वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 5
From जैनकोष
अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हुअप्पसंकप्पो ।
कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ।।5꠰꠰
इंद्रियों का बहिरात्मपन―इंद्रियां तो बहिरात्मा हैं, आत्मसंकल्प अंतरात्मा है और कर्मकलंकमुक्त परमात्मा हैं । बहुत संक्षेप में यह लक्षण कहा गया । यहाँ साध्यसाधन, कार्य-कारण इन सब पर दृष्टि देकर समझना है । ये इंद्रियां बहिरात्मा हैं, वैसे तो इंद्रियां अजीव हैं, देह संबंधी हैं, पौद्गलिक हैं, मगर यहाँ भाव यह बसा है कि चूंकि इन इंद्रियों द्वारा यह जीव बाह्य पदार्थों का ग्रहण करता है और बाह्य पदार्थों को ही बहिरात्मा कह दिया गया है । तथा भावेंद्रियां भी बहिरात्मा है आत्मा का सहजस्वरूप नहीं है । यह है बाह्यतत्त्व । यह जीव क्यों बाह्य पदार्थों में लग रहा है ? यह जीव अपनी इंद्रियों की सेवा कर रहा है । जो कुछ है सो शरीर के लिए, ऐसी सेवा कर रहा है । और इस ही के बाद, इस ही के कारण जो कुछ है सो हमारा परिवार है । परिवार के लिए तन, मन, धन, वचन सर्व कुछ अर्पण है । जैसे ज्ञानी पुरुष परमात्मा के चरणों में अपना सब कुछ अर्पण कर देता है ऐसे हो यह मोहीजीव स्त्रीपुत्रादिक के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर देता है । ज्ञानी के भगवान् होते अरहंत सिद्ध और मोही के भगवान् बने हैं ये स्त्रीपुत्रादिक परिजन । इसके आगे उन्हें कुछ नहीं सूझता । इसका कारण है कि इंद्रिय द्वारा ज्ञान होता सो इसको इंद्रियां प्यारी हो गईं ।
मोही को इंद्रियों से प्यार और इसका कारण―इस मोही की दृष्टि में यह नहीं है कि भले ही इस वर्तमान जीवन में इंद्रिय द्वारा ज्ञान हो पा रहा है, लेकिन जाननहार तो यह आत्मा है । जैसे कोई पुरुष किसी दो मंजिले भवन में रहता हुआ चारों तरफ की चीजों को खिड़कियों से झांकता रहता है, और कोई उपाय नहीं है कि वह बाहर की घटनाओं को जान सके । तो खिड़कियों द्वारा यदि बाह्य पदार्थों का कुछ ज्ञान कर रहा है तो वह खिड़कियों को ही अपना सर्वस्व मान लेता, ये खिड़कियां ही मेरा प्राण हैं, यह ही मेरा स्वरूप है ऐसा मान लेता । ऐसा मानकर यदि उनको कोई बड़े प्यार से गले लगा लें तो मालूम है―उसे लोग क्या कहेंगे ? उसे तो पागल ही कहेंगे । लोग तो यही कह बैठेंगे कि इसका चित्त ठिकाने नहीं है, इसी तरह यहाँ जिन इंद्रियों के द्वार से हम जानते हैं, एक इस पौद᳭गलिक देह के बंधन में बंधा हुआ, भीतर बसा हुआ यह आत्मा इंद्रिय के द्वार से जान पा रहा, इस समय छूना जान रहा स्पर्शन इंद्रिय से, रस आदिक का ज्ञान हो रहा रसना से, सुगंध-दुर्गंध का ज्ञान चल रहा घ्राण इंद्रिय से, रूप रंग नीला, पीला आदिक का ज्ञान जान रहा चक्षु इंद्रिय से और शब्द कैसे क्या है, यह समझा जा रहा है कर्णेंद्रिय से । इन बाह्य विषयों को जानने का अन्य कोई उपाय नहीं बन रहा । नामवरी, यश कीर्ति आदिक के विचार चल रहे हैं इस अनिंद्रिय मन के द्वारा । तो चूंकि इन इंद्रियां के द्वारा ज्ञान बन रहा सो यह इंद्रिय को आत्मा समझ रहा है । यह ही मेरा सब कुछ है । इन इंद्रियों की खुशामद हो रही, इन इंद्रियों को अपना सर्वस्व मान रहे, पर इनको कोई पागल नहीं कहता क्योंकि यहाँ सभी पागल होकर ऐसा ही कर रहे । सभी इन इंद्रियों के दास बन रहे, सभी इन इंद्रियों के द्वारा जान रहे, सभी इंद्रियों को अपना रहे तो यहाँ कोई किसी को पागल कहने वाला नहीं है । हाँं अंतरात्मा ज्ञानीपुरुष समझता है कि यह आत्मा ऐसी पागलपन की चेष्टा कर रहा है ।
स्वदोषनिरीक्षण से आत्महित प्रेरणा―भैया ! अपने कल्याण के लिए अपनी गल्तियों को निरखना और गल्तियां दूर करना यह प्रमुख कर्तव्य है । ऐसा न करके दूसरों की गल्तियों पर ही दृष्टि जाना, उनकी आलोचना करना, यह इसकी दोषमयता का सूचक है । यह स्वयं अवगुणों से भरा है इसलिए इसे दूसरों के अवगुण ही दिखते हैं, पर ऐसी प्रवृत्ति से इसको लाभ नहीं होने का । उल्टा नुकसान ही है । देखें तो अपने दोष देखें, हम बात करते हैं बहुत पर मोह से कभी अलग हो सके क्या ? घर पर कुछ बात बीतती है, किसी का वियोग होता है तो हम सम्हल पाते हैं क्या ? जब तक खूब मौज में हैं, अच्छी आमदनी चल रही, घर के लोग अच्छे रह रहे तब तक आत्मा की बात, चर्चा, गप्प खूब खुलकर की जाती है ओर खूब मन बहलाते रहते हैं-―वाह वाह क्या कहना, और जब कभी किसी इष्ट का वियोग हो जाये तब परीक्षा होती है कि मोह गला कि नहीं गला । देखने में आता कि मोह तो नहीं गला । और मोह गले, मैं इन बाह्य विघ्नों को छोडूं, इन परिग्रहों को त्यागूं, ऐसी मन में भावना भी नहीं आती बल्कि उमंग है परिग्रह के संचय की । कह-कहकर मन बहलाते कि परिग्रह तो हम से छूटा ही है, कहां उसे पकड़े हैं ? पर होता क्या है कि अंदर से उन बाह्य परिग्रहों की ही रूचि बन रही है । जब यह दोष मौजूद है तो फिर मोह कहां से दूर हो सकता है । और जब तक मोह दूर नहीं होता तब तक जीव को कल्याण की दशा नहीं मिल सकती । अपनी कमी देखें, किसके लिए ? दूसरों पर एहसान लादने या दूसरों के बीच धर्मात्मा कहलाने के लिए नहीं, किंतु अपने आप पर दया करके अपने आपके हित के लिए । जब ये देहादिक बाह्यपदार्थ हम से भिन्न सत्ता वाले हैं तो फिर इनका इतना अधिक लगाव क्यों चल रहा है ? अच्छा इस देह को भी छोड़, जो स्त्रीपुत्रादिक दूसरों के देह हैं उनके प्रति इतना अधिक लगाव क्यों चल रहा है कि यदि किसी का वियोग हो जाये तो उसके पीछे यह बेहोश, पागल जैसा बन जाता है । बताओ अब वे सब बातें जो मौज में आत्मा के संबंध की कही जा रही थीं वे कहां गईं ? तो हर एक को अपने अंदर अपनी कमी को देखना चाहिए और उसे दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए । अन्यथा जैसे एक नीति है―उष्ट्रां विवाहेषु गीतं गायंति गर्दभा: परस्परं प्रशंसंति अहो रूप महो ध्वनि: । यहाँ कवि ने एक चित्र खींचा है कि जैसे कोई ऊंट का विवाह हो रहा था तो उसमें गीत गाने वाले गधे बुलाये गए थे ꠰ अब वे गधे गीत गा रहे थे तो अपने गीतों में यही कह रहे थे कि वाह वाह इस ऊंट का रूप कितना सुंदर है । अब भला बतलाओ ऊंट सुंदर तो नहीं होते, उनका तो हर एक अंग टेढ़ा होता, पर गधे उनके रूप की प्रशंसा कर रहे थे । उधर ऊंट भी गधे की आवाज की प्रशंसा कर रहे थे―वाह वाह तुम्हारा राग (आलाप) कितना सुंदर है । अब भला व्रतलाओ कहीं गधों का आलाप सुंदर होता, घोंचू-घोंचू की आवाज करते, पर ऊंट उनके राग, स्वर, आलाप की प्रशंसा कर रहे थे । तो जैसे ऊंट और गधे परस्पर में एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे थे ऐसे ही यहाँ भी एक मोही दूसरे मोही की प्रशंसा कर रहा, दोनों बड़े खुश हो रहे । जब दोनों ही मोही हैं तो कौन किसे खराब कहे । तो इससे किसी का हित नहीं होने का ।
अंतरात्मत्व का प्रकाश―एक बात यह चित्त में आनी चाहिए कि मैं आत्मा हूँ और मुझे आत्मा के नाते से धर्म करना है, कषाय के नाते से धर्म नहीं होता । आत्मकरुणा के नाते से धर्म चलेगा । जो मेरा स्वरूप है, स्वभाव है वही मेरे लिए शरण है । वही सदा मेरे साथ है । उस ही रूप मैं अपने को मानूं और उस ही में रमण करने का अपना भाव रखूं । मेरे इस कार्य में यदि कोई पदार्थ का संग बाधक है तो उसको त्यागने में मेरे को कोई हिचक न होनी चाहिए और परिस्थितिवश न त्याग सकें तो परिग्रह के त्याग को मानना तो चाहिए कि हितरूप है । हमारी जितनी शक्ति हो उस माफिक बाह्यपदार्थों का त्याग करें । आत्मध्यान के बाधकों को दूर करें और आत्मा के ध्यान में अपने को प्रवर्तायें । ऐसा अगर कोई कर सकता है तो इसी के ही रूप हैं अणुव्रत और महाव्रत । सम्यग्दर्शन तो मोक्षमार्ग का दिखाने वाला है और अणुव्रत-महाव्रतरूप जो चले, प्रवर्तन करे वह पुरुष मोक्षमार्ग में चलने वाला है । मोक्षमार्ग में गमन होता है पंचम गुणस्थान से और मोक्षमार्ग का दर्शन होता है चतुर्थ गुणस्थान से । दर्शन हुए बिना गमन कैसे किया जाये ? इसलिए सबका मूल सम्यग्दर्शन है । पर सम्यग्दर्शन में जो एक दर्शन हुआ है उसमें चलना नहीं होता । मोक्षमार्ग में गमन नहीं होता । मोक्षमार्ग में गमन बन सके उसके लिए व्रत नियम त्याग संयम आदि है, जिनमें प्रवृत्ति करते हुए यह मनुष्य आसानी से आत्मध्यान में सफल हो जाता है । तो ये बाह्य इंद्रिय हैं बहिरात्मा इनमें लगाव रखने से आत्मदर्शन नहीं होता और आत्मसंकल्प है अंतरात्मा । अर्थात् आत्मा के सहजस्वरूप को यह मैं आत्मा हूँ ऐसा मान लेना यह है अंतरात्मा ।
कर्मकलंकविमुक्त आत्मा के परमात्मत्व―कर्मकलंक से विमुक्त आत्मा है परमात्मा, निस्तरंग और नीरंग । रंग मायने कषाय और तरंग मायने योग ꠰ जैसे कोई पानी यदि रंग से रंगा हुआ है तो उसमें तो दर्शन न होगा याने अपना मुख ठीक सही ढंग से न दिखेगा और रंग न रहे, पर तरंग है उस जल में तो भी अपना प्रतिबिंब भलीभांति न दिखेगा । जो जल नीरंग है और निस्तरंग है उस जल में अपने आकार का दर्शन होता है । इसी प्रकार जो आत्मा नीरंग है, अकषाय है, निस्तरंग है अयोग है वहाँ स्वरूपाचरण की पूर्णता है । वह कर्मकलंक विमुक्त आत्मा परमात्मा कहलाता है । इन तीन प्रकार के आत्मावों को जानकर यह निर्णय करना कि बहिरात्मापन को तो मैंने छोड़ दिया, अंतरात्मापन ग्रहण किए हुए हूँ, परमात्मापन प्रकट होगा । प्रत्येक जीव में ये तीन शक्तियां काल की अपेक्षा हैं । परमात्मा में बहिरात्मापन था, अंतरात्मापन भी हुआ था । बहिरात्मा में अंतरात्मा की योग्यता है, परमात्मा की योग्यता है । प्रत्येक जीव में शक्ति और व्यक्ति की अपेक्षा इन तीनों तत्त्वों को निहार सकते हैं । शिक्षा यह लेना कि बहिरात्मापन तो छूटे और अंतरात्मापन का उपाय बनावें कि जिसके प्रसाद से हम परमात्मपद प्रकट कर लें । अपने दोषों को त्यागना और गुणों का आलंबन करना, बस इस ही में इस जीवन की सफलता है ।