वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 48
From जैनकोष
मिच्छामइ मयमोहासवमत्तो बोलए जहा भुल्लो।
तेण ण जाणइ अप्पा अप्पाणं संभभावाणं।।48।।
मिथ्याबुद्धि में अपनी भूल―जिनकी बुद्धि मिथ्या है याने पर वस्तु व अपने को एक मानता है अर्थात् दो पदार्थों का भिन्न-भिन्न अस्तित्व जिनके ध्यान में नहीं है, प्रत्येक पदार्थ अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, अन्य से नहीं। यह विवेक न होकर एक का दूसरे से कुछ संबंध मानते हैं, अपना जगत में कुछ समझते हैं, ऐसी मिथ्याबुद्धि वाले पुरुष मद और मोहास्रव में उन्मत्त हो रहे हैं। वैभव मिला तो उसका भी एक मद किया। मैं इतना वैभववान हूँ, रूप मिला, बल मिला उसका अभिमान आ गया। मेरा ऐसा सुंदर रूप है। मुझ में इतना बल है। मैं ऐसी कला जानता हूँ इस प्रकार नाना तरह से अपने बारे में जिनकी मिथ्याबुद्धि है वे मदोन्मत्त होते हैं और आश्रव उनके होता रहता है। ऐसे पुरुष अपने को भूल जाते हैं और यथा तथा बोला करते हैं। अधिक बोलना भी पापास्रव का हेतु बताया है, मन, वचन, काय की व्यर्थ क्रियायें करते हैं। पापास्रव का कारण है और फिर यथा तथा ये मिथ्याबुद्धि वाले बोलते रहते हैं। जैसा समझते हैं ये विनोद, मौज, गैर जिम्मेदारी से केवल अपने आपके दिल को प्रसन्न रखने के लिए जैसा चाहे बोलते हैं, और यह मेरा है। यह मेरा है इस तरह बोलना ही क्या, भीतर में श्रद्धा भी रखता है, पर संसार, शरीर भोगों से विरक्ति आये, ऐसी बुद्धि नहीं बनती, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में इस प्रकार का परिणमन होता है। मनुष्यभव के सदुपयोग का चिंतन―यह मनुष्यभव पाया है तो कुछ चिंतन यह करना चाहिए कि क्या इसही भव में रहना है, आगे भी तो जन्म होगा, फिर क्या दशा होगी? कैसे जन्म होगा, इसका भी तो कुछ ख्याल करना चाहिए। जो अपने आप को सुखी नहीं रखना चाहता भविष्य में, वर्तमान में तो ऐसी कोई जरूर मिथ्या बुद्धि उपजी है कि यथा तथा प्रवृत्ति में अपना मौज माने। 5 इंद्रिय के विषय के भोगों में अपने को सुखी अनुभव करता है, मेरे पास खूब मौज है। खूब परिवार है, खूब वैभव है, इस तरह की दृष्टि यह पाप का कारण बनता है। कहाँ तो यह चाहिये था कि जो परिग्रह मिला है, संग मिला है उससे उपेक्षा होना चाहिये था कि ये मेरे से जुदा चीजें हैं। इनका मेरा क्या साथ, क्या संबंध? क्या पूर्वभव से आया है। क्या आगे भव में जायगा, ये सब मुझसे भिन्न हैं, पर गृहस्थावस्था में हैं अतएव कुछ सम्हालना होता है, व्यवस्था करना होता है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि इन पदार्थों में उसका कुछ लगता है। मिथ्याबुद्धि में जैसा चाहे बोल जाते हैं। सारा विश्व मेरा है, यह घर मेरा, यह मेरी इज्जत है, यह मेरा यश है, यों अपनी-अपनी प्रशंसा में चित्र बना रहता है और निंदा से घबड़ाहट होती है। निंदा में घबड़ाहट होना और प्रशंसा में चित्त रम जाना ये दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। जिसको निंदा बुरी लगती है उसका अर्थ है कि इसको प्रशंसा भली लगती है। हाँ अपने आपको अनुचित काम न होना चाहिए। जो संसार की परिपाटी बढ़ाये, जो मोह कर्म को बढ़ाये, ऐसी अपनी वृत्ति न होनी चाहिए। अपने लिए अपनी ईमानदारी चाहिए और उस ही सच्चाई के साथ बर्ताव, फिर जहान में क्या होता है वह सब जीवों का परिणमन है कोई जीव कुछ बुरा बोलता है तो यह उसकी कषाय का परिणमन है, कोई यदि प्रशंसा कर रहा है तो यह भी उनकी कषाय कहो अथवा गुणानुराग कहो, उसको परिणमन है। मद और मोह इन दोनों आश्रवों से जो रहित है वह पुरुष अपने आपके तथ्य को जान सकता है। मनुष्य भव पाने की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी समझना चाहिए कि मुझको यहाँ करना है सब कुछ, जिससे कि मेरा भविष्य सुधरे। अपने विषयों के साधन, अपनी मूर्छा यह ही जिनको सुहाती है वे पुरुष अपने को भूले हुए हैं। और वे आत्मा को भी नहीं जानते। और सिद्ध के स्वरूप को भी नहीं जानते। समताभाव को भी नहीं जानते। आत्महित के लिये आत्मस्वरूप व शांतिस्वरूप दोनों के ज्ञान की आवश्यकता―आत्मस्वरूप और शांतिभाव दोनों का ज्ञान करना अति आवश्यक है। मेरा स्वरूप क्या और शांति का स्वरूप क्या। यद्यपि आत्मस्वरूप जानने में सब कुछ आ गया फिर भी भेदविवक्षा से इन दोनों बातों का निर्णय होना ही चाहिए। मेरा स्वरूप क्या? मेरा पहिचाननहार दूसरा न कोई। मैं वह अमूर्त दर्शन ज्ञानमय अंतस्तत्त्व हूँ कि जो यथावत् मेरा स्वरूप है उस स्वरूप का यहाँ कोई पहिचाननहार नहीं। हाँ वह पहिचाननहार हो सकता है जिसने अपने स्वरूप की भी पहिचान की। ऐसे आत्मतत्त्व को यह मिथ्याबुद्धि वाला भूला हुआ है। और वह आत्मा के सही स्वरूप को नहीं जानता। समताभाव अथवा शुद्ध स्वरूप उसको भी नहीं जानता। जिसको कुछ देना हो तो दो बातें तो उसको देखना ही चाहिए। जिसको देना है वह और जो दिया जाना है वह। इन दो बातों का तो परिचय होता ही है जो किसी को कुछ दें। तो ऐसे ही अपने आत्मा को शांति देना है तो एक तो आत्मा का परिचय करें कि मैं वास्तव में क्या हूँ और उस शांत स्वरूप का परिचय करें कि वह शांत स्वरूप क्या कहलाता है। जगत की ओर देखें, आँखें खोलकर देखें तो अपने आप की ओर से गया, अपने आप की ओर देखा तो जगत से गया। यद्यपि किसी स्थिति में दोनों ही बातें, दोनों ही धारायें चलती हैं। कर्मधारा और ज्ञानधारा, लेकिन अंत में ज्ञानधारा ही शेष रहती है, कर्मधारा समाप्त होती है। एक उपेक्षा से रहना और एक आशक्ति से रहना, दोनों में अंतर है। लालिमा सुबह भी है और शाम को भी। सुबह की लालिमा तेजी को लेकर है और शाम की लालिमा मिटने के लिए है। शाम की लालिमा जैसा राग होता है ज्ञानी के जिसने अपने आत्मा के स्वरूप का दर्शन किया-मैं हूँ सहज ज्ञान स्वरूप और अनुभव बने, अनुभव का परिचय होता है आनंद से। जिसने अलौकिक सहज आनंद पा लिया है उस पुरुष को बाहर में आनंद कैसे आ सकता है? तो उस आनंद से अपरिचित जो पुरुष हैं वे बाहरी पदार्थों के विषय में जो चाहे बोलते हैं। वे आत्मा को नहीं जानते, अपने समता स्वरूप को भी नहीं जानते। यह है मूढ़मती अज्ञानियों की स्थिति, जिसका परिणाम है संसार में भ्रमण करना।