वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 63
From जैनकोष
आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण ।
झायव्वो णियअप्पा णाऊणं गुरुपसाएण ꠰꠰63।।
आहारविजय करके आत्मा का ध्यान करने की प्रेरणा―योगीजनों को उपदेश किया गया है कि आहार, आसन और निद्रा विजय को करके जिनवर मत के अनुसार गुरु के प्रसाद से अपने आत्मा का ध्यान करना चाहिए । सर्वप्रथम लिखा है आहार पर विजय करना, मायने एक जीवन के लिए ही आहार किया जा रहा है । कहीं आहार के लिए कोई जीवन नहीं है, तो जीवन के लिए जितना आवश्यक आहार है उतना ही करना विशेष नहीं, कम खाना यह है आहारविजय ꠰ आहारविजय से क्या लाभ है? प्रमाद न जगेगा, खोटे भाव न जगेंगे क्योंकि थोड़ा जो भी आहार किया है सो धर्मबुद्धि से किया है वह धर्मबुद्धि आगे भी चलेगी । और, फिर स्वास्थ्य रहेगा, तो आवश्यक है कि आहारविजय करे । बहुत भरपेट खाने वाले लोग खाने के बाद पड़े ही रहते हैं, उनका किसी काम में मन नहीं लगता और इसके साथ ही भावों में भी प्रमाद आ जाता है तो सर्वप्रथम उपदेश किया है कि आहार पर अपना विजय करें, आहारविजय के बाद बड़ी आसानी से वह सब मार्ग मिलेगा जिस पर चलकर आगे बढ़ता है । आहारविजय में यह भी भाव है कि राग से आहार मत करो । बहुत बढ़िया स्वादिष्ट आहार करके खुश होना, उसमें अपना गौरव समझना, चतुराई जानना, ये सब बातें न होना चाहिए, तो आहारविजय से भावों की शुद्धि बढ़ायें ।
आसनविजय करके आत्मा का ध्यान करने की प्रेरणा―आहारविजय के करने वाले योगी आसनों की स्थिरता भी कर सकते । खूब देखा समझा होगा कि अधिक आहार करने पर फिर आसन स्थिर नहीं रह सकता । थोड़ा आसन बन गया फिर बदल गया तो आसन की स्थिरता अधिक भोजन करने में नहीं है, अंतभर्जोन करके आसन पर विजय प्राप्त करें ꠰ आसनों में दो आसन मुख्य हैं― (1) पद्मासन और (2) षड्गासन । इन दोनों में विशेषता क्या है? पहली विशेषता यह है कि इसमें शरीर सीधा रहता है, श्वासनली सीधी रहती है और सीधे रहने से श्वास का चलना सहज बन जाता है । वहाँ कष्ट नहीं होता है, और फिर श्वास को जिस अंग में रोकना चाहें वह प्रक्रिया भी सहज बन जाती है, ध्यान की सहयोगी हैं ये दोनों बातें । दूसरी विशेषता यह देखें कि हाथ की हथेली और पैर का तलवा ये दोनों लगने से, भिड़ने से कुछ रोक होना, ख्याल होना, कुछ मौज होना, ये सब बातें जगती हैं । हाथ का ऊपरी हिस्सा यह अगर अंग पर लगे तो उसमें कुछ रागादिक नहीं जगते हैं । कोई किसी को पकड़ता है तो हथेली से ही पकड़ता है । किसी का अनुराग विशेष स्पर्श से बने तो हथेली के स्पर्श से बनता, हाथ का जो ऊपरी हिस्सा है इसके स्पर्श से रागादिक का जगना नहीं होता सो पद्मासन की मुद्रा देख लो, न तो हथेली ने कोई अंग छुवा और न पैर के तलवों ने कोई अंग छुवा । सभी अंग अपने सोये हुए से पड़े हुए हैं । और यही बात खड़गासन में मिलती है, लंबे हाथ ये हथेली को छू नहीं रहे हैं, पगतल नीचे पड़ा है, तो यह भी खास विशेषता है इन दो आसनों में कि जिन हाथों के स्पर्श से कुछ प्रीति जगती है वह स्पर्श नहीं हो पाता, फिर उन आसनों को मोड़कर, बहुत देर तक स्थिरता से उसी आसन से रहना यह कुछ शारीरिक शक्ति पर भी निर्भर करता है और मानसिक शुद्धि पर भी निर्भर करता है, जिसका मन पवित्र नहीं है और यत्र-तत्र रागादिक भावों में जाता है उसके आसन की स्थिरता नहीं बनती है । तो परिणाम विशुद्ध करते हुए आसन पर विजय करें ।
निद्रा पर विजय करके आत्मा का ध्यान करने की प्रेरणा―तीसरी बात यहाँ कही जा रही है निद्रा पर विजय करना । निद्रा पर विजय करने का अर्थ है हल्की निद्रा होना, जहाँ सावधानी सी बनी रहती है । योगीजन नींद लेते हैं, मुनिजन नींद लेते हैं । तो बताया तो यह है छठा 7वां गुणस्थान, कोई आधा-आधा मिनट में बदलता रहता है,एक मिनट भी शायद पूरा न हो, बताया तो अंतर्मुहूर्त और निद्रा है प्रमाद की चीज, पर आधा मिनट में सोये, आधे में जगे, ऐसी बात तो मुनियों के भी नहीं देखी जाती और कल्पना में भी नहीं आती कि कोई मुनि एक-एक मिनट में जगे और सोये, जगे और सोये । तो मालूम होता है कि उनकी निद्रा इतनी हल्की होती है कि उसके बीच भी वे आत्मा की सुध बनाये रहते हैं । कभी-कभी हम आपके भी किसी समय ऐसी हल्की निद्रा होती है कि कुछ सोते-से जा रहे हैं, बात भी सुनते जा रहे और बता भी सकते कि इसने ऐसा कहा । जैसे कोई अगर गाली देवे तो झट उस पर दृष्टि जाती कि इसने मुझे ऐसा क्यों कहा? अरे ! तू सो तो रहा था, कैसे जान लिया? तो वह हल्की निद्रा थी, तो इतनी हल्की निद्रा होती है जिसमें उनको आत्मा की सुध बनी रहती है । कम समय को निद्रा आती और निद्रा का वेग हल्का रहता, यह है निद्रा का विजय । और, उसके साथ ही साथ एक करवट से सोना, यह भी निद्रा-विजय का ही अंग है । सो हे योगी ! इस प्रकार निद्राविजय को करके अपने आत्मा का ध्यान करो ।
चरणानुयोगप्रक्रिया से प्रवर्तन कर आहारादि पर विजय करके गुरुप्रसाद से तथ्यबोध पाकर आत्मा का ध्यान करने का उपदेश―आहारादि पर विजय कैसे हो? तो जिनवर का जो सिद्धांत है, चरणानुयोग की जो प्रक्रिया है उस प्रक्रिया से प्रवृत्ति बनावें । सो निजआत्मा का कैसे ध्यान करें? तो पहले गुरु के प्रसाद से उसकी जानकारी बनावें । अपने आपकी जानकारी में विश्वास नहीं, नि:शंकता नहीं, धोखा भी है, स्पष्टता भी नहीं, इसलिए गुरु-प्रसाद की मुख्यता दी है । प्रसाद मायने गुरु की ऐसी निष्कपट सेवा करना कि गुरु प्रसन्न होवे, और बात गुरु उपदेश में वही कहता, पर जिस शिष्य पर प्रसन्न होगा उसको कहने का वह ढंग होता है कि उसके चित्त में वह सब ज्ञान में आता रहता है, इससे गुरुप्रसाद पाना कल्याणार्थी के लिए बहुत आवश्यक है । सो गुरु-प्रसाद से निजआत्मा को जाने और फिर निज आत्मा का ध्यान करना चाहिए ।