वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 47
From जैनकोष
न द्रव्यपर्याय पृथग᳭व्यवस्था
द्वैयात्म्यमेकाऽर्पणया विरुद्धम् ।
धर्मी च धर्मश्च मिथस्त्रिधेमौ
न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्धो ।।47।।
(161) सर्वथा पृथक् द्रव्य या पर्याय की असंभवता―सर्वथावाद की कोई प्रतिष्ठा नहीं है, क्योंकि संपूर्ण पर्यायों से रहित द्रव्यमात्र कोई तत्त्व कहा तो वह प्रमाण का विषय नहीं है, याने पर्यायशून्य द्रव्य किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, इसी प्रकार सर्वथा पर्याय की भी कोई प्रतिष्ठा नहीं है क्योंकि द्रव्यशून्य पर्याय किसी प्रमाण का विषय ही नहीं है । अर्थात् न तो द्रव्यशून्य पर्याय होती है और न पर्यायशून्य द्रव्य होता है । द्रव्यपर्यायात्मक पदार्थ है और उस ही पदार्थ को कभी द्रव्यदृष्टि की मुख्यता से कहा जाता और कभी पर्याय की मुख्यता से कहा जाता, पर कहा जाता है द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु को ही । तो जैसे द्रव्यरूप पर्याय नहीं, पर्यायशून्य द्रव्य नहीं; ऐसे ही परस्पर निरपेक्ष द्रव्य भी नहीं, पर्याय भी नहीं । कोई दार्शनिक माने तो दोनों को ही, द्रव्य को भी पर्याय को भी, मगर कोई द्रव्य है कोई पर्याय है, एक वस्तु में दोनों का दर्शन नहीं है तो ऐसे द्रव्य भी नहीं हैं और पर्याय भी नहीं है, क्योंकि परस्पर निरपेक्ष द्रव्य और पर्याय को सिद्ध करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं है । तो इस प्रकार तीन प्रकार के दर्शन युक्त नहीं कि कोई द्रव्यमात्र को माने, कोई पर्यायमात्र को माने और कोई अलग-अलग द्रव्य पर्यायमात्र को माने । ये सब क्यों विरुद्ध पड़ते हैं कि जो द्रव्य की प्रतीति का हेतु है और जो पर्याय की प्रतीति का निमित्त है वे दोनों जुदे नहीं हैं । क्योंकि अभिन्न का भिन्न तत्त्व के साथ एकत्व नहीं होता । तो परस्पर निरपेक्ष दोनों मानना भी विरुद्ध वचन है । जो विवेकी पुरुष है वह प्रमाण को स्वीकार करता हुआ एक वस्तु के दो भिन्न परमाणुओं की विवक्षा नहीं करता । सो न केवल द्रव्यमात्र तत्त्व है न केवल पर्यायमात्र तत्त्व है और इसी तरह न केवल परस्पर निरपेक्ष द्रव्य और पर्याय उभयरूप तत्त्व है ।
(162) वीतराग प्रभु के शासन में द्रव्य और पर्याय का स्थान―हे वीर जिनेंद्र ! आपके स्याद्वाद शासन में ये द्रव्य और पर्याय दोनों ही कथंचित् रूप से तीन तरह कहे जा सकते । भिन्न, अभिन्न और भिन्नाभिन्न । विवक्षावश से तीनों ही प्रकार की सिद्धि होती है । यदि सर्वथा द्रव्य और पर्याय को भिन्न-भिन्न ही माना जाये तो उसमें भी पदार्थ की सिद्धि नहीं है, इसी प्रकार द्रव्य और पर्याय को सर्वथा अभिन्न माना जाये तो भी वस्तु की सिद्धि नहीं बनती और निरपेक्ष रूप से इन दोनों को माना जाये तो भी सिद्धि नहीं बनती । इस कारण स्याद्वाद सहित जो वाक्य है वह अनेकांतात्मक पदार्थ को ग्रहण करता है । पद न तो धर्ममात्र का प्रतिपादक है न धर्मीमात्र का प्रतिपादक है, वह अनेकांत वस्तु का प्रतिपादक है । तो जो दर्शन द्रव्य एकांत को लेकर अपना मंतव्य बनाते हैं, जो पर्याय एकांत का आश्रय रखकर मंतव्य बनाते हैं, जो परस्पर निरपेक्ष द्रव्यपर्याय की एकांत व्यवस्था बनाते हैं उनके यहाँ युक्तिपूर्वक अनुशासन घटित नहीं होता । इसी कारण एकांतवाद के दर्शन से मोक्ष और मोक्षमार्ग की व्यवस्था नहीं बनती ।