वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 46
From जैनकोष
देवगुरुधम्मगुणचारित्तं तवायार मोक्खगइ भेयं।
जिणवयणसुदिट्ठिविणा दीसइ किह जाणए सम्मं।।46।।
असम्यग्दृष्टि द्वारा देवस्वरूप के तथ्य के यथार्थज्ञान की अशक्यता―सम्यग्दृष्टि के बिना अन्य कोई प्राणी इस बात को कैसे समझ सकता है देव, गुरु, धर्म, गुण, चारित्र, तप, आचार और मोक्षगति का रहस्य एवं जिन वचन। इनको सम्यग्दृष्टि ही जान पाता है। देव का स्वरूप क्या है? ऐसा पवित्र आत्मा जिसमें विकार रंच नहीं रहा और अपने ही स्वरूप तेज से पूर्ण विकसित हुआ है याने जो सर्वज्ञ और वीतराग है ऐसा पवित्र आत्मा देव कहलाता है। देव के बारे में चर्चा तो सभी कर लेते हैं, शब्द भी बोल लेते हैं कि यह देव हैं। उनका गुणानुवाद भी करते, उनका कुछ चारित्र भी बनाते, पर चूँकि समझने वाला पुरुष स्वयं ज्ञानवान है, चेतन है, सो चाहे कैसे ही चरित्र बनाया हो देवों के, पर उनमें भी कुछ सुधार कर डालते हैं, फिर भी वह देवों का स्वरूप कुछ नहीं समझ पाता। जैसे मानो किसी देव का चरित्र हो कि वह दूध, घी, मक्खन, दही चुराकर खात था, और यह भी कह दिया कि वह सब भगवान की लीला थी। चलो उनकी तो लीला में निभ गई और यहाँ कोई वैसे ही चुरा करके खाये तब तो उसकी हमारी समझ से जेललीला ही कहलायगी। तो सुधार भी लेते हैं फिर भी देव के सही स्वरूप को नहीं समझ पाते। अपने आत्मा के सहज स्वरूप को जाने बिना देव का स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। अज्ञानीजन ज्ञानियों की महिमा को तो नहीं जान सकते। जो स्वयं विकार का रुचिया है वह अविकार देव को कैसे जान सकता है? सम्यग्दर्शन होने पर ही यह सही मायने में देव का स्वरूप समझ पाता है। असम्यग्दृष्टि द्वारा गुरु स्वरूप के तथ्य के यथार्थ ज्ञान की अशक्यता―ऐसे ही गुरु, जिनका ध्यान, तप ही कार्य है, जो निरंतर अंतर्दृष्टि की ही रुचि बनाये हैं, जिनको संसार का कोई भी समागम रुचता नहीं है। केवल जिन वचन, आत्मधर्म, स्वरूप में मग्न होने की धुन, यह ही जिनके हैं वे कहलाते हैं गुरु। जो सट्टा न बताये, खोट का तंत्र न करे वह लोगों की निगाह में गुरु ही नहीं है। अज्ञानीजन ज्ञानियों की महिमा को न समझ पायेंगे। तो ज्ञानी तो हैं गुरु अथवा देव और अज्ञानी जीव हैं मिथ्यात्व के उदय वाले पुरुष, तो वे जैसे देव के स्वरूप को नहीं समझ सकते ऐसे ही गुरु के स्वरूप को भी नहीं समझ सकते। गुरु अपने अंदर में क्या कर रहे हैं, यह बात मिथ्यादृष्टि के चित्त में नहीं उतर सकती। इसका रहस्य सम्यग्दृष्टि जानता है। असम्यग्दृष्टि द्वारा धर्म के तथ्य के यथार्थ ज्ञान की अशक्यता―धर्मात्मा की शुद्ध परिणति का नाम धर्म है, इसे अज्ञानीजन कैसे समझ पायेंगे? जिसने शुद्ध परिणति का आधार शुद्ध स्वभाव नहीं जाना वह धर्म की बात कैसे कर सकता है? उसके लिए ऊपरी ही छोटी-छोटी बातें सर्वस्व धर्म बनती हैं। और वह जानता है कि मोक्ष का उपाय यही है कि पूजा कर लो, तप कर लो, इस भेष में रह लो, या जो कुछ भी बाहरी बातें है उनको ही करके संतुष्ट होता है। धर्म के तथ्य का परिचय अज्ञानी को नहीं हो सकता। यह आत्मा स्वयं साक्षात् धर्मरूप है। यह उनकी ही निगाह में आयगा जिन्होंने आत्मा के सहज स्वरूप के नाते से अपने में अपने को परखा है। अज्ञानी जन इस बात को नहीं समझते। जैसे कोई दुःखी पुरुष दूसरे के दुःख को जल्दी पहिचान सकता है, पर जो सुखी हो, मौज में रहता हो, वह दुःखियों के दुःख का सही परिचय नहीं कर सकता। एक कहावत में कहते हैं कि ‘‘जाके पैर न फटी बेवाई, वह क्या जाने पीर पराई?’’ जिस को कभी कुछ दुःख नहीं आया, जिसने जो कार्य नहीं किया कभी वह उस तथ्य को कैसे समझ सकता है? तो ऐसे ही जिसकी धर्म पर दृष्टि नहीं, धर्म मायने आत्मस्वरूप, मैं आत्मा अपने आप अकेला ही अपने स्वरूप में किस स्वभावरूप हूँ, यह परखना प्रकाश देता है। केवल प्रतिभासमात्र, चेतनामात्र वह मैं हूँ। विकार आया है तो यह कर्म की छाया है, दर्पण में फोटो आयी है तो यह उपाधि का सान्निध्य पाकर बना है। औपाधिक है। दर्पण की निजी चीज नहीं है, ऐसे ही जितने अन्य भाव हैं केवल एक प्रतिभास के अतिरिक्त वे सब औपाधिक हैं, मेरे स्वरूप नहीं है। मैं तो प्रतिभासमात्र हूँ। यह तथ्य जिसकी दृष्टि में नहीं आया वह क्या समझेगा कि धर्म किसका नाम है। तो सम्यग्दर्शन बिना धर्म का मर्म नहीं जान सकते। असम्यग्दृष्टि के द्वारा गुण व चारित्र के तथ्य के यथार्थ ज्ञान की अशक्यता―गुण आत्मा में क्या गुण हैं अथवा आत्मा जब मोक्षमार्ग में बढ़ना चाहता है तो उसके क्या गुण होते हैं। गुण के अतिरिक्त गुण की कला यह है कि इस जीव को स्वभाव की ओर जाने का अवसर देवे। इसके लिए ही गुण है। इसके लिए ही व्रत है। व्रत कहीं मायावी लोगों को दिखाने के लिए नहीं हैं। यदि दिखावा की बात रखी तो वह तो फिर अव्रत हो गया। व्रत नहीं है, किंतु स्वयं-स्वयं की ओर झुक सके, रम सके, ऐसा अवसर मिले इस वृत्ति से वह कहलायगा व्रत। तो गुण का भी तथ्य रहस्य अज्ञानी नहीं समझ सकता। चारित्र आत्मा के स्वरूप में रम जाना चारित्र है। स्वरूप जिन के ध्यान में है और स्वरूप में रम जाना जिनके ध्यान में है, सिद्ध भगवान का स्वरूप जिन की समझ में है उनकी तो यह धुन रहती है कि मुझे तो सिद्ध भगवान बनना है। इसके अतिरिक्त कोई भी चारा नहीं है संसार में रहकर कि मैं संकट आपत्तियों से बच जाऊँ, और सिद्ध भगवान होना पराधीन नहीं है। इसलिए सरल है। अपने ही अविकार स्वरूप की श्रद्धा, ज्ञान, आचरण और इनकी ही धुन बने तो मुक्ति का लाभ सरल है और अपने आत्मस्वरूप की धुन बनाने वालों को जो कुछ भी करना पड़े, खुशी से करते हैं। बड़ा लाभ पाने के लिए कुछ भी उत्सर्ग करना पड़े तो लोग करते हैं ना। तो उस मुक्ति का लाभ पाने के लिए इसको मोह छोड़ना पड़ेगा, राग छोड़ना पड़ेगा, पर के प्रति का आकर्षण छोड़ना पड़ेगा। बस इसके लिए वह तैयार रहता है। सो अज्ञानियों को यह नजर आता ज्ञानी के लिए कि इसका कुछ दिमाग ठीक नहीं है, और ज्ञानियों को अज्ञानी यों नजर आते कि क्या पागलपन छाया है। तो यहाँ ज्ञानी को सब लोग अच्छा नहीं कह सकते। जो ज्ञानी होगा वह ही जान सकता कि ज्ञानी की यह महिमा है। बताओ ज्ञानियों की संख्या जगत में अधिक है या अज्ञानियों की? अज्ञानियों की संख्या अधिक है। अज्ञानी लोग, जिनको कीर्ति के लिए यह चाह है कि मेरे पर सब खुश हों, उनकी दृष्टि होती मायामयी पुरुषों पर। ज्ञानी पुरुष की ऐसी दृष्टि नहीं रहती। उसकी दृष्टि होती अपने आप की ओर। वह अपने ज्ञान की धुन में रहता है, उसे यह परवाह नहीं होती कि जगत में कौन क्या कह रहा है। महावीर भगवान को भी उनके समय में अनेकों लोग मायाचारी, कपटी आदि कहने वाले थे। इतिहास को उठाकर देखो, जो परमात्मा बन गए। भगवान हो गए उनके प्रति भी बुरा कहने वाले अनेकों लोग उस समय में भी थे। पर उनके कहने से प्रभु का कुछ बिगड़ता था क्या? विवेकी पुरुष वह है जिसको अपने सहज ज्ञान की धुन लगी है और उस धुन में यह मायामय जगत चाहे कैसा ही व्यवहार करे, यह उसके लिए कुछ भी नहीं है। कुछ अपने आप आत्मा की ओर झुकें और प्रयोग बल से आत्मा के सहज स्वरूप का स्वाद ले, अनुभव करे तो यह बात झट समझ में आयगी कि देव गुरु धर्म गुण चारित्र क्या होते हैं। असम्यग्दृष्टि द्वारा तपाचार आदि के तथ्य के यथार्थ ज्ञान की अशक्यता―तपाचार तपश्चरण में तपस्वी को अलौकिक आनंद आता है। वह आनंद तपश्चरण का नहीं है। वह आनंद कायक्लेश का नहीं है। वह आनंद सूर्य की गर्मी का नहीं है। उस प्रकार से जो बाह्य तपश्चरण बन रहा उससे नहीं है, किंतु वह तपश्चरण एक ऐसे वातावरण से बना है कि उसका जगत में किसी विषय के प्रति रुचि नहीं रहती, और उस समय में यह जीव अपने आत्मा का ध्यान करे तो वह सुगमता से कर सकता है। उस तपाचार के रहस्य को कौन जानता है? ज्ञानी जानता है। वह मोक्षमार्ग में बढ़ने का वातावरण बनाता है। एक देश मुक्ति किस तरह होती है और उस समय अंतः आत्मा का क्या वातावरण रहता है, इन सब बातों को सम्यग्दृष्टि बिना और कौन जान सकता है? इसी प्रकार जिन वचन-इन जिन वचनों का, इन शास्त्रों का हम पर कितना ऋण है, जो आचार्य ग्रंथ लिख गए उनको प्रमत्त दशा आयी और कितने ही विकल्प बने, उतने समय, पढ़ते समय, धरने उठाने के समय न जाने कितने-कितने विकल्पों का कष्ट होता है, क्या है उनमें? वीतरागता, जिनकी लेखनी अनुभव सहित चलती थी। आज जो यह विशाल साहित्य पाया जाता है यह तो ऐसी देन है कि जो जगत भी अर्पित कर दे कोई तो भी उससे उऋण नहीं हो सकते। पर मिथ्यादृष्टिजन क्या जानें इस रहस्य को? सम्यग्दृष्टि बिना इन तथ्यों को कोई पहिचान नहीं सकता। इससे अपने में यह प्रयोग बनायें कि इन सब तथ्यों को हमें समझकर ही रहना है। सही मायने में देव क्या, गुरु क्या, धर्म क्या, व्रत क्या, सबका निर्णय करना है, क्योंकि जीव जितना अपने आपकी ओर भीतर बढ़ेगा समझो उतना तो है इस जीवका लाभ और इसे छोड़कर अन्य किसी गपसप रूप में रहेगा तो वह अपना ऐसा दुर्लभ जीवन यों ही बिता डालता है। तो इन सब तथ्यों के रहस्य को सम्यग्दृष्टि ही पहिचान पाता है।