वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - गाथा 10-5
From जैनकोष
तदनंतरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकांतात् ।। 10-5 ।।
सर्वकर्म विप्रमोक्ष के अनंतर मुक्तात्मा का ऊर्ध्वगमन―कर्मों के क्षय के अनंतर यह जीव ऊपर जाता है लोकपर्यंत । जहाँ तक लोक है वहाँ तक इसका गमन है । इसका बाह्य कारण यह है कि धर्मास्तिकाय लोक में है अलोक में नहीं, और धर्मास्तिकाय का निमित्त पाकर गति हुआ करती है । तो आगे धर्मास्तिकाय न होने से वह इससे ऊपर नहीं गया । इस संबंध में आगे अलग सूत्र आयेगा । वहाँ इसका विवरण किया जायेगा, पर संक्षेप में यह जानें कि धर्मास्तिकाय एक अलग द्रव्य है गमन करने वाला मुक्त जीव एक अलग चेतन द्रव्य है । कोई द्रव्य किसी द्रव्य की परिणति नहीं करता, तो धर्मास्तिकाय ने उसे जबरदस्ती चलाया नहीं, धर्मास्तिकाय ने जीव को जबरदस्ती ठहराया नहीं । जैसे कि जल मछली को जबरदस्ती चलाता नहीं, मछली में चलने की योग्यता है तो वह जल का निमित्त पाकर चल देती है, तो ऐसे ही जीव पुद्गल चलने के योग्य हैं तो धर्मास्तिकाय का निमित्त पाकर चल देते हैं । सो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को परिणमाता नहीं, पर निमित्त नैमित्तिक भाव सर्वत्र अबाधित है । तो सूत्र में तदंतरम् इसमें दिये हुये तत् शब्द से दूसरे सूत्र में कहे गये सर्व कर्म से मोक्ष होने का ग्रहण किया है । जैसे ही जीव कर्मों से अलग होता है तो एकदम सीधा ऊर्द्धगति से गमन करने लगेगा, शिखर पर विराजमान हो जाता है, यहाँ अलोकांतात् शब्द में जो आम् का प्रयोग किया है उसका अर्थ अभिविधि है, अर्थात् लोकपर्यंत और अभिविधि ऐसे दो प्रकार होते हैं । जैसे यहाँ तक जायेगा, ऐसा कहने पर वह स्थान के अंत तक गया, ये दो अभिविधि अर्थ हैं और एक उस स्थान से पहले तक गया यह मर्यादा अर्थ है । तो यहाँ लोक के अंत तक गमन है अर्थात जहाँ वे विराजे हैं उसके बाद लोकाकाश नहीं है । अब यह जिज्ञासा होने पर कि कैसे जानें कि यह जीव ऊर्धगमन करके लोक के अंत में विराजमान होता है? उसका निर्णय करने के लिए हेतु और दृष्टांत दोनों को बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।