वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-30
From जैनकोष
आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार: ।। 9-30 ।।
आर्तध्यान के चार प्रकारों में से अनिष्ट संयोगज नाम के प्रथम आर्तध्यान का लक्षण―आर्तध्यान 4 प्रकार के होते हैं―(1) अनिष्ट संयोगज, (2) इष्ट वियोगज, (3) वेदना प्रभव और, (4) निदान । उनमें से प्रथम आर्तध्यान का इस सूत्र में लक्षण किया गया है । अनिष्ट पदार्थ का संयोग होने पर उनके वियोग के लिए विशेष चिंता होना आर्तध्यान है । जैसे कोई विष पिलाने पर उतारू हो रहा है तो उस अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर यह कैसे दूर हो, ऐसा जो भीतर में क्षोभ मचता है, चिंतन चलता है वह आर्तध्यान है । शत्रु सामने आ जाये, कोई शस्त्र लेकर आक्रमण करने आ जाये तो उन अनिष्टों में संयोग होने पर जो भीतर बेचैनी होती है और वहाँ वियोग के लिए प्रबल चिंता होती है उसको अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान कहते हैं । इस सूत्र में चिंतवन शब्द के बजाय स्मृतिसमन्वाहार: शब्द दिया है, जिसका अर्थ यह है कि स्मृति को दूसरे पदार्थों की ओर न जाने देकर बार-बार उस ही में लगाना यह है स्मृति समन्वाहार:, जो अनिष्ट पदार्थ सामने आ गया―अब उसकी स्मृति में लग रहे हैं, उस ही का चिंतन हो रहा है, दूसरा कुछ ख्याल में नहीं आ रहा, ऐसा सबल चिंतन बन गया है इसे स्मृति समन्वाहार: अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान कहते हैं ।