वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 108
From जैनकोष
उपसमणिरीहझाणज्झयणाइ महागुणा जहादिट्ठा।
जेसिं ते मुणिणाहा उत्तमपत्ता तहा भणिया।।1॰8।।
साम्यभाव महागुणवान मुनिनाथों की उत्तम पात्र स्वरूपता―पात्रों का वर्णन चल रहा था कि पात्र साधुओं को क्या न करना चाहिए और क्या करना चाहिए, इस विषय में यथोचित्त काफी वर्णन हो गया है। अब इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि ऐसे मुनिनाथ उत्तम पात्र होते हैं जो समता भाव को प्राप्त हैं। वस्तु तत्त्व का यथार्थ निर्णय करके जिसने आत्मा के ज्ञानस्वरूप के अतिरिक्त अन्य सर्व जीवों को असार जानकर तज दिया है और अपने आप के अविकार ज्ञानस्वरूप में मग्न होने का ही जिनका पौरुष रहता है ऐसे जीव किन्हीं भी बाह्य पदार्थों में राग अथवा द्वेष नहीं करते। इस संसार से पार होने वाले साधुओं को इस जगत में न कुछ इष्ट रहा न अनिष्ट रहा, किसे अपना इष्ट मानना? सभी मुझसे अत्यंत निराले हैं, मेरा अन्य में कुछ नहीं, अन्य का मुझ में कुछ नहीं, फिर इष्ट हो ही क्या सकता है? और इष्ट यदि माना जा रहा है तो वह तथ्य नहीं है किंतु वर्तमान में ऐसी ही कषाय जग रही है कि अमुक पदार्थ को इष्ट समझ रहा है इसी प्रकार जगत में कोई भी अनिष्ट नहीं है लेकिन विषय संग का ऐसा भ्रम चढ़ा हुआ है कि उसमें बाधक जंचते हों तो उन्हें यह अनिष्ट मान लेता है ज्ञानी को न कुछ इष्ट है न कुछ अनिष्ट है। उसके सर्व पदार्थों के प्रति समान भाव रहता है। तो जो ऐसे समता भाव को प्राप्त हैं। वे साधु मुनिनाथ उत्तम पात्र कहे गए हैं। भक्तों को चाहिए क्या? पवित्र आत्मा मिले। जिनका उपयोग ज्ञानस्वरूप की ओर ढल रहा हो तो खुद मुझ भक्त को चाहिए उसी का ही आदर्श जहाँ मिल रहा हो वही तो भक्त का भक्ति पात्र है। जो मुनिनाथ उपशम भाव को प्राप्त हैं वे उत्तम पात्र हैं। निर्वांछक साधुओं का उत्तम पात्रपना―निरीह साधु उत्तम पात्र हैं। कुछ भी उनके वांछा नहीं। वा´छा करने योग्य मुख्य बातें चार होती हैं। पुण्य, पाप, भोजन और दान। अन्य भी अनेक बातें होती हैं मगर उन सबका प्रतिबिंब इन चार को समझ लीजिए, कुछ जीव पुण्य की इच्छा करते हैं, किसलिए इच्छा करते हैं कि इसके फल में मुझे भविष्य में देव पद मिले। धनिक पद मिले। राज्य पद मिले। सुख से रहे इसके लिये पुण्य की वांछा करते हैं। ज्ञानी जन सो रहे इसके लिए पुण्य की इच्छा करते हैं। ज्ञानीजन जो होंगे उनके पुण्य भाव तो चलेगा। जब तक शुद्धोपयोग नहीं प्रकट हुआ मगर पुण्य की इच्छा नहीं करते कि ये ही मेरे लिए सब कुछ है इसका यों दृष्टांत लीजिए कि जैसे कोई रोगी कड़वी या मीठी औषधि पीता है तो वह उस औषधि को हमेशा पीने की चाह नहीं करता, ठीक यही बात ज्ञानी की है। जब तक शुद्धोपयोग नहीं होता तब तक पुण्यभाव बर्त रहा है मगर उस पुण्य भाव में हित की आस्था नहीं कि यह ही मेरा सर्वस्व है, पुण्य की चाह ज्ञानी को नहीं होती, फिर वह पाप भाव की चाह करेगा ही क्यों? कुछ पाप भाव भी यद्यपि वर्त रहा है ज्ञानी जीव के असमर्थ अवस्था में, चारित्र मोह का तीव्र उदय है बर्त रहा है, पंचेंद्रिय के विषयों के भोग की वृत्ति चल रही है तो भोग भोगना, विषयों में लगना यह तो पापभाव हैं। तो भले ही भोगना, विषयों में लगना यह तो पाप भाव है तो भले ही पाप का भाव बँधा रहता है। मगर पाप भाव की चाह नहीं है। जैसे किसी को जबरदस्ती कोई काम करना होता है तो भले ही वह कर देगा मगर भीतर से वह हटा हुआ ही रहता है। भोजन की चाह ज्ञानी पुरुष तो भोजन करने से पहले भोजन के राग से रहित साधु का स्मरण करता है जो आहार से पहले कायोत्सर्ग करने की विधि है और आहार के बाद साधु भक्ति कायोत्सर्ग की विधि है तो पहले और अंत में साधु भक्ति में उन सिद्ध ही स्मरण करता है जिनके क्षुधा तृषा आदिक रोग नहीं हैं। प्रभो मैं अब भोजन के झंझट में पड़ने वाला हूँ। इससे पहले मैं तुम्हारा स्मरण करता हूँ। इस झंझट के समय भी मैं आत्मा की सुध न भूलूँ इस भावना से वह प्रभु स्मरण करता है। बाद में भोजन क्रिया करता है, ऐसी ही भोजन क्रिया करके कायोत्सर्ग से फिर प्रभु का स्मरण करता है कि हे प्रभो मैंने इतना समय आत्मा के प्रतिकूल बातों में खो दिया। मैं तो इन झंझटों से रहित हूँ। क्षुधा तृषा आदिक दोषों से दूर हूँ। ऐसा वह साधु स्मरण करता है। तो भोजन और पान की ज्ञानी को चाह नहीं है कि मेरे को बड़ा मजा है। ऐसा भोजन पान मेरे को अनंत काल तक मिलता ही रहे। किसी के चाहने से कहीं अनंत काल तक सुख सामग्री मिलती रहे, यह बात न हो सकेगी। तो ज्ञानी को किसी भी बात की चाह नहीं हैं। ऐसा मुनिनाथ, जिन्हें कुछ चाह ही नहीं हैं आहार में व अपने अंतःज्ञान के प्रति मग्न हैं वे मुनिनाथ उत्तम पात्र कहलाते हैं। ध्यान महागुणसपन्न साधुओं का उत्तमपात्रपना―ध्यानरत साधु उत्तम पात्र हैं ध्यान ही जिनको प्रिय है दूसरी जगह टिकें कहाँ से, जब किसी पर पदार्थ में इस ज्ञानी को आस्था ही नहीं और अपने सहज अविकार ज्ञान स्वभाव में आस्था बनी है तो ऐसा ज्ञानी पुरुष अपना ध्यान कहाँ लगायगा? बाहर लग ही न सकेगा। परिणाम यह है कि वह अपने ही ध्यान में रत रहता है आहार कैसा अलौकिक सहज परमात्मतत्त्व जो आनंद रस से भरा हुआ है जिसमें विपत्ति का नाम नहीं। बंधन का कहीं काम नहीं एक ज्ञानमात्र जिसकी दृष्टि में यह अनुकूल है पवित्र है ऐसे ज्ञानस्वरूप निज आत्मा की दृष्टि रखने वाले मुनिनाथ आत्मध्यान में रत रहा करते हैं ऐसे मुनिनाथ मिलें किसी ध्यान प्रेमी गृहस्थ को तो उस पर कितना वात्सल्य जगेगा? परिवार के बच्चों पर जितना प्रेम होता क्या उससे कुछ थोड़ा बहुत कम? नहीं-नहीं उससे कई गुना अधिक वात्सल्य ध्यान प्रेमी, ध्यानरत, उत्तम पात्र निकटभव्य के होता है। साधुसेवा, साधु सत्संग उनका गुणानुराग मिलना अत्यंत दुर्लभ वैभव है। तो जो साधु आत्म ध्यान में रत रहा करते हैं। आत्मध्यान की ही जिनके धुन है वे मुनिनाथ उत्तम पात्र कहलाते हैं। अध्ययन महागुणसंपन्न साधुओं का उत्तम पात्रपना―अध्ययनरत साधु उत्तम पात्र हैं। सर्व बाह्य परिग्रह भी जिनके नहीं है ऐसे साधुजन अपने क्षण किस बात में व्यतीत करते हैं? ज्ञान में व्यतीत करते हैं। वह ज्ञान मिलता कहाँ से? उसके लिए पौरुष क्या करना होता है? अध्ययन। अध्ययन करने का कोई प्रयोजन सही बना लें तो उनको वह अध्ययन कई गुना लाभ देता है। और प्रत्येक वाक्य में उसे प्रीति होती है। ये जिनेंद्र देव के वचन हैं। सत्य हैं अविकार ज्ञानस्वभाव की ओर संकेत करते हैं। सारा समय उनके अध्ययन में ही तो जाता है। स्वाध्याय से बढ़कर अन्य तप क्या होगा? ज्ञानविहीन साधु कितना ही कहीं तप कर लें, पर उससे कर्म डरते नहीं हैं। कर्मबंध का निमित्त तो अज्ञानभाव, रागद्वेष, भाव है। वह जहाँ है तो चाहे ऊपर में कैसी ही क्रियायें चेष्टायें हो ज्ञान है तो बंध नहीं ज्ञान नहीं तो बंध है। तो ये साधु मुनिनाथ उत्तम पात्र सदा अध्ययन में रह रहते हैं। अध्ययन से एक तो श्रद्धा की पुष्टि ज्ञान का विकास और आत्मस्मरण की उमंग ये तीन बातें चलती हैं। कोई केवल एक बात ही समझने के लिए पढ़ रहा हो तो वह इस लाभ को पा नहीं सकता है। जो संसार से भयभीत होकर अर्थात संसार भावों से हटने की इच्छा से और अपने सहज स्वभाव में लगने की भावना से स्वाध्याय करता है रस उनको मिलता है। तो अध्ययन करने से तो गुरुराज का जो स्मरण होता है, उत्तम तत्त्व को समझने के समय जिसने ग्रंथ रचे हैं। उनके प्रति अतिशय भक्ति जंचती है। गुरुभक्ति का लाभ अध्ययन करने से अज्ञान अंधकार दूर होता है। और ज्ञान विकास होता है। सम्यग्ज्ञान की वृद्धि होती हैं। अध्ययन करने से जो अविकार सहज स्वरूप में उमंग दिलाने वाले वचन अध्ययन में आते हैं। तो सर्व विभावों से हटकर इस सहज स्वरूप में मग्न होने की उमंग बनती है। तो ऐसी महिमा जहाँ देखी गई है वह मुनि उत्तम पात्र कहा जाता है।