वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 60
From जैनकोष
धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरण ।
णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि ꠰꠰60꠰।
जैसे तीर्थंकर का मोक्ष नियम से होगा यह सब जानते हैं और जब गर्भकल्याणक मनाने के लिए देव देवियां आते हैं, गर्भकल्याणक मनाते हैं, जन्मकल्याणक मनाते हैं ऐसे गृहस्थावस्था के अतिशयों से भी यह बात प्रसिद्ध है कि वह कोई महान आत्मा है और वह उसी भव से मोक्ष जायेगा । तो जो तीर्थंकर उसी भव से मोक्ष जाते हैं वे तीर्थंकर भी तपश्चरण करते हैं । प्रत्येक तीर्थंकरों ने दीक्षा के बाद किसी ने बेला, किसी ने तेला, किसी ने बहुत अधिक दिन उपवास रखा, तो तपश्चरण की महिमा यहाँ कह रहे हैं कि जो तीर्थंकर हैं, जिनको उसी भव से मोक्ष जाना है वे भी तपश्चरण करते हैं, ऐसा जानकर ज्ञान युक्त पुरुषों को अपनी शक्ति माफिक तपश्चरण में लगना चाहिए । किसी भी प्रकार का तपश्चरण हो, छोटा हो कैसा ही हो फिर भी इच्छा पर कन्ट्रोल तो किया उसने, इच्छा को दूर किया । तो कोई पुरुष अपनी इच्छा पर तो संयम न रख सके और बहुत-बहुत असंयम में रहे और दूसरा कोई संयम में चले तो उसका मजाक करे तो वह एक असंयम-प्रिय पुरुष कहलायेगा । देखिये, संयम मनुष्यभव में ही मिलता है, अन्य भवों में नहीं मिलता । तो अब मनुष्यभव पाया है, इसे पाकर भी यदि संयम में न रहे तो वह उसकी एक बड़ी भूल है । वह शरीर से अधिक लगाव लगाये हैं, उसको ममता देश की बहुत है तो वह जीव मरकर खोटी गति ही पायेगा । सो जब तक इस शरीररूपी कुटी पर मरणरूपी अग्नि न लग पाये, याने जब तक यह शरीर है तब तक यथाशक्ति उपवास का अभ्यास करना, तीन बार खाते हो तो दो बार रख लें, दो बार खाते हो तो एक बार रख लें, कभी उपवास करें तो उपवास से जो एक आत्मा में शक्ति जगती है सो उससे भव-भव के कर्म कट जाते हैं ।
कर्म और कर्मफल के लगाव में कष्ट ही जानकर कर्म व कर्मफल से विविक्त आत्मस्वरूप में उपयोग लगाने का अनुरोध―इस जीव के साथ जो ये कर्म लगे हैं, ये कर्म ही इस जीव के दुःख के कारण हैं, वे कर्म सूक्ष्म पुद्गल हैं, उनका विपाक होता है तो उसका एक प्रतिफलन याने उसका सारा नाटक आत्मा में झलकता है और यह जीव उसमें बह जाता है ꠰ और अपने स्वरूप को कोई पहिचानता हो कि मैं तो ज्ञानमात्र स्वरूप हूँ, अन्य रूप हूँ, मेरा काम ही अपने स्वरूप की सुध रखना हैं । जो स्वरूप की सुध रखेगा वह संसार से पार होगा, जो स्वरूप से बेसुध रहेगा वह संसार में जन्म-मरण के चक्र लगाता रहता है । इससे पुण्य के उदय में समागम पाया है तो उसमें हर्ष मत मानो और उसकी तृष्णा मत बढ़ावो क्योंकि वे बाहरी पदार्थ हैं, उनसे मेरे आत्मा का कल्याण नहीं है और कदाचित् निर्धनता आयी हो तो उसमें विषाद मत मानो और अपने को कायर भी मत बनाओ । अपने स्वरूप-वैभव को देखो कि मेरा स्वरूप तो सिद्ध प्रभु के समान है, अब कर्मोदयवश यह अंतर पड़ा है सो यह अंतर स्थायी नहीं है, यह मिटने वाला है और उसका जो स्वरूप है वह अमिट है । अपने स्वरूप की ओर आयें तो इसमें आपका सच्चा बड़प्पन है । और धन वैभव माया में ही अगर अपना लगाव बनाये रखा तो उसके फल में संसार का परिभ्रमण ही चलता रहेगा, जीव को कल्याण का मार्ग न मिल पायेगा ।