वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 87
From जैनकोष
सम्मत्तं जो झायदि सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो ।
सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि ।।87।।
सम्यक्त्वध्याता व सम्यक्त्व परिणत के दुष्टाष्टकर्मप्रक्षय―जो जीव सम्यक्त्व का ध्यान करता है याने सम्यक्त्व के विषय का ध्यान करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है । सम्यग्दर्शन का विषय क्या है? स्वयं सहज रहने वाला स्वरूप, मैं सत् हूँ, हूँ मेरा स्वरूप ही तो है अपने आप सहज सिद्ध । उस स्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसा श्रद्धान, ऐसा अनुभव, ऐसी ही प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है । अब विपरीतरूप को देखिये―मैं अमुक का पिता हूँ, पुत्र हूँ, इस रूप से श्रद्धान करना मिथ्यादर्शन है, क्योंकि मैं एक अमूर्त ज्ञानस्वरूप वस्तु हूँ और निरंतर ज्ञानरूप से परिणमता रहता हूँ । मेरा कोई कुछ दूसरा नहीं है, मेरा तो मैं यही मात्र हूँ, अपने बारे में जिसको ऐसी श्रद्धा हो कि मैं इस परिणति वाला हूँ, इस पर्यायरूप हूँ उसको मिथ्यात्व समझिये । श्रद्धा की बात है और इस मिथ्यात्व के रंग में कितनी बातें आ जातीं जिनकी गिनती करना कठिन है । थोड़ा समझिये, मैं गृहस्थ हूँ, अमुक नगर का रहने वाला हूँ, मैं जैन हूँ, मैं धर्मपालन करने वाला हूँ, मैं श्रावक हूँ, मुनि हूँ, मैं ऐसी-ऐसी तपस्यावों को किया करता हूँ आदिक जितने भी ये श्रद्धान हैं वे सब मिथ्यात्व कहलाते हैं, क्यों कहलाते? श्रद्धा यह होना चाहिए कि मैं ज्ञानमात्र भगवान-आत्मा हूँ, फिर आप एक बात का प्रश्न कर सकेंगे कि ऐसी ही श्रद्धा रखते हुए भी जब तक घर में रह रहे हैं, समाज में रह रहे हैं तब तक और और भी व्यवस्था प्रबंध पद भी तो बोले जाते हैं । मैं श्रावकधर्म में हूँ, मैं मुनि धर्म में हूँ, हाँं बोले जाते, पर उनके प्रति यह श्रद्धा रहे कि मैं इन परिस्थितियों से गुजर कर चल रहा हूँ तब तो सम्यक्त्व में बाधा नहीं आती । मैं मुनिपद में गुजरकर चल रहा हूँ, हूँ मैं अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मा, और इस परिस्थिति में गुजर कर भी उसका प्रयोजन है, लक्ष्य है इस अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मा को ध्यान में लेने का । यह तो एक गुजारा है, परिस्थिति है, जीवन तो चलाना है काहे के लिए? संयम-साधना के लिए । गृहस्थ अपने जीवन का निर्वाह करते हैं त्रिवर्ग की साधना करके, पालनपोषण कमाई, कुछ धार्मिक संस्कार-व्यवस्था, गुरुसेवा आदिक करके और मुनि गुजारा करता है समिति पालन करके, भिक्षावृत्ति से आहार करके, या जो-जो भी व्रत बताये गए उनको भलीभांति से पालन कर मुनि भी गुजारा करता है, यह स्वयं धर्म नहीं किंतु गुजारा करने की विधि है ꠰ तब स्वयं धर्म क्या है? आत्मा के सहजस्वरूप का दर्शनज्ञान और स्वरूप में रमण, यह है धर्मपालन । देखो, श्रावक के गुजारे की जो पद्धति है वह श्रावक के लिए अच्छी है, क्योंकि उस पद्धति से गुजारा करते हुए श्रावकों को आत्मध्यान के मौके मिलते रहते हैं और मुनियों को जो गुजारे की पद्धति चरणानुयोग में कही है वह मुनियों के लिए उत्तम है, क्योंकि ये धर्मपालन में बहुत बड़े होते हैं, और ऐसा ऊ̐चा धर्मध्यान उनको इस प्रकार की निरपेक्षवृत्ति से गुजारा करने में ही संभव है, पर धर्मपालन तो स्वभावदृष्टि है, दूसरी चीज नहीं है, यही श्रावक के लिए, यही मुनि के लिए । सो हे कल्याणार्थी पुरुष ! यह सम्यग्दर्शन अमूल्य माणिक्य के समान है । जो जीव निरंतर इसका ध्यान करते हैं वो सम्यग्दृष्टि होते हैं और सम्यक्त्वरूप से परिणत होकर अष्टकर्मों का विनाश करते हैं ।
संकटहीन अविकारस्वभाव ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व के आश्रय से संकटमुक्ति―बाहरी पदार्थों का संयोग-वियोग करने से संकट नहीं मिटते । एक संकट मिटाने का प्रयास किया तो दूसरा संकट हाजिर । लोग जीवन में संकट दूर करने का पुरुषार्थ करते हैं पर उनके संकट दूर नहीं होते । संकट दूर करने का केवल एक ही उपाय है―संकटहीन, विकारहीन, स्वरूपमात्र, अपने सत्य स्वरूप की प्रतीति करना कि मैं यह हूँ ꠰ लो, सारे संकट दूर हो गए । जब तक ममत्व है तब तक संकट है । बाह्य वस्तु में ममत्व न रहा तो संकट भी न रहे, गृहस्थ भी ममत्व को छोड़कर गृहस्थी में रह सकता । हां, प्रेम और राग का व्यवहार किए बिना गृहस्थी में नहीं रह सकता, पर ममता को छोड़कर तो बराबर रह सकते । वस्तुस्वरूप से यह समझ लें कि प्रत्येक आत्मा अपनी-अपनी सत्ता से ही है, दूसरे की सत्ता से नहीं है, इसलिए एक का दूसरा कुछ नहीं है, यह सही बात जिन्होंने मान ली उनकी ममता खतम होती है । अब चूंकि घर में रह रहे हैं तो प्रेम-व्यवहार बिना नहीं रह सकते, सो प्रेम-व्यवहार तो गृहस्थी में होगा, पर जो ममता रखेगा उसको बड़ा कष्ट है, जिसको ममता नहीं उसको कष्ट नहीं होता । सो कष्टरहित, विकाररहित जो सहज ज्ञानस्वभाव है उस रूप अपने को मानो । बात यह कही जा रही है कि अपने को अमुक कुटुंब वाला, अमुक का बाप, अमुक का लड़का, अमुक मोहल्ले वाला, ऐसी सोहबत संगत वाला, यह सब मत मानो । यहाँ तक कि अपने को मनुष्य तक मत मानो । देखो जगत् ने अन्य लोग मानवधर्म की बड़ी महिमा बताते हैं, सो वह ठीक है । जो दानव बन रहा, जो खोटे आचरण में चल रहा उसकी अपेक्षा मानवधर्म अच्छा है, मगर मुक्ति पाने के लिए अपने को मानवधर्म में बनाये रखना, अपने को मानव समझना यह बाधक है । मैं मनुष्य नहीं हूँ, मैं ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मपदार्थ हूँ, यह मनुष्यपना तो मिट जायेगा, आगे न चलेगा, मैं आगे चलूंगा तो ऐसी भीतर दृष्टि करके अपने आत्मतत्त्व को निरखना है । उसी के आलंबन से संसार-भ्रमण का यह कष्ट दूर हो सकता है ।