वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 105
From जैनकोष
कोहेण य कलहेण य जायणसीलेण संकिलेसेण।
रुद्देण य रोसेण य भुंजइ कि विंतरो भिक्खू।।1॰5।।
क्रोध व कलह से साधुवों द्वारा आहार का अग्रहण―जिसने अपने ज्ञानस्वरूप में उपयोग को स्थिर करने के लिए सर्व कुछ त्याग दिया वह पुरुष परिस्थितिवश शरीर के रखने के लिए आहार करता है तो वह क्रोध पूर्वक नहीं करता। क्रोध किस बात का? जगत के सब जीव अपने-अपने कषाय भाव को लिए अपना-अपना परिणमन करते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का परिणमन कभी नहीं करता, पर कोई जीव यदि दुःख मानता है तो अपनी कल्पना से अपने आप की पर्याय में आत्मबुद्धि रखकर कष्ट मानता है, पर ये साधुजन जिन्होंने स्वपर विवेक भलीभाँति कर लिया है। उनको अब क्रोध का प्रसंग क्या? भले ही पूर्व कर्मोदय से क्रोध प्रकृति का विकार झलके लेकिन ज्ञानी उसे भी जानता है कि मेरा यह विकार है, परभाव है, इसमें मुझे लगना न चाहिए। तो प्रत्येक तत्त्व को स्पष्ट समझने वाला ज्ञानी क्रोध पूर्वक आहार नहीं लेता। यदि क्रोध से आहार ले तो वह साधु न होगा। वह तो कोई व्यंतर जैसा समझलो, मान कलह से भी आहार नहीं लेता। झगड़ा करके तो बच्चा भी नहीं खाता, गृहस्थ भी नहीं खाता। खाने पर कलह क्या? मगर कोई आसक्त ऐसे भी दुनिया में कि जो भोजन पर लड़ते हों और लड़कर कुछ अधिक भोजन पा लें तो उसमें बहुत मौज मानते हैं पर यह तो तुच्छ पुरुषों की बात है साधुजन कलह से भोजन नहीं करते। याचनाशीलता से साधुवों द्वारा आहार का अग्रहण―साधुजन याचनाशील होकर भोजन नहीं करते। वे भोजन मांगते फिरे ऐसी वृत्ति उनसे नहीं होती। यह बात यों कही जा रही कि साधु सन्यासी का नाम धराकर बहुत से लोग अपना विचित्र रूप रखकर डोलते हैं, दुकान दुकान माँगते हैं, याचना करते हैं, अन्न दे कोई तो उसे भी लें, आटा दे उसे भी लें, पैसा दे उसे भी लें। ऐसे बहुत से लोग देखे जाते हैं, और प्रायः साधारण जन उनको बाबा जी, साधु जी, इन शब्दों से पुकारते हैं। मगर यह साधुवों की वृत्ति नहीं। साधु पुरुष चाय नमकीन वगैरह नहीं ग्रहण करते। साधुओं में इतना अल्पबल होता कि वे न मिले कुछ तो भी अपने इस ज्ञानस्वरूप आत्मा को सर्वस्व जानकर उस ही में उपयोग लगाये रहते हैं। इस जीवन में एक लक्ष्य होना चाहिए अपने आत्मा को अविकार सहज स्वरूप में निरखना। यह ही धुन हो, हर समय यह ही करने की बात चित्त में आये तो जिसके चित्त में यह ब्रह्म स्वरूप उपासना के लिए हैं उसको बाह्य बातों से उपेक्षा रहती हैं। करना पड़ता है सब कुछ मगर वह उसमें खिन्न नहीं होता बस जाननहार रहता है। और जो जैसी परिणति करता है। उसका ज्ञाता मात्र रहता है तो ऐसा पुरुष याचनाशील कैसे हो सकता। वह तो महात्मा हैं, उत्तम अंतरात्मा हैं। परमात्मतत्त्व के सम्मुख हैं, उसमें कषाय की बात चित्त में कैसे आये? तो साधुजन याचनाशील होकर भी आहार ग्रहण नहीं करते। संक्लेश रौद्र व रोष से साधुओं द्वारा आहार का अग्रहण―संक्लेश परिणाम रखकर भी साधु आहार नहीं लेते। मिला नहीं, ड्खीक नहीं मिला या कोई भी प्रतिकूलता हो गई हो तो इसमें अपने आपमें संक्लेश भाव करें ऐसी साधु की वृत्ति नहीं हैं, संक्लेश हो जाता है मगर उसे पकड़ कर रहना और इतना अधिक संक्लेश मानना कि अपना उपयोग भी बिल्कुल विमुख हो जाय अंतः स्वरूप की उपासना से ऐसी वृत्ति साधु संत पुरुषों में नहीं होती। तो साधुजन संक्लेश से आहार नहीं लेते, रौद्र परिणाम रखकर भी आहार नहीं लेते, रौद्र परिणाम, विषयों के संरक्षण में आनंद के लिए कहीं अधिक श्रम करेगा। यह श्रम करता है इंद्रिय के विषयों में तो उन विषयों के संरक्षण में, विषयों का आनंद मानने में वह अपने आपको महिमावान समझता है, गल्ती नहीं मानता। तो रुद्र परिणाम से भी साधु आहार नहीं लेता और रोष में भी आहार नहीं लेता। रूप जाना, द्वेष करना, उस रोष पूर्वक भी साधु संतों का आहार नहीं है। इस प्रकार साधुजन तो एक आदर्श हैं, दर्शनीय हैं, उनकी एक-एक समय की स्थिति शिक्षाप्रद है।