वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 109
From जैनकोष
णवि जाणइ जिण-सिद्ध-सरूवं तिविवेण तह णियप्पाणं।
जो तिव्वं कुणइ तवं सो हिंडइ दीहसंसारे।।1॰9।।
यथार्थ प्रभु स्वरूप व आत्मस्वरूप जाने बिना तपश्चरण की संसार भ्रमण हेतुता―जो पुरुष त्रिविधि तत्त्व विधि की परख से जिनेंद्र भगवान को सिद्ध भगवान को और अपने स्वरूप को निहारता है वह तो ज्ञानी है और जो इन बातों को नहीं निहार सकता है वह कितना ही तीव्र तप करे फिर भी इस लंबे संसार में वह भटकता ही रहता है। कैसे समझना प्रभु को और अपने आत्मा को? लोक में तीन प्रकार के आत्मा होते हैं। भगवान को कहते तो सब हैं, पर अंतरात्मा बहिरात्मा और परमात्मा की परख से प्रभु की पहिचान करना यह है वह ज्ञान कि जिस ज्ञान के होने पर तपश्चरण भी ज्ञानवृद्धि में सहायक होता है, कैसे जानना? हे प्रभु, हे सहल परमात्मा, हे शरीर सहित भगवान और शरीर रहित भगवान, तुम परमात्मा हो। परम आत्मा। परम मायने उत्कृष्ट। उत्कृष्ट आनंद। उत्कृष्ट फलित अर्थ हैं, सही अर्थ है परा या विद्यते यस्यु सः परमः जहाँ उत्कृष्ट लक्ष्मी जगत में पायी जाती है उसको परम कहते हैं। उत्कृष्ट लक्ष्मी जगत में है क्या? ज्ञान लक्ष्मी, लक्ष्मी नाम धन आनंद का नहीं है, लक्ष्मी कहो लक्ष्म कहो लक्षण कहो सबका एक ही अर्थ है आत्मा का लक्ष्म आत्मा का लक्षण शाश्वत् चैतन्य स्वरूप उसका जो विकास है उसे कहते हैं लक्ष्मी। ज्ञान विकास का ही नाम लक्ष्मी है। अन्य का नाम लक्ष्मी नहीं। लक्ष्मी शब्द का यथार्थ तृष्णालुओं द्वारा बनाया गया अर्थ―किसी जमाने में यह बात खूब जानते थे लोग कि लक्ष्मी तो निर्विकार ज्ञानविकास को ही कहा करते हैं और उस लक्ष्मी की आराधना में साधु संत पुरुष रहा करते थे। और वही उत्कृष्ट मिलन था। उत्तम वस्तु वही है सो वह ज्ञानविकास लक्ष्मी उत्तम है, मंगल है, शरणरूप है। यह तो ध्यान रहा कि हाँ है कोई लक्ष्मी उत्तम, मंगल, शरणभूत मगर उसमें से ज्ञान को खिसका दिया और ज्ञान की जगह जो प्रिय लगा उसे रख दिया। तो बात तो वही की वही रही। पहले लोगों को यह ज्ञान लक्ष्मी मंगल, उत्तम, शरण लगती थी, अब ज्ञान तो खिसक गया है और ज्ञान की जगह धन आ गया है तो वाक्य वही है। आज धन लक्ष्मी मंगल लोकोत्तम और शरण लगने लगी और उस ज्ञान लक्ष्मी की मुद्रा भगवान की मुद्रा में निरखते थे क्योंकि ज्ञानलक्ष्मी वहाँ प्राप्त हैं और ज्ञानलाभ लेने के लिए परमात्मा के स्वरूप को ही निरख रखते थे। सो नकल तो वही है। अब भी पहले ज्ञान लक्ष्मी को भगवत मुद्रा निरखते थे तो अब धन लक्ष्मी को चार हाथ वाली खूब बढ़िया साड़ी पहने गहने से लदी एक मूर्ति के रूप में निरखते थे। पहले लोग प्रभु के मुख से दिव्य ध्वनि के रूप में ज्ञानलक्ष्मी हमें मिल रही है ऐसा ध्यान रखते थे। तो आज उसकी स्त्री रूप लक्ष्मी बनाकर उसके हाथ से रुपये टपकाते हुए दिखाते हैं, इस तरह से आराधना करते हैं। नकल तो न छोड़ा मगर उद्देश्य भूल गए। कल्याण लाभ के उपाय में अंतरात्मत्व का महत्त्व―परमात्मा के संबंध में यह जाने कि यह तो है परमात्मा उत्कृष्ट ज्ञान लक्ष्मी के विकास वाले और। परमात्मा हुए किस तरह? अंतरात्मा बनकर। अंतरात्मा बनने में हमको लाभ है। जैसे छहढाला में बताया है कि ‘‘बहिरातमा हेय जानि, तजि अंतरआत्म हूजे, परमातम को ध्याय निरंतर जो नित आनंद पूजे।।’’ अंतरात्मा नहीं है तो बड़प्पन तो रहेगा नहीं और अंतरात्मा की ही विशेषता बने अंतरात्मा का ही ध्यान बढ़े तो उसमें परमात्मतत्त्व प्रकट होता है। हे प्रभो मैं बहिरात्मा था, बाहर की चीजों को मैं आत्मसर्वस्व समझता था, पर आप के चरणों के प्रसाद से अर्थात् ज्ञान दर्शन गुण की प्रसन्नता से मेरे को अंतरात्मत्व प्रकट हुआ और ऐसा ही आपने प्रकट करके परमात्मपद पाया तो मुझमें आपकी भक्ति के बल से ऐसा बल प्रकट हो कि इस अंतरात्मत्व के तथ्य की बात उत्कृष्टता से निभाऊं, अपने आप में मग्न, होऊं और इसको भी व्यतीत कर परमात्मा स्वरूप पाऊं। जिन और सिद्ध है परमात्मास्वरूप और यह मैं आत्मा अंतरात्मस्वरूप हूँ बहिरात्म स्वरूप था। बहिरात्मा तो हेय चीज है, अंतरात्मा होना उपाय है, परमात्मा होना भला है। तो जो ऐसी तीन प्रकार की विधियों से जिन सिद्ध के स्वरूप को जानता है और निज आत्मा को जानता है, वह तो संसार से पार होता है जो इन तीन को नहीं जानता वह कितने ही तप करे तो भी दीर्घ संसार में भ्रमण करता है। आत्महित प्रयोजन विधि से तत्त्व ज्ञान का महत्त्व―लाभ तो विधि पूर्वक जानने का है। आपको किसी से मिलना था और आपको मिल भी गया पर आप इस तरह से नहीं जान पाये कि जिससे यह काम कराना है वह यह ही है तो आपके लिए मिलना न मिलना बराबर सा ही तो रहा। जो प्रयोजन का परिचय है उस प्रयोजन के परिचय के नाते तो नहीं आप समझ सके। तो वह क्या मिलना रहा? एक समय ही चूके। तो भगवान को जानने का प्रयोजन क्या? बस द्रव्य, गुण का यथार्थ परिचय। द्रव्य से प्रभु और मैं एक हूँ। समान हूँ। वस्तु में अंतर नहीं होता। चेतन द्रव्य मैं, चेतन द्रव्य प्रभु। गुणों से सहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज आनंद, सहज शक्ति सहज चारित्र गुण, सहज श्रद्धा गुण जो मुझमें हैं वह सभी जीवों में हैं, सो प्रभु में हैं। शक्ति की अपेक्षा भी मुझमें और प्रभु में अंतर नहीं और इसी कारण ‘‘मैं वह हूँ जो है भगवान, जो मैं हूँ वह है भगवान’’ मगर एक बात का अंतर है, पर्याय का अंतर है। पर्याय जो मुझमें चल रही है, इस संसार में चल रही है वह द्रव्य में फूट बैठालने वाली नहीं है। मगर जिसको उसका अंतर नहीं ज्ञात है उसने तो अपने में फूट बैठा ली, यही तो अज्ञान कहलाता। वही तो इस लोक में भ्रमण करने वाला कहलाता। तो पर्याय का अंतर है। ‘‘अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग यहँ राग वितान’’ अंतर यह है कि प्रभु वीतराग है और यहाँ पर राग का फैलाव है। मैं रागी नहीं हूँ किंतु यहाँ राग का वितान है। औपाधिक भाव है। अब जो बहिरात्मा अंतरात्मा और परमात्मा इस प्रकार की विविधता के परिचय पूर्वक जो प्रभु को और अपने आप को समझता नहीं है वह पुरुष कितने ही तीव्र तप करले तो भी उसका उपयोग अपने स्वरूप की ओर न होने से और बाह्य अर्थ के दूर होने से यत्र तत्र भ्रमण करता है, पाप का बंध करता है और दीर्घ संसार में वह भटकता है।