वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-38
From जैनकोष
परे केवलिन: ।। 9-38 ।।
अंतिम दो शुक्लध्यानों के आधार का निर्देश―अंत के दो शुक्लध्यान केवली भगवान के होते हैं, छद्मस्थों के नहीं । केवली का अर्थ है जो केवल रह गए, जिसका ज्ञान केवल है उसके साथ रागद्वेषादिक नहीं, कोई कमजोरी नहीं, अचिंत्यविभूतिवान हैं । ऐसे केवलज्ञान साम्राज्य के स्वामी सयोगकेवली और अयोगकेवली हैं, इनके अंत के दो शुक्लध्यान होते हैं । भगवान के ध्यान होता है यह कथन उपचार से है क्योंकि वहाँ मन का प्रयोग है ही नहीं । केवली भगवान के भावमन नहीं कहा गया है । फिर ध्यान कैसे? वास्तव में उनके ध्यान नहीं है लेकिन ध्यान का फल है निर्जरा और यह बात होती है 12वें गुणस्थान तक । सो इन केवली भगवान के भी कर्म की निर्जरा और कर्म का क्षय देखकर कहा जाता है कि इनके, ध्यान भी है । 13वें गुणस्थान में पूरे काल में ध्यान नहीं कहा गया, वहाँ तो सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान कहा गया है । सो वह बिल्कुल अंतः में होता है । जब भगवान के चार अघातिया कर्म एक समान स्थिति के हो जाते हैं उस समय अन्य सब काय योग मिट गए, वादर काय योग भी नहीं रहा, सिर्फ सूक्ष्म काययोग है, उस समय सूक्ष्म काययोग के विनाश के लिये अनेक प्रकृतियों की विशेष निर्जरा के लिए यह ध्यान होता है । 14वें गुणस्थान में अंतिम शुक्लध्यान कहा है, उसका अर्थ ध्यान नहीं है किंतु योग न रहा और कोई सा भी आस्रव नहीं होता, और सभी प्रकृतियां अब नष्ट हो जायेंगी, इन प्रकृतियों को देखकर 14वें गुणस्थान में ध्यान कहा गया है ।