वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-31
From जैनकोष
विपरीतं मनोज्ञस्य ।। 9-31 ।।
इष्ट वियोगज नाम के द्वितीय आर्तध्यान का लक्षण―ऊपर के सूत्र में अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान का स्वरूप कहा है । इसमें इष्ट वियोगज आर्तध्यान का स्वरूप कहा जा रहा है । तो पूर्व सूत्र से अनेक शब्दों की अनुवृत्ति इसमें आती है, तब सूत्र में जो दो पद दिया है उनका अर्थ है इष्ट का उल्टा । अब पूर्व सूत्र से शब्दों की अनुवृत्ति लेकर अर्थ बना कि इष्ट का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए स्मृति समन्वाहार: होना अर्थात अत्यंत अधिक चिंतन धारा चलना इष्ट वियोगज आर्तध्यान है । इष्ट क्या है संसारी जीवों को? धन, वैभव, कुटुंब, मित्रजन, इनका वियोग हो जने पर यह दूसरे देश चला जाये, ऐसा वियोग हो जाये या राजा उनको कैद कर दे, ऐसा वियोग हो जाये अथवा उन इष्टों का मरण हो जाये, ऐसे वियोगों में जो अन्य जगह ख्याल न जाये और केवल उस ही का स्मरण चले तो इसको इष्ट वियोगज आर्तध्यान कहते हैं । यद्यपि ऐसा ध्यान अज्ञान अवस्था में ही होता है, जहाँ पृथक्-पृथक् सत् का ज्ञान नहीं है और दूसरे पदार्थ को आया मान लिया वहाँ ही ऐसा कठिन आर्तध्यान होता है फिर भी जिसको सम्यक्त्व हो गया, सम्यग्ज्ञान होने पर सम्यक्चारित्र में प्रवेश किया है ऐसे साधुजन भी प्रमाद दशा में किसी प्रिय शिष्य का वियोग होने पर, गुरु का वियोग होने पर वहाँ भी उनका ध्यान करते हैं और ऐसा आर्तध्यान हो जाया करता है ऐसे आर्तध्यान को दूर करने का उपाय सिर्फ सम्यग्ज्ञान ही है ।