वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 86
From जैनकोष
गहिऊण य सम्मतं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंप ।
त झाणे झाइज्जइ सावय दुक्खक्खयट्ठाए ꠰꠰86।।
दुःखप्रक्षय में सुनिर्मल सम्यक्त्व के ग्रहण की मूलकारणता―हे श्रावक ! अत्यंत निर्मल, मेरु पर्वत के समान निश्चल सम्यक्त्व को प्राप्त करने तथा दुःख का क्षय करने के लिए अपने ध्यान में ही सम्यक्त्व का ध्यान करो । इस गाथा में श्रावक कहकर संबोधन किया है, श्रावक का अर्थ गृहस्थ भी होता है और मुनि भी होता है, पर व्युत्पत्ति से श्रावक उपासक को कहते हैं, यह बात तो प्रसिद्ध ही है किंतु धर्म श्रावपतिपत्तिइति भाव का, जो धर्म का उपदेश करे, सुनाये उसे भी श्रावक कहते हैं । यद्यपि श्रावक शब्द से संबोधन किया है तो वह गृहस्थ और मुनि दोनों को संबोधन किया समझिये―चतुर्गति भ्रमणरूप दुःख का क्षय करने के लिए सम्यक्त्व का ध्यान करें । कैसा निमित्त-नैमित्तिक भाव है कि यह जीव विषय-कषायों के परिणाम करता है तो कर्म बंधते हैं, उन कर्मों का उदय आता है तो ये दुर्गतियां प्राप्त होती हैं । मनुष्य मरा और मानो अब इस जीव को कोई और पर्याय मिली, मानो हाथी घोड़ा आदि हुए तो देख लो वह कैसे शरीर को ग्रहण करता? कैसे अंगोपांग ग्रहण करता, सारा ही ढांचा उसका बदल जाता । बताओ, इसकी रचना करने वाला कौन है? अगर एक ईश्वर को सबके रचने का काम सौंप दिया जाये तो वह नहीं किया जा सकता और निमित्त-नैमित्तिक भाव, इससे ओटोमेटिक रचना होने के काम होते रहते हैं । यह निमित्तनैमित्तिक भाव मान लिया जाये तो किसी भी जगह रचना में दोष नहीं आ सकता । जहाँ जैसा निमित्त योग है वहाँ योग्य उपादान में उस प्रकार की रचना होती है, जैसे कर्म-प्रकृतियों का उदय है वैसी ही यहाँ देहादिक की रचना होती है । इसी प्रकार रत्नत्रयभाव होता है तो उसका निमित्त पाकर देह कर्म आदि सब दूर हो जाते हैं ।
देहबंधन जैसे क्लेशों की समाप्ति का मूल अवलंबन सुनिर्मल सम्यक्त्व का ग्रहण―हम आप लोगों को कोई कठिन दुःख है तो यही दुःख है कि भगवान-आत्मा होकर भी हम देह में बंधे फिर रहे हैं । और एक देह में ही नहीं, एक देह से निपटते हैं, दूसरे देह में बंधते हैं, और यह देहों में बंधना, जन्ममरण होना और
वे भी कितने प्रकार के देह हैं? अनगिनते तरह के । और उन जन्म-मरणों में चक्कर लगाना यह बड़ा कठिन दुःख है । आज पुण्य के उदय से कुछ सुख-साधन प्राप्त हुए है, इनमें मौज न मानना क्योंकि बड़ा कठिन दुःख तो सामने पड़ा है, उसको दूर करने का पुरुषार्थ करना है । और थोड़े समय को कुछ मिले और मौज माने तो उसका फल नियम से भोगना पड़ता है । बाह्य पदार्थों में लगाव रखने का फल कष्ट ही है । एक तो जिन बाह्य पदार्थों का लगाव रखते हैं वे मेरे पास सदाकाल रहें, यह ही बात कठिन है, सो उसका कष्ट मानना पड़ता है । कदाचित् रह भी लें साथ तो अंत में तो वियोग होगा, मरण होगा या अपने जीवन में ही नष्ट हो जायेगा तो उसका कष्ट मानता है । बाह्य पदार्थों के लगाव का फल सिर्फ कष्ट ही है, इस बात का गंभीरता से विचार करना चाहिए, और कोई इस जीवन में ऐसा ज्ञानमयी कदम बढ़ाना चाहिए जिससे आत्मा का कल्याण हो । मान लो जीते रहे, सुख दुःख भोगते रहे, लोगों से गप्पें मारते रहे, जीवन निकल गया, पायेंगे क्या फिर ? आखिर मरण करके अकेले ही जाना पड़ेगा और जैसा इसने पाप-पुण्य बांधा है उसका फल वैसा भोगना पड़ेगा । तो सबसे कठिन दुःख है संसारभ्रमण, उस दुःख का नाश करने के लिए एक ही उपाय है कि निर्मल सम्यक्त्व को ध्यान में लायें । अपना विचार, अपना ज्ञान बढ़ाये रहें, भाव दूषित न हो बस यही उपाय है भवभ्रमण के दुःख से छूटने का । सम्यक्त्व में क्या बात पहिचानी जाती है? समस्त पर से निराला, ज्ञानमात्र स्वभाव वाला यह मेरा अंतस्तत्त्व है, मेरा सर्वस्व है, यह ही मैं हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ और इसके आलंबन से इस ही में आत्मस्वरूप की दृढ़ता करने से भव-भव के बांधे हुए कर्म दूर होते हैं, इसको छोड़कर बाहर में किसी भी पदार्थ का आश्रय किया जाये, वह केवल कष्ट के लिए ही होता है । सो हे कल्याणार्थी पुरुष ! भवभ्रमण के दुःख से छूटने के लिए इस निर्मल सम्यक्त्व को ध्यान में लावो । आत्मा के स्वरूप में शंका न हो । यह हूँ मैं आत्मा अमूर्त ज्ञानस्वरूपी ।
अचलित सम्यक्त्व पाकर सहजात्मस्वरूप के ध्यान से दुःखप्रक्षय―कभी भी धर्म के प्रसंग में किसी भी अन्य वस्तु की चाह न करना । धर्मधारण करके अन्य वस्तु की चाह करना या किसी लौकिक सिद्धि के लिए देवपूजा आदिक करना, तीर्थयात्रा आदिक करना, यह मिथ्यात्व का पुष्ट करना है । कहने को तो जरूर है यह बात कि अपने तीर्थ पर जा रहा है मगर भाव चूंकि सांसारिक सुख को पाने का है, उस प्रयोजन से जा रहा है इसलिए मिथ्यात्व को पुष्ट कर रहा है ꠰ और एक बात यह सोचो, सांसारिक बातों की चाह से कुदेव को कोई पूजता हो तो उसके लिए तो उपाय है कि वहाँ से हटकर सुदेव की पूजा करने लगे मगर कोई सांसारिक बातों के लक्ष्य के प्रयोजन से सुदेव की पूजा करने लगे तो उसके लिए आगे और उपाय क्या रहा? बहुत बड़ा पाप है मगर आज प्राय: बहुत से लोग यात्रा, वंदन, पूजन, छत्र चढ़ाना और कुछ एक सांसारिक बातों के प्रयोजन से करते हैं; कारखाना चले, चलो अमुक जगह हो आयें महावीर जी, पद्मप्रभु जी या अन्य जगह, ऐसे भावों से जो कोई तीर्थयात्रा करता, वंदना करता, पूजन करता, वह केवल मिथ्यात्व को पुष्ट कर रहा ꠰ तो उसमें कोई इसकी बात रखते हैं कि कम से कम कुदेव के पास तो नहीं गए, अपन सांसारिक मान्यता के लिए अपने ही मंदिर में गए तो उसके दो उत्तर हैं? एक तो यह कि सांसारिक सुख के लिए यदि कुदेव के पास जाता होता तो उसका निवारण किया जा सकता था कि वहाँ से हटकर अपने देव के पास में आए पर वहाँ भी इस मिथ्यात्व को पुष्ट करे तो उसे और किस जगह ले जायेंगे? एक तो यह समस्या है, दूसरी यह बात कि ऐसी श्रद्धा वाले पुरुषों ने महावीर स्वामी को कुदेव बना डाला । वह तो जो है सो ही है, पर जब कल्पना में यह बात लाये कि ये मुझको अमुक-अमुक चीजें दे देंगे, अमुक बच्ची की शादी करा देंगे, मुकदमा जिता देंगे, ये मिथ्या व्यवहार है और उसकी बड़ी भक्ति भी करते हैं तो उसे अपनी कल्पना में कुदेव बना डाला, क्योंकि जो रागीद्वेषी हो वह है कुदेव और इसको वह रागी बना रहा है । तीसरी बात यह है कि जो अमेरिका वाले या अन्य जगहों वाले लोग जो नहीं जानते आपके इन तीर्थ क्षेत्रों को, अतिशय क्षेत्रों को, न वे उन क्षेत्रों में कभी पहुंचे हैं फिर भी वे आप सबसे तो अधिक धनिक दिख रहे । चौथी बात यह है कि यह जैनशासन पाया था, इसलिए कि यहाँ कोई तत्त्वज्ञान बनाये और आत्म-मनन करे, मोक्षमार्ग की बात बना ले, इसलिए जैनशासन पाया मगर विषयाभिलाषी पुरुषों ने मानो जैसे कौवा को भगाने के लिए कोई कीमती रत्न फेंके और वह रत्न समुद्र में गिर जाये या जूठे बर्तन मांजने के लिए चंदन की कीमती लकड़ी काटकर उसे जलाकर राख बनाकर बर्तन मांजे तो जैसी उसकी मूढ़ता है ऐसे ही यहाँ भी मूढ़ता है कि ऐसे उत्तम जैनशासन को पाया और अपना उपयोग मोक्षमार्ग का न बना सके और संसारमार्ग का ही उपयोग किया, सो भाई ! कल्याण चाहिये हो तो सम्यक्त्व को निर्मल बनाओ । यह सम्यग्दर्शन जिसके उत्पन्न हुआ है वह मेरु के समान निष्कंप अचल है, उसको कोई बहकाने वाला नहीं है, इसका कारण यह है कि उसने सहज निरपेक्ष आत्मा के चैतन्यस्वरूप के अनुभव में अलौकिक आनंद पाया है । कोई मिष्ठ भोजन करे, उसका स्वाद ले-ले और कोई बहकाये कि वह तो कडुवा है, खराब है तो वह बहक तो नहीं सकता क्योंकि उसने अनुभव पाया है कि यह तो बड़ा मिष्ठ है और लाभदायक है तो ऐसे ही अपनी सत्ता के ही कारण अनादि अनंत सहज चित्प्रतिभासमात्र अपने आपको स्वीकारा है और इस ही रूप अपने को निरंतर देखता है तो उस देखने में विचित्र अलौकिक सहज आनंद का अनुभव किया है अब उसे कौन बहका सकता? वह सम्यग्दृष्टि पुरुष का निश्चल है सम्यक्त्व, मेरु के समान, ऐसे इस सम्यक्त्व को निरतिचार ध्यान में लावो ।