प्रेम होता है और जगत् के बाह्य पदार्थों की उसे रुचि नहीं होती । कोई बिरले ही ज्ञानीजन ऐसे होते हैं कि जो अपने आत्मस्वरूप के रुचिया बनकर इस संसार से पार हो जाते हैं ।
लोकप्रवृत्ति से अपने कर्तव्य का निर्णयन कर आत्मदृष्टि करने की आवश्यकता―देखिये यहाँ बहुत से लोगों की आदत देखकर, उनकी प्रवृत्ति देखकर यह निर्णय न करें कि सारभूत काम तो यह है । जो काम ये धनिक लोग बड़े लोग कर रहे, धन वैभव बढ़ाना, इज्जतप्रतिष्ठा चाहना आदि, ये काम महत्त्व के हैं, ऐसी बात मन में न आनी चाहिए । अरे ! यह महत्त्व का काम नहीं है, अपने स्वरूप को जानना और अपने स्वरूप में मग्न होना यह ही मात्र महत्त्व का काम है । तो मिथ्यात्व से दूर होना, क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों से दूर होना और निर्मल स्वभाव में अपना ज्ञान जोड़ना, मैं हूँ ज्ञानमात्र, मैं हूँ सबसे निराला, मैं हूँ रागद्वेषादिक विकारों से निराला, तो ऐसा अपने सहज स्वरूप को यदि कोई देखता है तो वही पूज्य है, वही महान पुरुष है, और जो इंद्रिय और मन के विषय में लगता है वह संसार में परिभ्रमण करता है, बाहरी भेष से बाहरी क्रियाओं से मोक्षमार्ग न मिलेगा । मोक्षमार्ग मिलेगा तो निर्मल स्वभाव में युक्त होने से मिलेगा । तो ऐसा जीव जो निर्मल स्वभाव से युक्त है वही अविनाशी मोक्ष के सुख को प्राप्त करता है ।