वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 62
From जैनकोष
सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि ।
तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए ।।62।।
तपश्चरण किये जाने के कारण का विवरण―तप क्यों करना चाहिए उसका कारण यहाँ बतला रहे । जो ज्ञान सुख में रहकर उत्पन्न किया है, यदि उस जीव पर कोई दुःख आ पड़े तो वह ज्ञान नष्ट हो सकता है, क्योंकि उसने तो सुख से, आराम से, ऐश से रहकर ही ज्ञान का संपादन किया तो कभी कोई कष्ट आये तो उसका ज्ञान मिट सकता है, इस कारण योगी पुरुष अपनी शक्ति अनुसार आत्मा को दुःख से छुड़ाये याने तपश्चरण करें ꠰ एक मोटी-सी मिसाल ले लो कि जब साधु हो गए तो ऐसा भी मौका पड़ सकता है कि एक-दो दिन आहार न मिले, सही विधि न मिले तो वह उस भूख को बर्दाश्त न कर सकेगा, बड़ा बेचैन हो जायेगा, कितने ही पापकर्म बांध लेगा, मोक्षमार्ग से भ्रष्ट हो जायेगा, इससे उसे पहले ही उसका अभ्यास कर लेना चाहिए । पहले से अभ्यास होने के कारण उसे कष्ट न होगा । जो पहले से ही उपवास करके अभ्यास बना रहा था उसको अगर कोई बाधा आ जाये, दो-एक दिन आहार न मिले तो चूंकि उसने तपश्चरण से सब सीख रखा था तो ऐसे प्रसंग पर उसे कष्ट न आयेगा । यदि आहार का योग न मिले दो-एक दिन तो वह आराम से समय काट लेगा, और आत्मदृष्टि करके अपने को सुखी अनुभव करेगा । तो इस गाथा में यह बतला रहे कि सुख से पाया हुआ ज्ञान दुःख आने पर नष्ट हो जाता है, इस कारण कुछ न कुछ दुःख का याने तपश्चरण का प्रसंग बनाये रहे तो वह कभी कोई उदय से कष्ट आयेगा तो उस कष्ट में स्वरूप से विचलित न हो सकेगा, इस कारण ज्ञानी जीवों को दुःख का कहो, तपश्चरण का कहो अभ्यास बनाये रखना चाहिए । मतलब यह है कि इस जीवन को ज्ञानमय और तपश्चरणमय बनावें, अपनी मलिनता मिटावें तो इस विधि से मोक्षमार्ग मिलेगा ।