वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 106
From जैनकोष
दिव्वुत्तरण सरिच्छं जाणिच्चाहो धरेद जइ सुद्धो।
तत्तायसपिंडसमं भिक्खू तुहु पाणिगयपिंडं।।1॰6।।
शरीरकालोत्तरण के लिये दिव्यानौ का जानकर निर्दोषशुद्ध आहार का साधुवों द्वारा ग्रहण―साधु जन आहार निर्दोष लेते हैं, सदोष आहार उनके काम का नहीं है जो प्रमाद से बनाया गया है। जैसे बाजार हाट की चीजें कोई शोध की बनती हैं क्या? मान लो रात को मिठाई बन रही है तो उसमें कितने ही मच्छर गिरते कुछ तो मच्छर निकालकर बाहर फेंक देते और कुछ उसी मिठाई में सान देते। यो वह बाजार की मिठाई बिल्कुल अशुद्ध होती हैं मगर कितने ही साधु कहलाने वाले लोग भी बाजार से मिठाई मोल लेकर खाते हैं। कुछ साधु होते माँगने की प्रकृति वाले याने तृष्णा वाले, जिनको माँगने से मिलता नहीं, मिलने की आशा लगाये रहते हैं और सदोष आहार भी करते और उसमें अपनी शान भी बगराते। कुछ ऐसे भी साधु होते हैं जो अपने को मानते हैं साधु, दुनिया से पैर छुवाते हैं और बाजार में मोल लेकर आहार करते तो उसमें उस आहार के गुण बखानते। खैर जो है सो है, उसकी भी कुछ बात नहीं, पर वे साधु यह नहीं जानते कि सबसे बड़ा दोष होता है अधःकर्म का। अंधःकर्म कहते हैं उसे जो आहार जीवदया पालकर न बनाया गया हो। हिंसा का बचाव करके न बनाया गया हो। ऐसा सदोष आहार किसी भी बहाने लेना साधु का काम नहीं। यहाँ दृष्टांत दिया है कि ऐसा निर्दोष आहार जैसे कि अग्नि से तपाया गया लोहा, उसमें कोई दोष तो नहीं रहा ऐसा निर्दोष शुद्ध आहार साधुजन लेते हैं। और उस आहार को ऐसा समझिये निर्दोष आहार कि जैसे शरीर को पार के लिए दिव्य नौका हो। जैसे कोई भली नौका से नदी पार की जाती इसी तरह शुद्ध निर्दोष आहार से यह जीवन पार कर लिया जाता है। ऐसे विशुद्ध भावों से निर्दोष शुद्ध आहार से यह जीवन पार कर लिया जाता है। ऐसे विशुद्ध भावों से निर्दोष शुद्ध आहार साधुजन ग्रहण करते। और वे भी अपने हाथ में, बर्तन रखें तो उन्हें कहाँ धरें, उठायें। एक शल्य वहीं रहेगी। कोई भी परिग्रह वस्त्र अन्न वगैरह कुछ भी न रखना, सिर्फ गात परिग्रह, क्योंकि निरंतर ब्रह्मस्वरूप का ध्यान तो उनका काम है। बाहरी चीज को रखाये कौन। तो हस्तगत पिंड ग्रहण करते हैं उस आहार को दिव्य नौकावत समझकर जैसे नौका से नदी पार कर ली जाती ऐसे ही निर्दोष आहार से यह जीवन पार कर लिया जाता है, और यह जीवन है धर्मसाधना के लिए।