वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 46
From जैनकोष
विसयकसाएहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमणो ।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दवरम्मुहो जीवो ꠰꠰46꠰।
विषयकषाययुक्त परमात्मभावरहित जिनमुद्रापराङ्मुख जीव की दुर्दशा―जो जीव विषयकषायों से मुक्त है वह रुद्र आशय वाला है । परमात्मा की भावना से रहित है और वास्तविक मुद्रा से पराङ᳭मुख है, ऐसा जीव मोक्षमार्ग और मोक्ष के सुख को नहीं पा सकता । बाह्य में निर्ग्रंथ दिगंबर भेष भी धारण किया हो, पर आत्मा तो अपने भाव भर कर पायेगा । यदि इंद्रिय के विषयों में प्रीति है, मन के विषयों में चाह है―मेरा कोई नाम प्रसिद्ध हो, मेरी बड़ी ख्याति हो, मुझसे बढ़कर दुनियां और किसी को न मान सके, ऐसी ही हठ, ऐसा ही भीतरी विकल्प और ऐसी ही सलाह है । ऐसी प्रवृत्तिया̐ जहाँ चलती रहती हों बताओ वहाँ फल भेष का मिलेगा या आत्मा के भावों का ? सब जगह फल आत्मा के भावों का होता है । श्रावक गृहस्थ भी वे यदि अपने भावों में केवल मान-यश का ही आशय रखते हों और ऊपरी प्रवृत्तियां यदि धर्म की, पूजा पाठ आदिक की चलती है या अन्य प्रकार की भी चलती हैं तो फल किसका पायेगा ? अपने भावों का । और जिसके भाव सही हैं वह यदि पूजा, पाठ, त्याग आदिक करता है तो उसके भावों का तो कहना ही क्या है ? वह तो मोक्षमार्ग में ही चल रहा । एक रुद्र की कथा है कि वह मुनि बन गया था और मुनि बनकर उसने खूब ज्ञान-लाभ भी प्राप्त किया, 11 अंग 9 पूर्व का ज्ञान तक भी प्राप्त किया, किंतु जब उसे विद्या सिद्ध हुई तो उसका मन विचलित हो गया और यहाँ तक विचलित हो गया कि उसको भारी कामवासना भी सताने लगी और आखिर एक पर्वत राजा की पुत्री से उसने विवाह भी कर लिया । अब वह इतना कामासक्त था और शरीर का इतना भयानक था कि वह लड़की भी संकट में आ गई, उसका नाम था पार्वती । तो आखिर इतना तक उपद्रव हुआ कि यह सोचना पड़ा कि कोई ऐसी युक्ति हो कि इस रुद्र को मार डाला जाये तो संकट टलेगा । तो भेद मालूम पड़ा कि जब यह विषय में लवलीन होता है उस समय इसकी विद्या, ज्ञान, ये देवता आदि ये सब भाग जाते हैं, उस समय इसे कोई मार सके तो मरेगा अन्य समय में नहीं । यह उपाय किया गया, आखिर ऐसे ही समय में उसकी हत्या की गई । वह मरकर व्यंतर हुआ । तो अपनी प्रसिद्धि कराने के लिए उसने रोग फैलाया और लोगों को ऐसा स्वप्न भी दिखाया कि यदि कोई लिंग की मूर्ति बनाकर उसको पानी से पूजा करे तो यह रोग दूर होगा नहीं तो न दूर होगा, ऐसा ही किया और आज तक वही प्रसिद्धि चली आ रही है । तो फल मिलता है भावों का । अपने भाव निर्मल रखने चाहिए, दुनिया चाहे कैसी ही चल रही हो वह नहीं सोचना । किसके लिये यहाँ माया करना, किसके लिए मन में और, वचन में और तथा काय में और करना ? जो बात हो सो साफ । इस लोक में सुख से रहना दुःख से रहना आदिक जो कुछ होने का है यह भाग्य के अनुसार होता है, पर अपने मन को कुटिल नहीं बनाना है । अपने का तत्त्वज्ञान का प्रेमी बनाना, भगवान की विशुद्ध भक्ति करना ।
सत्संग, स्वाध्याय व प्रभुभक्ति से भावशुद्धि के अवसर का लाभ―यदि इन तीन बातों में जीवन गुजरे तो उसका कल्याण अवश्य होगा । वे तीन बातें कौन सी ? (1) सत्संग, (2) स्वाध्याय और (3) प्रभुभक्ति । सत्संग के मायने क्या ? ऐसा पुरुष जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त रहता हो, जिसको पंचेंद्रिय के विषयों में प्रीति न जगे, जिसको नामवरी, ख्याति आदिक की चाह न हो, केवल एक मुक्त होने की ही धुन हो उस पुरुष को कहते हैं संत, और उसके संग को कहते हैं सत्संग । ऐसा सत्संग मिलता रहे तो परिणाम सधे रहते हैं और धर्म में परिणाम बढ़ते रहते हैं । तो एक तो चाहिए सत्संग, दूसरा है स्वाध्याय । स्वाध्याय केवल बांचने का ही नाम नहीं है, अध्ययन करके ज्ञान बढ़े, चर्चा-वार्ता करके ज्ञान बढ़े, स्वाध्याय करके ज्ञान बढ़े, जैसे भी हो अपना उपयोग ज्ञान की ओर अधिक रहना चाहिए, तो उसका नाम है स्वाध्याय ।
प्रभुभक्ति में उपलब्धि का दिग्दर्शन―तीसरा तंत्र है प्रभुभक्ति । प्रभु की हमने मूर्ति में स्थापना की है, सो मूर्ति का आकार मुद्रा देखकर और मूर्ति को ही मन में न रखना किंतु भगवान के स्वरूप को मन में रखना, जैसे पिता की फोटो हो तो फोटो देखकर चित्त किसमें जाता है ? फोटो में जाता या पिता के ख्याल में ? पिता के ख्याल में जाता है । किसी ने यदि फोटो को नीचे गिरा दिया तो वह उससे जो लड़ता है सो कागज को गिरा दिया इस ख्याल से लड़ता है या मेरे पिता का इसने अपमान किया इस ख्याल से ? तो वैसे फोटो को देखकर ख्याल आता है उस पिता का जिसका कि फोटो हो, ऐसे ही मूर्ति देखकर यदि भगवान के स्वरूप का ख्याल न आये तो बताओ भगवान के दर्शन हुए क्या ? देखिये, परिपाटी तो है सही बोलने की, जो कोई भी भगवान की मूर्ति के समक्ष खड़े होकर दर्शन करता है, विनती करता है तो वह यही कहता है कि हे महावीर भगवान ! हे पार्श्वजिनेंद्र !! हे केवलज्ञान के धारी अरहंतदेव !!! तुमको मेरा नमस्कार हो । कहीं कोई इस तरह से तो नहीं बोलता कि हे जयपुर के कारीगरों द्वारा, अमुक रंग की धातु द्वारा, अमुक सन् में बनायी गई मूर्ति तुमको मेरा नमस्कार हो, इस तरह से तो कोई नहीं बोलता । अरे ! भगवान के गुण बोलकर ही सभी के मुख से प्रभु का वंदन सुना होगा । परिपाटी तो ठीक है बोलने की मगर अपने दिल से तो पूछो कि उस मूर्ति को देखकर भगवान पर दृष्टि जाती है या नहीं या केवल उस मूर्ति पर ही सब कुछ निरख चलती रहती है । दृष्टि होनी चाहिए भगवान की ओर । मानो महावीर स्वामी का बोल बोल रहे हैं तो उस समय यह बात ध्यान में आनी चाहिए कि वह चतुर्थ काल में उत्पन्न हुए थे, सिद्धार्थ राजा के पुत्र थे, प्रारंभ से ही विरक्त थे और उनको विवाह आदिक की आकांक्षा न थी, अपने स्वरूप की सम्हाल किया, विशिष्ट तपश्चरण किया और सर्वज्ञ हुए, वीतराग हुए, उस घड़ी में धन्य धन्य के शब्द मुख से निकल जाना चाहिए । यह ही है प्रभुभक्ति । दूसरी बात और भी समझें कि जब प्रभु की भक्ति कर रहे हैं और भगवान के स्वरूप का ख्याल कर रहे तो अपना भी कुछ नाता जोड़ते जाना चाहिए । हे प्रभो ! आपका जो द्रव्य है, आपका जो पिंड है, जो स्वरूप है सो मेरा स्वरूप है, प्रभुभक्ति की बात चल रही है कि प्रभु की भक्ति के समय मूर्ति को निरखकर हमें भगवान का ख्याल आना चाहिए । जो भगवान बने हैं, अरहंत हुए हैं, उनका ख्याल आने पर उनके साथ अपना क्या रिश्ता है, हम क्यों भगवान की भक्ति करते हैं, कुछ थोड़ा यहाँ भी ध्यान देना चाहिए । भगवान का जो स्वरूप है जो आत्मद्रव्य है वह जैसा भगवान का आत्मद्रव्य है वैसा ही मेरा भी आत्मद्रव्य है । भगवान के आगे कायर-ही-कायर बना रहे और कायरता की ही बात बोलता रहे तो प्रगति न बनेगी । जैसे, हे भगवान ! आप तीनलोक के स्वामी हो, मैं तो आपका दास हूँ, मैं भव-भव में आपका दास रहूं, तुम ही मेरे सुख-दुःख को देने वाले हो, मैं तो किंकर हूँ, मैं कुछ नहीं । भले ही किसी मूड में भक्तिवश ये भी शब्द कहने में आ जायें, किंतु ऐसी यदि श्रद्धा हो अपनी तब अपना कुछ उत्थान नहीं बन सकता । तब क्या जानना चाहिए कि भगवान का जो आत्मपदार्थ द्रव्य है, स्वभाव है ठीक वही मेरा भी स्वभाव है । अब देखिये―जब स्वभाव की तुलना प्रभु में और अपने में की तो तत्काल ही विषय-कषाय के भाव तो हट ही गए और अपने स्वभाव में अपनी परिणति आयी, अपना उपयोग आया ꠰ दूसरे अपने में उत्साह जगा, दीन-दुःखी संसारी प्राणी बनना मेरा स्वरूप नहीं है । मैं स्वभावत: दीन-दुःखी नहीं हूँ, मैं तो प्रभु के स्वभाववाला पदार्थ हूँ और अपने आपको सम्हालूं तो मैं भी प्रभु की तरह अनंत सुखी हो सकता हूँ । प्रभु के जो गुण हैं ज्ञानदर्शन-शक्ति आदिक वे मेरे में प्रभु के समान हैं, पर अंतर क्या आया प्रभु में और मुझमें कि उनकी पर्याय तो शुद्ध है, वे रागद्वेषरहित हैं और यहाँ हम में रागद्वेष का प्रसार चल रहा है, सो हे प्रभो ! जब मेरा स्वरूप आपके स्वरूप के समान है, मेरी शक्ति आपकी शक्ति के समान है तो रहा आये यह ऊपरी पर्याय का अंतर, यह रागद्वेष विकार का फैलना, इसे तो मैं स्वभावदृष्टि के बल से दूर कर सकता हूँ । यह उमंग और यह शूरता का भाव जगता है प्रभुभक्ति में । तो कल्याण चाहने वाले पुरुषों को तीन तंत्रों में लगे रहना चाहिए सत्संग, स्वाध्याय और प्रभुभक्ति ।
सत्संग से आत्मबली होकर स्वहित में लगने का संदेश―घर में रहने की अपेक्षा, कमायी-धमाई के प्रयासों की अपेक्षा सत्संग का कई गुना अधिक महत्त्व है । गुरुजनों की सेवा का, प्रभुभक्ति का, तत्त्वचिंतन का ही सारा महत्त्व है । इस गृहवास को तो यों समझना चाहिए कि मेरे आत्मा में इतनी ज्ञान की दृढ़ता प्रकट नहीं हुई है कि सर्व कुछ त्याग करके निर्ग्रंथ दिगंबर होकर केवल आत्मा की ही धुन में रहे और शत्रु-मित्र में मेरे समताभाव रहे, निंदा-स्तुति में मेरे साम्यभाव रहे, ऐसी बात जब नहीं बन पाती है तो भेष रखकर खोटे कार्य करना यह तो गृहस्थों से भी बुरा है । तब गृहस्थी में ही रहना और श्रावकों के योग्य व्रतों का पालन करते रहना और प्रभुभक्ति, स्वाध्याय और सत्संग के उपायों से अपने आपके परिणामों को निर्मल बनाना, गृहस्थों के लिए हितरूप बात है । तो इस गाथा में यह कहा है कि जो जीव विषयकषायों में लगे हुए हैं, परमात्मा की भावना से दूर हैं, जिनमुद्रा को धारण करके भी मुनि का भेष धारण करके भी, भीतर में जिनमुद्रा के भाव से, आत्मा के ध्यान से ज्ञान में ज्ञान ही समाया रहे, इस स्थिति से जो दूर हैं वे जीव रुद्र हैं, खोटे भाव वाले हैं और वे मुक्ति के सुख को नहीं प्राप्त कर सकते ।