वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-27
From जैनकोष
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमांतर्मुहुर्त्तात् ।। 9-27 ।।
ध्यान नामक तप के प्रतिपादन के आरंभ के सूत्र में ध्यान के लक्षण स्वामी व काल का कथन―इस सूत्र में कई विषयों पर विचार किया गया है । जैसे ध्यान ―का क्या लक्षण है । यह ध्यान उत्कृष्ट किसके होता है? ध्यान अधिक से अधिक कितने समय तक ठहरता है । तो उक्त बातों का स्पष्टीकरण इस सूत्र में है एक विषय की ओर चिंतन का बना रहना यह ध्यान कहलाता है । यह ध्यान उत्तम संहनन वाले पुरुषों के होता है । ध्यान तो सभी संसारी जीवों के चलता है किंतु उत्कृष्ट ध्यान उत्तमसंहनन वाले जीव के ही होता है, क्योंकि जिनका संहननहीन है उनके विचलित होने का सदैव अवकाश है यह ध्यान उत्कृष्ट रूप से अंतर्मुहूर्त पर्यंत होता है । तो स्थाई और स्थिति दोनों का संबंध जुड़ना चाहिये । उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त होता है ध्यान । यह ध्यान उत्तम संहनन वाले के ही हो सकता । उत्तम संहनन 3 कहलाते हैं । (1) वज्रवृषभ नाराच संहनन, जहां वज्र के हाथ, वज्र का ही बेठन और वज्र की ही कीलियाँ होती हैं । इस संहनन में हडिड्यों नसों से लिपट कर सुरक्षा नहीं होती । किंतु एक हड्डी और दूसरी हडिड्यों का बनना कीलियों द्वारा रहता है तब ही यह पुष्ट संहनन होता है । (2) दूसरा संहनन है वज्र नाराच संहनन―जहाँ वज्र की हड्डी और वज्र की कीली है किंतु बेठन वज्र का नहीं है, बेठन कहलाता है वह हडिड्यों के ऊपर लिपटा हुआ मांस, जिस पर बैठने सोने से दबाव पड़ता है । (3) तीसरा संहनन है नाराच संहनन । यहाँ वज्रमय कीलियाँ होती हैं । ये तीन उत्तम संहनन हैं, क्योंकि उत्कष्ट ध्यान में ये हेतुभूत हैं । इन तीन में भी मोक्ष का कारणभूत पहला संहनन है । कोई ध्यान तीनों में होता है । इस प्रकार इस सूत्र में स्वामी लक्षण और स्थिति इन तीन का वर्णन किया गया है ।
ध्यान के लक्षणादि का स्पष्टीकरण―ध्यान का लक्षण बताया है―एकाग्रचिंतानिरोध: एक यहाँ संख्यावाची शब्द है । केवल एक पदार्थ अनेक नहीं, क्योंकि एक ही केवल असहाय पदार्थ के बारे में चिंतन चलता है, वह ध्यान कहलाता है । अग्र का अर्थ है―मुख अथवा लक्ष्य मायने एक मुख के अग्र में प्रधान में चिंतन रखना है । चिंतन का अर्थ है मन की वृत्ति । उस पदार्थ के विषय में चिंतन और रुकने का अर्थ है कि वह चित्तवृत्ति केवल एक चिंतन में ही रहे । जाना, बैठना, खाना, अध्ययन आदिक ऐसी क्रियाओं में न बैठेगा उसे कहते हैं चिंतानिरोध । जैसे वायुरहित स्थान में जहाँ हवा न चल रही हो वहाँ अग्नि की ज्वाला स्थिर रहती है उसी प्रकार निराकुल देश में, एक लक्ष्य में बुद्धि और शक्तिपूर्वक रखी गई चित्तवृत्ति बिना व्याकुलता के वहाँ स्थिर रहती है । अन्य जगह न भटकेगी । तो एकांत में ध्यान होना या एक पदार्थ का ध्यान होना द्रव्य परमाणु अथवा अन्य एक-एक द्रव्य किसी भी अर्थ में चित्तवृत्ति को केंद्रित करना ध्यान कहलाता है । ध्यान शब्द की सिद्धि भावसाधन और कर्तृसाधन में होती है । जब भावसाधन की विवक्षा की―ध्यातिः इति ध्यान, तो वहाँ ध्येय पदार्थ के प्रति उदासीनभाव की विवक्षा है । ध्यान होना सो ध्यान है । जब ध्यान शब्द का कर्तृसाधन में प्रयोग किया जाता है―ध्यायति इति ध्यान अर्थात ध्यान करता है यह ध्यान है । ध्यान करने वाले आत्मा के परिणामों को ध्यान कहते हैं । जैसे अग्नि जलती है तो अग्नि अपने स्वरूप के द्वारा जलती है । जलना कोई अग्नि से अलग वस्तु नहीं है । ऐसे ही यह ध्यान आत्मा से अलग वस्तु नहीं है । ध्यान के द्वारा ही ध्यान बन रहा है, सो कर्ता कर्म करण ये सब एक ही इस आत्मवस्तु में घटित हो जाते हैं । अंतर्मुहूर्त का अर्थ है पूर्ण मुहूर्त नहीं किंतु उससे एक समय कम । यहाँ तक ध्यान चलता है । मुहूर्त शब्द काल विशेष का वाचक है, जिसको दो घड़ी कहते हैं 48 मिनट । एक घड़ी 24 मिनट की होती है । उस अंतर्मुहूर्त पर्यंत ध्यान की उत्कृष्ट स्थिति होती है । एकाग्रता में ध्यान होता है । इस कथन से यह सिद्ध है कि व्यग्रता हटे तब ध्यान होता है । जो व्यग्र ज्ञान है जिस स्थान में व्यग्रता चल रही है वह ध्यान नहीं कहला सकता । ध्यान का उत्कृष्ट काल अंत: मुहूर्त है । इसके बाद एक ही ध्यान लगातार नहीं रह सकता है । यहाँ चिंतवन का निरोध जो बताया गया है सो वहाँ कुछ नहीं है, शून्य है यह अर्थ न लेना किंतु अन्य चिंता में नहीं है । केवल एक ही ध्यान है इसलिए वह सद्भाव रूप है वहाँ ज्ञान का विषय चल रहा है।
सूत्र में एकाग्र के बजाय एकार्थ शब्द न कहने का प्रयोजन―यहां कोई शंकाकार कहता है कि एकाग्रचिंतानिरोध के बजाय यदि एक अर्थ में चिंतानिरोध कहा जाता तो वह अधिक स्पष्ट रहता जिसका अर्थ होता कि एक ही पदार्थ में चिंतवन का रुकना । तो अग्र शब्द न कहकर अर्थ शब्द कहा जाना चाहिए था । तो यदि यहाँ अग्र शब्द न कह कर अर्थ कहा जाता तो उसमें अनिष्ट दोष आ सकता था । वह क्या अनिष्ट दोष है सो देखो―आगे यह कहा जायेगा कि अर्थ शब्द और योग के पल्टन को वीचार कहते हैं । याने द्रव्य से पर्यायों में, पर्याय से द्रव्य में अगर ज्ञान चलता है तो वह परिवर्तन कहा जाता है । सो यहाँ यह बताया जा रहा है कि ध्यान में अर्थ का संक्रमण हैं । यदि एक ही अर्थ का चिंतवन ध्यान कहते तो ध्यान का वह लक्षण सही नहीं बनता और एकाग्र पद देने में ध्यान का लक्षण सही बन गया क्योंकि अग्र का अर्थ मुख्य बना । मायने ध्यान अनेक मुखी न होकर एकमुखी रहा । एक ही पदार्थ में ध्यान जमे, चाहे द्रव्य गुण पर्याय बदलते रहें तो वह भी ध्यान कहलायेगा । अथवा अग्र का अर्थ आत्मा से लीजिये । जो जाने सो अग्र है । तो यहाँ द्रव्यरूप से एक आत्मा का लक्ष्य बनाना ठीक हो ही रहा है । ध्यान तो आत्मा की वृत्ति का नाम है यहाँ बाह्य चिंतायें सब दूर हो जाती हैं । तो ध्यान अंतमुर्हूर्त तक ही ठहर सकता है । इससे अधिक नहीं । जो लोग ऐसा मानते हैं कि ध्यान और समाधि 6-6 महीने तक ठहराये जा सकते हैं तो उनकी वह बात सही नहीं है, क्योंकि उतने समय तक तो क्या एक मुहूर्त पूरा भी एक ही ध्यान रहेगा तो या तो कहो निर्वाण होगा या कहो जबरदस्ती का प्रयोग किया तो मरण हो जायेगा । इंद्रिय का उपघात हुआ, श्वासोच्छ्वास के निरोध का नाम ध्यान नहीं कहा गया । श्वासोच्छ्वास रोकने की वेदना से मरण भी संभव है । ध्यान अवस्था में श्वासोच्छ्वास तो स्वाभाविक चलता है । तो जैसे श्वासोच्छ्वास का रोकना ध्यान नहीं ऐसे ही संपूर्ण मात्राओं का गिनना भी ध्यान नहीं । कोई गिनने से ध्यान थोड़े ही बना, व्यग्रता रहती है । तो यह ध्यान का लक्षण बिल्कुल सही है कि एक पदार्थ में अग्रता से चिंतवन चलते रहना ध्यान कहलाता है ।
प्रकरण से ही ध्यान की विधि का परिचय―यहाँ एक जिज्ञासु कहता है कि इस ध्यान का निर्देश करने वाले सूत्र में स्वामी का वर्णन किया, लक्षण बताया और संबंध बताया, और जो असली बात है कि ध्यान की विधि क्या है । ध्यान करने का उपाय क्या है । वह तो यहाँ नहीं किया गया, तो ध्यान की विधि का उपाय बताना मुख्य था । वह क्यों नहीं बताया? समाधान―ध्यान करने की विधि का उपाय तो यह सारा प्रकरण ही है । गुप्ति आदिक के जो कर्तव्य बताये गये वे ध्यान के लिए ही बताये गये । जिज्ञासु कहता है कि वे सब तो संवर तत्त्व की जानकारी के लिये बताये हैं कि गुप्ति आदि उपायों से कर्मों का संवर होता है । ध्यान का उपाय बताने के लिये नहीं कहा, किसी अन्य प्रयोजन के लिये कही हुई बात अन्य के लिये नहीं हुआ करती । समाधान―जो पहले गुप्ति आदि बताये गए हैं वे दोनों के लिये ही हैं । ध्यान का उपाय भी वही हे संवर का उपाय भी वही है । जैसे कि धान के खेतों में पानी देने के लिए छोटी तलैया बनाते हैं जिसमें यंत्र द्वारा खींच कर फसल सींची जाती है । तो उस तलैया से फसल भी सींची जाती और प्यास लगे तो पानी भी पी लिया जाता है, कुल्ला भी कर लिया जाता है । ऐसे ही गुप्ति आदिक का जो विधान बताया है वह संवर के लिये भी है और कल्याण की भूमिका बनाने के लिये भी है । अथवा ध्यान संबंधी ग्रंथों में ध्यान का विधि विधान बताया है सो वहाँ से जान लीजिये । यहाँ तो ध्यान का केवल लक्षण ही बताया गया है । ध्यान के लक्षण में मुख्य बात यह कही गई कि एक अर्थ की ओर ही मुख्यता से उपयोग हो उसको ध्यान कहते हैं । अब ध्यान के भेद बतलाते हैं ।