वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 67
From जैनकोष
अप्पा णाऊण णरा कई सब्भावभावपब्भट्ठा ।
हिंडंति चाउरंगं विसएसु विमोहिया मूढा ꠰꠰67꠰꠰
विषयविमुग्धता का दुष्परिणाम―कितने ही पुरुषों ने आत्मा को जानकर आत्मा की भावना भी की लेकिन आत्मभावना से भ्रष्ट होकर विषयो में विमोहित होकर वे मिथ्यादृष्टि होते हुए चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते हैं । पहले बताया था कि आत्मा को जानना ही बड़ा कठिन है और आत्मा को जानकर आत्मा की भावना बनाना और भी कठिन है, आत्मा की भावना बनाकर भी विषयों से विरक्ति पाना और कठिन है, जो विषयों से विरक्त हुआ वह मोक्षमार्ग में लगता है । यहाँ यह बतला रहे हैं कि आत्मा को तो जान लिया पर पुन: आत्मस्वभाव से पतित होते हैं, विषयों में लगते हैं, स्पर्श, रस, गध, रूप, शब्द सुहाने लगे तो ऐसे मूढ़ पुरुष चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते हैं । यह मोक्षपाहुड़ ग्रंथ है, इसमें मुनियों को उपदेश किया गया है, जो मुनि आत्मा को जानकर भी बाद में स्वभावदृष्टि से हट गए और उन्हें स्पर्श आदिक सुहाने लगे और नामवर ख्याति कीर्ति की ओर उपयोग गया तो वह निर्ग्रंथ भेष केवल नाटक ही रहा, वह चारों गतियों में डोलता ही रहता है, मुनि का स्वरूप है समता । ‘‘अरि-मित्र महलससान कंचन-कांच निंदा-थुति करन । अर्घावतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन ।।’’ उनको संसार के किसी भी बाह्य पदार्थ से प्रयोजन न रहा, केवल आत्मस्वभाव की दृष्टि में ही निरंतर रहते हैं ꠰ प्रचार प्रभावना की समिति बनाना, अथवा कोई समारोह का आयोजन करना आदिक बातें तो मुनि से अत्यंत दूर हैं । मुनि तो एक दर्शनीय है, जिसके दर्शन से ही भक्तजन शिक्षा ग्रहण करते हैं । बाहरी किसी प्रोग्राम में, प्रयोग में, लौकिक बातों में नहीं पड़ते उन परिणमनों को कह रहे कि वह यदि विषयों में फिर अनुरक्त हो गया तो मूढ़ है और चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करता है ।