वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 29
From जैनकोष
दाणीणं दालिद̖द लोहीणं कि हवेइ महसिरियं।
उहयाणं पुव्वज्जियकम्मफलं जाव होइ थिरं।।29।।
कर्मविपाक के परिचय में संतोष मार्ग―इससे पहले की गाथा में बताया था कि अविश्वासीजन अपने स्वार्थ की साधना पर मोहित होकर कुछ त्याग बुद्धि में आते हैं सो वह मोक्ष का हेतु नहीं है। उसी संबंध में यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि जो कुछ गुजरता है। दिखता है वह सब पूर्वकृत कर्म का फल है। दानी पुरुष निर्धन क्यों देखे जाते? अनेक पुरुष ऐसे होते कि जिनके पास अधिक संपदा नहीं है, साधारण हैं। कामचलाऊ हैं और फिर भी दान की उनकी प्रवृत्ति देखी जाती है और दान में वे बढ़े चढ़े होते हैं फिर भी धन अधिक नहीं होता है तो इसका कारण है पूर्व जन्म में किए हुए कर्म का फल। दारिद्रय के उपद्रव में भी ज्ञानी की निःशंकता का कारण―ज्ञानीजन दारिद्रय आदि किसी भी घटना से नहीं घबड़ाते क्योंकि कर्म क्या करेंगे? कर्म का अधिक से अधिक दो बातों पर जोर चल सकता है एक तो कोई निर्धन हो जाय या उसका मरण हो जाय। सो ज्ञानी पुरुष मरण को तो जीवन समझता है और निर्धनता को धन समझता है। कैसे समझता कि उसे अपने आत्मस्वरूप में विश्वास है यह आत्म स्वरूप केवल एक जाज्वल्यमान ज्ञान ज्योति है, वह सर्व पर द्रव्यों से निराला है, इसमें दूसरे का संबंध ही नहीं है। तो अन्य पदार्थ के संबंध से रहित स्वरूप से निराला केवल एक आत्मवैभव है उसको धन माना है ज्ञानी ने तो स्वरूप में आयी हो ऐसी निर्धनता यही वास्तविक धन है। यह ज्ञानी की दृष्टि में है तब उसे क्या करेंगे? न रहेगा धन न रहा कुछ। उसको कुछ फिकर ही नहीं क्योंकि उसने अपने आत्मा के स्वरूप को ऐसा देखा है कि यह समग्र पर द्रव्यों से निराला है। मरण के उपद्रव में भी ज्ञानी की निःशंकता का कारण―अच्छा ज्ञानी को मरण का भी भय नहीं होता। जैसे कोई मुसाफिर किसी रेलगाड़ी में सफर कर रहा हो तो उसको एक सीट से हटकर दूसरी सीट पर जाने में कोई खेद नहीं होता। मानो वह किसी बीच की सीट में बैठा था और अब खिड़की के पास की सीट खाली हो गई तो उस बीच की सीट को बड़े उमंग से छोड़कर खिड़की के पास वाली सीट में जा बैठता है, उसे उस सीट के छोड़ने में जरा भी कष्ट नहीं होता। ऐसे ही ज्ञानी पुरुष जानता है कि यह देह तो परमाणुओं का पिंड है, यह पुराना होकर खिलकट हो जाता है। जैसे कोई मशीन पुरानी हो जाय तो ढीली ढाली खिलकट हो जाती है ऐसे ही यह शरीर भी पुराना होकर खिलकट हो जाता है। उस पुराने शरीर को छोड़कर जाने पर तो उसे अब कोई नया शरीर मिलेगा। वह जानता है कि यह मैं जीव वहीं हूँ। आज इस सीट पर बैठा हूँ तो यह सीट रद्दी हो जाने पर मैं नई सीट पर चला जाऊँगा। इस आत्मा का विनाश कभी नहीं होता और केवल आत्मा से ही ज्ञानी का प्रयोजन है। तो उसे दुःख का अवकाश कहाँ रहा? मरण के समय तो दुःख अज्ञानी मानता है, और वह किस बात का दुःख मानता है? मैंने इतना धन संग्रह किया, मैंने ऐसा मकान बनाया, ऐसी पोजीशन तैयार कर लिया, अब यह सबका सब छोड़कर जाना पड़ रहा है, ऐसी कल्पना अज्ञानी के जगती है। ज्ञानी तो अपने अविकार सहज सत्य स्वरूप को निरखता है। तो कर्म का विपाक बुरे से बुरा होता है तो दो बातों में―निर्धनता और मरण, पर ज्ञानी को इन दोनों से घबड़ाहट नहीं, बल्कि निर्धनता को धन समझता और मरण को जीवन समझता, तो उसे फिर कुछ भी शंका नहीं रहती। सुकृत दुष्कृत के फल के परिणाम―कोई ज्ञानी पुरुष है, दानी पुरुष है और वह दरिद्र हो गया या दरिद्र है तो वह दरिद्रता का आना उसके पूर्वकृत कर्म का फल है वर्तमान तो भाव व भव की उत्तमता है अनेक धर्मात्मा जिन्होंने जीवन में कभी पाप कार्य नहीं किया और फिर भी उन पर विपत्ति आती है तो यह कुछ पता नहीं कि यह एक लाख पहले के भवों के पाप का उदय है या कब के पाप का उदय है, आ गया है। तो उसका भी ज्ञानी ज्ञाता रहता है तो जो स्थितियाँ वर्तमान में दिख रही हैं उनका कारण क्या है उस प्रकार के कर्म का उदय। तो इस पर विश्वास रखना चाहिए कि जैसे कर्म किए जाते हैं वैसी ही बात सामने आती है उसमें यंत्र मंत्र तंत्र का आकर्षण न समझें, न करें किंतु अपने भावों के सुधार का पौरुष करें क्योंकि अपने भवितव्य की गाड़ी सब अपने पुरुषार्थ पर निर्भर हैं। यहाँ दानी पुरुष भी दरिद्र देखे जाते और लोभ पुरुष महान ऐश्वर्य वाले देखे जाते तो यह क्यों? ऐसा एक प्रश्न रखकर उत्तर दिया जायेगा। अनेक लोभी पुरुष हैं सो जो कुछ भी खर्च का मन में भाव भी नहीं रख सकते, त्याग, दान की मन में कल्पना भी नहीं बनाते और धनिक देखे जाते हैं सो ऐसा उनका भवितव्य होना उनके पूर्वकृत पुण्य का फल है मगर वर्तमान में जो परिणाम है लोभ कषाय का उसके परिणाम से जो कर्म बंध होता है उसका फल आगे भोगना होगा। यहाँ यह बात बतला रहे हैं कि ऐसी जो विचित्र स्थितियाँ होती हैं वे क्यों होती हैं, उसमें कारण है पूर्वकृत कर्म का उदय। जब तक पूर्वजन्म के अच्छे बुरे कर्म अपना फल देकर नहीं खिरते तब तक वे भले बने रहते हैं, याने यह सब अपने पूर्वकृत कर्म का फल है। सो कर्मों में सुधार करना चाहिये। यदि अपना भवितव्य सही चाहते हो तो, न कि किसी पर वस्तु से अपना हित मानें और न उसके प्रति आकर्षित होकर अपनी धर्मबुद्धि बनायें।