वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 47
From जैनकोष
एक्कु खणं ण विचिंतइ मोक्खणिमित्तं णियप्प साहा वं।
अणिसं चिंतइ पावं बहुलालावं मणे विचिंतेइ।।47।।
मोह में मोक्षनिमित्त निजात्मस्वभाव के क्षणमात्र भी चिंतन का अभाव―यह जीव मोक्षप्राप्ति के कारणभूत निज आत्मा के स्वभाव को एक क्षण भी नहीं चिंतवन करता। रात दिन की जो चर्चा है, जो कुछ किया करते हैं घर में, दुकान में, बाहर में या परिजनों में मोह रखने में, अनेक बातों में समय तो गुजार लिया जाता, पर मोक्ष के निमित्त अपने आत्मा के स्वभाव को जानने की इच्छा भी नहीं होती, उमंग की तो बात ही क्या कही जाय? तो जो अपने स्वभाव को जानने और अनुभवने की मन में उमंग नहीं लाते वे पुरुष जीवित रहकर भी किसलिए मनुष्य हुए हैं, उसका कोई जवाब न बनेगा। आत्मस्वरूप के परिचय के अभ्यास की सफलता―निज आत्मा को ध्यावो, कैसे आत्मा को ध्यावो? भेद करके, विवेक करके, वैभव से अपने को न्यारा निहार कर अविकार चैतन्यमात्र अपने आपका अनुभव करें। जो जिस तरह का अनुभव करता है वह उस तरह की अपनी बना लेता है। जैसे किसी आदमी से कोई कहने लगे कि भाई आज तो तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ है, दूसरा कहे--आज आपको क्या परेशानी हो गई, तीसरा बोले--क्या आज आप की कुछ खराब तबीयत है? लो तीन चार लोगों की बात सुनकर खराब भी न हो तो भी खराब हो जाती है, क्योंकि उसने अपने को अनुभवा तो है बारबार इसी प्रकार। तो जब इन लौकिक बातों के बारबार उपयोग में आने से इसका अनुभव बना लेता है यह जीव। तो अपने आत्मा का सहज स्वभाव चैतन्यमात्र भीतर दृष्टि देकर जितना चैतन्य है वह तो मैं हूँ और जितने विकार हैं, रागादिक, क्रोधादिक, चेष्टायें हैं वह सब कर्मरस की छाया है, फोटो है। यह मैं हूँ ही नहीं। यह जीव परेशान क्यों हैं कि उन विकारों को अपना स्वरूप मान लेता है। सम्यग्दृष्टि का अपने भीतर का ग्रहण क्यों है कि उसने विकार को, कर्मरस की प्रतिक्रिया को अपना न मानकर केवल ज्ञानमात्र चैतन्यस्वरूप को ही अपना तत्त्व समझा है। वह प्रसन्न रहता है। तो यह जीव मोक्ष के निमित्त अपने आत्मस्वभाव का एक क्षण भी चिंतवन नहीं करता, भीतर में प्रोग्राम भी नहीं बना रखा कि मेरा वास्तविक कार्य तो अपने सत्यस्वरूप का अनुभव करना है। मैं यह हूँ, यह उपयोग जब बाह्य पदार्थों में जाया करता है तो उस समय की स्थिति अनमिल रहती है याने ज्ञेय में ज्ञान अब नहीं बैठ सकता और यह अज्ञानी जीव फिट बैठालने की बेहद कोशिश करता है क्या बात? ज्ञान को ज्ञेय में फिट बैठालने के लिए, मगर वस्तु का स्वभाव ही नहीं है ऐसा कि कोई द्रव्य पर में मिल सके। कितने ही निमित्त हो, पर प्रत्येक पदार्थ अपने में अपने से अपने ही ढंग से परिणमता है, उसमें दूसरा कुछ भी हेर फेर नहीं कर पाता। जो उस अंतस्तत्त्व को जान ले वह इन सब समस्याओं का समाधान आसानी से कर सकता है। एक कला आ तो जाय यह। ज्ञानप्रकाश जाग जाने पर समस्या का सहज समाधान―बुंदेलखंड की एक घटना है अंग्रेजी राज्य की कि वहाँ कोई राजा गुजर गया, उसके एक छोटी उमर का लड़का था, सो राजा के मरे के बाद सरकार ने उस राजा की सारी जमीन कोर्ट कर लिया। कुछ दिन तक यों ही चलता रहा। जब वह बालक 18-19 वर्ष का सयाना हो गया तो राजमाता ने सरकार को नोटिस दिया कि मेरा बालक अब सयाना हो गया है, उसके पिता का राज्य अब उस बालक को दे दिया जाय। तो सरकारी बड़े साहब ने राजमाता को यह खबर दिया कि पहले तुम्हारे बालक की बुद्धिमानी की परीक्षा होगी। यदि वह परीक्षा में सफल हो गया तो उसे राज्य पद अवश्य दे दिया जायगा। तो राजमाता ने उस बेटे को दसों बातें अच्छी प्रकार सिखा दिया--बेटा, यदि साहब तुमसे यों पूछें तो यों उत्तर देना, यों पूछे तो यों उत्तर देना, पर वहाँ वह बालक बोल उठा और माँ यदि उस साहब ने इन दसों बातों में से एक भी बात न पूछा, कुछ और ही बात पूछा तो फिर उसका क्या उत्तर देंगे? तो राजमाता उस बेटे की तर्कणा भरी बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुई और बोली--बेटे जब तुम इतना तर्क उठा सकते तो मैं अब समझ गई कि तुम जरूर सही-सही उत्तर देकर आवोगे। आखिर जब वह राजकुमार पहुँचा साहब के पास बुद्धिमानी की परीक्षा देने हुत तो पूछा तो कुछ नहीं। बस उसके दोनों हाथ तेजी से पकड़ लिया और कहा--हे राजकुमार अब तू मेरे आधीन बन गया, बोल तेरी रक्षा अब कैसे हो सकती? तो वहाँ राजकुमार बोला--साहब अब तो मैं पूर्ण रक्षित हो गया, अब मुझे क्या फिकर रही? कैसे पूर्ण रक्षित हो गया? ....अच्छा सुनो देखो जब शादी ब्याह में कन्या की भांवर पड़ती है तो जिसका संबंध उसके साथ होना है वह उस कन्या का एक हाथ पकड़ता है, तो उस एक हाथ के पकड़ने के फल में वह उस कन्या की जिंदगी भर रक्षा करता है और फिर आपने तो मेरे दोनों ही हाथ पकड़ लिए, फिर मुझे क्या फिकर? मैं तो अब अपने को पूर्णरक्षित समझता हूँ, इस प्रकार का मार्मिक उत्तर सुनकर वह साहब दंग रह गया और उस राजकुमार को उसका राज्य पद दे दिया। तो जैसे उस राजकुमार को सही-सही उत्तर देने के लिए कुछ सिखाना नहीं पड़ा इसी प्रकार जिस ज्ञानी में अपने सहज स्वभाव के दर्शन की कला आ जाय तो उसे मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए कुछ सिखाना नहीं पड़ता। वह सभी प्रकार की समस्याओं को अपने आप सुलझाता रहता है। अज्ञान में आत्मानुरूप चिंतन की असंभवता―कोई अपने स्वभाव को परखने वाला नहीं और रूढ़िवाद से व्रत तप आदि में लग गया तो उसे जरा-जरा सी बात में पूछना पड़ता है कि कैसे क्या करें? और तिस पर भी वह दृष्टि और कला नहीं आ पाती जिससे कि कर्म खिरते हैं। तो यह अज्ञानी जीव अपने आत्मस्वभाव का एक क्षण भी चिंतवन नहीं करता और केवल रातदिन पाप का ही चिंतवन करता रहता है। तन, मन, धन, वचन मोह राग द्वेष पाप में ही प्रवर्तता रहता है और निज आत्मतत्त्व का उसे चिंतवन नहीं हो पाता और जिसको रुचि है कल्याण की, हित की, वह सब अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की ओर आता है। तो अज्ञानी जीव इन विषय कषायों की ही चर्चा करता है, उनका ही चिंतवन करता है, वह आत्मस्वभाव को क्षण मात्र भी अपने ध्यान में नहीं रख पाता। यह गल्ती बतलायी जा रही है। उसमें यह अनुरोध पड़ा है कि इस गल्ती को दूर करें और एक साहस बनावें कि जो बाहर गुजरे सो गुजरे, मुझे तो अपने आत्मस्वभाव की ही उपासना बनाना है। मेरा तो सिद्ध भगवान होने का प्रोग्राम है, चाहे कितना ही समय लगे, दूसरी बात चित्त में नहीं है।