वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 64
From जैनकोष
अप्पा चरिसवंतो दंसणणाणेणसंजुदो अप्पा ।
सो झायव्वो णिच्चं णाऊणं गुरुपसाएण ꠰꠰64꠰।
आत्मा की दर्शनज्ञानयुक्तता―आत्मा चारित्र से सहित है, आत्मा दर्शनज्ञान से सहित है―इस प्रकार आत्मा को गुरु के प्रसाद से जानकर अपने अंतस्तत्व का ध्यान करना चाहिए । यहाँ तीन गुण मुख्य बताये जा रहे―(1) दर्शन (2) ज्ञान और (3) चारित्र । दर्शन का अर्थ है कि इस आत्मा को अपने आप में अपनी झलक होना और ज्ञान का अर्थ है कि अनेक पदार्थ इसके ज्ञान में आना । दर्शन और ज्ञान में ऐसा अंतर है जैसे कि किसी ऐना में ये दो बातें देखी जाती हैं कि ऐना में खुद की झलक और सामने आये हुए पदार्थ की फोटो होती है ऐसे ही आत्मा में चेतनाभाव होने से खुद की झलक, जिस ही झलक के कारण इस आत्मा में बाहरी अनेक पदार्थों का फोटो आता रहता है, ये दो गुण अनिवार्य हैं । इसमें भी अनेक दार्शनिकों ने भूल की है । सांख्य सिद्धांती दर्शन जैसा स्वभाव तो मानते हैं चेतन का, पर ज्ञानस्वभाव जरा भी नहीं मानते । उनका कहना है कि ज्ञान होना आत्मा का स्वरूप नहीं है । यह तो दूसरा जो अजीव पदार्थ है प्रकृति, प्रधान, उसका विकार है । अब कुछ समझने के लिए कुछ अनेक दृष्टियां बनाइये, क्यों ऐसा उन्होंने कहा? पुरुष तो वह भी थे और सही जानना पसंद उनको भी था, पर ऐसा कैसे जाना गया कि आत्मा में चेतन तो है जैनदर्शन में दर्शन गुण की तरह, पर ज्ञान नहीं है ? तो उनकी दृष्टि यह रही, ज्ञान जितने होते वे पराधीन होते हैं, विकल्प में होते हैं, जानकारी का भाव आत्मा से कुछ अलग सा जंचता है कि कोई बाहर का काम किया है । इन बातों को कुछ थोड़ा ध्यान में लेकर कहा है कि ज्ञान तो प्रधान का धर्म है, प्रकृति का धर्म है । और कुछ अंदाज करते हैं तो जैनदर्शन में जैसे बताया कि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर ज्ञान होता है । क्षय होने पर ज्ञान होता, उसे यहाँ न लीजिए । तब एक सांख्य सिद्धांत में ऐसा क्यों समझा गया, इसकी खोज करते चल रहे हैं तो वह ज्ञान प्रकृति का धर्म बन गया । जैनदर्शन ने भी मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण को प्रकृति नाम से कहा है, कर्म की प्रकृतियां, तो प्रकृति के क्षयोपशम से हुआ तो वह प्रकृतिधर्म बन गया, ऐसा कुछ समझकर ज्ञान को प्रकृति का धर्म माना, आत्मा का स्वभाव न माना तो ऐसे दार्शनिक हैं कि जो आत्मा में ज्ञानस्वभाव नहीं मानते, हां, दर्शन-स्वभाव मानते । अच्छा, अब ये दो बातें चल रही हैं कि स्वयं की झलक और बाहरी पदार्थों की फोटो । जैसे कोई आदमी यह कहे कि ऐना में स्वयं की झलक है और फोटो जो है वह ऐना का धर्म नहीं है किंतु सामने जो पदार्थ आया उसका धर्म है, तो सुनने में कुछ अच्छा लगता कि नहीं? तो इसी तरह वे इसमें बढ़ गए । तो कोई दार्शनिक ऐसे हैं कि जो आत्मा में दर्शन नहीं मानते और ज्ञान को मानते हैं, किंतु उनके यहाँ दर्शन का कुछ नाम ही नहीं है और ज्ञान स्वभावरूप भी नहीं मानते किंतु ज्ञान एक अलग पदार्थ है, आत्मा एक अलग पदार्थ है । ज्ञान का आत्मा में समवाय होता तब आत्मा जानता है, ऐसी कितनी ही धारणायें हैं सो उन सबका निराकरण इन विशेषणों से हो जाता कि आत्मा दर्शन और ज्ञान से संयुक्त है ।
दर्शनज्ञानमय चारित्रस्वरूप आत्मा की ध्यातव्यता―चारित्र क्या है ? तो देखो पहिले, इस आत्मा ने दर्शन से क्या किया? अपने आत्मा की झलक की । जो इस मर्म को नहीं पकड़ पाता वह अज्ञानी है, जिसने पकड़ लिया वह सम्यग्दृष्टि है, यह अंतर तो हो जाता है मगर सभी का दर्शन चाहे मिथ्यादृष्टि हो चाहे सम्यग्दृष्टि हो, दर्शन से आत्मा की झलक होती है । तो दर्शन से ज्ञानी ने अपने आत्मा को झलकाया । और अब ज्ञानी यह समझकर कि बाहरी पदार्थों में ज्ञान को फंसाये, लगाये तो शांति नहीं मिलती, व्याकुलता होती है, इसलिए बाहरी पदार्थों में ज्ञान नहीं लगाना है किंतु इस मुझ ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व को ही ज्ञान में लेना है सो उसने ज्ञान में यह आत्मस्वरूप लिया, सो ऐसा ही लिए रहे, ज्ञान में ज्ञान ही समाया रहे, अन्य भाव का अवसर न आने दे, ऐसी स्थिति को चारित्र कहते हैं । कहते हैं कि दर्शन, ज्ञान चारित्र से कर्म कटते हैं । सो दर्शनज्ञान के बारे में तो कुछ सही बात कह लेते हैं और चारित्र के बारे में व्यवहारीजनों की यह दृष्टि है कि ऐसा महाव्रत पाले, समिति पाले, तपश्चरण करे तो इस चारित्र से कर्म कटते हैं, पर इस व्यवहार-चेष्टा से कर्म नहीं कटते, वह व्यवहारचारित्र काम में तो आता है, अनुपयोगी तो नहीं है मगर किसका क्या काम है वह ठीक समझना चाहिए । ये व्रत, तप, समिति, अनशन आदिक जो कुछ भी तपश्चरण हैं―ये कर्मक्षय का काम नहीं करते किंतु व्यसन वासना, पापभाव इनको रोक देते हैं । तो इनका काम इतने में पूर्ण है कि कोई व्रत पाले, नियम पाले, तपश्चरण करे तो उस समय उसके इंद्रियविषयों के भाव नहीं आते । तो इससे अब वह सुरक्षित हो गया योगी, मायने इंद्रियविषयों का आक्रमण नहीं हो रहा । अब उस स्थिति में यह स्वभावदृष्टि करे, चारित्र पाले मायने ज्ञाताद्रष्टा रहे, ज्ञान में ज्ञानस्वरूप ही समाया रहे तो यह है चारित्र और चारित्र से कर्म का क्षय होता है । मोक्ष मिलेगा जिसको वह उसकी ही करतूत से मिलेगा, दूसरे की करतूत से न मिलेगा । मोक्ष मिलता है आत्मा को तो आत्मा की करतूत से ही मिलेगा शरीर की करतूत से मोक्ष न मिलेगा । अतएव ये सब व्रत, तप, समिति आदिक ये तो ढाल का काम करते हैं । जैसे कोई सुभट संग्राम में युद्ध करने जाये तो ढाल तलवार दोनों को लेकर जाता है । भले ही आज के युद्धों में ढाल और तलवार न रही, गोली, बम आदिक हो गए, तलवार की जगह और ढाल की जगह लोहे के कपड़े या कुछ यंत्र वगैरह, जिनके प्रयोग से दूसरे का वार रुक जाये, ढंग बदल गया है, मगर ढाल और तलवार के बिना अब भी युद्ध नहीं कर सकता कोई । तो यह व्यवहारधर्म तो ढाल जैसा काम करता है कि पाप की वासना को रोक दे । जब शुभोपयोग है तो वहाँ अशुभोपयोग नहीं रहता ꠰ शुभोपयोग करके अपने को सुरक्षित और पात्रता बनाकर फिर अंत:आत्मस्वभाव का ध्यान बनाये, स्वभाव का आश्रय रखे तो उससे कर्म का क्षय होता है । तो आत्मा दर्शनज्ञान से सहित है और चारित्रवान है, सो इस आत्मा को गुरु के प्रसाद से जानकर नित्य ध्यान करना चाहिए ।
गुरुप्रसाद की श्रद्धावालों के आत्मसमर्पण के आदर्श का एक उदाहरण―एक अन्य संन्यासीजनों की कथा है कि कोई गुरु और शिष्य थे ꠰ वे दोनों किसी जंगल में ठहर गए । रात्रि का समय था, शिष्य सो रहा था, उस समय गुरु ने देखा कि एक बड़ा काला नाग पास में आया और वह बड़ी क्रोध भरी मुद्रा में फुंकार कर रहा था । गुरु ने कुछ अपने ज्ञानबल से समझ लिया कि वह सर्प क्यों आ रहा था । जान लिया कि पूर्वभव के बैरवश यह हमारे शिष्य से बदला चुकाने के लिए आ रहा, उस शिष्य को डसना चाह रहा, सो गुरु ने उस समय क्या किया कि उस शिष्य के चारों ओर कोई तीन-चार हाथ की दूरी से रेखा खींच दी और कुछ मंत्रसा पढ़ दिया कि वह सर्प इस रेखा के अंदर न आ सके । उधर सर्प और भी क्रुद्ध होकर उसकी ओर आया । गुरु ने उस समय समझा कि यह डसेगा जरूर इस शिष्य को, मानेगा नहीं, और मानो इस समय बचा भी दिया तो बाद में फिर भी बदला ले सकता है सो उस गुरु ने क्या किया कि उस शिष्य की छाती पर बैठ गया । शिष्य जग भी गया, अब रात्रि को छाती पर बैठने का मतलब? शिष्य यह भी समझ सकता था कि गुरु मेरी हत्या करना चाह रहा, पर नहीं, उसको इतनी अटूट श्रद्धा थी गुरु पर कि यह हमारे लिए जो कुछ भी करेंगे सो भला ही करेंगे, यह विचार कर चुपचाप वह भक्त लेटा रहा और गुरु की करतूत देखता रहा । गुरु ने क्या किया कि किसी कांटे को शिष्य की छाती में चुभोया और कुछ दो-चार बूंद खून निकालकर एक पत्ते में रखकर रेखा के बाहर धर दिया । आखिर वह सर्प पहुंचा और उस खून को चाटकर अपना क्रोध शांत किया और वापिस लौट गया । उधर शिष्य को साधु ने सारी बात समझायी, यह सब कुछ हुआ, पर देखिये उस स्थिति में भी आदि से अंत तक उस शिष्य को गुरु के प्रति अनर्थ विषयक भ्रम नहीं हुआ, बल्कि श्रद्धा ज्यों की त्यों बनी रही कि हमारे गुरु महाराज हमारे लिए जो भी करेंगे सो हमारे भले के लिए करेंगे । तो जो कल्याण चाहने वाले पुरुष होते हैं उनको अपने गुरुवों के प्रति अटूट भक्ति होती है और वे प्रसन्न होते हैं तो उस प्रसन्नता की स्थिति में सुगम सरल एक घरेलू बोलचाल से वे शब्द निकलते हैं कि आत्मतत्त्व का ज्ञान वे बहुत आसानी से पाते हैं । तो गुरुप्रसाद से इस दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय आत्मा को जानकर योगी पुरुष नित्य ही उसका ध्यान करें, अथवा गुरु के मायने पंच गुरु भी ले सकते, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, उनके प्रसाद से आत्मारूपी प्रभु का लाभ होता है । सो उन सबमें भी प्रयोग-विधि में गुरु का पहला नंबर है क्योंकि गुरु के प्रसाद से ही अरहंत सिद्ध प्रभु परमात्मा का भी स्वरूप जाना जाता है । फिर गुरुप्रसाद से इस आत्मतत्त्व को जानकर इसका निरंतर ध्यान करना चाहिए । मैं यह दर्शन-ज्ञानस्वरूपी हूँ ऐसी भावना रहेगी और अन्य भ्रम कुछ न रहेंगे तो उसके संकट उसी समय दूर हैं और फिर कर्मसंकट भी उसके टल जाते हैं ।