वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - गाथा 10-4
From जैनकोष
अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्य: ।। 10-4 ।।
सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन व सिद्धत्व का मोक्ष में अनुभवन―केवल सम्यक्त्व, केवल ज्ञान, केवल दर्शन और सिद्धपने को छोड़कर बाकी भावों का नाश होता है, इतना भाव, यहाँ छोड़ दिया गया है । यहाँ अन्यत्र शब्द से इन्हें छोड़कर अर्थ लेना है याने इनके सिवाय शेष का विनाश होता है । यहाँ यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है कि जब एक यह बात कही गई कि इन भावों के विनाश से मोक्ष होता है, याने क्रोधादिक जो विभाव हैं, नैमित्तिक भाव हैं उनके विनाश से मोक्ष होता है तो जैसे औपशमिक आदिक भावों की निवृत्ति कही गई थी उसी प्रकार समस्त क्षायिक भावों की भी निवृत्ति हो जाएगी, फिर तो मुक्त जीव का नाम भी न बताया जा सकेगा, क्योंकि जब पूछा जायेगा कि बतलाओ मुक्ति का क्या स्वरूप है, तो फिर आप क्या बतायेंगे? जब कोई भाव ही उनमें न रहा तो उनकी आप क्या तारीफ करेंगे? तारीफ तो यों की जाती है कि उनके अनंत ज्ञान है अनंत दर्शन है, क्षायिक सम्यक्त्व है और सिद्धपना है । अब कल्पना करो कि शंकाकार के आशय के अनुसार सर्व जीवों का अभाव हो जाये तो मुक्ति का नाम भी नहीं लिया जा सकता इसलिए इन विशेष भावों का वर्णन करना आवश्यक हो गया है ।
केवलज्ञान केवल दर्शन के अविनाभावी अनंतवीर्यादि भावों का केवल ज्ञान केवल दर्शन में अंतर्भाव―यहां एक जिज्ञासु कहता है कि इस सूत्र में सम्यक्त्व, केवल ज्ञान, केवल दर्शन और सिद्धत्व, इन चार को ही बचाया है अर्थात ये चार मुक्त जीव में सदा रहते हैं, बाकी का अभाव हो जाता है, सो ऐसा कहने से अनंत वीर्य आदिक भावों का भी अभाव हो बैठेगा, क्योंकि क्षायिक भावों में से यहाँ चार ही भाव लिए गए हैं । क्षायिक भाव 9 हैं और एक सिद्धत्व साधारण रूप से सर्व कर्मों का अभाव होने से बना है, उनमें से सिर्फ चार ही नाम बताये गए, फिर अन्य का सद्भाव कैसे माना जायेगा? इस जिज्ञासा के समाधान में कहते हैं कि अनंतवीर्य आदिक का मुक्त जीवों में अभाव नहीं है, इन सब भावों का केवल ज्ञान और केवल दर्शन में ही अंतर्भाव हो गया है, क्योंकि दे अन्य भाव केवलज्ञान, केवलदर्शन के अविनाभावी है । जैसे प्रभु के केवलज्ञान हुआ है तो क्या अनंतवीर्य के बिना केवलज्ञान परिणमन हो सकता है? अब उनका अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, यह परिणमन सदा बना रहेगा, डटा रहेगा, ऐसा होने में अनंत वीर्य चाहिए ही, ऐसी जिसके अनंत सामर्थ्य नहीं है उसके अनंत ज्ञान का उपयोग बन ही नहीं सकता, और कोई कहे कि अनंत सुख नहीं कहा गया सो उसका भी अंतर्भाव यहाँ ही करना, क्योंकि जहाँ अनंत ज्ञान है वहां अनंत सुख है । सुख ज्ञानमय ही तो है । ज्ञान से अतिरिक्त सुख नहीं, ज्ञाताद्रष्टा रहना यह ही सुख का स्वरूप है । यद्यपि भेद दृष्टि से गुण अनेक बताये गये हैं, पर अभेद दृष्टि में सर्व का अंतर्भाव ज्ञान दर्शन में हो जाता है।
बंध कारणों का उच्छेद होने पर बंध की असंभवता―अब यहाँ जिज्ञासु कहता है कि हो गया मोक्ष मगर बंध की अव्यवस्था तो बनी रहेगी । जैसे कोई घोड़ा बंधा था, छूट गया घोड़ा, मगर वह फिर भी तो बंध सकता है । तो जैसे घोड़ा आदिक किसी एक का बंध निकल गया फिर भी बाद में अन्य बंध तो संभव है ही, ऐसे ही किसी जीव में बंध न रहा तो भी अन्य बंध तो संभव हैं, एक बंध न रहा नया बंध हो जायेगा । इसके समाधान में कहते हैं कि मुक्त जीवों के अब कभी भी बंध संभव नहीं है, क्योंकि मिथ्यादर्शन आदिक बंध के कारणों का विनाश हो जाने पर फिर वह कार्य कभी हो ही नहीं सकता । तो पुन: बंध के हेतु नहीं बन सकते इस कारण मुक्त जीवों का कभी बंध नहीं हो सकते । जिज्ञासु पुन: प्रश्न करता है कि भगवान जब समस्त प्राणियों को निरख रहे हैं तो जो जीव आपत्ति में पड़े हुए हैं, व्याकुल हो रहे, दुःखी हो रहे, ऐसा इस जगत को जानते हुए भगवान के करुणा तो हो जायेगी और जब कारुण्य हो गया तो बंध भी हो जायेगा, क्योंकि यहाँ देखते हैं कि अच्छा से अच्छा ज्ञानी भी जब किसी दुःखी को देखता है तो उसका चित्त अगर दया से न भरे तो कहा जायेगा कि इसका हृदय कठोर है । पर भगवान का हृदय कठोर तो न होना चाहिए । दुःखी जीवों को देखकर दया हो ही जायेगी और दया होने से फिर बंध हो गया । इसके समाधान में कहते हैं कि मुक्त जीवों के समस्त आस्रवों का क्षय हो चुका है । भक्ति, परिणाम, दया आदिक जो भी भाव हैं वे-वे सब राग के विकल्प हैं, राग का कोई भी विकल्प वीतराग प्रभु में नहीं हो सकता । सो राग विकल्प न होने से मुक्त जीवों में कभी भी बंध संभव नहीं हो सकता । यदि कारण के बिना ही मुक्त जीवों को मुक्ति होने लगे तो मोक्ष नाम की कोई चीज ही न कहलायेगी । मुक्त हो गए, फिर कभी बंध गए फिर मोक्ष क्या है? सो मुक्त जीवों के जैसे सर्व कर्मों का क्षय हुआ है वैसे ही सर्व इन राग विकल्पों का भी क्षय हो चुका है । इस कारण उनकी मुक्ति सदा रहेगी ।
मुक्त जीवों के पतन की असंभवता―अब यहाँ एक शंकाकार कहता है कि मुक्त जीव तो लोक के अग्र भाग में रहते हैं, और वे भी हैं बहुत ऊपर । तो स्थान वाले हैं मुक्त जीव सो कभी उनका स्थान से गिरना भी संभव हो जायेगा । जैसे अनेक चीजें जिस स्थान पर रखी हैं उससे हट भी जाती हैं, इसके उत्तर में कहते हैं कि यह शंका बिल्कुल निर्मूल है । जब प्रभु आस्रवरहित हो गये तो उनका नीचे गिरना कैसे संभव है? जिसमें जल आ रहा हो ऐसी नौका वगैरह में उसका तो नीचे पतन देखा जाता है, पर आस्रव न हो, कोई दूसरी उपाधि आ ही न रही हो तो उसका अध: पतन कैसे होगा? भगवान मुक्त जीव आस्रवरहित हैं, वे कभी अपने स्थान से गिर नहीं सकते । दूसरी बात यह जानें कि मुक्त जीवों में अब गुरुता न रही, वजन न रहा । जब तक कर्म का और शरीर का संबंध था तब तक गुरुता थी । अब वह गुरुता (वजन) न रही तो उनके स्थान से गिरने का प्रश्न ही क्या? जो वजनदार हो ताड़फल वगैरह उनका डंठल का संयोग मिट जाये तो वह नीचे ही गिरता है, पर जैसे आकाश के प्रदेश हैं, उसमें वजन कुछ नहीं है तो क्या आकाश के प्रदेश भी गिर जाते हैं? ऐसे ही मुक्त जीवों में भी गुरुता (वजन) न रही । जैसे आकाश के प्रदेश हैं वैसे ही मुक्त जीवों के प्रदेश हैं, आकाश हैं सीमा रहित । मुक्त जीवों के प्रदेश हैं सीमा सहित । आकाश है अचेतन, मुक्त जीव हैं चेतन । यह तो अंतर है, पर प्रदेश की दृष्टि से देखें तो आकाश की तरह ही आत्मा अमूर्त है । यदि स्थान वाला होने से पतन का नियम बनाया जाए तो धर्मादिक द्रव्य भी तो एक स्थान में हैं । उनका कैसे पतन नहीं होता? तो मुक्त जीव मुक्त हुए लोक के अग्र भाग पर स्थित हैं । अब वे कभी भी अपने पद से गिर नहीं सकते ।
अवगाहन गुण के कारण एक में अनेक सिद्धों का अवस्थान―अब यहाँ एक शंकाकार कहता है कि सिद्ध लोक में स्थान तो 45 लाख योजन मात्र है । जितना यहाँ ढाई द्वीप में स्थान है उतना ही स्थान सिद्धलोक में है पर सिद्ध तो हैं अनंत संख्या में । जैसे कि करणानुयोग में बताया है कि लोक में सबसे कम जीव मनुष्यगति के हैं । उनसे-उनसे असंख्यातगुने नरकगति के हैं । उनसे असंख्यातगुने देवगति के हैं । उनसे असंख्यातगुने त्रस जीव हैं और उनसे असंख्यातगुने निगोद को छोड़कर सब स्थावर जीव हैं । और उनसे अनंतगुने सिद्ध भगवान हैं उनसे अनंतगुने निगोदिया जीव हैं । तो निगोद जीवों की जो गणना है उसके बाद का नंबर सिद्ध भगवान का बताया, तो इतने अनंत सिद्ध हैं । वे उतने से स्थान में कैसे रह सकते हैं? वे तो एक में एक टकरायेंगे । तो इसके उत्तर में कहते हैं कि यह प्रश्न बिना विचारे किया गया है । सिद्ध भगवान में अवगाहन शक्ति है । सिद्धप्रभु के जो 8 मूल गुण बताये गए हैं । उनमें एक अवगाहन नाम का भी गुण है सो सिद्ध प्रभु तो स्पष्ट अमूर्त हैं, वहाँ तो कितना ही अवगाहन हो जाये । पर यहाँ भी देखिये जो मूर्तिमान पदार्थ हैं । जैसे अनेक रत्नदीपकों का प्रकाश । सो थोड़ी सी भी जगह में उन सबका प्रकाश समा जाता है, वहाँ तो विरोध नहीं आता, फिर जो अमूर्तिक है, अवगाहन शक्ति से युक्त है । मुक्त जीवों में विरोध का क्या काम? वे पभु अमूर्त हैं । इसी कारण से तो प्रीति परिताप आदिक का संबंध नहीं होता । अमूर्त है स्पष्ट याने उपचार से भी मूर्त नहीं है । सो उनमें जन्म मरण बाध आदिक कुछ नहीं होते । प्रभु तो बाधारहित हैं, परम आनंदमय हैं । मुक्त जीवों के जो आनंद है । ज्ञान का विकास है उसका कोई अपमान नहीं हो सकता याने कोई दृष्टांत नहीं मिल सकता कि मुक्त भगवंत का ज्ञान व सुख अमुक की तरह है । यदि दृष्टांत भी दिए जायेगा तो मुक्त जीवों के ज्ञान सुख के लिये मुक्त जीवों का ही दृष्टांत दिया जा सकता । जहाँ ज्ञान और सुख हीनाधिक होता है वहाँ याने संसार में तो ज्ञान सुख का उदाहरण दिया जा सकता, पर मुक्त जीवों का तो निरतिशय ज्ञान है अर्थात संपूर्ण ज्ञान है, इस कारण उसकी उपमा के लिये जगत में कोई भी वस्तु नहीं है ।
मुक्त जीवों के आकार को चरम शरीरानुविधायिता―अब यहाँ एक शंकाकार कहता है कि मुक्त जीवों में आकार तो कुछ है नहीं, जैसे संसारी मनुष्यादिक में आकार देखा जाता है । आँखों से नजर आता है, ऐसे ही वहाँ आकार न होने से मुक्त जीवों का अभाव ही समझियेगा । इसके उत्तर में कहते हैं कि मुक्त जीवों के आकार नहीं है, ऐसा कहना अयुक्त है । मुक्त जीव जिस भव के बाद मुक्त हुए थे अब पुरुष भव का जो शरीर है उसका आकार अब भी उनका आत्मा है । और उस प्रमाण में आत्मा है जिस प्रमाण में शरीर था । तो उनका आकार चरम शरीर के आकार का अनुविधान ही तो है अर्थात उसके अनुसार उनका आकार है । शंकाकार पुन: कहता है कि जब शरीर के अनुविधायी हैं सिद्ध अर्थात जैसा शरीर था वैसा ही वह अब आकार में जीव है । यह बात आप कहते हो सो तो ठीक मगर जब तक शरीर है तब ही तक तो शरीर के आकार आत्मा होगा । शरीर के अभाव होने से उस आत्मा का आकार भी फैल जाना चाहिये । जैसे कि कर्मों का विनाश होने से ज्ञानादिक का पूरा विकास हो जाता है तो शरीर के हट जाने से लोकाकाश के प्रदेश पूरे लोक में फैल जाने चाहिये सिद्ध भगवंतों के । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि मुक्त जीव जिस चरम शरीर से मुक्त हुये हैं उस ही के आकार रहते हैं, अन्य आकार नहीं बनते । इसे का कारण यह है कि अन्य प्रकार के आकार बनने का वहाँ कोई कारण नहीं है । आत्मा के प्रदेश फैले इसमें कर्मोंदय कारण हुआ करता है, पर वहाँ कर्म हैं ही नहीं तो फैलने का कोई कारण न रहा । इसी प्रकार सिकुड़ने का भी कोई कारण न रहा । जो आकार मुक्त होते समय है उस आकार से भिन्न किसी आकार पाने का कोई कारण नहीं है ।
जीव के प्रदेशों के संकोच विस्तार के कारण पर प्रकाश―यह जीव संसार अवस्था में जो सिकुड़ता और फैलता था । वह हाथी के शरीर में गया तो उतना फैल गया, चींटी के शरीर में गया तो सिकुड़ गया । तो यह संकोच और विस्तार नाम कर्म के संबंध से हो रहा था जैसे दीपक का प्रकाश फैले और सिकुड़े यह उस आधारभूत क्षेत्र के अनुसार है । घड़े में दीपक धर दिया उतने में ही प्रकाश रहेगा, किसी बड़े बर्तन में रख दिया तो उतने में प्रकाश जलेगा । कमरे में रख दिया तो कमरे में प्रकाश जलेगा । तो जैसे उपाधि के संबंध से दीपक प्रकाश का फैलना सिकुड़ना होता है उसी तरह नामकर्म के संबंध से इस जीव के आकार सिकुड़ना, फैलना होता था । अब नामकर्म रहा नहीं । कोई भी कर्म नहीं है तो जो आकार मुक्त होते समय जीव का था वही आकार रह जाता है । अब शंकाकार पुन: कहता है कि आत्मा में आकार फैलता और सिकुड़ता था । उसे समझाने के लिए दीपक का जो दृष्टांत दिया है उसमें तो भ्रम हो जाता है । दीपक तो मूर्तिमान चीज है, आत्मा अमूर्त है, तो अमूर्त में किसी कार्य के उदाहरण में मूर्तिमान का उदाहरण फिट नहीं हो सकता, तो यह दृष्टांत युक्त न रहा । इसके उत्तर में कहते हैं कि यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि संसार अवस्था में जीव को कथंचित् अमूर्त और कथंचित मूर्त कहा जाता है । जब जीव के उपयोग स्वलक्षण की अपेक्षा देखा जाए तो वह अमूर्त है । ज्ञानोपयोग, वहाँ मूर्त का क्या मतलब? और जब बंध परिणाम की अपेक्षा से देखा जाये तो वह जीव मूर्त है । तो जब किसी प्रकार मूर्तपना संसार अवस्था में सिद्ध होता है तब तो दृष्टांत ठीक रहा ना?
दृष्टांत में दृार्ष्टांतगत विवक्षित धर्म साधकता―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि संसार अवस्था में यह जीव सिकुड़ता था और फैलता था दीपक के प्रकाश की तरह तो जैसे दीपक का प्रकाश सिकुड़ने और फैलने के धर्म वाला होने से अनित्य भी तो है, उसका विनाश होता है तो ऐसे ही जब जीव सिकुड़ता है और फैलता है तो उसका भी विनाश हो जाना चाहिए । इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि दृष्टांत जो दिया जाता है सो जिस गुण की प्रसिद्धि के लिए दिया जाता है उस ही के लिए अर्थ लगाया जाता है, अन्य सभी बातों के लिये नहीं लगाया जाता । जैसे किसी ने कहा कि यह कन्या चंद्रमुखी है तो क्या कोई वहाँ यह शंका करता है कि जितने गुण चंद्र में हैं वे सब इसमें आ जायेंगे? वहाँ तो केवल इसलिए चंद्र की उपमा दी कि जैसे चंद्र देखने में भला लगता है ऐसे ही यह कन्या देखने में भली लगती है । इतना भर अर्थ है । कहीं चंद्र का दृष्टांत देने से यह अर्थ न हो जाएगा कि चंद्र जड़ है तो यह भी जड़ है या चंद्र में जो-जो गुण हैं वे-वे सब गुण इसमें हैं, तो ऐसे ही आत्मा के संकोच विस्तार के लिए जो दीप प्रकाश का दृष्टांत दिया है सो यद्यपि दीप में अनेकों गुण हैं लेकिन दृष्टांत तो केवल संकोच और विस्तार की समानता बताने के लिए दिया गया है । अगर दृष्टांत की सारी बातें दृष्टांत में ली जायें तो दुनिया में कोई दृष्टांत हो ही नहीं सकता ।
आत्मा के अभाव को मोक्ष बताने वाले दार्शनिक के सिद्धांत की मीमांसा―यहाँ एक दार्शनिक प्रश्न करता है कि मोक्ष तो आत्मा के सर्वथा अभाव का नाम है, जैसे दीपक जल रहा है तो दीपक का मोक्ष क्या कहलायेगा? दीपक बुझ गया, नहीं रहा इसी के मायने मोक्ष है । तो ऐसे ही आत्मा का मोक्ष हो गया, इसका अर्थ यह होना चाहिए कि अब आत्मा न रहा, बुझ गया, इसी ही का नाम मोक्ष है । जैसे वही तैल अग्नि इनका संबंध होने पर वह दीपक जलता रहता है और वह निरंतर जल रहा है और उनका विनाश हो जाए, बत्ती न रहे, तैल न रहे तो वह दीपक कहाँ जलता है? न वह पूरब पश्चिम की ओर जाता है, न ऊपर नीचे कहीं जाता है, बस वहीं अत्यंत विनाश को प्राप्त होता है, ऐसे ही कारणवश स्कंधों की संतति चल रही है । तो वह स्कंध समूह का ही नाम जीव रख दिया गया था, अब समस्त क्लेश नष्ट हो गए तो वह जीव न तो किसी दिशा को जाता है, न किसी विदिशा को जाता है, किंतु वहाँ ही अत्यंत प्रत्यय को प्राप्त होता है, इस कारण हम तो यह ही समझते हैं कि जीव के सर्वथा अभाव हो जाने का नाम मोक्ष है । अब उक्त शंका के उत्तर में कहते हैं कि दीपक का भी निरन्वय नाश नहीं होता । दीपक में जो परमाणु हैं वे परमाणु उजेले रूप न रहे, इतनी ही तो बात हुई मगर अंधेरे रूप हो गये, वे परमाणु जायेंगे कहाँ? उन परमाणुओं का नाश नहीं होता, ऐसे ही कर्म का अभाव हो जाने पर आत्मा का नाश नहीं होता, या आत्मा के विभावों का संतान मिट जाने पर आत्मा का नाश नहीं होता । यह बात स्पष्ट भी देखी गई कि जैसे कोई पुरुष सांकल आदिक से बंधा है तो साँकल आदिक तोड़ देने पर क्या वह पुरुष भी मिट जाता है? वह पुरुष तो रहता ही है, ऐसे ही बंध छुटकारा हो जाने पर कर्म बंध नहीं रहता, पर आत्मा तो रहता ही है ।
कर्मबंध से मुक्त हो जाने पर उसी स्थान पर मुक्त जीवों के रहे आने की आशंका―यहाँ यह भी शंका न रखना चाहिए कि जिस जगह में कर्म दूर हुए हैं, मुक्त भगवान को उसी जगह रहना चाहिए, क्योंकि गति का कारण कुछ न रहा । जब तक कर्म थे तब तक जीव यहाँ वहाँ भटकता था । जब कर्म नष्ट हो गये तो अब यह जीव ऊपर कैसे जायेगा? दिशाओं में कैसे जायेगा? इसलिए जहाँ से मुक्ति हुई है वहाँ ही भगवंत को रहना चाहिये । इसके उत्तर में कहते हैं कि जो शंका की है उसका उत्तर अभी दिया जायेगा, यह प्रश्न अभी विचारणीय है कि उस मुक्त को वहीं ठहरना चाहिए या बंध का अभाव होने से उसे गमन करना चाहिए? यहाँ तो इतना मानो कि बंध हट जाने पर आत्मा का विनाश नहीं होता, वह स्थिर है । अब रही यह शंका कि मुक्त आत्मा में वजन तो है नहीं इसलिए नीचे नहीं जा सकता और योग रहा नहीं सो तिरछा आदिक गति भी नहीं हो सकती, सो उन्हें वहीं ठहरना चाहिए । इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए अब सूत्र कहते हैं ।