वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 6
From जैनकोष
मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा ।
परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो ।।6।।
परमात्मा का मलरहितपना व कलत्यक्तपना―तीन प्रकार के आत्मा कहे जा रहे हैं । जो बाह्य पदार्थों में यह मैं हूँ ऐसा महसूस करते हैं वे बहिरात्मा हैं । जो अपने अंत:स्वरूप में अविकार ज्ञानस्वभाव में यह मैं हूँ, ऐसा मानते हैं वे अंतरात्मा हैं, और परमात्मा कौन कहलाते हैं, उनका विशेषतया अनेक शब्दों में इस गाथा में वर्णन किया है । जो मलरहित आत्मा हैं वे परमात्मा हैं,। मल कोई बाहरी चीज होती है तो आत्मा में मल क्या है ? एक तो शरीर का बंधन, दूसरे कर्म का बंधन, तीसरे कर्म का उदय पाकर आत्मा में जो विकारभाव जगा वह भी मल है । तीनों प्रकार के मलों से रहित सिद्धभगवान हैं । तो अरहंत भी सिद्ध की ही तरह हैं । अघातिया कर्म गुणघाती नहीं हैं । वे निर्दोष स्फटिकमणि की तरह स्वच्छ हैं, विकारभाव उनमें रंच नहीं, वे भी मलरहित हैं । प्रभु परमात्मा शरीररहित हैं । शरीररहित परमात्मतत्त्व, यहाँ यह सहज परमात्मतत्त्व भी है । शरीर में रहते हुए भी अरहंत भगवान शरीर में रह रहे हैं तो भी वे शरीर से निराले समझे जाते हैं । उस ओर उनका विकार नहीं, उस ओर उनका भाव नहीं । जैसे सीसी में पारा रह रहा ऐसे ही देह में वे बस रहे ꠰ और सिद्ध भगवान शरीर से स्पष्ट अलग हैं । अब आहारवर्गणाओं का कुछ भी स्कंध उनके साथ नहीं रहा । कल कहते हैं शरीर को । जब कभी आपस में बड़ी तेज बातें होने लगती तो लोग कह उठते और क्या कल-कल करते हो । तो कल के मायने वहाँ लोग शब्द लेते हैं, पर यहाँ कल-कल का अर्थ यह समझिये कि शरीर, शरीर की जो परस्पर चेष्टायें हो रही हैं वे सब कल-कल हैं । कलरहित यह आत्मतत्त्व परमात्मा कहलाता है ।
परमात्मा का अनिंदितपना―परमात्मा अनिंदित है अर्थात् किसी के द्वारा भी निंदित नहीं है ꠰ अथवा स्तुत है; इंद्र देव, धरणेंद्र आदिक, मनुष्यों के इंद्र चक्रवर्ती आदिक गणधर देव मुनींद्र सबके द्वारा स्तवन किए जाने योग्य हैं । जो आत्मा इस समय रागद्वेष से लिप्त चल रहा है वह आत्मा रागद्वेषरहित सर्वज्ञ प्रभु के गुणों का गुणगान करे, उनके गुणों के ध्यान में रहे तो इसमें पवित्रता जगती है, तत्त्वचिंतन से पवित्रता जगती है, किंतु गृहस्थपद में जिनभक्तिरहित कोई तत्त्वचिंतन का ही कार्य करे तो उसमें प्रगति नहीं हो सकती, क्योंकि यह बेमेल गाड़ी न चलेगी । जैसे किसी गाड़ी में एक और ऊंट जोत दिया जाये और एक ओर बिल्ली जोत दी जाये तो ऐसे गाड़ी नहीं चला करती, ऐसे ही गृहस्थ पद में एक ओर तो दूकान पर बैठकर या जो भी कार्य चलता है व्यवसाय या सर्विस किसी भी जगह बैठकर अनेक प्रकार के दंदफंद किए जायें, अनेक व्यवहार किए जायें, बहुत कुछ न्याय से वर्तकर भी कितनी ही बातें और आती रहती हैं, उनको विशेष क्या समझाना है, आप सब जानते ही हैं । धन कमाने के लिए न जाने कितने-कितने प्रकार के दंदफंद किए जाते हैं, यहाँ तक कि नीच से नीच पुरुषों की भी बड़ी खुशामद (हूं हजूरी) करनी पड़ती है, न जाने कैसे-कैसे मायाजाल रचने पड़ते हैं, तो एक ओर तो यह प्रवृत्ति रहे और दूसरी ओर धर्म के नाम पर भक्ति हेय है, दया हेय है, त्याग हेय है, व्रत करने से क्या लाभ है, इस तरह इस असंयम आदिक से घृणारूप बर्ताव रखे और एक तत्त्वचिंतन की ही बात रखी जाये कि इससे मुक्ति मिल जायेगी तो ऐसे बेमेल गाड़ी यहाँ न चलेगी । मुनि पद में तो यह बात निभेगी मात्र तत्त्वचिंतन, जरूरत नहीं है किसी से राग करने की । वहाँ आरंभ रोजगार नहीं करना पड़ता, क्षुधा लग जाये, सही न जाये तो चर्या को निकल गए, जैसा श्रावक ने दे दिया सो ले लिया, बाकी आगे-पीछे कोई फिक्र नहीं । उनका तो निभेगा, एक भी मनुष्य से वार्ता मत करें, पूर्ण मौन रखें, तत्त्वचिंतन करें । पर गृहस्थाश्रम में जो गृहस्थ के षट् कर्तव्य बताये गए दान पूजा आदिक, उनको किए बिना गृहस्थी में प्रगति नहीं हो सकती । तो यहाँ प्रभु को अनिंदित कहा जा रहा । वे स्तवन के योग्य हैं ।
प्रभु का भक्तिभाव से महात्मावों द्वारा स्तुतपना―भक्तिभाव से प्रभु का स्तवन हो तो भव-भव के पातक टल जाया करते हैं । अनेक आचार्य देवों ने जिनभक्ति को बड़ी श्रेष्ठता की बात कहा है । श्रीवादिराज मुनि कहते हैं कि चाहे कितना ही कोई ज्ञान बढ़ा ले किंतु जब तक इस वीतराग सर्वज्ञ की अंतस्तत्त्व में दृढ़ भक्ति नहीं होती है तब तक मोक्ष की अर्गला बराबर बनी रहती है । आचरण भी सही है, ज्ञान भी सही है, पर जब तक प्रभु के प्रति उत्तम भक्ति नहीं जगती तब तक यह मोह-कपाट नहीं खुलता, यह मुक्ति की अर्गला नहीं टूटती । तो जिनभक्ति को इतना महत्त्व दिया है ꠰ प्रभु स्तवन के योग्य हैं, प्रभु-स्तवन में अनेक बार ऐसे अवसर आते हैं कि जहाँ प्रभुसम अपने स्वरूप को निरखा और प्रभु की व्यक्त दशा देखी और अपनी व्यक्त दशा पर दृष्टि की तो वहाँ आनंद और खेद दोनों का मिलकर अश्रुपात होने लगता है । आनंद तो इस बात का है कि जो प्रभु का स्वरूप है सो मेरा स्वरूप है । यदि अज्ञान-अंधकार न रहे तो यह ऐश्वर्य मैं पा सकता हूँ, क्योंकि मेरा स्वरूप ही अविकार, और खेद इस बात का है कि स्पष्ट तत्त्व तो यह है कि प्रभु के समान स्वरूप है, पर देखो कितना अंतर हो गया है । रागद्वेषकषाय वासना में रहकर यह मैं कितना नीचे की स्थिति में हूँ, इस बात का उसे खेद होता है और ऐसे इस आनंद खेद के मिश्रित अश्रुवों के बीच जो इसका गद्गद् भाव ठहरता है और अपनी ओर झुकाव चलता है वहाँ इसके पाप दूर होते हैं । प्रभु अनंदित हैं । इंद्र धरणेंद्र आदिक के द्वारा स्तवन के योग्य हैं । जो प्रभु को अपने हृदय में स्थापित करना है उसे भय उत्पन्न करने वाला फिर कोई नहीं है । आखिर यह जीव भावमात्र ही तो है । संकट कहीं बाहर से नहीं आते । जब इसके भाव विकृत होते हैं तो यह संकट है । फिर जैसे बाह्य पदार्थों में अपना यह उपयोग रखता है तो उनके संग संकट है, पर जो परमभाव को प्रभु के स्वरूप में अपना उपयोग लगाता है उसको संकट नहीं है । प्रभु अनंदित हैं । प्रभु की निःस्वार्थ भक्ति करने वाले पुरुष ऐसे विशिष्ट भाव में आते हैं कि उनके पुण्यबंध सुगम चलता रहता है और उनको श्रेष्ठ संपदायें प्राप्त होती हैं पर संपदाओं की ओर इस ज्ञानी का चित्त नहीं है ꠰ वे संपदायें प्राप्त होती ही हैं ऐसा ही नियोग है तो उसका भी ज्ञाता होता है । संसार के श्रेष्ठ वैभव सम्यग्दृष्टि को प्राप्त होते हैं और यथाशीघ्र शुद्धोपयोग के बल से वे निर्वाण को प्राप्त होते हैं । प्रभु परमात्मा अनिंदित हैं ।
परमात्मा का केवलपना―परमात्मा केवल है । केवल शब्द के तीन अर्थ होंगे । केवल का अर्थ है―मात्र वही एक असहाय याने पर की सहायता की जिसे आवश्यकता नहीं है; स्वयं परिपूर्ण अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत शक्ति और अनंत आनंदमय होने से इसको पर के सहाय की क्या आवश्यकता रही ? परालंबन से रहित है । केवल ज्ञानमय है, इस प्रकार परमात्मा केवल है ꠰ दूसरा अर्थ के बल, क का अर्थ है आत्मा, जैसे जीव आत्मा का नाम है ऐसे ही क यह भी आत्मा का नाम है, ब्रह्म का नाम है और सप्तम की विभक्ति में बना के और बल का अर्थ है शक्ति, जिसका अपने आपका सामर्थ्य आत्मा में प्रकट हुआ है उन्हें कहते हैं केवल । कैसा है वह क ? शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव ऐसे ही आत्मा में अनंत वीर्य प्रकट हुआ है जिसके उसे कहते हैं केवल । वह है परमात्मा । अथवा “केवते सेवते विज्ञात्मनि अभेदेनतिष्ठति केवल:”, जो अपने आत्मा को सेवते हैं, अपने आपमें अभेदरूप से वर्तते हैं उन्हें कहते हैं केवल । वह कौन है ? परमात्मा, तो प्रभु परमात्मा केवल हैं । परमात्मा की तारीफ सुन-सुनकर अपने आपमें भी ध्यान देना चाहिए कि यह ही कला, यह ही योग्यता, यही स्वरूप मेरे में है और यहाँ ही सत्यआनंद है । यह स्वरूपरमण ही अपनी पवित्रता है । यही एक ऐसा कर्तव्य है कि जिसके प्रसाद से सदा के लिए हम संसार-संकटों से छूटकारा पा सकते हैं । प्रभु परमात्मा केवल है ।
परमात्मा का विशुद्धात्मत्व व परमेष्ठित्व―परमात्मा, विशुद्ध आत्मा हैं । इनका आत्मस्वभाव कर्मकलंक से रहित है, शुद्ध है, ज्ञान की शुद्ध तरंग जहाँ चलती रहती है, मात्र जानन, जहाँ विकार का प्रवेश नहीं, ज्ञान की निर्बलता भी नहीं, एक साथ ही त्रिलोक-त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ ज्ञेय हो रहे हैं इसलिए वे अविकार विशुद्ध आत्मा परमात्मा हैं । प्रभु परमेष्ठी कहलाते हैं । परमपद में स्थित हों उन्हें परमेष्ठी कहते हैं । परमपद वह है कि जिसकी पूजा इंद्र, धरणेंद्र मुनींद्र आदिक किया करते हैं । उनके द्वारा वंदनीय हैं । ऐसे उत्कृष्ट पद में स्थित होने से प्रभु परमेष्ठी कहलाते हैं । परमेष्ठी नाम 5 पदों का भी है―अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ꠰ यहाँ साधु से भावलिंगी निर्ग्रंथ दिगंबर को लिया गया है । अतएव वे भी परमपद में स्थित हैं । तो यहाँ ध्रुव्युतपनग्राही नय से निरखा जाये तो अरहंत और सिद्ध ही परमेष्ठी हैं, पर भूत-भावी नैगमनय से देखा जाये तो भविष्यत, होने वाले हैं इस कारण से आचार्य, उपाध्याय और साधु भी परमेष्ठी हैं । जो संसार-शरीर-भोगों से विरक्त हैं, आत्मध्यान की जिनके धुन है इसी कारण उनके कोई परिग्रह लगा नहीं है ऐसे निर्ग्रंथ साधु भी परमेष्ठी कहलाते हैं और ये ही ऐसे साधु ही तो अरहंत होते हैं । अरहंतों को साधुपद में भी गिना है । जैसे साधु के 5 भेद होते हैं (1) पुलाक (2) वकुश, (3) कुशील (4) निर्ग्रंथ और (5) स्नातक । तो यहाँ स्नातक साधु अरहंत को कहा गया है । जो आत्मा का स्वभाव पद है उसमें पूरा स्नान कर चुके वे । निर्ग्रंथ साधु 11वें और 12वें गुणस्थान वाले को कहा है । वीतराग छद्मस्थ । और कुशील साधु, वस्तुत: ये 10वें गुणस्थान तक हैं । देखो, यद्यपि कुशील नाम रखा है पर उसका अर्थ यह न लेना कि जैसा लोक में सोचा जाता है एक खोटे रूप में किंतु आत्मा का जो शील है, स्वभाव है उसको ढाकने वाला राग जब तक मौजूद है तब तक वे कुशील कहलाते हैं । इसे कहते हैं कषायकुशील । प्रतिसेवना कुशील उनसे कुछ निम्न पद है । जिनको पिछी कमंडल आदिक का अनुराग होता है ꠰ वे अब तक रहे पुलाक और वकुश । पुलाक मुनि उन्हें कहते हैं जिनको कदाचित् मूलगुणों में भी विराधना हो जाये, कोई एक-आध मूलगुण कम भी हो तब भी वह पुलाक मुनि है । वह भी पूज्य है क्योंकि एक साधक दशा है । मुनि को उत्तर गुणों का पालन निर्दोष देखना और तब ही उनको साधु कहना, ऐसी हठ जैनशासन में नहीं है । पुलाक मुनि, जिनका आत्मसाधना में चित्त है और 28 मूलगुणों के पालन करने में प्रयत्नशील है ऐसा मुनि किसी समय किसी एक मूलगुण से रहित भी हो तो भी वह पुलाक मुनि है । और वकुश मुनि वे हैं जिनके मूलगुणों में तो कमी है नहीं, परिपूर्ण 28 मूलगुण हैं, किंतु उत्तरगुणों की कमी है वे वकुश मुनि कहलाते हैं । उत्तर गुण कौन ? विशेष स्थान में, विशेष तपश्चरण, वन में निवास, पर्वत पर निवास । आतापन योग, शीतयोग, वर्षायोग । अनेक व्रत उपवास आदिक जो उत्तरगुणों में बताये गए हैं, वे उत्तरगुणों के पालक नहीं हैं । परीषहविजय में अनेक परिषहविजय उत्तरगुण से संबंध रखते हैं, ओर कुछ परिषह विजय अनिवार्य हैं । जैसे प्रतिदिन एक बार आहार करना मुनि का व्रत है और इतने पर भी क्षुधा-तृषा रहे तो भी परीषहविजय करना आवश्यक ही है । पर मुनि को यह आवश्यक नहीं है कि वह महीने भर का उपवास करे ही, या अनेक दिनों का उपवास करे ही और इस तरह के परीषह सहे ही, यह अनिवार्य नहीं है, यह तो उसकी उमंग की और आगे प्रगति की बात है । वह मैदान में शीतकाल में बैठकर शीत परीषह सहे ही, यह मुनि को अनिवार्य नहीं है । यह उत्तरगुण की बात है । उसका मन हो करे, उसमें संहनन हो तो उन उत्तर गुणों का भी पालन करे । तो ऐसे जो सम्यग्दृष्टि हैं, अपने आत्मस्वभाव में रमण करने का पौरुष करते हैं वे मुनि भी परमेष्ठी कहलाते हैं । तो प्रत्युत्पन्नग्राही नैगमनय से तो अरहंत और सिद्ध परमेष्ठी हैं और प्रज्ञापन नैगमनय की दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय और साधु भी परमेष्ठी हैं । तो अरहंतभगवान परमेष्ठी हैं ।
परमात्मा की परमजिनरूपता व शिवंकरता―परमात्मा का नाम है परमजिन । परम पर और म, इन दो शब्दों का समास है यहाँ । म का अर्थ प्रमाण भी है और लक्ष्मी भी है । उत्कृष्ट प्रमाण जिनके हैं उन्हें कहते हैं परमजिन । उत्कृष्ट प्रमाण भी ज्ञानपूर्ण प्रत्यक्ष, सकल प्रत्यक्ष जिनके प्रकट हुआ है वे परमजिन कहलाते हैं । जिनका अर्थ है―जो रागद्वेष भावों को जीते उसे जिन कहते हैं, अथवा म का अर्थ जब लक्ष्मी करें तो उत्कृष्ट समवशरण आदिक लक्ष्मी जिनको प्राप्त है वे परमजिन तीर्थंकर कहलाते हैं । अथवा म का अर्थ अभ्यंतर लक्ष्मी लीजिए, तो उत्कृष्ट ज्ञानलक्ष्मी जिनको प्रकट है वे परमजिन कहलाते हैं । परमात्मा परमजिन हैं । प्रभु परमात्मा शिवंकर हैं । मोक्ष को करने वाले, आनंद को अनुभवने वाले अथवा जिनका ध्यान करने से आत्मतत्त्व का प्रकाश होता है उस आत्ममार्ग पर चलकर जो मोक्ष प्राप्त करते हैं उनके लिए वे शिवंकर कहलाते हैं ।
परमात्मा की शाश्वतता व सिद्धरूपता―प्रभु शाश्वत हैं । जो स्वरूप उनका प्रकट हुआ निर्दोष वह स्वरूप उनके सदा रहेगा । अब विकारभाव नहीं आ सकते, क्योंकि विकार आने का कारण है कर्मविपाक । कर्म जब बंधे हों तो कर्मविपाक आये । कर्मबंध का कारण है विकारभाव । जिनके एक बार विकारभाव दूर हो गया, कर्मकलंक दूर हो गया उनके अब न विकारभाव आ सकता है, न कर्मकलंक आ सकते हैं, इस कारण प्रभु शाश्वत् कहलाते हैं । प्रभु का नाम है सिद्ध । जिनको स्वात्मोपलब्धि प्राप्त हुई उन्हें सिद्ध कहते हैं । ‘सिद्धि:स्वात्मोयलब्धि:’ जिसके केवल सत्त्व के ही कारण जो वस्तु है चैतन्यस्वरूप वही जहाँ प्रकट हो गया, केवल रह गया उसे कहते हैं सिद्ध । उन्होंने आत्मा को पाया ꠰ जैसा आत्मा है वैसा प्रकट हुआ, यही वास्तविक आत्मा का पाना कहलाता है । वैसा ज्ञान करे उसे भी पाना कहते हैं, उस ओर दृष्टि दे उसे भी पाना कहते हैं, पर पूर्ण पाना किसे कहते हैं ? जैसा आत्मस्वरूप है वैसा ही जहाँ प्रकट हुआ है उसे कहते हैं स्वात्मा की प्राप्ति होना । सिद्ध भगवंतों का ध्यान यह ही अपने लिए शरण है, उनके स्वरूप के ध्यान में अपने स्वरूप का भी भान चलता है । जिन्होंने अपने स्वरूप का भान किया है उनको भगवंतों का ध्यान सुगम है । लोक के अंत में विराजमान केवलज्ञान-ज्योति अनंत आनंदमय आत्मा ही आत्मा सबसे निराला जहाँ प्रकट है वही सिद्ध स्वरूप है । जो वहाँ प्रकट है वही यहाँ स्वभाव है, स्वरूप है । जैसे पानी में पड़ी वस्तु है, उसको उठाकर अलग कर दिया, वह सूख गई । वह भी एक स्थिति है । जो दूर किया गया है उतना ही पानी में था, पानी में कहीं दूसरा स्वरूप नहीं बन गया था । इसी प्रकार इस संसार में कहीं आत्मा का दूसरा स्वरूप नहीं बन गया । विकृत है, बद्ध है, मनुष्य, देव, नारकादिक गतियों में चल रहा है, इतना सब कुछ होने पर भी स्वरूप ही रहा, स्वरूप कहीं दूसरा नहीं बन गया और यही कारण है कि इसको मुक्ति हो सकती है । अगर स्वरूप दूसरा बन गया होता तो मुक्त होना कठिन था । मनुष्य दूसरा बनता पर स्वरूप में कोई अंतर न आता । तो जो यहाँ स्वरूप है वही वहाँ प्रकट हुआ है ऐसे सिद्ध परमात्मा हैं । यही आत्मा की उत्कृष्ट स्थिति है । चित्त में यह निर्णय हो कि मुझे तो संसार-जाल से हटना है और ऐसे सिद्ध परिणमन में ही रहना है । ऐसा श्रद्धान हो और प्रभुध्यान हो तो ये संसार के संकट दूर होंगे ।