वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 68
From जैनकोष
जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया ।
छंडंति चाउरगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ꠰꠰68।।
चतुर्गतिभ्रमणपरिहार के अमोघ उपाय का संदर्शन―जो विषयों से विरक्त है वह आत्मा को जानकर आत्मभावना से सहित होकर, तपश्चरण गुण से युक्त होकर चतुर्गतिरूप संसार को छोड़ देता है, मुक्त हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं । जैसे संसार की और बातों में निमित्त-नैमित्तिक योग चलता है, रोटी बेलते हैं, चकला, बेलन आदि का प्रयोग करते हैं तो उसका निमित्त पाकर रोटी पसर जाती है, गरम तवा पर रोटी धरते हैं तो रोटी पक जाती है । निमित्त-नैमित्तिक योग सब जगह ठीक चल रहा, घड़ी में चाभी भर दी तो वहाँ ऐसे पेंच लगे हैं कि वह पेंच उस चाभी को हटाना चाहता है मगर क्रम से हटा पाता है और उस प्रकिया में सूई क्रम से चलती है, समय बन जाता है । सारे प्रयोग सारी बातें निमित्त-नैमित्तिक प्रयोगपूर्वक हो रही हैं । तो ऐसे ही कर्मबंध जो हो रहा था वह भी निमित्त-नैमित्तिक योग से हो रहा था, अब कर्म छूटेंगे तो उसकी भी कोई प्रक्रिया है, वहाँ भी निमित्त-नैमित्तिक योग है, तो वह क्या प्रयोग है, क्या तंत्र है, जिसका निमित्त पाकर कर्म छूट जाते हैं, उन्हीं तंत्रों का इसमें वर्णन है ।
विषयविरक्ति का कल्याण में प्रथम आदर―पहली बात विषयों से विरक्त होना, ज्ञानी जानता है कि इस लोक में कौन-सी वस्तु ऐसी है जिसे तूं ने बार-बार न छुवा हो, कौन-सा पदार्थ ऐसा है जिसका अनेकों बार रस न लिया हो, गंध न लिया हो, कौनसा रूप ऐसा है जिसको बार-बार न देखा हो, कौन-सा शब्द है ऐसा जिसे खूब न सुना हो?नाम ख्याति की बात जिस पर्याय में गए उसी में की । पशुओं में क्या अपने व्यक्तित्व की बात नहीं होती, ख्याति नहीं होती? अरे ! वे भी मान-अपमान महसूस करते । गाय, बैल, भैस आदि ये भी किसी बात को देखकर ऐसा ख्याल करते कि मेरा व्यक्तित्व बढ़ गया है या मेरा व्यक्तित्व घट गया है । या तो अपमान उन्हें महसूस होता या घमंड आता तब वे एक दूसरे पशु को भगाते फिरते हैं । पशु-पक्षियों में सबमें यह बात मिलती है । मनुष्य अपने ढंग से व्यक्तित्व की ख्याति की चाह करते हैं, अनेक भवों में अनेक पर्यायों में रहकर व्यक्तित्व की ख्याति की चाह की, इतने पर भी हे आत्मन ! तू संतुष्ट नहीं हुआ । एक इस ही जीवन में देख लो, कितने पदार्थ न खाये होंगे, न स्वादे होंगे अब तक? अनेक तरह के भोजन किए, खूब स्वाद से खाया मगर आज भी स्वाद के लिए ललचा रहे । तो यह प्रवृत्ति इस जीव को संसार में भटकाने वाली है । योगीजन अपने को समझाते हैं कि विषयों से विरक्ति पा लेना यह कल्याण का प्रथम तंत्र है ।
विषयविरक्ति, आत्मज्ञान, आत्मभावना व तपश्चरण गुणयुक्तता का फल चतुर्गति भ्रमणपरिहार―आत्मा का परिचय प्राप्त कर, मैं आत्मा अविकार स्वभाव हूँ; राग करने का, विकार करने का मेरे में स्वभाव ही नहीं है । विकार क्यों होता है? अपने आप अपने में विकार की गुंजाइश ही नहीं है, पर यह द्रव्य ऐसा है कि कर्म-उपाधि का संपर्क निमित्त पाकर यहाँ विकार प्रतिफलित होते हैं । जैसे सनीमा के पर्दे में पर्दे की ओर से कोई गुंजाइश नहीं कि उस पर चित्र बसे हों, मगर दूर से जो फिल्मों का अक्स पड़ता है उस पर्दे को चित्र युक्त होना ही पड़ता है, ऐसे ही आत्मा में खुद में अपने आपकी ओर से कोई गुंजाइश नहीं कि इसमें विकार हों, मगर ऐसा ही योग है कि अनुकूल पुद्गलकर्म-विपाक हो तो वहाँ प्रतिफलन होना ही पड़ता है । वही जीव का विकृत होना कहलाता है, तो योगीजन अपने आत्मा का ध्यान करते हैं और अपने को अविकार ज्ञानस्वरूप रूप में निरखते हें और इस अविकार स्वरूप ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की भावना में रहा करते हैं । जो आत्मभावना में रहता है उसके सहज तपश्चरण चलता है और कुछ जानकर भी तपश्चरण किया करते हैं । वे जानते हैं कि मौज से रहना, मौज में रहना, यह पाप की बात है; कुछ तपश्चरण हो, कोई दुःख आये सो दुःख तो लाते नहीं किंतु तपश्चरण की विधि बनाते हैं जिससे आत्मा की सुध बनी रहे । ऐसे पुरुष जो कि विषयों से विरक्त हैं, आत्मा के ज्ञानी हैं, आत्मभावना में रहते हैं और तपश्चरण गुण से युक्त हैं वे चतुर्गतिरूप संसार को त्याग देते हैं ।