वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 61
From जैनकोष
बाहरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहियपरियंभो ।
सो सगचरितभट᳭ठो मोक्खपहविणासगो साहू ।।61।।
अंतरंगभावरहित बाह्यलिंगवेषी की चरित्रभ्रष्टता व मोक्षपथविनाशकता―यह मोक्षपाहुड़ नाम का ग्रंथ है, इसको कुंदकुंदाचार्य देव ने रचा जिसमें साधुवों को संबोधन किया जा रहा है । हे साधु ! यदि बाह्यलिंग तो रखा पर अंतरंग लिंग न रहा तो तुम अपने चारित्र से भ्रष्ट हो गए और मोक्षमार्ग का विनाश करने वाले हो गए । बताया है कि साधुवों के 24 प्रकार के परिग्रह का त्याग होना चाहिए । वे 24 परिग्रह क्या? तो 10 तो होते हैं बाह्य परिग्रह और 14 होते हैं अंतरंग परिग्रह । बाह्य परिग्रह खेत,मकान, धन, धान्य, दासी, दास, कपड़ा, बर्तन, चांदी, सोना हैं । इनका त्याग करके ही तो दिगंबर भेष मिला है, और अंतरंग परिग्रह क्या है? क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, वेद, राग, द्वेष । सो किसी ने बाहरी परिग्रह तो त्याग दिया और अंतरंग परिग्रह को नहीं त्यागा तो वह भीतर में मलिन रहा और ऊपर से दिगंबर भेष रहा, उसको मोक्ष की सिद्धि नहीं होती । मोक्ष की सिद्धि वह ही साधु पायेगा जो 10 प्रकार के बहिरंग लिंग के साथ अंतरंग लिंग हेतु भी पालन में रखे । मंदकषाय, निरंतर आत्मदृष्टि, तो ऐसे अंतरंग परिग्रह के त्यागपूर्वक जिसके 24 परिग्रह का त्याग है वह निर्वाण को प्राप्त होता है ।
बाह्यपरिग्रहत्याग व अंतरंगपरिग्रहत्याग दोनों की उपयोगिता―कुछ लोग यह चर्चा रखते हैं कि बाह्यपरिग्रह के त्याग से क्या होता, अंतरंग परिग्रह का त्याग रहना चाहिए । तो कुछ लोग यह कहते कि अंतरंग परिग्रह का त्याग हो, बाह्य परिग्रह त्यागने से क्या होता है? मगर ये दोनों परस्पर एक दूसरे को बढ़ावा देने वाले हैं । बाह्य परिग्रह का त्याग हो तो अंतरंग परिग्रह के त्याग की भी बढ़वारी होती है और अंतरंग परिग्रह के त्याग की भावना हो तो बाह्य परिग्रह का त्याग विधिपूर्वक होता है । इससे हे साधु ! दोनों प्रकार के परिग्रहों से दूर रहो और अपने भेष को सच्चा बनाओ । जैसे धान का चावल होता है तो उसमें एक तो ऊपर का छिलका होता है और फिर खुद चावल के ऊपर भी थोड़ा-सा मैल रहता है जिसमें मशीन द्वारा पालिस देने से साफ चावल निकलता है, तो इसमें बताओ पहले धान का छिलका उतरता है या वह पालिस? तो प्राय: करके सभी लोग यही कहेंगे कि पहले धान का ऊपरी छिलका निकलता है बाद में उसके भीतर का मैल । तो जैसे धान का छिलका उतरे बिना चावल के ऊपर की ललाई नहीं साफ होती, ऊपर का छिलका पहले उतरना जरूरी है ऐसे ही साधु के बाह्यपरिग्रह का त्याग हुए बिना अंतरंग परिग्रह का त्याग नहीं बनता । कोई यह न सोचे कि पहले मुझे सम्यग्दर्शन हो जाये तब मैं संयम पालूं । अरे ! इसका ऊपर से कुछ पता नहीं पड़ता कि सम्यग्दर्शन हुआ या नहीं, हां, अगर कुछ तप व्रत संयम में रहता हैं तो उसके प्रताप से कर्ममल में शिथिलता आने लगती है और जब वे कर्म दूर होते हैं तो इसके रत्नत्रय प्रकट हो जाता है । इससे पहले ज्ञान करना या त्याग, इनमें कोई नियम नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि एक विधि यह भी है कि पहले ज्ञान करे पीछे त्याग करे और एक विधि यह भी है कि पहले त्याग करे पीछे ज्ञान करे । यदि कोई कहे कि मुझे जब सम्यग्ज्ञान जगेगा तब चारित्र पालूंगा तो समझो कि उसको न तो अभी ज्ञान में रुचि है और न चारित्र में । तो मनुष्य को जितना ज्ञान मिले उसी के आधार पर व्रत, तप, संयम में बढ़ना चाहिए ।