वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 48
From जैनकोष
दृष्टाऽऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थ-
प्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।
प्रतिक्षणं स्थित्युदयव्ययात्म-
तत्त्वव्यवस्थं सदिहार्थरूपम् ।।48।।
(163) प्रत्यक्ष और आगम से अविरुद्ध उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक अर्थ के प्ररूपण की युक्त्यनुशासनता―प्रत्यक्ष और आगम से जिसमें बाधा नहीं आती, ऐसे अर्थ का जो वास्तविक निरूपण है उस ही का नाम युक्त्यनुशासन है और यही युक्त्यनुशासन हे वीर जिनेंद्र ! आपको अभिमत है । सारांश यह है कि वस्तुतत्त्व जो सही होता है वही प्रत्यक्ष से ग्रहण में आता है और वही आगम में लिखा हुआ मिलता है, क्योंकि आगम आप्त पुरुष के मूल से प्रकट हुआ भगवान जिनेंद्रदेव की दिव्यध्वनि में जो खिरा है उसे गणधरदेव ने झेला । गणधर देव ने द्वादशांग रूप में उसे रचा और उसका शिक्षण परंपरा से चलता रहा और वही आज भी अनेकांतशासन में पाया जाता है । तो चूंकि मूल वक्ता जिनेंद्रदेव वीतराग सर्वज्ञ ही हैं अतएव उनके वचन में कोई दोष नहीं आ पाया । वचनों में दोष आने के दो कारण होते हैं―एक तो किसी प्रकार का राग या स्वार्थ का होना, दूसरी बात―समस्त वस्तुओं का ज्ञान न होना, यों तो अज्ञानवश असत्य बात बोलने में आती है । सो प्रभु जिनेंद्र के न तो राग स्वार्थ ही है और न अज्ञानता ही है । तो ऐसी प्रभु की वाणी की परंपरा से चले आये आगम में भी वही वस्तुस्वरूप लिखा है जो प्रत्यक्ष आदिक प्रमाणों से सिद्ध है । इस ही युक्त्यनुशासन का एक उदाहरण यह दिया जा रहा है कि जो भी पदार्थ है उस पदार्थ का रूप प्रतिक्षण ध्रौव्य, उत्पाद और विनाशरूप है, क्योंकि सत् वही हो सकता है जो उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक हो ꠰ इसको एक प्रतिज्ञा वाक्य में रख लीजिए कि प्रत्येक सत् उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होता है । यह प्रतिज्ञा प्रत्यक्ष से बाधित तो है नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष से जो स्थूल पदार्थ दिख रहे हैं उनमें स्थूलतया उत्पादव्ययध्रौव्य दृष्टिगत होते हैं । तो इसी तरह आत्मा परमाणु आदिक जो सूक्ष्म पदार्थ हैं उनमें भी उत्पादव्ययध्रौव्य घटित होता है और आत्मा में तो उसका साक्षात् अनुभव होता है ।
(164) प्रत्यक्ष और आगम से अविरुद्ध उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक अर्थ के प्ररूपण को युक्त्यनुशासनता का अपने आपमें निर्णय―जैसे अपने आपके बारे में सोचें कि मैं हूँ तो सदा रहने वाला हूँ और उसमें प्रतिक्षण पर्याय, तरंग, विचार नाना प्रकार के हुआ करते हैं । यदि किसी पदार्थ में केवल स्थिति-स्थिति ही मानी जाये, उत्पादव्यय न माना जाये तो उसकी स्थिति भी सिद्ध नहीं होती, इसी प्रकार केवल उत्पादव्यय ही माना जाये और स्थिति न मानी जाये तो ऐसा भी कोई पदार्थ वस्तुभूत नहीं है । इस तत्त्व का प्रत्यक्ष से निषेध नहीं है, अनुमान आदिक प्रमाण से भी निषेध नहीं है और इस युक्त्यनुशासन में आगम से भी विरोध नहीं आता । आगम का तो मुख्य वचन ही है यह, ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’ । यह परमागम वचन प्रसिद्ध है, इसके अलावा किसी भी एकांतरूप आगम का वचन न तो प्रत्यक्ष से सिद्ध है, न अनुमान से प्रसिद्ध है और सर्वथा एकांतरूप आगम परस्पर विरुद्ध होने से अथवा वस्तुस्वरूप के विरुद्ध होने से ये प्रमाणभूत नहीं हैं । यों यह प्रतिज्ञा पूर्ण समीचीन है कि प्रत्येक सत् पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक ही होता है । ऐसा यह युक्त्यनुशासन हे वीर ! आपका ही अबाधित शासन है ।