वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 30
From जैनकोष
धण-धण्णाइ समिद्धे सुहं जहा होइ सव्वजीवाणं।
मुणिदाणाइसमिद्धे सुहं तहा तं विणा दुक्खं।।30।।
मुनिदान से समृद्धि से सौख्यलाभ―जैसे इस लोक में ऐसा दिख रहा है कि किसी के धन धान्य आदि की समृद्धि हो तो वहाँ सुख देखा जाता है, घर के खेत हैं, व्यापार लंबा चौड़ा है, ना, ब्याज की खूब आमदनी है, बड़ा सुखी है, ऐसा देखा जाता है ना, तो इसी प्रकार यह भी देखना चाहिए, समझना चाहिये कि मुनिदान की समृद्धि से सुख होता है, अनेक लोग ऐसे हैं अब भी इस भरतक्षेत्र में, इस पंचमकाल में कि जो त्यागी, व्रती, मुनि, साधुसंतों की संगति में प्रसन्न रहते हैं और उनकी सेवा से अपना जीवन धन्य समझते हैं। यह भी एक बड़ी विचित्रता है अन्यथा ऐसे पुरुषों की संख्या ज्यादह रहती है कि जो साधुसंतों को निरखकर एक मन में दुर्भावना लायें और साधु संत न रुचें, ऐसों की संख्या इस पंचकाल में बहुत है। सो बहुत संख्या उन मिथ्याभाव वालों के रहने पर भी अब भी ऐसे मनुष्य बहुत पाये जाते हैं कि जो मुनिदान की समृद्धि से अपने को सुखी समझते हैं। और वास्तव में तो मुनिदान बिना पात्रदान बिना या धर्मात्माओं की सेवा बिना तो दुःख ही समझिये, क्योंकि धर्म प्रसंग से अलग रहने पर और मोहियों की संगति में खुश रहने पर तो इस जीव को सांसारिक ढंग की आकुलता बनती है इस कारण पात्रदान के बिना तो दुःख ही समझिये।