वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-28
From जैनकोष
आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ।। 9-28 ।।
ध्यान के प्रकारों का निर्देशन―ध्यान 4 प्रकार का है―(1) आर्तध्यान (2) रौद्रध्यान (3) धर्मध्यान और (4) शुक्लध्यान । ऋत मायने दुःख है और आर्त मायने भी दुःख है । सो दुःख में होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं । जैसे लोग कहते हैं कि क्यों आर्तध्यान करते? मायने संक्लेश पीड़ा वाला ध्यान क्यों करते? यह आर्तध्यान खोटा ध्यान है । रुद्र क्रूर को कहते हैं । जो रुलाने वाला हो उसे रुद्र कहते हैं । और रुद्र का जो कर्म है अथवा रुद्र में होने वाला जो ध्यान है उसे रौद्र ध्यान कहते हैं । यह रौद्र ध्यान आर्तध्यान से भी खोटा है । धर्म मुक्त ध्यान को धर्म ध्यान कहते हैं । जिस ध्यान में आत्मदृष्टि बने, परमात्मस्वरूप का स्मरण बने सर्व जीवों में समता का भाव बने आदिक धर्म संबंधी ध्यान को धर्मध्यान कहते हैं और स्वच्छ ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं । जैसे मैल हट जाने से कपड़ा साफ होकर शुक्ल कहलाता है इसी प्रकार कषायों का मैल हटने से जो निर्मल गुणरूपी आत्म प्रवृत्ति होती है उसे शुक्ल कहते हैं । इन चार ध्यानों में आदि के दो ध्यान तो पापाश्रव के कारण हैं आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये अप्रशस्त ध्यान हैं और अंत के दो ध्यान धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये कर्म के जलाने में समर्थ होने से प्रशस्त ध्यान कहलाते हैं ।