वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 57
From जैनकोष
इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुहभावो।।57।।
द्रव्यों के यथार्थ ज्ञान से मोह का अभाव व मोह के अभाव से प्रशस्त शुभ भाव की संभवता―सुगति के कारणभूत शुभ भाव हैं जिनका इन दो गाथाओं में वर्णन हैं। छ द्रव्यों में जो वर्तना करता है वह शुभ भाव है। मायने 6 द्रव्यों के बारे में यथार्थ बोध रखना, द्रव्य 6 नहीं होते, द्रव्य 6 प्रकार के होते हैं। द्रव्य तो अनंतानंत हैं। जीव अनंतानंत, पुद̖गल उससे भी अनंतानंत, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाश द्रव्य, असंख्यात काल द्रव्य। इन प्रत्येक द्रव्यों की सत्ता जुदी-जुदी है। अपने आपके स्वरूप से सत् है, पर रूप से असत् हैं, इतना ही किसी को बोध हो तो मोह न रहेगा उसे, अब मोह न रहेगा यह सुनना भी कुछ लोग पसंद नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि बिना मोह किए घर नहीं चलता। मान लो किसी लड़के को घर से मोह न रहा तो वह कहीं घर छोड़कर चल न दे, घर का काम फिर कैसे चलेगा, यह सोचकर लोग मोह छोड़ने की बात पसंद नहीं करते, पर उन्हें यह पता नहीं हैं कि इस जीव के साथ जो मोह निबद्ध है यह तो इस जीव के लिए कलंक है। यह ही इस जीव को संसार में रुलाता है। अगले भव का तो किसी को कुछ नहीं मालूम, तो अगले भव में आप मोह न करें यह बात तो आप मान लेंगे मगर इस भव में कोई कहे कि मोह न करो तो यह बात सुनकर किसी-किसी को चोट पहुंच सकती है कि हमारा तो बड़ा अच्छा सब कुछ चल रहा है और यह क्या बात कहीं जा रही है। अच्छा तो अगले भव का तो कुछ पता नहीं इसलिए यह कहा जाय कि अगले भव में मोह न करना, तो इस बात को मजे में सुन लेंगे। अच्छा चलो आगे नहीं करना मोह और यहाँ जो आज किया जा रहा है सो यह कितने वर्ष तक कर लेंगे? आखिर छोड़ना तो सब पड़ेगा ही, यह मोह ही इस जीव पर विपत्ति है और जिन शासन का, जिन वाणी का रहस्य यह ही है कि जिन वचनों को सुनकर मोह छूटे। मोह छूटना कहो या यह कहो कि अपने अविकार स्वरूप का परिचय मिले। शास्त्रोपदेश का उद्देश्य अविकार चित्स्वरूप का दर्शन―सभी शास्त्रों में वर्णन इस उद्देश्य के लिए है कि मुझे तो अविकार चैतन्य-स्वरूप का अनुभव मिले। तब जो भी आप पढ़ें आगम में उसको इस निगाह से पढ़ें कि इसमें से मुझ को अविकार चैतन्यस्वरूप के लिए, दृष्टि के लिए उत्साह मिल रहा या नहीं। जिन वचनों से राग बढ़े, स्वच्छंदता के लिए, विषयवृत्ति के लिए उत्साह जगे वे आगमवचन नहीं। समस्त आगम वचन में यह ही कला भरी पड़ी है कि उन वचनों से प्रेरणा मिलती है अविकार चैतन्यस्वरूप की साधना की। अब इस कु´जी के आधार पर आप सभी पदार्थों का निर्णय कर सकते हैं। निश्चय नय व व्यवहारनय का विषय पृथक् होकर भी अविरोध―देखिये निश्चयनय और व्यवहार-नय ये दो नय बताये गए हैं। इनके अलावा और भी कुछ बताये गए क्या? हाँ बताये गए। व्यवहार और उपचार। तो अब कितने हो गए? चार बातें―(1) निश्चयनय (2) व्यवहार-नय (3) व्यवहार और (4) उपचार। अच्छा इनके अतिरिक्त और भी कुछ हैं क्या? हाँ हैं। वह है शुद्धनय। तो अब आप के सामने 5 बातें आयीं। (1) शुद्धनय (2) निश्चयनय (3) व्यवहारनय (4) व्यवहार और (5) उपचार। शुद्धनय के मायने यह है कि निश्चयनय परम शुद्ध निश्चयनय का जो विषय है वह बिना ही कुछ तरंग और विकल्प के बिना ही ध्यान में रहे, न निश्चयनय का विकल्प रहे न व्यवहारनय का, किंतु निश्चयनय के विषय का ही एक निर्विकल्प विधि से ज्ञान चले। यह शुद्धनय उपकारी है और इसके विषय का जब तक अपने को दर्शन है तब तक यह जीव सुरक्षा में है। निश्चयनय एक ही वस्तु को निरखता, एक ही द्रव्य में 1॰ द्रव्यों की बात देखता। निश्चयनय में यह ही नियंत्रण है केवल। अब इस नियंत्रण में रहते हुए भी निश्चयनय इतना फैला हुआ है कि इसकी कई बातें व्यवहार-नय में पहुंच जाती हैं। निश्चयनय में तीन प्रकार हैं (1) परमशुद्ध निश्चयनय (2) शुद्ध निश्चयनय (3) अशुद्ध निश्चयनय। शाश्वत अविकार स्वरूप को उस ही द्रव्य में निरखना परमशुद्ध निश्चयनय हैं, और आत्मा की शुद्ध परिणति को उस ही आत्मा में एक है, उसमें है, इस अभेद से देखना शुद्ध निश्चयनय है। देखिये भेदनाम क्या? शुद्ध पर्याय विशिष्ट द्रव्य को देखना। तो जब भेद दृष्टि बनी, वही व्यवहारनय बन गया। जब एक ही द्रव्य में देखने का अभेद बना तो वही निश्चयनय बन गया। अशुद्ध निश्चयनय। अशुद्ध पर्याय को उस ही द्रव्य में देखना, जैस जीव रागी है। देखिये व्यवहार जैसी बात बनी, यहाँ भेद डाला, विकार जाना फिर भी उस ही द्रव्य में देखा जा रहा इस कारण निश्चयनय है। वही चीज भेद की ओर से देखें तो व्यवहार है। अभेद विधि से देखे तो निश्चयनय है। व्यवहारनय-निमित्त नैमित्तिक भाव बताना, अनेक संबंध बताना, घटना बताना व्यवहारनय है। जैसे जीव कर्म से बँधा है, यह व्यवहारनय का विषय है। मगर यह गलत है क्या अभी? गलत तो नहीं है मगर एक द्रव्य को ही निरखकर नहीं बताया गया इस कारण व्यवहारनय है। व्यवहार व उपचार से समझ व प्रवृत्ति―इन सब नयों का निश्चयनय और व्यवहारनय इनका कथन किया जाय तो व्यवहार और एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में आरोप करके कथन किया जाय तो उपचार। आगम में सभी रीतियों का अनुसरण किया है। उपचार बिना भी कुछ लिखा नहीं जा सकता, व्यवहार बिना कुछ समझा नहीं जा सकता। अब इन सब कथनों में अपनी ऐसी कला रखिये कि सभी कथनों से मुझे अपने अविकार चैतन्य स्वभाव की दृष्टि मिले। यह हो सकता है। निश्चय से क्या, उपचार तक से भी कुछ शिक्षा ले सकते हैं। जैसे जब जाना, कि यह शरीर, ये मनुष्य तिर्यंच ये पशु जीव हैं। यह बात उपचार से है, क्योंकि देह जुदा है जीव जुदा है। इस देह में जीव का आरोप किया है। यह ज्ञान जिसको है क्या उसको स्वभाव की खबर नहीं है? जिसको अपने स्वभाव की खबर नहीं वह उपचार को उपचार भी नहीं समझ सकता। जिसको सच की खबर नहीं वह झूठ को झूठ भी नहीं समझ सकता। तो उपचार को भी सही ढंग से समझें उससे अपने स्वभाव के आश्रय की शिक्षा मिलती है। निमित्त नैमित्तिक भाव के परिचय का फल विकार से हटकर अविकार स्वभाव की ओर गमन―व्यवहारनय से जाना कि जीव में जो ये रागादिकभाव हो रहे हैं वह सब कर्मरस का प्रतिफलन है। कर्मरस की फोटो है। समयसार में वस्तु को बताया है कि मिथ्यात्व दो तरह का है―कर्ममिथ्यात्व और जीव का मिथ्यात्वभाव। राग दो तरह का (1) कर्म प्रकृति का राग और (2) जीव में उत्पन्न हुआ रागभाव। तो जैसे―दर्पण के आगे कोई नीला पीला कपड़ा रख दिया तो वह कपड़ा तो नीला पीला है ही। चाहे सामने रखें चाहे कहीं रखें--वह पर्दा तो नीला पीला है ही, मगर जब वह कपड़ा दर्पण के सामने आया तो दर्पण भी नीला पीला आदि रूप हो गया, तो दर्पण भी नीला पीला है और उधर कपड़ा भी नीला पीला है। कपड़े का नीला पीलापन है कपड़े में तादात्म्यरूप रखता हुआ और दर्पण में नीले पीले कपड़े का सन्निधान पाकर दर्पण की स्वच्छता का विकार रूप, तो वहाँ झट समझ बैठती है कि दर्पण का फोटो अलग चीज हैं और कपड़े का रंग अलग चीज है। यदि उस, रंगीन कपड़े को दर्पण के सामने से हटा दिया जाय तो वह नीला पीला आदि रंगीन फोटो भी हट जायगा। और ज्ञान है कि यह नीला पीला आदि प्रतिबिंब औपाधिक है। यह दर्पण ने निजी स्वरूप से नहीं है। यह हटाया जा सकता है। जहाँ निमित्त भाव का ज्ञान हुआ कि ये रागादिक भाव कर्मरस की फोटो हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं हैं, औपाधिक हैं इसलिए ये हटाये जा सकते हैं। एक शूरता प्रकट होगी निमित्त भाव समझने पर। जहाँ यह जाना इस प्रसंग में कि राग भाव तो मेरे को परेशान कर रहे, मेरे में उत्पन्न हुए, मेरे ही कारण से हुए तो अब मैं क्या करूँ? ये कैसे मिटेंगे? मोक्ष का कोई रास्ता ही नहीं वहाँ। विकार मेटने का रास्ता वह बना सकता है। जो विकारों को औपाधिक पर भाव मानेगा और जो रागादिक को अपनी ही चीज मानेगा वह उन्हें मिटायेगा किस तरह से? तो निमित्त भाव का कथन जानकर कितना इसमें स्वभाव का आलंबन लिया, यह मैं नहीं। मैं तो अविकार चैतन्यमात्र हूँ। निश्चयनय एक ही आत्मा को देखेगा। रागी है तो यह राग आत्मा की परिणति है। इसका आधार यह आत्मा है, यों सब देखेगा। व्यवहारनय का उपकार―तो एक बार तो निश्चयनय के सहारे से निश्चयनय में भी शुद्ध निश्चयनय, अशुद्ध निश्चयनय, परमशुद्ध निश्चयनय की बात नहीं कह रहे, उसमें तो शुद्धनय की निकटता है, पर जहाँ शुद्ध पर्याय को अशुद्ध पर्याय को निश्चयनय देखा जा रहा है, शुद्ध निश्चयनय, अशुद्ध निश्चयनय तो उसके द्वार से तो एक बार स्वभाव का आश्रय करने में विलंब हो सकता है, पर ये विकारभाव औपाधिक हैं, पर भाव हैं, नैमित्तिक हैं। मेरा इनसे क्या मतलब। मैं तो अविकार चैतन्यमात्र हूँ। वह इस रास्ते से स्वभाव की ओर जल्दी आ सकता है। प्रयोजन यह है कि जिस प्रकार आप अपने सहज अविकार चैतन्य स्वरूप की ओर आ सकें वह काम करना है। यह ही उपदेश का उद्देश्य है। यह ही धर्म में मुख्य काम है। जिनका भवितव्य उत्तम है उनको ही इस धर्म तत्व के जानने की, मानने की, सुनने की रुचि जगती है। एकत्वसप्तति में बताया है कि जिसने इस अंतस्तत्त्व की बात प्रेम से सुनी, समझी वह निश्चयभव्य है, और भविष्य में वह निर्वाण का पात्र है। तब कुछ सोचना जरूर चाहिए कि जिस रास्ते से चल रहे हैं प्रारंभ से, धन कमाना, तृष्णा करना, खूब अच्छा खाना पीना और अपनी स्त्री पुत्रादिक परिजनों को मानना कि ये ही मेरे सब कुछ हैं। इनके लिए ही मेरा तन, मन, धन, वचन सर्वस्व हाजिर है। और, तो मानो अन्य किसी में कुछ जान ही न हो, उनको तो मानो कुछ दिखता ही न हो। ऐसा अगर मोह से रंगा हुआ हृदय है तो यह तो कोई दया नहीं है इसमें अपने भगवान आत्मा का घात है। यहाँ किसका कौन? खुद के लिए का फल खुद को ही भोगना होगा। दूसरा कोई साथी न होगा। शुभ भाव करेंगे तो सुगति, अशुभ भाव करेंगे तो दुर्गति। और अपने अविकार चैतन्य स्वभाव का परिचय करेंगे और वही रुचेगा और उसमें ही स्थिर होने का एक दृढ़ प्रतिज्ञ बनेगा तो वह मोक्ष पायगा। अब जो रुचता हो सो करना चाहिए। रागद्वेष मोह के प्रसंग का फल, इन बाह्य पदार्थों में आशक्ति का फल यह संसार भ्रमण है, सो सब दिख ही रहा है। कोई एकेंद्रिय हैं। कोई कीड़ा मकौड़ा है, कोई कुछ है। यह ही बनना पड़ता है उसे। जिसको अपने स्वरूप की रुचि नहीं जगती और बाह्य विषय, बाह्य साधन, परिजन आदिक ये ही जिनके लिए सब कुछ हैं, देवशास्त्र गुरु में जिन के श्रद्धा भक्ति नहीं उमड़ती है उनको क्या फल मिलता है सो देख लो, ये जो कीड़ा मकोड़ा आदिक की खोंटी गतियाँ संसार में दिख रहीं, बस यही मो इसका फल है। यथार्थ वस्तु परिचय की महिमा―यहाँ प्रकरण यह चल रहा है कि अशुभ भाव से तो नरकादिक दुर्गतियाँ मिलती हैं और शुभ भाव से स्वर्ग सुख मिलता है; उसी सिलसिले में यहाँ शुभ भाव का वर्णन चल रहा है। वे शुभ भाव कौन-कौन से हैं? तो अभी वर्णन था कि 6 द्रव्यों का यथार्थ बोध करना, उसकी चर्चा में रहना, यह शुभ भाव हैं। अब कह रहे हैं कि अस्तिकाय विषयक ज्ञान चर्चा में रहना, यह शुभ भाव हैं। चर्चा कुछ कठिन लगती होगी पर जीवन में यदि जैनशासन के कुछ तथ्यों का परिज्ञान न किया, प्रयोजनभूत थोड़ा भी तो अपने आप से पूछो कि यह जीवन किसलिए पाया, क्योंकि बाहरी परिकर जोड़कर धन वैभव धन वैभव कुटुंब परिजन को सर्व समर्पण कर करके कौन सा लाभ पा लोगे? अरे ये सब मरण होने पर सब एक साथ छूट जायेंगे। तो अपने चित्त में एक यह बात लाना चाहिए कि कुछ कठिन पड़े तो भी अभ्यास कर-करके जैन शासन के तथ्यों को समझना ही होगा। यहाँ वर्णन कर रहे हैं अस्तिकाय का। अस्तिकाय 6 द्रव्यों में गर्भित हैं, पर द्रव्यों का वर्णन होता है और ढंग से, अस्तिकाय का वर्णन होता है और ढंग से। जीव के बारे में ये चारों बातें आयेंगी। (1) जीवद्रव्य (2) जीव अस्तिकाय (3) जीवतत्त्व और (4) जीव पदार्थ। कहने का सब एक बात हैं लेकिन विभाग अलग-अलग हैं। उद्देश्य सब का एक हैं। मगर भाग जुदे-जुदे हैं। द्रव्य क्षेत्र काल भाव से वस्तु का परिचय―वस्तु की पहिचान होती है द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से। कोई भी पदार्थ जाना। मानो एक चौकी को ही जानना है, उसका परिचय पाना है तो यह चौकी पदार्थ है। जैसा भी है, सामने मजबूत जैसी भी काम में ले रहे हैं, तो यह तो हुआ द्रव्य की ओर से उत्तर, यह चौकी पदार्थ है। क्षेत्र की ओर से उत्तर होगा कि यह इतनी ऊँची लंबी चौड़ी है, समझा चौकी को ही, मगर क्षेत्र से चौकी पदार्थ को समझो तो इस तरह समझा काल की दृष्टि से समझा तो यह पुरानी है, नवीन है, मजबूत है, यह समझा और भाव की दृष्टि से समझा तो उसके गुण जाना, उसकी शक्तियाँ जानी, किसी भी पदार्थ को समझना हो तो इन चार विधियों से जाना जाता है, तो ऐसे ही जीव को भी समझना था। तो द्रव्य एक है पिंड, द्रव्य के समय-समय पर कई अर्थ हो जाते हैं, यहाँ व्यवहृत अर्थ लेना तो जब द्रव्य की ओर से देखा, पिंड की ओर से देखा तो जिसको हम भी जीव कहते हैं देखकर, जो एक अखंड पिंड, वह जीव पदार्थ है। जब क्षेत्र दृष्टि से देखा तो उसका नाम पड़ता है जीव-अस्तिकाय। अस्तिकाय का वर्णन चलेगा, कितना बड़ा है, देह प्रमाण है, इसे अस्तिकाय में बताया। काल से वर्णन किया जायगा तो उसका नाम पड़ेगा जीव द्रव्य। जो परिणमन करें, जिसमें पर्याय बनें, जिनकी पर्याय हुई, जो पर्यायों को पाता रहेगा उसका नाम है द्रव्य और भाव से देखें तो उसका नाम पड़ता जीवतत्त्व। एक ज्ञानस्वरूप चैतन्यमात्र सहज भाव पर नजर गई, स्वभाव पर दृष्टि गई तो जैसे किसी आदमी के प्रयोजनवश 4-4 नाम भी हो जाते, वही पुजारी, वही सेठ, वही पंडित और अगर किसी का रिश्तेदार है तो सबको प्रसिद्ध हो गया वही लालाजी। अब बात एक ही है मगर पूजा करते समय उसे कोई कहने लगे सेठजी तो यह बेतुकी बात हो गई, वहाँ पुजारी ही कहना चाहिए था। वही पुरुष जब समाज की सभा में बैठा हो या घर द्वार में बैठा हो तो कहना लाला जी, और वहाँ कोई कहे कि आवो पुजारी जी तो वह बेतुकी बात हो गई। जब वही पुरुष शास्त्र पढ़ रहा हो तो उस समय लाला जी कहना तो यह बेतुकी बात है। उस समय पंडित जी कहना चाहिए। दुकान की गद्दी पर बैठा हो तो क्या उस समय पुजारी कहोगे? उस समय कहना चाहिए सेठजी। तो जैसे प्रयोजनवश चार बातें पुकारी जाती है ऐसे ही परिचय की विधियों के कारण इस जीव को चार नामों से पुकारा गया है। (1) जीव द्रव्य, (2) जीव अस्तिकाय, (3) जीव तत्त्व और (4) जीव पदार्थ यहाँ वर्णन चल रहा है अस्तिकाय का। अस्तिकाय उसे कहते हैं जहाँ बहुत प्रदेश हों, एक न हों, अनेक हों। काय नाम है शरीर का। शरीर में जैसे बहुत प्रदेश हुआ करते हैं उस प्रकार से जहाँ बहुत प्रदेश हो उसका नाम है अस्तिकाय। तो द्रव्य बताये गए थे 6 प्रकार के जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। ये ही अस्तिकाय है। पर काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं है, क्योंकि वह सदा ही एक प्रदेशी रहता है। उसका किसी से संपर्क भी नहीं होता कि उसे कभी बहुप्रदेशी होने का मौका मिले, इसलिए काल द्रव्य को अस्तिकाय नहीं गिना है। इन सब बातों के निर्णय से अपने आत्मा के बारे में विशिष्ट परिचय होता है। ज्ञान की समीचीनता का मूल―ज्ञान नाम उसका है जो ज्ञान-ज्ञान के स्वरूप को जान जाय। ज्ञान कहो या आत्मा कहो, एक ही बात है। भाव और भाववान में संज्ञायें हैं। ज्ञानमय आत्मा। तो यह ज्ञान इस ज्ञान के ही स्वरूप को जान ले तो वह कहलाता है सम्यग्ज्ञान। और, जो ज्ञान अपने आप के स्वरूप को नहीं समझ पाता और बाह्य वस्तुओं को जानने में बहुत उमंग रखता, जानता भी है। हर्ष भी करता है, तो कितना भी वह जान ले, पर वह संसार से छुटाने वाला ज्ञान नहीं। यह ज्ञान तो बहुत मोटा लौकिक है, पर ऊँचे-ऊँचे विज्ञान भी कोई पा ले जैसे रेडियो, वायरलेस, टेलीविजन आदि की अद्भूत बातें, जिनके लिए बड़े-बड़े विभाग बने वे भी जान ले अन्य प्रकार से तो ज्ञान की तो तरक्की है लौकिक हिसाब से, मगर संसार से मुक्ति पाने के लिए तो वह ज्ञान कुछ भी सहायक नहीं है। जो ज्ञान स्वरूप को जाने उसको कहते हैं सम्यग्ज्ञान। तो जीव तत्त्व को जानने में अनेक प्रकार से परिचय बनाना पड़ता है। जीव पदार्थ की चर्चा―जीव को, पिंड रूप से जाने तो यह है, जो गुण पर्यायों का पिंड है, ज्ञानानंद का पुंज है वह है जीव। क्षेत्र से जाना तो देह प्रमाण, काल से समझे तो ऐसे-ऐसे विचार वाला, ऐसी परिणति वाला। भाव से समझे चैतन्यस्वरूप। सहज आनंदस्वरूप। ये अस्तिकाय है। कैसा यह भगवान परमात्मतत्त्व घट-घट में विराजमान है। सब ही वह परमात्मस्वरूप है, अनुपम अलौकिक आनंद का अधिकारी प्रभु, स्वामी यह आत्मा अपने आपको न जानकर यह मानव जीवन बाह्य पदार्थों की कल्पनाओं में ही बिता कर खो रहा है। अपना महत्त्व नहीं आँकता। अपने लिए आप ही महान मगर यह देह वाला नहीं महान। दुनिया की नजर में आने वाला यह जीव महान नहीं, किंतु जिसका कोई पहिचाननहार नहीं वह स्वयं ही पहिचाननहार है। स्वयं के ही अनुभव में आने योग्य है ऐसा वह परम ब्रह्म स्वरूप चित्प्रकाश भगवान आत्मतत्त्व, वह मकान है। उसकी जिसने सेवा की, उपासना की, उसके भव-भव के बाँधे कर्म कट जाते हैं। धर्म में विकल्प कहीं नहीं। जहाँ धर्म के नाम पर विसम्वाद हो या ऐसी उमंगें और प्रवृत्तियाँ हों वहाँ कभी भी धर्म नहीं। प्रत्येक आत्मा का धर्म उस ही आत्मा के सहजस्वरूप में हैं देख सके तो स्वयं में ही मिलेगा। ज्ञानपुंज होकर भी आज यह पापरूप में बर्त रहा है। फिर भी स्वभाव अधर्म का न बनेगा। चाहे कोई कितना ही पाप करे, स्वभाव तो धर्मरूप ही है, मगर उसको जो देख लेगा, अनुभव कर लेगा, वह तो कर रहा है धर्मपालन और जिसने इसको कभी नहीं तका और बाह्य वस्तु में धर्म के नाम पर कितना ही कष्ट उठा ले। धर्म रंच भी वहाँ नहीं मिलता। आत्मा का स्वभाव आत्मा का धर्म है उसके पहिचाने बिना धर्म का ही लाभ नहीं होता। स्वयं-स्वयं में महान है। पर वह स्वयं क्या जो निरपेक्ष पर संबंध रहित अपने आपकी सत्ता से सहज अंतः प्रकाशमान चिद्ब्रह्म, उसकी दृष्टि आने पर यह जीव होता है सम्यग्दृष्टि। पुद̖गल अस्तिकाय―शुभ अशुभ के प्रकरण में तो यह बताया जा रहा है कि अस्तिकाय 5 होते हैं जिसमें पहला अस्तिकाय हुआ जीव। दूसरा अस्तिकाय है पुद̖गल―जिसमें रूप, रस, गंध स्पर्श पाये जायें वे सब पुदगल हैं जतो यहाँ जितना जो कुछ दिख रहा वह सब पुद̖गल। पुद̖गल शब्द एक ऐसा विचित्र शब्द है कि जिसके बोलने का रिवाज जैन शासन में है अन्यत्र नहीं। पुद̖गल का अर्थ क्या? तो वैसे तो पुद̖गल शब्द के अनेक अर्थ है―जैसे भौतिक पदार्थ, अचेतन पदार्थ, पर पुद̖गल शब्द स्वयं कह रहा है कि पुद् गल अर्थात् जो पूरे और गले। पूरी आप्यायने धातु से पुद् बना और गल स्रवणे धातु से गल बना, दोनों का मिलकर पुद̖गल बना, याने जो पुद् अर्थात् पूरे (बने) और गल अर्थात् गले (नष्ट हो) उसे कहते हैं पुद̖गल। यह कला इस पुद̖गल में पायी जाती है कि रहकर बढ़ जाय और बिछुड़ कर घट जाय उसका नाम है पुद̖गल। ये सब दृष्यमान चीजें पुद̖गल हैं। एक शब्द और अधिक बोलने में आया करता कि ये सब मायामय हैं। माया का अर्थ क्या है? कुछ न कुछ तो बोलेंगे ही मगर हृदय में नहीं बैठ पाता कि कोई है माया, कोई है इंद्रजाल, कोई है पदार्थ। इसका यह प्रभाव है। अब माया शब्द का बहुत ही सीधा अर्थ है। सीधी परिभाषा है कि जो मिलकर बना हो उसका नाम है माया और जो केवल अकेला द्रव्य हो वह है परमार्थ। एक कुंजी दी जा रही है जिसके आधार पर परमार्थ और माया का सही चित्रण आ सके। जो द्रव्य केवल अपनी सत्ता मात्र हो वह तो हैं परमार्थ और जहाँ मिल गए हों दो मिले हों, तीन चार मिले हों। अनंत मिले हों उसे अनेक कहते हैं। जो एक नहीं अनेक पदार्थों का मिला हुआ जो रूप है उसको कहते हैं माया। अब आप यह देखो कि आँखों से जो कुछ दिखता है वह सब परमार्थ है या माया? सब माया है। भींट, पुरुष, पशु, पक्षी आदि ये देह जो भी नजर आ रहे हैं वह अनेक द्रव्यों का मिला हुआ रूप है अनंत परमाणुओं का मिलकर देह है, अनंत परमाणुओं का मिलकर यह मकान हैं। जो भी नजर आ रहा वह सब माया है और परमार्थ क्या है? तो स्वयं में जो एकाकी जीव तत्त्व है, चिद्रूप, चेतनामात्र, बराबर उसकी दृष्टि होने से, उसका अभ्यास बनने से वह तत्व प्राप्त हो जाता है। 5 अस्तिकायों की चर्चा चल रही है जीव और पुद̖गल। पुद̖गल अणु-अणु, अणुवों का पुँज। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, व आकाशद्रव्य अस्तिकाय का निर्देश―धर्मद्रव्य एक सारे लोकाकाश में फैला है जिसको कोई एक ईथर सूक्ष्म कोई ऐसा शक्तिमान द्रव्य कहते हैं कि जिसके रहने से जीव पुद्गल का गमन होता है। जैसे आज के ढंग में तरंग कहो, वातावरण कहो, जहाँ तक गति होती है। तो गमन का हेतुभूत है धर्म-द्रव्य और चलते हुए ठहर सके उसका निमित्त है अधर्मद्रव्य। और, यह सब आकाश। जहाँ सब विराजे हैं। सब स्थित हैं और काल भी अणु हैं, प्रत्येक जगह पर एक-एक कालाणु हैं कि जिसके परिणमन से वहाँ रहने वाला पदार्थ भी परिणमता है। ऐसे 6 द्रव्यों में 5 अस्तिकाय हैं। इनका जानना, इनकी चर्चा में आना, इनमें जो उपादेय तत्त्व हैं जीव, स्वयं, आत्मा, उसकी दृष्टि बनाना, ऐसा पौरुष करना यह कहलाता है शुभ भाव। सप्त तत्त्व की चर्चा में वर्तने का शुभ भाव―अब सात तत्त्व की बात सुनो―तत्त्व शब्द कैसे बना? तस्यभावः तत्त्वं, अनेक लोग तो इस तत्त्व शब्द के लिखने में भी गलती करते हैं। डबल आधा त (त्त्) यह कहाँ लिखना है कहाँ नहीं लिखना है इसका कुछ विवेक नहीं होता। जैसे किसी ने लिखा अस्तित्व तो वह डबल आधा त (त्त्) कर देंगे, जैसे अस्तित्व और वस्तुत्व में भी डबल आधा त कर देंगे जैसे वस्तुत्व, पर वहाँ डबल आधा त नहीं हैं। वहाँ होना चाहिए इस तरह--(अस्तित्व, वस्तुत्व आदि। जो तकारांत शब्द हैं उसके आगे त्व लगे तो वहाँ डबल आधा त (त्त्) होता है―जैसे सत्त्व, सत् त्व, महत्त्व, महत् त्व, तत्त्व, तत् त्व। अब वस्तुत्व में वह डबल आधा त (त्त्) कहाँ से आ गया? तो तत्त्व शब्द में यह भाव बताया है―तस्यः भावः तत्त्वं। पदार्थ का जो स्वरूप है वह पदार्थ हैं। जब कभी पदार्थ निसार हो जाता तो कहते हैं कि आत्मा से तत्व तो निकल गया, जो उस का प्राण है जिसके रहने से उसका सत्त्व है, उसे कहते हैं तत्त्व। ऐसे तत्त्व 7 कहे गए हैं―(1) जीव, (2) अजीव, (3) आश्रव, (4) बंध (5) संवर (6) निर्जरा और (7) मोक्ष। इन 7 तत्त्वों की जानकारी जिसे नहीं हैं वह कभी भी विकार से हटकर अविकार चित्स्वरूप में नहीं आ पाता। तत्संबंधी फुटकर ज्ञान तो प्रायः लोगों को होता है मगर उसका एक सिस्टेमेटिक (अनुपद्धति) विधिवत ढंग से उसका परिचय होना चाहिए। ताकि अपना अविकार स्वरूप अपनी दृष्टि में स्पष्ट रहे। सप्ततत्त्व में जीवतत्त्व की चर्चा―7 तत्त्व में मूल क्या बताया? जीव और अजीव, ये आस्रवादि के आधारभूत हैं, यहाँ जीव से मतलब है चेतन पदार्थ से, और उसको निरखा जाता है दो दृष्टियों से। सामान्य और विशेष। सामान्य से जीव को निरखना यह तो हैं धर्मसंबंधित निरख और विशेष से जीव को निरखना यह है धर्म संबंधित निरख का सहायक। लोक में विशेष का बड़ा आदर किया जाता। कोई विशिष्ट पुरुष आये तो उनका सम्मान होता और सामान्य का कोई आदर नहीं करता। अध्यात्मशास्त्र में विशेष तो उपेक्षा के योग्य है और सामान्य उपादेय है। सामान्य में कितना महत्त्व है। सामान्य कहो या साधारण। जब कभी किसी नगर में दंगा हो जाता, परस्पर में कोई झगड़ा या अनबन हो जाती और सरकारी प्रबंध वहां चलता, जब कुछ ड्खीक बन गया तो कहते हैं कि अब उस नगर में स्थिति साधारण है। तो इसका अर्थ है कि अब बहुत अच्छा है। साधारण शब्द की महिमा देखो। तो आत्मा में भी साधारण सामान्य जो तत्व है
वह पाया जाता है विकल्प मेंट कर और विशेष तत्त्व पाया जाता है विकल्प करके। तो जीव को दो निगाहों से निरखना है। एक तो चैतन्य सामान्य, जो अंतः सतत् और दूसरी निगाह के पर्याय प्रकाशमान है।
स्वभावदृष्टि के परिचय में एक उदाहरण―जैसे जल का स्वभाव ठंडा है, एक दृष्टांत ही कह रहे--जल भी एक पर्याय है, पदार्थ नहीं है, फिर भी उसको समझने के लिए दृष्टांत कह रहे। जल जिस समय खूब गरम हो गया तो जल का कोई हिस्सा ठंडा रहा क्या? लेकिन जब पूछेंगे कि इस जल का स्वभाव कैसा है तो क्या आप यह कहेंगे कि इसका गरम स्वभाव है, यह ही कहेंगे कि इसका ठंडा स्वभाव है और जब कहेंगे कि अच्छा आप इसे पी जावें तो उसको पीते समय आप को तेज गरम लगेगा फिर भी आप यह कहेंगे कि इस जल का स्वभाव ठंडा है। अब बताओ जल के गरम हो जाने पर उसका वह ठंडा स्वभाव कहा गया? तो वह ठंडा स्वभाव उस सारे जल में हैं। दिखता तो नहीं हैं। हा वह अदृश्य है, फिर कैसे मानें कि यह ठंडा है? कहते हैं कि जो गरमी आयी है वह पर का संग पाकर आयी है, इस कारण वह आगंतुक है, औपाधिक है, थमने वाला नहीं, स्थिर होने वाला नहीं, प्रयोग करके वह गरमी हटायी जा सकती है। और उपाधि संबंध से तो गरम रहेगा जल और उपाधि न मिले, अग्नि संपर्क न मिले तो वह ठंडा रहता है। तो जल में जो ठंडा स्वभाव है वह शक्तिरूप है, सारा जल गरम हो गया फिर भी जल में अंतःप्रकाशमान है वह शीत स्वभाव, ऐसे ही यह जीव विकृत हो गया। रागद्वेष में लिप गया, कषायों से अनुरंजित हो रहा फिर भी इस जीव में चैतन्यस्वरूप वह ज्ञातृत्व शक्ति वह अंतः प्रकाशमान है। वह दिखेगा नहीं पर जानने चलेंगे तो अनुभव में आ सकता है। ज्ञान की अप्रतीघातता―इस ज्ञान को अपने लक्ष्य में जाने से कोई रोक नहीं सकता। यह किसी से छिड़ता नहीं, इसे कोई पकड़ सकता नहीं। जैसे मानो आप यहां शास्त्रसभा में बैठे हैं और आप यहां बैठे-बैठे घर के अंदर तिजोरी के भीतर रखे बक्स के भीतर किसी छोटे डिब्बे में एक छोटी पोटली में बँधी अंगूठी का ध्यान करने लगें तो क्या आपका ज्ञान वहाँ तक पहुंच नहीं जाता? उसके जानने में ये भींट, किवाड़, तिजोरी, बक्स या छोटी डिब्बी वगैरह ये कोई आड़े आते हैं क्या? इनमें ज्ञान अटक जाता है क्या? अरे इनमें कहीं न अटककर सीधा उस अंगूठी में ज्ञान पहुंच जाता है। यह तो ज्ञान की बात है। मगर जो बाहरी बातें हैं, हड्डी का फोटो लेने वाला यंत्र एक्सरा यंत्र होता है, उस पर आप खड़े हो जायें तो वह एक्सरा यंत्र आप की हड्डी का फोटो ले लेगा। वह आप के शरीर के बाल, चाम, खून, मांस मज्जा आदि में न अटक कर सीधे आप की हड्डी का फोटो ले लेता है। और अगर कैमरे से हड्डी का फोटो लिया जाये तो वह फोटो न ले सकेगा। यह तो बाहर में दिखने वाली चीज का ही फोटो ले सकेगा। तो एक्सरा यंत्र के संबंध में जो बात कही गई कि वह बाहर में दिखने वाले रोम, चाम, खून, मांस मज्जा आदिक का फोटो न लेकर सीधे हड्डी का फोटो ले लेता है। यह तो बात यहाँ की हैं पौद्गगलिक पदार्थों की। ज्ञान तो एक अद्भुत आदित्य है, वह जहाँ जायगा, प्रकाश करता हुआ जायगा और पा लेगा। जब इस ज्ञान से अपने आपके स्वरूप में अंतः बसे हुए इस स्वभाव को निरख सकेंगे तो इसको जरूर पा लेंगे। अगर अज्ञानतावश इसको परिचय नहीं है तो यह तो बाहर ही बाहर निरखता है, और बाहर के मिले हुए प्रसंगों से ही यह अपने में गौरव अनुभव करता है कि मैं कुछ हूँ, पर यह नहीं समझ पाता कि यह सब कीचड़ है, पंक है, कलंक है, मैं तो एक शुद्ध ज्ञानपुँज आत्मपदार्थ हूँ। इस ही बात को समझने के लिए 7 तत्त्वों का परिचय करना होगा। तो उन 7 तत्त्वों में यह एक जीवतत्त्व की बात कहा है। अब अजीव तत्त्व की बात कहेंगे। यह प्रकरण सुनने और मनन करने के योग्य है और ध्यान से अपने भीतर घटाते हुए इसके सुनने से लाभ है। अजीव तत्त्व पौद्गगलिक कर्म की चर्चा―शुभ भाव क्या-क्या होते हैं, इस प्रश्न के उत्तर में, यह गाथा चल रही है 7 तत्त्वों के विषय में जानकारी, चर्चा, मनन के जो भाव हैं, वे शुभ भाव हैं। जीव तत्त्व का कुछ वर्णन किया गया था, अब अजीव तत्त्व के संबंध में कह रहे हैं। अजीव तो होते हैं 5 प्रकार के―(1) पुद̖गल, (2) धर्मद्रव्य, (3) अधर्मद्रव्य (4) आकाशद्रव्य और (5) कालद्रव्य। मगर 7 तत्त्व मोक्ष मार्ग के प्रयोजनभूत बताये जा रहे हैं, सो यहाँ अजीव से ग्रहण किया गया है कर्म का। कर्म पुद̖गल हैं। बहुत से लोग ऐसा सोचते हैं कि कहने वाले तो बहुत हैं―तकदीर, देव, भाग्य, कर्म, विधि, रेखायें, कई नामों से बोलते हैं, पर स्पष्ट कुछ नहीं हैं प्रायः लोगों को कि कर्म क्या वस्तु होते हैं? जैसे कि यहाँ किसी चीज को सामने दिखा देते हैं कि यह है चौकी यह है स्पीकर ― ऐसे कर्म भी कुछ समझ में नहीं कि ये हैं कर्म। सो यद्यपि कर्म सूक्ष्म हैं, वे आँखों से नहीं दिखते, पर कुछ मन से समझ में भी तो आना चाहिए। तो कर्म बताया गया है पुद̖गल पिंड कार्माण वर्गणा जाति का पुद̖गल स्कंध। पुद̖गल तो यद्यपि सभी हैं, पर जातियाँ सबकी अलग-अलग हैं। जैसे शरीर जिन पुद̖गलों से बना हैं वे कहलाते हैं आहार वर्गणा के पुद̖गल। हर एक अणुवों से शरीर नहीं बन जाता। वर्गणा जाति ही जुदी है। ऐसे ही कर्म जो बने हैं वे कार्माण वर्गणा जाति के पुद̖गल हैं। इतना तो मानना ही पड़ेगा कि किसी भी पदार्थ में अगर विकार होता है। कोई पर्याय ऐसी होती कि क्षण भर को नष्ट हुई फिर नहीं रही, तो वहाँ यह निश्चय समझें कि किसी बाह्य उपाधि का संबंध हैं तब इस तरह की प्रवृत्ति की, यह बात पूर्णतया निश्चित है। जीव और अजीव के विपरिणमन में निमित्त नैमित्तिक योग की चर्चा―यहाँ प्रकाश है, पहले न था, अब है तो इस गैस के सन्निधान में यह प्रकाश हुआ। कोई दूसरी चीज है तब यह प्रकाश है। छाया हुई तो यह छाया पहले न थी, अब हुई तो कोई दूसरी वस्तु का सामना है तब यह छाया हुई, ऐसे ही आत्मा में कभी क्रोध आया, कभी मान हुआ, कभी माया हुई, कभी लोभ हुआ, इच्छा हुई, धर्म के भाव हुए, ये जो शुभ भाव अथवा अशुभ भाव होते हैं वह समझना चाहिए कि उस जाति के कर्म सामने आये हैं तब ये भाव हुए हैं। जैसे कोई पुरुष आया तो उसकी छाया हुई, वह छाया उस पुरुष से कोई 2॰ हाथ दूर है, इस पुरुष ने उस फोटो में कुछ नहीं किया, वह तो अपनी जगह खड़ा है, वह अपनी हाथ पैर मुख आदि चलाने की सारी क्रियायें अपने आप में कर रहा है, फोटो से वह काफी दूर है, मगर एक निमित्त नैमित्तिक योग कैसा स्पष्ट है कि इस पुरुष का सामना पाकर वह फोटो ऐसा छाया रूप परिणम गई। यों उल्टा न बोल सकेगा कोई कि जब फोटो का छायारूप परिणमन हुआ तब पुरुष सामने हाजिर हो गया। इसमें निमित्त नैमित्तिक भाव नहीं बनता। अगर ऐसा कोई बोले तो फोटो की छाया तो निमित्त कहलायगी और पुरुष की वह क्रिया नैमित्तिक कहलायगी। जिसके वाक्य प्रबंध में ‘‘जब’’ लगता है वह निमित्त हैं और जिसके वाक्यप्रबंध में ‘‘जब’’ लगता है वह नैमित्तिक है। तो यह मानना ही होगा कि इस ज्ञानमय जीव पदार्थ में जो नाना तरह के भाव जगते हैं, राग होता है, द्वेष होता है, कषाय जगी, जो नाना तरह के भाव इस जीव में बनते हैं तो वह उपाधि अवश्य है जिसका निमित्त पाकर बन रहे हैं। प्रत्येक पदार्थ स्वयं अपने आप अविकार शुद्ध हुआ करते हैं, अशुद्धता आती है पर के संपर्क से। स्वयं ही कुछ अकेला हो तो वह अशुद्धता नहीं हो सकती। तो अनुमान बना ना कि जीव के साथ कर्म लगे हैं। कर्म नामक वस्तु का संक्षिप्त स्पष्टीकरण―कर्म, भाग्य, दैव कहते तो प्रायः सब लोग हैं मगर वे कर्म क्या वस्तु हैं जो जीव के साथ लगे हुए हैं? तो सामान्यतया अनुमान से तो सिद्ध हो ही गया कि जब जीव में जो एक कल्लोल हो रही है, तरंग बदल रही, कभी अच्छे भाव, कभी बुरे भाव तो नियम से समझो कि जीव के साथ कोई दूसरी विपरीत वस्तु है। जिस कारण ये नई-नई विविध घटनायें चल रही हैं। वह वस्तु हैं कर्म। और वह हैं सूक्ष्म पुद्गल। बहुत सूक्ष्म मैटर, वह कैसा होता है सो वह आगम के आधार से जानना चाहिए। वह एक पुद्गल स्कंध है और जीव के साथ सदा लगा है जब जीव कषाय करता है, शुभ अथवा अशुभ भाव करता है तो उन कार्माण वर्गणाओं में मायने एक प्रकार के स्कंध हैं वे, उनमें कर्मत्व आ जाता है। पहले उनमें कर्मपना न था और जीव ने कषाय की तो उसका निमित्त पाकर उन कार्माण वर्गणाओं में कर्मपना आ जाता है। आ गया कर्मपना, उनकी स्थिति भी बँध गई कि ये कर्म इतने समय तक जीव के साथ रहेंगे। बँधते के ही साथ उनमें अनुभाग पड़ गया कि यह कर्म इतनी शक्ति का फल देगा। अब वे सामने पड़े हैं, सत्ता में हैं। जब तक वे सत्ता में हैं तब तक उनका नुकसान नहीं हो रहा। नुकसान तो जीव का सदा हो रहा है मगर कर्म का टोटा थोड़े ही है। बँधे हुए कर्म तो दनादन उदय में आ रहे, पर जो कर्म उदय में नहीं आ रहे उनसे जीव में विकार नहीं जगता। जब वे कर्म सामने आते हैं उनमें अनुभाग फूटकर तो वे जीव में झलकते हैं और जीव रागी द्वेषी नाना तरह से विडरूप बन जाता है। विकार प्रादुर्भाव व विकार प्रक्षय―जैसे किसी पुरुष का बहुत छोटी कन्या से विवाह हुआ जैसी कि पुराने जमाने में प्रथा थी, तो जब तक वह कन्या बहुत छोटी हैं तब तक उसके निमित्त से पुरुष को विकार नहीं हो सकता, और जब वह कन्या अपनी तरुणाई पर आती है तो उसके निमित्त से पुरुष में विकार आता है, ऐसे ही ये कर्म जो बँधे हैं, सो जब तक वे सत्ता में हैं तब तक उनके कारण विकार नहीं होता, और जब वे कर्म अपनी जवानी पर आते याने उदय में आते उस समय उनमें विस्फोट होता तो वह सब रस उनमें झलकने लगता। एक मौका है, जब एक सत्ता में पड़े हैं कर्म तब तक ज्ञान बल बढ़ा लीजिए और आत्मस्वरूप की धुन बना लीजिए तो बँधे हुए ये कर्म भी अव्यक्त फल देकर दूर हो जायेंगे। जैसे वही पुरुष जिसकी स्त्री अभी बहुत छोटी बच्ची है उसमें उस बच्ची का निमित्त पाकर विकार नहीं जगता और उस बच्ची के तरुण (जवान) बनने से पहले ही अगर पुरुष विरक्त हो गया, ज्ञानी हो गया, साधु हो गया तो वह उस विकार से भी हट गया, ऐसी विधि लीला देखकर स्त्री भी विरक्त हो गई। लो दोनों ही विकारहीन हो गये। ऐसे ही आत्मा में ज्ञानबल बढ़े। ज्ञान ज्योति जगे और अपने अविकार सहज चैतन्य स्वरूप में दृष्टि लगाये तो उसे जगत में फिर कष्ट नहीं, विकार टला, और कर्मों में बड़ी उधेड़बुन हुई सो वहाँ भी विकार टला। कष्ट तो भैया अभी मिट जायगा। जिसे भी कष्ट मेटना हो उसे कष्ट मेटने की करतूत अपने आप में ही करनी होगी। बाहरी पदार्थों को असार जानकर, भिन्न जानकर, कि उनसे मेरा कुछ संबंध ही नहीं है, मैं मात्र कल्पना से ही तो उनको जोड़ता रहता हूँ, अतएव अत्यंत भिन्न हैं, असार हैं, मेरे से संबंध नहीं हैं, ऐसा जानकर उनका ख्याल करना छोड़े दें और अपना सारभूत जो आंतरिक चैतन्यस्वरूप है बस यह मैं हूँ। यही मैं हूँ। निरंतर अवच्छिन्न धारा से, अखंड धारा से, टूटे नहीं यह प्रवाह, इस तरह से कोई कुछ समय जानता तो रहे फिर संकट कैसे न दूर होंगे? पर ऐसा बन नहीं रहा। अच्छा बन तो नहीं रहा, मगर ज्ञान तो कर सकते। ज्ञान ही सही। जिसकी जानकारी ही नहीं उसमें हम फिर बढ़ेंगे कैसे? जब उसका ज्ञान होता है तो उस ज्ञान के समय में भी संकट दूर हो जाते हैं। फिर यदि उस प्रकार का प्रयत्न हो तो फिर वहाँ संकट का नामोनिशान नहीं रहा। जितना सुख दुःख संकल्प विकल्प, हर्ष विषाद आदि जो कुछ भी विकार चल रहे हैं सो वे पूर्व में बाँधे हुए कर्मों के उदय में चल रहे हैं। वे हैं कर्म। आस्रवतत्त्व―अभी तह दो तत्त्व मूल में बताया―जीव और अजीव। अब इन दो के सहारे वे 5 तत्त्व आ गए जिनका जानना भी बहुत आवश्यक है। उन 5 में पहला है आश्रव। आश्रव कहते हैं चारों ओर से चूकर आने को। जैसे बरसात के दिनों में छत में से पानी की कुछ बिंदू वें बूँद के रूप में छत के निचले हिस्से से कहीं से चूकर आ जाया करती हैं, उनका पता नहीं पड़ता कि कहाँ से आयीं, ऐसे ही इस जीव के साथ सर्व प्रदेशों में जितना जीव का विस्तार है देहप्रमाण उतने ही विस्तार में वे कार्माणवर्गणायें लगी हैं। तो जिस समय जीव कषाय करता है उस समय के कार्माण-वर्गणायें कर्मरूप बन जाती हैं, है वही का वही, सिर्फ एक रिश्ता हो गया कर्मपने का और उसके होने से इनमें अंतर आ गया। तो जीव में कर्म का आना, कार्माण वर्गणाओं में कर्मपना आना। इस जीव में विकार आना, ये सब आश्रव कहलाते हैं। तीन-तीन प्रकार से यह जानना है। (1) भावाश्रव (2) द्रव्याश्रव और (3) उभयाश्रव। कार्माण-वर्गणाओं में उस ही स्कंध में कर्मपना आ गया यह है द्रव्याश्रव, इस जीव में विकार आ गया यह है भावाश्रव और जीव के साथ कर्म बँध गया यह हो गया उभयाश्रव। बंधतत्त्व―जो आया है वह कर्म स्थित हो जाय, बहुत समय के लिए यहाँ स्थान बना ले रहने का, इसे कहते हैं बंध। अब वह बंध गया सो उन अजीव कर्मस्कंधों में कर्मपना की स्थिति आयी यह हैं द्रव्यबंध और जीव में विभावों का संस्कार बनाना यह है भावबंध विकार का संस्कार, और जीव के साथ कर्म बँध गया, यह हुआ उभयबंध। बात यहाँ जानना। जब शाम को गाय आती हैं घास खाकर जंगल से तो उसको किसी गिरवां से बाँध दिया जाता है, अब वहाँ बताओ गाय को गिरवां से बाँधा गया क्या? नहीं बताया गया। अगर गाय को गिरवां से बाँध दिया जाय तो गाय मर जायगी। वहाँ गाय के गले से रस्सी में गाँठ नहीं लगाई गई, रस्सी का एक छोर रस्सी के दूसरे छोर से बाँधा गया, याने रस्सी का रस्सी से बंध हुआ, गाय से नहीं हुआ, पर वह बंध इस जाति का है कि उस रूप से बँध जाने की स्थिति में गाय परतंत्र हो गई। जीव हैं अमूर्त, आँखों से दिखने वाला नहीं, कर्म हैं मूर्त। यद्यपि वे आँखों से नहीं दिखते फिर भी उनमें रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं। जैसे लोहा जल्दी मिट्टी बन सकता, कोई 4॰॰-5॰॰ वर्ष में ही लोहा मिट्टी बन सकता। कहीं पड़ा रहे ऐसे ही आधे पानी की जगह में जहाँ कि उसमें बराबर जब लगती रहे और उसका बल घटता रहे उसकी पुद्गल वर्गणायें मिट्टी बन जायें, और चाँदी को मिट्टी बनने में उससे बहुत अधिक दिन लग जायेंगे, और स्वर्ण को मिट्टी बनने में उससे भी कई गुना अधिक दिन लग जायेंगे, मानो लाख करोड़ वर्ष में मिट्टी बन जायगा। ये सब पुद̖गल हैं, पर उनमें एक ऐसा सामर्थ्य है कि कोई अपनी जाति में बहुत दिन तक टिक सकता, कोई कुछ कम दिन, कोई उससे कम दिन, पर ये चूँकि पुद̖गल हैं इसलिए वे कभी भी दूसरे रूप बन सकते हैं। कार्माण वर्गणा जाति के पुद̖गल की एक बहुत लंबी स्थिति है जिसकी कल्पना नहीं कर सकते कि क्या यह भी कभी दूसरे रूप बन जायगा। वस्तुतः कर्म का कर्म से बंधन―देखो मूर्त हैं कर्म सो कर्म से कर्म बँधा। जैसे रस्सी से रस्सी बँधी ऐसे ही कर्म से कर्म बँधा, पर बँधा तो जीव के प्रसंग में ना, तो निमित्त नैमित्तिक योगवश यह जीव परतंत्र हो गया। आज यह जीव शरीर में बँधा है, कोई चाहे कि शरीर यहीं धरा रहे और मैं चार हाथ आगे आ जाऊँ तो ऐसा कोई नहीं कर सकता। आप आयेंगे तो शरीर को साथ लेकर आयेंगे। तो मानो यह शरीर विस्तर जैसा पिंडोला है, उसके बिना कोई आ नहीं सकता। एक पुरुष ने अपने एक मित्र को निमंत्रण दिया, कहा कि भाई साहब कल के दिन आपका मेरे घर निमंत्रण है, पर मैं बड़ा गरीब आदमी हूँ, कृपा करके आप अकेले ही आना। और मेरे घर कोई बुलाने वाला भी नहीं हैं सो आप करीब 1॰ बजे घर आ जाना। ― ठीक है भाई। अब दूसरे दिन पहुंचा वह मित्र उसके घर करीब 1॰ बजे। तो वहाँ वह मित्र बोला, आइये साहब बैठिये―आपने मेरे ऊपर बहुत बड़ी कृपा की, मगर हमने तो कह दिया था कि हम बड़े गरीब आदमी हैं, अकेले आना, किसी दूसरे को साथ न लाना, फिर भी आप अकेले नहीं आये। तो वह मित्र बोला―अरे अकेले ही तो आये हैं। ― अरे कहाँ अकेले आये, अपने साथ में यह शरीर का भारी पिंडोला भी तो ले आये। अब बताओ कोई कैसे आ सकता इस शरीर को छोड़कर? अगर यह कला किसी में बन जाये तो इसी को तो कहते हैं सिद्ध भगवान। इसी को तो कहते हैं आत्मा का अंतिम विकास। यह आत्मा केवल अकेला रह जाय, जो अपने सत्त्व में हैं वही निर्लेप हो जाय इसी को कहते हैं सिद्ध भगवान होना, प्रभुता पाना, परम विकास होना। धर्म किसलिए किया जाता? इसीलिए किया जात, जिसके चित्त में यह बात नहीं समायी है कि मुझको शरीर से, कर्म से, विकार से अत्यंत जुदा केवल अपनी चैतन्य सत्ता मात्र रहना है, इसके लिए मैं धर्मपालन का यत्न कर रहा हूँ, जिसको यह पता नहीं उसका धर्मपालन कैसा? धर्म का स्वरूप, धर्म का धारण ये दोनों बातें जिसके स्पष्ट हैं, धर्म पालन उसी के ही तो हो सकेगा। तो यह दृष्टि होनी चाहिए कि मुझको तो सबसे पृथक होकर अकेला रहना है। इतना ऊँचा उद्देश्य कोई कब रख सकता है जब कि खुद का जीवन सदाचारमय हो। अब काम तो ऐसा करे कोई कि कैसे विकल्प बढ़े, भय बढ़े, चिंता बढ़े और दिल हल्का हो जाय और चाहे कि मैं केवल रहूँ, इसके लिए यत्न करूँ उससे संभव नहीं हो सकता। अंतस्तत्त्व की धुन का प्रभाव―कैवल्य के दर्शन की कला तब ही बनती है जब उसकी धुन लग जाय पूरी, लौकिक काम में धुन लगे तो रात दिन उसके लिए ही सब कुछ यत्न करते, सोते हुए में भी उसी के स्वप्न आने लगते। तो जिसको आत्मा की धुन लगी है, इस आनंद-घन चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व की जिसकी धुन लगी है बस उससे कोई काम अनुचित नहीं बन सकता, और सो भी जाय तो भी उसे अपने इस परमात्वतत्त्व के विकल्प रहेंगे। आत्मानुभव होता है जागृत अवस्था में, पर यह प्रारंभ वाली बात है। सोने में भी जब बाहरी पदार्थों का ध्यान आता है स्वप्न में तो बाहरी पदार्थों के बजाय क्या आत्मा का ख्याल नहीं आ सकता? जब जगते हुए में जिसका ख्याल बराबर बनाये वह ध्यान सोते में भी आता है, तो जिसने आत्मा का ध्यान निरंतर बनाया उसको क्या सोते में आत्मा की बात नहीं दिख सकती? और, इस पर हमें आस्था हुई एक घटना से। अभी कुछ ही साल पहले की बात हैं, हम गोहद से मऊ पैदल जा रहे थे, साथ में ब्र॰ छोटे लाल जी थे। वह करीब 2॰-21 मील का पैदल का रास्ता था। गोहद से हम जल्दी ही भोजन करके चले। तो चलते गए, चलते गए। उसी रास्ते में करीब 16 मील की दूरी पर ब्र॰ छोटेलाल जी का गाँव था। उस गाँव का नाम तो याद नहीं रहा, खैर वहाँ पहुंच गए तो काफी थके हुए तो थे ही, सो हम तो शाम को सामायिक करके जल्दी लेट गए। वहाँ कुछ लोगों ने यह भी कहा कि महाराज जी कुछ प्रवचन कर दो, पर हमने यही कह दिया कि तुम लोगों को ब्र॰ छोटेलाल जी ही कुछ सुनायेंगे, हम अभी आराम करेंगे। खैर हम लेटे रहे, ब्रह्मचारी छोटेलाल जी कुछ सुनाते रहे। उसी सिलसिले में हमको नींद आ गई, तो उस नींद में भी वही धर्मचर्चा हमारे चित्त में बसी रही और ऐसा स्वप्न देखने में आया कि हम पद्मासन से बैठे हुए हैं, सामायिक कर रहे हैं वहाँ हमारे सामने कोई दो स्त्रियाँ मानो देवियाँ ही हों वे आकर कुछ गा रही हैं, स्तवन कर रही हैं। और उस स्तवन के पहिले तथा बीच में कुछ गहरे ध्यान में डूब गया, उस समय कुछ अलौकिक आनंद सा आ रहा था। (यह सब स्वप्न की बात है) जब वहाँ आँखें खुलीं तो देखा कि वहाँ कुछ न था। मैं उस समय यह विचार कर रहा था कि यदि वैसी ही नींद और भी बनी रहती तो कुछ देर और भी वह अलौकिक आनंद बना रहता। तो वह था कोई अलौकिक आत्मीय आनंद अंतस्तत्त्व के अनुभव वाला। तो हमारा यह ख्याल है कि दिन भर जिस चीज में उपयोग जमा रहे, ध्यान लगा रहे तो स्वप्न में उसका ख्याल आया करता है, जब बाहरी चीजों का ख्याल आता है तो आत्मा का ख्याल क्या आ न सकेगा? पर धुन होनी चाहिए, ऐसी केवल अपना यह अविकार स्वरूप आत्मा ही अपना प्रिय रहे, रुचिकर रहे, यह ही शरण है, ऐसी अपनी आस्था बने, यहाँ ही रमकर अपने में तृप्ति पायें, यदि ऐसी धुन हो तो यह ही दृष्टि में रहेगा, और यह ही एक ऐसा ज्ञानबल हैं कि जिसके कारण ये भव-भव के बाँधे कर्म कट जाते हैं। इस संसार की मायारूप बातों के लिए क्या मरना? क्या इनके लिए उतावला होना, क्या इनको ही अपना सर्वस्व प्राण समझना। ये तो सब छूटेंगे, जो न छूटे मुझसे वह है मेरी चीज, और जो छूट जाय वह मेरी नहीं। मेरा स्वरूप, मेरा चिदानंद स्वरूप यह परम, ब्रह्म, यह मेरे से अलग कभी नहीं हो सकता। यह ही मेरा सर्वस्व धन है। इसकी उपासना से ही अपना भविष्य उज्जवल बनता है। संवरतत्त्व―प्रकरण यह चल रहा है कि जो 7 तत्त्वों के विषय में जानकारी चर्चा चिंतन मनन है वह शुभ भाव हैं। इन 7 तत्त्वों में जीव, अजीव आश्रव और बंध इनका वर्णन हो चुका, अब संवर तत्त्व का वर्णन चलता है। संवर के मायने रोक देना। भले प्रकार निरोध करना सो संवर हैं। ‘आश्रव निरोधः संवरः’ आश्रव का निरोध करना सो संवर है। आते हुए को रोकना यह नहीं हैं संवर, किंतु आना ही न होने देना यह संवर है। कर्म आयें तो आते हुए को कौन रोके? पर आने ही न दें, कर्म में कर्मत्व आये ही नहीं इसको कहते हैं संवर। आश्रव निरोध का यह भाव है। तो यह संवर तत्त्व भी कर्म में हैं, जीव में हैं और दोनों के विषय में हैं। कार्माण वर्गणाओं में कर्मत्व न आना यह द्रव्य संवर है। आत्मा में विकार भाव न आने देना सो संवर है, और जीव में कर्म का न आने देना, जैसा कि आश्रव आता था वह न आये तो यह उभय संवर है। संवर तत्त्व शुद्ध तत्त्व है। जहाँ अविकार शुद्ध स्वरूप की दृष्टि है। वहाँ कर्म भटक नहीं सकते। परस्पर का निमित्त नैमित्तिक भाव एक अचूक भाव है। करता कोई किसी को कुछ नहीं। कोई भी द्रव्य अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव से हटकर दूसरे के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में, लगे ऐसा नहीं है, अथवा अपने स्वरूप में भी रहे, परके स्वरूप में भी रहे, ऐसा नहीं है। किसी का घनिष्ट संपर्क हो, फिर भी प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में ही रहता है। सो जीव उन कार्माण वर्गणाओं में कुछ नहीं करता, कार्माण वर्गणायें जीव में कुछ करती नहीं, किंतु एक ऐसा निमित्त नैमित्तिक योग है कि जब जीव के शुद्ध भाव हुए तो कर्मों में कर्मत्व आता ही नहीं हैं यही हुआ संवर। संवर उपादेय तत्त्व है, संवर के बिना मोक्ष मार्ग नहीं चलता। संवरपूर्वक निर्जरा की कार्यकारिता―जैसे कोई नाव पानी में चल रही है उस नाव में छिद्र हो तो उस छिद्र के जरिये नाव में पानी आता है और पानी आने से भरने से नाव डूबने लगती है। उस समय वह कुशल मल्लाह क्या करता है कि पहले नव के उस छेद को बंद करता है कपड़ा वगैरह से, फिर आये हुए पानी को उलीचता है। वह छिद्र कुछ बढ़ गया था, और पानी विशेष आ रहा था, उसको यदि उलीचना ही शुरू करता तो पानी वहाँ आता रहता तो वह सिर दर्द तो बना ही हुआ था इसलिए पहले पानी के आने के द्वार को रोके, फिर पानी उलीच दे, आने के द्वार को रोकना संवर है और आये हुए पानी को उलीच देना यह निर्जरा है। तो नये कर्म आयें नहीं और पुराने बँधे हुए कर्म झड़ जायें यह उपाय है मोक्षमार्ग का। संवर तत्त्व संवर तत्त्व आश्रव का विरोधी हैं, तो जहाँ आश्रव की संभावना है उन परिस्थितियों में संवर का एक वर्णन हैं। पर एक दृष्टि से निरखा जाय तो संवर तत्त्व तो अनंत काल उसको रोकेगा, अन्य तत्त्व तो बिछुड़ गए, शुद्ध हो गए, अब निर्जरा काहे की करे? आश्रव बंध होता नहीं। तो अब नवीन कर्म जो नहीं आ रहे यह बात तो सदा रहेगी ना? और वह है शुद्धोपयोग का बल। संवर तत्त्व इतना उपकारी हैं और इस जीव का मित्र हैं कि संवर बिना मोक्ष नहीं बनता। आत्महित के ध्यान की मुख्यता―एक बात ध्यान में लाना चाहिए कि अपने को जन्म लेना, मरण करना यह पसंद है या नहीं? अब मरेंगे तो अवश्य। और उसके बाद दूसरा जन्म मिलेगा, फिर मरेंगे, फिर जन्म मिलेगा। बताओ यह जन्म मरण पसंद है अथवा नहीं? अब धर्म पर्व के दिन हैं सो मुख से तो सब कह देंगे कि हमको पसंद नहीं जन्म मरण मगर वर्तमान जीवन में जो राग बना है यह-यह सिद्ध करता है कि इसको जन्म और मरण पसंद है, नहीं तो वर्तमान जीवन में मोह और राग क्यों है? देह को अपनाना, देह में राग करना, देह में मोह करना, यह तो है देह मिलते रहने का कारण और देह से निराले अपने ज्ञान स्वरूप को निहारना और ज्ञानस्वरूप में ही रुचि आना यह है देह के दूर होने का साधन। जन्म मरण न चाहिए तो इस देह से मोह और राग न होना चाहिए। बहिरात्मा जनों को देह से मोह है किसी ने निंदा की, बुरा लगा तो क्यों बुरा लगा कि वह देह को आत्मा मान रहा था और इस बात पर उसका यह निर्णय बना कि यह मेरी निंदा कर रहा, यह मुझसे कुछ कह रहा, बस उसे बुरा लगने लगा। दूसरा आदमी क्यों नहीं बुरा मानता कि वह यह समझता है कि मुझको नहीं कह रहा यह, जो गाली दे रहा है सो मुझको नहीं दे रहा, यह बात ध्यान में है तो उसे बुरा नहीं लगता। तो यदि इस ज्ञानस्वरूप को निहार कर सोचे कोई कि इसमें गाली आती ही नहीं, इसको कोई जानता ही नहीं, जिसको जाना नहीं उसको गाली न देगा, मेरे को कुछ नहीं कहा, उसे इसका दुःख न होगा। इष्ट अनिष्ट के समागम में, रिश्तेदारों में, अनेक प्रसंगों में आपत्तियों का अनुभव करना इसका आधार हैं देह का मोह। जो अपने अकेले स्वरूप को निरखे उसको कोई कष्ट ही नहीं। बाहरी पदार्थ जो जैसा परिणम रहा उसका ज्ञाता रहेगा, यों हो रहा, क्या मतलब हैं? परतत्त्व की यथार्थ पहिचान का प्रभाव―एक किसान किसाननी थे। विवाह हुए कोई 1॰-12 वर्ष हो गए थे। किसाननी बड़ी चतुर थी। उससे कोई ऐसा अपराध ही न बन सका था जिससे कि वह कभी किसान द्वारा पीटी जा सके। छोटे लोगों में प्रायः ऐसी प्रकृति होती हैं कि वे जब तक अपनी स्त्री को पीट न लें तब तक वे अपने को मर्द नहीं समझते। एक बार उस किसान के मन में आया कि कोई ऐसा उपाय करें कि जिससे स्त्री को पीटने का मौका मिले। सो क्या किया कि ग्रीष्मकाल में जब वह किसान अपने खेतों की जुताई कर रहा था तो वहाँ वह किसाननी प्रतिदिन करीब 11 बजे उस किसान को खाना पीना पहुंचाया करती थी सो सोचा कि आज जब स्त्री आयगी तो किसी न किसी बहाने से उसकी पिटाई करनी है। उपाय भी मिल गया। क्या किया कि अपने दोनों बैलों को औंधा सीधा जुवारी (माँची) में जोत दिया और हल फाँस दिया, सोचा कि स्त्री आयगी, इस तरह से देखेगी वो कुछ तो कहेगी ही, बस उसके पीटने का बहाना मिल जायगा। आखिर पहुंची वह किसाननी खाना लेकर खेत में तो देखते ही समझ गई कि आज तो हमको पीटने के लक्षण दिखाई दे रहे, सो आकर झट खाना रखा और यह कहते हुए वापिस लौट गई कि आप चाहे औंधा जोतें चाहे सीधा, हमारा तो काम हैं खाना देने का, सो यह रखा है, मैं चली। लो किसान इतने दंद फंद करके भी बस देखता ही रह गया, पीट न सका। यदि कोई समग्र बाह्य पदार्थों को इस निगाह से देखे कि चाहे इस विधि से परिणमे चाहे अन्य विधि से परिणमें, वह तो उन पदार्थों का काम है, उससे मेरे में क्या बिगाड़? मैं आत्मा ज्ञानस्वरूप हूँ। मेरे में किसी भी पर पदार्थ की परिणति से कुछ सुधार बिगाड़ नहीं। यह बात चित्त में रहे तो उसे कोई दुःख नहीं हैं। मगर मोह छूटता ही नहीं हैं। बहिरात्मत्व की हेयता व परमात्मत्व की उपादेयता―तीन तरह के जीव (आत्मा) होते―(1) बहिरात्मा (2) अंतरात्मा और (3) परमात्मा। इसे यों भी कह सकते--मूर्ख, ज्ञानी और भगवान। ये तीन तरह के आत्मा हैं, सो उनकी क्या स्थिति है, सो सुनो। जैसे बरसात के दिनों में मेंढक बहुत हो जाते और वे मेंढक एक दूसरे के ऊपर चढ़कर बैठते, तो एक जगह तीन मेंढक एक के ऊपर एक बैठे हुए थे। तो सबसे ऊपर बैठा हुआ मेंढक बोला―‘हेच न गया’, माने मुझे कोई तकलीफ नहीं और न कोई गम है आराम से बैठे हैं, तो दूसरा मेंढक बोला―‘‘कुछ कुछ कम’, माने तुम्हारी अपेक्षा हमें कुछ-कुछ तकलीफ है, तुम्हारे आराम से हमको कुछ कम आराम है, और तीसरा बोला ‘‘मरे तो हम’’ याने तुम सबसे अधिक तकलीफ में तो हम हैं, हमको तो जरा भी आराम नहीं, क्योंकि तुम दोनों हम पर लदे हो। तो परमात्मा तो मानो यह कहता―हेच न गम, याने हम तीन लोक के सिर पर विराजमान हैं, द्रव्य कर्म, भावकर्म, नौकर्म से रहित, ज्ञानानंद का निरंतर अनुभव करने वाले हैं। अब बताओ परमात्मा को क्या कष्ट? तो संसार में रहने वाला ज्ञानी अंतरात्मा छदमस्थ मानो कहता है कि ‘‘कुछ कुछ कम’’, याने ज्यादा कष्ट तो हमको नहीं है, क्योंकि दर्शन मोह का उदय नहीं, चारित्र मोह का उदय है सो कुछ-कुछ कष्ट है मगर अधिक नहीं। तो मानो बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी जीव कहता है कि मरे तो हम। अज्ञानी में इतनी भी अक्ल नहीं कि अपनी विपत्ति भी पहिचान सके और हो रहा है दुःखी। तो जहाँ आत्मस्वरूप का परिचय नहीं वहाँ सर्व विडंबनायें होती हैं। मिथ्यात्व महापाप का बड़प्पन―सबसे बड़ा पाप है अज्ञान मिथ्यात्व। अपने स्वरूप की समझ न बनाना, नहीं तो आप इसका समाधान दें। एक पुरुष किसी को कुछ सता नहीं रहा, आराम से घर में रहता है, सबसे सुंदर व्यवहार है मगर वह इस देह को निरखकर मान रहा कि मैं यह हूँ, बस इतनी सी बात, और कोई अधिक अपराध नहीं कर रहा। अभी कोई मनुष्य बड़ी अच्छी तरह व्यवहार करता हो और मान रहा इस देह को निरखकर कि मैं यह हूँ तो उसको सब लोग जानते कि क्या बिगाड़ है उसका और कौन सा बड़ा पाप वह कर रहा है। आखिर भीतर ही तो सोच रहा है कि यह जो शरीर है सो ही मैं हूँ। मगर इतना सोचना, इतनी एकत्वबुद्धि होना यह इतना बड़ा अपराध है कि इसके फल में नरक निगोद, स्थावर विकलत्रय आदिक दुर्गतियों में जन्म मरण करना पड़ता है। अरे ऐसी मिथ्या मान्यता ही सर्व पापों का मूल है। तब उसका इतना बड़ा दंड मिल रहा। जो अपने भगवान आत्मा को तिरस्कृत करे वह तो एक बड़ा भारी अपराध हैं। कोई छोटे आदमी का तिरस्कार करे लोक में तो उसका भी दंड मिलता है मगर यह अज्ञानी तो अपने अंतः बसे हुए भगवान आत्मा का तिरस्कार कर रहा तो उसको दुर्गति का दंड मिल रहा तो इसमें क्या आश्चर्य है? अपने अंतस्तत्त्व का परिचय पाये बिना कर्म का आना नहीं रुकता, संवर तत्त्व नहीं प्राप्त होता और वह संवर इसकी शुद्ध वृत्ति से पहिचाना जाता है। पापों का त्याग है। असंयम की प्रवृत्ति नहीं, निरंतर अपने आत्मस्वभाव में ध्यान है, यह ही सब परिचय है कि इसके संवर तत्त्व बना रहता है। निर्जरा तत्त्व―जिसने संवर तत्त्व पाया उसके इच्छानिरोध के कारण, अंतर्दृष्टि के कारण जो कर्म झड़ रहे हैं वह कहलाती है निर्जरा। झड़ते जा रहे, झड़ झड़कर सब झड़ चुके, इसे कहते हैं मोक्ष। निर्जरा―बँधे हुए कर्मों में से कर्मत्व का हट जाना, यह निर्जरा है। निर्जरा कहलाता है एक देश और क्षय कहलाता है पूर्ण। किसी भी एक प्रकृति का क्षय होता है तो एक देश निर्जरा होते-होते क्षय होता है और, उस निर्जरा में कैसा बल दौड़ जाता है कर्म का, कैसे कर्म क्षीण होते, यह सब वर्णन करणानुयोग में विस्तार से है। उसके कहने का इस समय कोई विशेष अवसर नहीं है, पर ये कर्मशत्रु जब नाश को प्राप्त होते तो उससे पहले इन कर्मों में खलबली शुरू हो जाती है। आगे की स्थिति के कर्म निषेक वर्तमान में कुछ में मिल जाते हैं। उनके फल देने की शक्ति विधिपूर्वक फूटती है और कम अनुभाग वाले में मिल जाती है। ऐसी असंख्यात गुणी निर्जरा हो होकर कर्म का क्षय होता है, तो बँधे हुए कर्मों में से कर्म का झड़ना यह निर्जरा है और अपने भावों में से संस्कार का झड़ना, विभावों का झड़ना, विकार न होने पाना, दृष्टि स्वरूप की है, विकार का उदय चल रहा-अव्यक्त फल मिलकर झड़ जाते हैं, तो जीव में जो उनका असर नहीं होता, व्यक्तपना नहीं हो पाता, यह ही है भाव निर्जरा। और, जीव में से कर्म का झड़ जाना यह उभय निर्जरा है। मोक्ष तत्त्व―इसी प्रकार मोक्ष तत्त्व भी परखिये। कर्म में से कर्मत्व पूरा नष्ट हो जाना, यह है द्रव्य मोक्ष। जीव का मोक्ष हो रहा तो कर्म का भी तो मोक्ष होना चाहिए। कर्म का यह मोक्ष है कि उन कर्मों में कर्मत्व खत्म हो गया। पहले ही जैसी सीधी कार्माण वर्गणायें रह गई, यह हुआ द्रव्य मोक्ष और जीव के स्वभाव में से विकार बिल्कुल समाप्त हुए या स्वभाव विकास मात्र रहा, यह है जीव मोक्ष और जीव से कर्म जुदे हो गए तो यह है उभय मोक्ष। इन 7 तत्त्वों में जीव अजीव तो ज्ञेय तत्त्व हैं, आश्रव और बंध हेय हैं। संवर और निर्जरा कथंचित् उपादेय हैं। मोक्ष उपादेय है और दृष्टि के लिए सर्वथा उपादेय है आत्मा का सहज स्वभाव। तो स्वभाव का जो शरण गहता है वह संसार से पार होता है, उसका परिचय होना चाहिए। स्वभाव में दृष्टि जम सेक और उसमें ही यह मैं हूँ ऐसा अनुभव बन सके। यह तो बड़ी विपत्ति है जो मोह बन रहा है परिजन में, वैभव में, लौकिक इज्जत में। अब विपत्ति में पड़ा हुआ भी खुश हो रहा है। दूसरों की विपत्ति को देख कर मानना कि ये देखो ये बड़ा दुःख मान रहे हैं, पर स्वयं की विपत्ति का कुछ भान नहीं है, यह कैसी विडंबना है। कोई एक पुरुष वन में गया। वहाँ उसने क्या देखा कि कुछ ही देर में उस जंगल में आग लग गई। और थोड़ी ही देर में आग उतनी तेज बढ़ गई कि चारों और फैल गई। वह पुरुष अपने प्राण बचाने के उद्देश्य से उसी जंगल में एक वृक्ष पर चढ़ गया। उस वृक्ष पर चढ़ा हुआ वह क्या देखता कि वह देखो अग्नि मेरी ओर भी बढ़ती आ रही। वह देखो अग्नि में खरगोश जला, वह देखो हिरण जला, वह देखो गया जली, यों सब दृश्य वह देख देखकर खुश हो रहा था, पर उस बेचारे को यह भान नहीं कि अभी जल्दी ही यह आग यहाँ आकर इस वृक्ष को भी जला देगी और मैं भी मर जाऊँगा। तो ऐसे ही इस मोही जीव को यह भी होश नहीं मेरा भी मरणकाल आयगा मुख से तो वह सब कुछ बोल लेता मगर उसके भीतर में यह बात ठीक-ठीक नहीं बैठ पाती। तो पर द्रव्यों के प्रति मोह होना, उनको अपना सर्वस्व मानना, यह बहुत बड़ी विपत्ति है। जो जीव आज घर में आये हैं, बजाय उनके कोई दूसरे जीव आते, यह बात हो नहीं सकती थी क्या? हो सकती थी, फिर ये जीव आपके क्या कुछ कहलाते? अर्थात् कु न कहलाते, पर इस जीव को मोह करने की एक ऐसी आदत पड़ी है कि जो जीव घर में आ गए उन्हीं से मोह करने लगता। तो यह सब इस जीव की एक कल्पना की बात है। और कल्पनायें करके मोही बनकर यह जीव अपना जीवन गुजार देता है और आगे जन्म मरण करता रहता है। यदि इन संकटों से छूटना है तो एक बहुत बड़ा साहस करना होगा और साहस भी क्या, कष्ट की उसमें कुछ बात ही नहीं। अपने यथार्थ स्वरूप को पहिचान लिया बस सारे कष्ट दूर हो गए। सब कष्टों की जड़ तो यह मोह है। मोह दूर हुआ कि सारे संकट दूर हुए। तत्त्व विषयक विपरीत श्रद्धा हटा कर सम्यक् श्रद्धा में आने का अनुरोध―अंतस्तत्त्व परखने के लिए ये प्रयोजनभूत जीवादिक 7 तत्त्व ज्ञातव्य हैं, इनका यथावत श्रद्धान करना, मैं जीव चैतन्यमात्र हूँ, यह तो है सच्ची श्रद्धा और यह देह मैं हूँ, ऐसा समझना यह है विपरीत श्रद्धा। शरीर उत्पन्न हुआ तो माना कि मैं उत्पन्न हो गया, शरीर नष्ट हो रहा तो माना कि मैं नष्ट हो रहा, इस प्रकार की उल्टी श्रद्धा जीव के बारे में चल रही है। देह को मानें कि यह पुद̖गल का पिंड है और मैं सबसे निराला चैतन्यमात्र हूँ तो यह जीव की सच्ची श्रद्धा है। आश्रव के संबंध में यह श्रद्धा होना कि ये रागादिक विकार दुःखदायी हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं हैं। मेरे को बरबाद करने के लिए यह कर्मरस झलका है। यह मैं नहीं, यह तो है सच्ची श्रद्धा और रागादिक भाव आयें तो उनसे लगाव लगावे, उन कषायों को अपनाये यह है आव में विपरीत श्रद्धा। फल मिल रहे अनेक, कभी दरिद्र रहे, फिर धनिक हुए साता मिली, असाता हुई, ये सब पुण्य पाप के फल हैं। इनसे मैं निराला हूँ और मैं तो अपने स्वरूप में ही आनंदमय हूँ, ऐसी श्रद्धा हो तो यह है सच्ची श्रद्धा। और, ऐसा जानें कि पुण्य का फल तो अच्छा है और पाप का फल बुरा है, पुण्यफल में रम जाय तो यह बंध की विपरीत श्रद्धा है। ऐसा यह जीव इस देह के बारे में उल्टी श्रद्धा रखकर संसार में भ्रमण कर रहा है। सो तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान चले तो वह एक शुभ भाव है और उसका फल सुगति का पाना है। आत्मा का हित तो है ज्ञान व वैराग्य वह कष्टकारी जचे तो यह है संवरतत्त्व की विपरीत श्रद्धा। इच्छानिरोध तप है सो वह तो सुहाता नहीं और इच्छावों के करते रहने में मौज अनुभवना निर्जरा की विपरीत श्रद्धा है। मोक्ष है निराकुलस्वरूप सो उसकी तो प्रतीक्षा नहीं की जाती है और मायामय संघर्ष इसे अच्छे लगते हैं यह मोक्षतत्त्व की विपरीत श्रद्धा है। यथार्थ श्रद्धान हुए बिना संकटों से छुटकारा नहीं हो सकता। अतः विपरीत श्रद्धा दूर कर सहज अविकार अंतस्तत्त्व में लीन होने के प्रयास में मोक्षमार्ग के प्रयोजन भूत जीवादिक सप्त तत्त्वों की यथार्थ श्रद्धा करिये। अशुभ से हटकर शुभ में आने का अनुरोध किये जाने का कारण―प्रकरण यह चल रहा है कि अशुभ भाव करने से जीव को नरक गति प्राप्त होती है और शुभ भाव करने से जीव को स्वर्गादिक सुख प्राप्त होते हैं, यह कहने का प्रयोजन यहाँ नहीं है कि स्वर्गादिक में जाने का पौरुष बनाओ। वह तो जब तक संसार शेष है तब तक ज्ञानी जीव को सुगतियाँ मिलेंगी, पर अशुभ भाव करके खोटी गतियों में या मनरहित होना इसका पाना भला है या शुभभाव से देवादिक गतियों में उच्च कुल वाले मनुष्यों में जन्म लेना भला है, तुलना करके समझिये। बल्कि उच्च कुल के मनुष्य हुए या अच्छे देव हुए तो वहाँ अनेक बार देव शास्त्र, गुरु के मनन दर्शन के मौके मिलेंगे, धर्म में प्रगति करने का मौका मिलेगा। तो इस तुलना में यहाँ रयणसार ग्रंथ में श्रावकों के प्रकरण में यह बतलाया जा रहा है कि अशुभ से हटकर शुभ में आवो और लक्ष्य रखना है शुद्ध का। शुद्ध का लक्ष्य रखते हुए जब शुद्ध होना होगा तो सहज होंगे। बुद्धिपूर्वक आप क्या करेंगे? क्या बुद्धिपूर्वक कोई शुद्ध हो सकता है? जो शुद्ध होगा, शुद्धोपयोगी होगा वहाँ बुद्धि काम नहीं देती, वह तो योग्य जीव के सहज होती है। तो बुद्धिपूर्वक क्या करेंगे? शुद्धोपयोग के लिए जो पुरुषार्थ करें जो तरकीब बनायें वही शुभ भाव है। बुद्धिपूर्वक जो क्रिया बनेगी वह सब शुभ भाव है। इससे अतिरिक्त और क्या पुरुषार्थ हो? इसलिए शुभभाव में ये सब बातें बतलायी जा रही हैं। 7 तत्त्व 9 पदार्थ उनके बारे में श्रद्धान चिंतन चर्चा होना यह शुभ भाव है। सात तत्त्वों में पुण्य व पाप ये दो पदार्थ मिलकर पदार्थों की नवसंख्या―7 तत्त्वों के वर्णन के बाद 9 पदार्थों का वर्णन आ रहा है। पदार्थों में 7 तो वही हैं जो तत्त्व में हैं, पुण्य और पाप इनको बढ़ाया गया सो पुण्य पाप कुछ न्यारे हों 7 तत्त्वों से सो बात नहीं है, जो आश्रव है, जो बंध है उस ही के दो भेद कर दिया--पुण्य और पाप। पुण्य को सुशील कहा और पाप को कुशील कहा मगर ज्ञानी की दृष्टि में सुशील पुण्य की भी इज्जत नहीं, क्योंकि उसकी दृष्टि में यह है कि पुण्य भी आखिर संसार का ही तो फल देगा। तो कहीं-कहीं तो पुण्य का फल बड़ा अनर्थ पैदा कर देता। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा कि पुण्य किया, पुण्य के फल में बल गए राजा, बन गए बड़े राष्ट्र सेठ, तो अब करता क्या है वह कि न्याय अन्याय कुछ नहीं गिनता क्योंकि उसे धन अधिक मिला है। जिस पर जो चाहे सो कर लिया, सो अनेक अन्याय भी करता, जैसी मन में आया अनेकों कषायें भी करता, उससे होता पाप का बंध और उसके फल में गया नरक। तो न राजा बनता, न बड़ा सेठ होता और न पाप बनता, न दुर्गति मिलती। इस दृष्टि से कभी-कभी पुण्य भी बड़े अनर्थ का कारण ज्ञात होता है मगर यह उसकी गलती है। पुण्य के फल में तो ऐसा अवकाश मिलता है कि वह खूब संगति बनाये, धर्मात्माओं की सेवा में रहे, धर्म का अभ्यास बनायें, ज्ञान सीखे, उसे तो खूब अवसर मिला है। पुण्यफल में महान होकर भी अज्ञान व प्रमाद से पाप का आह्वान करने वालों पर खेद प्रदर्शन―अहो देखो कैसा पाप का उदय है उसका कि जो महान होकर भी बड़ा होकर भी बड़प्पन को स्थिर नहीं रखता, नहीं तो सब कुछ साधन पाने पर कर्तव्य तो यह है कि ज्ञान सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र धर्मात्माओं की सेवा संगति, ऐसे कामों में अधिक समय बिताते, उसी से तो मनुष्यजीवन सफल होता। मगर जब मोह का उदय है, मिथ्यात्व का उदय है तो कोई अवसर मिलता है कि भाई तुम संसार से निकलने का उपाय बना सकते मगर नहीं बनाते। एक उदाहरण दिया गया है कि एक अंधा खुजैला पुरुष था याने वह अंधा भी था और उसके खाज भी थी और वह दरिद्र भी था। उसने सुन रखा था कि अमुक नगर में बहुत सज्जन लोग हैं और खूब पालन पोषण होगा सो उस नगर को चल दिया। उस नगर के चारों ओर घिरा था कोई, दुर्ग, किला और उसमें थे सिर्फ 4 दरवाजे चारों दिशाओं में। तो अब वह अंधा लाठी लेकर हाथ से टटोलते हुए चला। उसने समझ लिया था कि नगर के अंदर जाने के लिए चारों ओर दरवाजे मिलेंगे सो किले की भींट को टटोलता हुआ चला, पर जब वह पहले दरवाजे के पास पहुँचा तो वह अपने सिर की खाज खुजाने लगा, पैरों से चलना बंद न किया, फिर आगे बढ़ने पर दूसरा दरवाजा मिला वहाँ भी वैसा ही किया, यों सारे दरवाजे ही निकल गए पर वह नगर के अंदर न जा सका, तो ऐसे ही समझो कि जब इस जीव को कल्याण का अवसर मिलता है, कोई आजीविका संबंधी चिंता नहीं, सब साधन बिल्कुल ठीक मिले हुए हैं। और अगर चिंता भी करनी पड़ती तो शैकीला काम बंद कर दें, एक सीधे सादे ढंग का अपना व्यवहार रखें, जैसा कि पुराने जमाने में लोग सीधा सादा व्यवहार रखा करते थे। वहाँ बहुत कुछ आकुलतायें हट जायेंगी। इस शरीर को बड़े मौज में रखने से लाभ कुछ नहीं मिलता। अगर आत्मा की दृष्टि का विशेष अभ्यास बने तो उसको सारा लाभ मिलेगा। तो मतलब यह है कि पुण्योदय में अगर बड़प्पन मिला है सब प्रकार की सुविधायें मिली हैं तो कर्तव्य यह है कि धर्मसाधनों में, रत्नत्रय साधनों में, धर्मात्माओं की सेवा में अपना अधिकाधिक समय लगाना चाहिए। इससे खुद का आत्मा भी पवित्र होगा और जब तक संसार में रहेंगे तब तक सद्गति भी मिलेगी। यहाँ पुण्यपाप की चर्चा चल रही है कि जब एक शुद्ध तत्त्व की ओर दृष्टि देते हैं तब तो पुण्य पाप दोनों ही हेय हैं, दोनों ही जन्म मरण के कारण है, किंतु जब इन दोनों पर ही तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हैं तो कहना पड़ता कि पुण्य भला है और पाप बुरा है। तो पुण्य और पाप ये दोनों मिलकर 9 पदार्थ होते हैं। जीव के बंध पर विचार―बंध और मोक्ष के विषय में चिंतन चर्चा में भाव रहे तो वह शुभ भाव कहलाता है। मेरे को बंधन क्या? साक्षात् बंधन, निमित्त बंधन या संबंध का बंधन, साक्षात् बंधन तो है कि मेरा ज्ञान ऐसा जघन्य गुण वाला है कि वह कल्पनारूप परिणमता है। यह सबसे बड़ा भारी बंधन कहो, विपदा कहो, आत्मा ज्ञानस्वरूप है, उसका काम है जानना, तो बस जानते रहो। यह कल्पना रूप क्यों बनता है? कल्पना रूप न बने तो कोई हानि है क्या? बल्कि लाभ है। पर घबड़ाने की क्या बात है? एक लक्ष्य तो बन जाना चाहिए कि मुझको अब क्या करना योग्य है जिससे कि मेरा भला हो। मेरे क्या करने योग्य है? सहज आत्मस्वरूप का निर्णय और उस सहज चैतन्य स्वरूप को निरखकर तृप्त होना। एक लक्ष्य बना लिया जाय तो कभी न कभी उसकी पूर्ति अवश्य होगी, पर लक्ष्यविहीन है तब तो जिंदगी में अनेकों काम भले ही करते रहें, मगर उनका अर्थ कुछ नहीं। जैसे कोई पुरुष रात्रि में किसी समुद्र या नदी में सैर करने के लिए तैयार हुआ, पहुँच गया, सो रात्रि भर नाव को खूब खेया, बड़े खुश भी हुआ, मगर जब प्रातःकाल हुआ तो क्या देखा कि नाव तो ज्यों की त्यों खड़ी है। वहाँ बात क्या हुई कि वह नाव खूँटे से बँधी ही रह गई। नाव को रस्सी से खूँटे से बाँध दिया करते हैं ना? तो उस नाव को खूँटे से छुड़ाना भूल गए और काम बहुत किया, पर उससे लाभ क्या? सुनते हैं कि कोई एक ऐसी घटना कभी हुई थी कि वहेलना ग्राम में जो एक किला है उसमें कोई ऐसी खास बात कुछ लोगों को दिखी कि उन्होंने उस किले को वहाँ से उठाकर अपने गाँव ले जाने का विचार किया। सो उन लोगों ने क्या किया कि उस किले के चारों ओर रस्से डाल दिया और उसे खींचना शुरू किया, जब रात्रि को चंद्र थोड़ा खिसककर इधर से उधर हुआ तब उनकी समझ में आया कि यह किला अब काफी खिसक आया है, सो सारी रात उसको बहुत-बहुत खींचते रहे। परंतु जब प्रातःकाल हुआ तो क्या देखा कि वह तो ज्यों का त्यों खड़ा है। यह लक्ष्य विहीनता की बात कही कि लक्ष्यविहीन होकर कोई कितने ही श्रम कर डाले पर वे सब श्रम अकारथ जाते हैं। पुण्योदय होने पर प्राप्त समागम में मौज मानने की व्यर्थता―आज जिसका पुण्य विशेष है उनको इस पर्याय में अपने मौज पर गर्व भी हो सकता है मगर उनका गर्व करना ठीक नहीं। गर्व करने का फल दुर्गति है। आज ऐसे श्रेष्ठ भव को पाया है तो इस भव को पाने का अर्थ है कि एक मौका मिला है अपूर्व कि अपने आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान, आचरण ठीक-ठीक बना लें, संसार के संकटों से जन्म मरण से मुक्ति पाने का कोई प्रोग्राम रख लें, एक यह मौका मिला है। अगर इस मौके को छोड़ दिया और रहे केवल परिवार के मोह में, धन के संचय में या लौकिक नटखट में तो मनुष्य भव के पाने का कोई अर्थ न रहा, क्योंकि भोजन किया, सुख मिल रहा इस मनुष्य को तो बताओ इन पशुपक्षियों को भोजन का सुख नहीं मिलता क्या? अरे वे भी स्वच्छंद होकर वन में विहार करते हैं। एक वृक्ष से उड़कर दूसरे में, दूसरे से उड़कर तीसरे में यों जहाँ चाहे बैठकर जैसे चाहे फल खाकर बड़ा मौज मानते हैं। वे पशु पक्षी मनुष्यों से तो कितने ही अच्छे हैं। किंतु मनुष्यों से? जो धर्महीन है। जिन्होंने मोक्षमार्ग के उपाय की बात नहीं सोची। एक अपना निश्चय बनाओ कि यदि हम अपने आत्मा का ज्ञानदर्शन आचरण की बात नहीं पा सकते या पाने का कोई इरादा नहीं है, लक्ष्य नहीं है तो मनुष्यभव पाना बिल्कुल बेकार है। उस आत्मा के लिए तो कुछ लाभदायक न रहा। जीव के लिये कल्पना व विकारों का कठिन बंधन―विचार करिये कि हम आपको जीवों का बंध किन-किन बातों से है। साक्षात् बंधन तो यह है कि हूँ तो मैं ज्ञानस्वरूप, मगर यह ज्ञान कल्पना के रूप में चल रहा है। एक यह बड़ी विपत्ति है मूल में। कल्पना के रूप में ज्ञान बने और चले यह मेरा स्वभाव नहीं है। मगर एक विपत्ति ही लग गई। तो पहला बंधन यह है। अपना बंधन देखिये―अपनी विपत्तियाँ निरखिये। आज कुछ पुण्य योग से सुख साधन पाये और मौज में फूले रहे तो यह वृत्ति कुछ भली वृत्ति नहीं है। कुछ ख्याल करना चाहिए कि हम किन-किन विपत्तियों में फँसे हैं। पहली विपत्ति यह है कि मेरा ज्ञान कल्पनारूप बन-बनकर चल रहा है, यह सही शुद्ध निर्लेप निस्तरंग अपनी सही चाल से नहीं चल सकता। दूसरा बंधन और विपत्ति यह है कि मेरी ज्ञान भूमि पर ये रागद्वेषादिक ये कर्म विपाक के आकार यहाँ प्रतिफलित होते हैं। यद्यपि जो बंधन बताये जा रहे हैं और बतायेंगे उन सब में परस्पर सहयोग है, स्वतंत्र-स्वतंत्र बात नहीं है फिर भी अवस्था भेद से सुनना है। मेरे में जो मैं ज्ञानज्योति स्वरूप हूँ। स्वच्छ ज्ञानाकार हूँ वहाँ कर्म विपाक का रस प्रतिफलित होता है जिससे उसकी स्वच्छता ढक गई। जैसे दर्पण के आगे कोई लाल, पीला, काला, नीला आदि किसी भी रंग का पर्दा पड़ा है तो वहाँ दर्पण की स्वच्छता ढक जाती है ऐसे ही मेरी स्वच्छता इस कर्ममल रस से ढक गई। यह एक बड़ी विपत्ति है कि पुद̖गल के टुकड़ों को पाकर या किसी प्रकार का एक कल्पित वैभव इज्जत मानकर मौज मानना यह अपने को धोखे में डालना है। एक अंतर्दृष्टि करके निहारे कि मेरी भलाई किस दृष्टि में है। जीव के लिये कर्म और कार्माण विस्रसोपचयों का बंधन संबंधन―तीसरा बंधन है कर्म का बंधन। यह बात ध्यान में रखना कि जब बंधन परस्पर सहयोगी हैं। अकेले-अकेले ये बंधन न बन पायेंगे। कर्म बंधन से कितना चिकना रूखा है यह जीव। आत्मा की बात कह रहे। जैसे चिकने रूखे पुद̖गल के साथ दूसरा पुद̖गल बँध जाता तो यह आत्मा भी कैसा विचित्र चिकना रूखा बन रहा है। चिकना तो है राग में और रूखा है द्वेष में, इसकी इस रागद्वेष की वृत्ति से ये कार्माण वर्गणायें कर्मरूप बँध जाती हैं। तो ये कार्माण वर्गणायें जो अभी कर्मरूप ही नहीं बनी वे इस जीव के साथ लगी फिर रही हैं। जो कर्म बँध गए वे उसके साथ लगे हैं। उनका बंधन है। वहाँ तक तो यह समझ लो कि चलो अब व्यवस्था सही बन रही, कुछ ईमानदारी की बात हुई, मगर जो कर्मरूप ही नहीं हैं अभी और कर्मों से अनंत गुणे कर्मों के विस्रसोपचय हैं जीव के साथ, जो कि मरने पर भी इस जीव के साथ जाते। कहाँ जाये यह जीव? यह भी क्या कम विपत्ति हैं कि शरीर के पिंडोले में यह आत्मा बंधन में पड़ गया। अब इस बंधन में रहकर दूसरे-दूसरे ढंग की वृत्तियाँ बन रहीं, यह क्या इस भगवान परमात्मस्वरूप आत्मा के लिए कोई शोभा की बात है। कितनी विडंबना, कितना बंधन हैं और फिर भी यह जीव उसी में राजी हैं। निंद्य पद में रमने की निंद्य आदत―एक कोई राजा था, उसने किसी मुनिराज से पूछा कि महाराजा मैं यहाँ से मरकर क्या बनूँगा? तो-तो मुनिराज बोले―राजन् तुम अमुक दिन यहाँ से मरकर अपने ही घर की संडास में संडास के कीड़े बनोगे तो राजा को यह बात सुनकर बड़ा दुःख हुआ और तुरंत ही अपने लड़के के पास जाकर कहा―बेटा मैं अमुक दिन मरकर अपने ही घर की संडास में संडास का कीड़ा बनूँगा, तुम वहाँ आकर मुझे मार डालना। कहाँ तो मैं राजा और कहाँ विष्टा का कीड़ा, यह मेरे लिए योग्य बात नहीं। आखिर वह राजा मरकर उसी घर में विष्टा का कीड़ा बना। उसे जब मारने के लिए उसका लड़का पहुंचा, लकड़ी में मारना चाहा तो वह अपने प्राण बचाने के लिए उसी विष्टा में छिप गया। तो यहाँ कोई मरना नहीं चाहता, जो जिस पर्याय में पहुंचता वह उसी में राजी रहता। अभी इन सूअरों को देख लो, ये गंदी चीज खाते, सारे शरीर में विष्टा भिड़ा रहता, कीचड़ भिड़ा रहता फिर भी वे उसी में राजी रहते। ऐसी ही तो ये मनुष्य लोग भी कर रहे, बड़े खोटे कार्य कर रहे, दुर्भावनाओं से भरे रहते, निरंतर दुःखी रहा करते फिर भी उसी में खुश रहते। आज कुछ पुण्य का उदय पाया है तो उसमें अपना स्वच्छंद प्रवर्तन कर रहे हैं, पर यह स्वच्छंद वृत्ति कुछ भली नहीं हैं। संसार का कौन सा ऐसा स्थान, ऐसा पद है जो इस जीव के रमने लायक हो? कुछ नहीं हैं। भैया अपने अंतःस्वरूप को निहारो और उसी में रमो। इसी में भगवान के दर्शन हैं। यही भगवान का प्रसाद है। लोग कहते हैं कि भगवान घट-घट में विराजे हैं। तो एक ही भगवान अगर घट-घट में विराजे तो कहाँ-कहाँ वह अपने पैर धरेगा, कहाँ-कहाँ खड़ा होगा, कुछ कल्पना तो करो। अरे उसका अर्थ हैं कि भगवान घट-घट में बसा है। घट-घट में सभी भगवतस्वरूप हैं। वह भगवतस्वरूप बसा है। उसको निहार लें तो पार हो जायेंगे। तो अपने बंध और मोक्ष की चर्चा में जो प्रवर्तता है वह शुभ भाव है। तो बंधन क्या आ रहा? आया तो कर्म तक कार्माण विस्रसोपचय तक। कहते हैं ना कि जिसके दिन बुरे होते हैं उसके ऊपर आफत पर आफत आती है। तो इस संसारी जीव के सारे ही दिन बुरे हैं। वहाँ क्यों यह छटनी करें कि इतने दिन तो मेरे अच्छे गए और इतने बुरे। अरे सारी जिंदगी संकटों में गई। अब तक निःसंकट कोई समय नहीं मिला। निःसंकट समय तो वह है कि जिस क्षण आपको अपने में यह समझ बने कि यह अमूर्त ज्ञान ज्योति परिपूर्ण सत् ज्ञानानंद घन यह परमात्मतत्त्व यह स्वयं आनंदमय है। इसमें संकट का काम नहीं, लेकिन जब इस दृष्टि से अलग होते हैं और बाह्य में किसी पदार्थ में दृष्टि लगती है तो बस, संकट आ गए। तो अपनी बंध दशा को देखो और वर्तमान कल्पित मौज में मग्न मत होओ। मुक्ति के उपाय की संभवता―मुक्ति कैसे मिले उसको भी जरा निरखिये। एक चौकी मैली है मगर जिस पर बीट पड़ी, कूड़ा पड़ा और किसी से कहा कि इस चौकी को साफ कर दीजिए तो उस चौकी को वह साफ करता है क्यों साफ करता है कि उसको यह श्रद्धा है कि साफ करके जैसी चौकी बनेगी वैसी ही यह चौकी अब भी भीतर है। यह मैल ऊपर-ऊपर का संपर्क है। पर चौकी तो वैसी ही है जैसी कि साफ करने पर वह दिखेगी। अगर यह श्रद्धा न हो तो वह चौकी को साफ कर ही नहीं सकता। यह एक साधारण सी बात है, सबके अनुभव की बात है सभी लोग जानते हैं, चौकी मूल में साफ है। शुद्ध है, ऊपर से यह मैल प्रसंग लगा हुआ है। यह निकाला जा सकता, दूर हटाया जा सकता, क्योंकि चौकी तो ऐसी है जो उसने ज्ञान में सोचा। हटा देता है। इस आत्मा को बंधन से छुटाकर मोक्ष में ले जाय याने आत्मा की सफाई करें, रागद्वेष का बंधन न रहे, कल्पना की चाल न चलें। कर्मों का संपर्क न रहे, इन सबकी सफाई करियेगा। तो जो ज्ञानी पुरुष हैं वे बराबर सफाई कर लेते हैं उनको यह श्रद्धा है कि रागद्वेष कर्ममल उनको हटाने पर जो बात प्रकट हो सकती है स्वरूप है इस आत्मा का अभी भी अगर नहीं है स्वरूप तो हजारों उपाय करने पर भी वह विशुद्धि नहीं जग सकती। तिल में तैल है तो उसे मींड कर निकाल लीजिए और बालू में तैल नहीं है तो उसे कितना ही मींड़ा जाय पर तैल नहीं निकल सकता। यह ज्ञान और आनंद स्वरूप है। तो यह ज्ञानानंद किसी-किसी बहाने विकृत रूप ही सही, यह जीव पाता रहता है। किसी बाह्य वस्तु से आनंद नहीं आता आनंद का अपना ही स्वरूप है वहाँ से आता है। तो ऐसे केवल ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा का जिसे विश्वास है वह वैसी ही दृष्टि बनाकर उस ही विशुद्ध स्वरूप में अपने सत्त्व का अनुभव करता है और वह इन बंधनों से मुक्ति पाता है। तो जो इस स्वरूप के मनन में रहता है वह शुभ भाव है और शुभ भाव का फल सुगति लाभ है। बंधकारण चिंतनरूप शुभभाव के वर्णन में बंध कारणत्व का एक दृष्टांत―प्रसंग यह चल रहा है कि शुभ भाव होने से स्वर्गादिक सुख प्राप्त होते हैं। वे शुभ भाव कौन-कौन से हैं? उनमें से आज बताया जा रहा है कि जो बंध के कारण स्वरूप में और मोक्ष के कारण स्वरूप में अपना निर्णय रखता है उसके यथार्थ ज्ञान है कि वह भाव शुभ मात्र है। कल बताया था कि बंध और मोक्ष के स्वरूप में सही चिंतन। हम आप ये सब जीव यहाँ विकट बंधन में पड़े हैं तो उसका कारण क्या है? एक दृष्टांत से सोचिये। एक पहलवान पुरुष लंगोट पहिनकर शरीर में तैल लगाकर हाथ में नंगी तलवार लेकर एक बाग में तलवार चलाने की कला सीखने के लिए पहुँच गया। गर्मी के दिन थे। वहाँ सूखी रेत बहुत सी पड़ी थी और वहाँ पर वह तलवार चलाने लगा, बहुत से केले के ताड़ के तथा अन्य प्रकार के पेड़ कट-कट गिर रहे थे। थोड़ी ही देर में वह पहलवान क्या देखता है कि हमारा सारा शरीर धूल से लथपथ हो गया है। अब एक बात यहाँ बतलावो कि उसके शरीर में जो धूल का बंधन हुआ उसका कारण क्या है? तो कुछ लोग तो यों कहेंगे कि वह धूल भरे स्थान में पहुँचा इसलिए धूल चिपकी, पर यह बात नहीं है। क्योंकि वही पुरुष अथवा कोई दूसरा पुरुष बिना तैल लगाये यदि उस रेतीले स्थान पर जावे तो वहाँ धूल नहीं चिपकती। अब कोई यों भी कह सकता है कि उसने जो इतने पेड़े काटे, उनका विनाश कर दिया तो धूल न चिपकेगी तो होगा क्या? पर उसका कहना यह भी ठीक नहीं । कोई पुरुष बिना तैल लगाये यदि वृक्षों का विनाश करे तो उसके धूल तो नहीं चिपकती, और कोई कह सकता कि उसने अपने हाथ पैर आदिक बड़े तेज चलाये इसलिए धूल चिपकी तो उसकी यह बात यों गलत कि बिना तैल लगाये पुरुष कितनी ही हाथ पैर की चेष्टायें करें पर वह धूल धूसरित नहीं होता। अब कोई यह भी कह सकता कि वाह वह तो तलवार किए था, अनेकों बातों से सजा धजा था इसलिए धूल चिपकी तो उसका कहना भी गलत है क्योंकि बिना तैल लगाये कोई पुरुष कितना ही सज धजकर जावे पर उसके सारे शरीर में धूल नहीं चिपकती। तो शरीर में धूल चिपकने का मूल कारण क्या रहा? मूल कारण रहे शरीर में तैल का लगना। कर्मबंध के कारणत्व का निर्णय―अब यह ही बात जरा यहाँ घटावो―यह जीव कर्मों से भरे हुए संसार में भटकता फिर रहा है। यहाँ सर्वत्र वे सूक्ष्म मैटर भरे हैं कार्माणवर्गणायें कि यह जीव कषाय करता है तो उसी समय वह कर्मरूप बन जाता है। तो ऐसे कार्माण वर्गणाओं से भरे हुए इस संसार में मन वचन काय की प्रवृत्ति करता हुआ यह मोही जीव अनेकों जीवों का वध करता है तो उनका कर्मबंध होता है। तो यहाँ यह बताओ कि इस जीव को कर्म का बंध क्यों हुआ? क्या इस कारण हुआ कि वह कर्मों से भरे हुए संसार में रह रहा था इससे बंध हो गया तो प्रभु कहाँ रहते सो तो बताओ? इस दुनिया से कहीं बाहर रहते क्या? अरे वे भी तो इस लोक में रहते हैं। सिद्धलोक के अंत में उनका निवास है। इस लोक में तो सभी जगह कार्माण वर्गणायें भरी पड़ी हैं, उनको क्यों नहीं बंध होता? तो कोई कहेगा मेरे द्वारा इतने जीवों को कष्ट विशेष है इस कारण से उसे कर्म बँधा यह भी बात सही नहीं। कोई प्रमाद रहित साधु बड़े ध्यान से जमीन देखकर चल रहा परम कृपालु मुनि और चलते ही बीच में कोई अचानक सूक्ष्म जीव आकर दब कर मर गया उसके तो कर्मबंध नहीं होता। अब कोई कह सकता है कि उसने मन, वचन, काय इनको खूब चलाया उससे कर्म बंध हो गया तो भला प्रभु सदेह परमात्मा जिनके शरीर भी है और जो परमात्मा हैं वे भी तो विहार करते हैं, उनका भी तो उपदेश होता है। तो क्या उनकी काय नहीं चली, क्या उनके वचन नहीं चले? इतने चले, पर उनके कर्मबंध तो नहीं होता। तो कोई कहेगा कि इतने आडंबर रख रहा है, यह जीव, परिग्रह रख रहा है, बाह्य चीजों के संग में पड़ा है इसलिए कर्मबंध होता। तो सशरीर परमात्मा अरहंत भगवान सकल परमात्मा सगुण ब्रह्म वह भी तो कितना ठाठ में रहते हैं। उनका ठाठ देव करते हैं। बड़ी शोभा का वह समवशरण बड़ा श्रंगार, इंद्र की ही तो रचना है, उसके बीच सिंहासन पर विराजमान है उस पर स्वर्णकमल है और उस पर प्रभु विराजे हैं। ऊपर छत्र लटक रहे हैं। चमर ढुर रहे हैं, इतना बड़ा ठाठ है फिर भी उनको कर्मबंध तो नहीं होता। तो कारण क्या है? कारण यह है कि इस जीव को जो मोह लगा है, राग लगा है। प्रीतिभाव जगता है, बाह्य पदार्थों को अपना मानता है, ऐसा तो अंतः मोह राग का परिणाम है उसके कारण बंध होता है। तो बंध का कारण क्या कहलाया? मोह रागद्वेष। ज्ञानी और अज्ञानी का विकार के प्रति व्यवहार―एक बात और समझने की है कि कोई ऊँचा ज्ञानी पुरुष है, उसके साथ भी पूर्वभव के बँधे हुए कर्म हैं, अब के भी अज्ञान अवस्था के बँधे हुए कर्म हैं, अब उसको ज्ञान है, अपना जो सहज अविकार ज्ञानस्वरूप है उसकी ही धुन है, उसकी ओर ही दृष्टि है, और आ रहे पहले के बँधे हुए कर्मों की छाया प्रतिफलन रस तो यह ज्ञानी जीव उस रस से विरक्त है और अपने ज्ञानरस का ही अनुरागी है। तो वहाँ कर्म उदय में तो आये, रागप्रकृति भी उदय में आयी, राग का प्रतिफलन भी हुआ, पर उस राग को इसने उपयोग भूमि में नहीं चलाया, इस कारण उसे बंध नहीं होता और जितना है राग करणानुयोग कहता है कि होता है मगर अपना तो काम बुद्धिपूर्वक है, हमारे ज्ञान में आया उसकी ही तो चर्चा है। वह बंध नहीं होता, और अज्ञानी जीव, मोही जीव जो राग आया, जो मोह जगा, जो विकार आया उसको यह पकड़कर रखता है। कभी किसी को देखा होगा कि बड़े क्रोध में लड़ाई करता है और जरा थोड़ी देर हो गई तो क्रोध तो हमेशा रहता नहीं, थोड़ी देर बाद कम होने लगता, तो क्रोध भी कम होने लगा, मगर वह भीतर में ऐसी कोशिश करता है कि यह मेरा क्रोध कम न हो जाय। नहीं तो इससे बदला क्या लिया जा सकता? तो उसको क्रोध से प्रेम हुआ ना, विकार से प्रेम हुआ। राग में राग होना मोह है और राग होना राग है। बाह्य पदार्थों के विषय में राग हो गया, यह तो है राग की मुद्रा पर उस राग में भी राग बने, ऐसा राग उसके सदा काल रहे तो उसको कहते हैं मोह। मोह और राग के विश्लेषण पर एक दृष्टांत―बहुधा लोग कहने लगते कि मोह और राग एक ही बात है, पर एक बात नहीं है। इसमें तो बड़ा अंतर पड़ा। एक दृष्टांत लो, कोई रईस बीमार हो गया तो उसका कमरा सुरक्षित रखेंगे, साफ रखेंगे, एक दो नौकर बढ़ाये जायेंगे, फूफा, बुआ, चाची मौसी मौसा आदिक कितने ही लोग उसकी सेवा में हाजिर रहेंगे, पलंग भी बड़ा कोमल बिछाया जायगा, डाक्टर लोग भी समय-समय पर हाजिर रहेंगे, दवाई भी समय-समय पर मिलती रहेगी, उसे सब प्रकार के आराम के साधन दिये जाते और उस रईस सेठ को उन सब साधनों से राग भी है, तभी तो उन साधनों में कुछ कमी दिखने पर वह झल्लाने लगता है। जैसे दवाई देने में देर हो गई तो झल्लायेगा, डाक्टर के आने में देर हुई तो झल्लायेगा, यों उसे राग तो है पर बताओ उसे उन सबके प्रति मोह भी है क्या? क्या वह यह चाहता है कि ऐसी ही दवाई मैं जिंदगी भर पीता रहूँ, इसी तरह से मैं आराम से बिस्तर पर पड़ा रहूँ, सब प्रकार की सेवायें चलती रहें? अरे उसके चित्त में तो यह बात बसी है कि कब मुझे यह दवा पीने से फुरसत मिले और मैं प्रतिदिन एक दो मील जगह घूम आया करूँ। अच्छा फिर उसे राग क्यों है उन सब चीजों से? तो भाई राग तो परिस्थिति करवा रही है, बीमार है सो इतना राग उसे करना ही पड़ेगा। औषधि क्यों पी रहा? मेरी औषधि पीना छूट जाय इसलिए पी रहा। कहीं ऐसा वह नहीं सोचता कि यह औषधि मुझे जीवन भर मिलती रहे। तो उसे मोह नहीं है उन किसी भी चीजों से। मोह और राग के विश्लेषण पर द्वितीय दृष्टांत―अब आप मोह और राग का अंतर समझते जाइये। मानो किसी लड़की या लड़के का विवाह हुआ तो उस विवाह में तो लोग बड़ी-बड़ी खुशियाँ मनाया करते हैं। जिस दिन लड़के की बारात जाती है उस दिन एक रिवाज है कि उस लड़के को सब जगह दर्शन कराया जाता, जिसे लोक व्यवहार में घोड़चढ़ी बोलते हैं। उस घोड़चढ़ी के मौके पर गांव की समस्त नारियों को बुलावा दिया जाता है गीत गाने के लिए। गाँव की सभी नारियाँ आती हैं और मुख से मुख मिलाकर बड़ी उमंग से एकतान होकर गीत गाती है―मेरा दूल्हा बना सरदार, राम लखन सी जोड़ी आदि, कितने ही गीत गाते हैं, पर किसलिए? कोई छटांक आधपाव बतासों के लिए। वहाँ वे स्त्रियाँ इतनी परिश्रम कर डालती हैं कि उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो जाता है, पर यह तो बताओ कि उन स्त्रियों को उस दूल्हे से मोह है क्या? नहीं है मोह। हाँ राग अवश्य है। राग बिना तो वे वहाँ जाती ही नहीं। कैसे समझा कि मोह नहीं है सो सुनो अगर वह लड़का घोड़े से गिर पड़े और उसकी टाँग टूट जाय तो उसके प्रति वे सब स्त्रियाँ रोवेंगी नहीं। रोना तो उसकी माँ को पड़ेगा। यद्यपि उसकी माँ उस कामकाज में इतना व्यस्त होती कि उसे एक मिनट भी फुरसत नहीं मिल पाती। बाहरी रूप से उस लड़के के प्रति कोई ममता नहीं दिखती और उन स्त्रियों में बाहरी रूप से बड़ी ममता दिखती, पर उन स्त्रियों को उससे ममता नहीं, वे तो जहाँ काम निपटने को हुआ कि बस अपने घर जाने के लिए जल्दी मचाती हैं। मोह तो उसकी माँ को होता, उसे ही मोह होने से रोना पड़ता है। तो मोह और राग में अंतर है। राग तो परिस्थितिवश होता और मोह अज्ञानतावश होता। राग में राग होना मोह है अज्ञान है और संसारवर्द्धक है। ऐसा जानकर मैं राग में राग क्यों करूँ? हाँ परिस्थितिवश राग करना पडे़ तो वह कहलाती कर्म की बलवत्ता। चाहते नहीं है पर ऐसा ही उदय चल रहा। कितनी ही बातें ऐसी होती कि अंदर में भाव नहीं होता करने का किंतु परिस्थितिवश करना पड़ता है। मोह और राग के विश्लेषण पर तृतीय दृष्टांत―सम्यग्दृष्टि पुरुष को भी संसार में प्रवृत्ति करने का भाव नहीं होता पर करना पड़ता है। जैसे किसी लड़की का विवाह हुई कई साल बीत गए। अनेकों बार वह अपनी ससुराल हो आयी। कई बाल बच्चे भी हो गए मगर जब-जब भी वह अपने मायके जाती और उस मायके से ससुराल के लिए चलने लगती तो रोकर चलती। बताओ उसे अपनी माँ का घर (मायका) छोड़कर ससुराल जाने में कुछ कष्ट हो रहा है क्या? अरे एक लोक रीति है सो उसे परिस्थितिवश रोना पड़ता है। उसके मन में कोई कष्ट नहीं। अब उसे कष्ट नहीं यह कैसे जाना सो सुनो? उसके मन में यह बात पहले से बसी होती कि अब तो मेरा घर वह है ससुराल का घर। वहीं से मेरा सब कुछ पूरा पड़ेगा। और मैं अब तो बरसात के दिन आ गए, चावल अमुक जगह रखे है, गेहूँ अमुक जगह रखे हैं, कहीं बरसात न हो जाय और भीग न जायें इसलिए अब वहाँ जल्दी पहुँचना जरूरी है। ससुराल पहुँचने के लिए उसके मन में बड़ी उमंग है, और कभी-कभी तो खबर भी भेज देती अपने लड़कों के पास कि तुम जल्दी आकर हमें लिवा ले जावो, इतना सब कुछ होकर भी जब वह उस मायके के घर से ससुराल के लिए जाती है तो रोकर जाती है। बताओ उसे उस मायके के प्रति अब मोह है क्या? अरे मोह नहीं है, पर राग अवश्य है। उसके मन में रोने की इच्छा नहीं होती फिर भी परिस्थितिवश उसे रोना पड़ता है क्योंकि एक लोक रूढ़ि है तो ठीक ऐसी ही हालत सम्यग्दृष्टि पुरुष की है। उसके मन में संसार की ये बाह्य प्रवृत्तियाँ करने का भाव नहीं होता फिर भी परिस्थितिवश करना पड़ता है। उसे यहाँ किसी चीज से मोह नहीं होता, हाँ परिस्थितिवश राग करना पड़ता है। राग और मोह में कहा अंतर है। राग तो परिस्थितिवश किया जाता पर मोह अज्ञान दशा में होता है। इस मोह और राग वश ही तो इस जीव को कर्मों का बंध हो रहा। मोक्ष हेतुत्व का चिंतन रूप शुभ भाव―अगर यह जीव मोह और राग न करे तो वही मोक्ष का कारण बन जायगा। अब ये मोह और राग न रहे उसका उपाय क्या है? तो बाहरी उपाय तो बहुत से किए जाते जिनसे मोह मिटता नहीं, पर मोह मेटने का एक ऐसा सही उपाय है कि जो कभी निष्फल नहीं जाता। जैसे वृक्ष के पत्तों पर कितना ही पानी डाला जाय पर वह सब निष्फल रहता है, सूख जाता है, उससे कहीं वृक्ष हरा भरा नहीं रह सकता, पर यदि वृक्ष की जड़ों में पानी डाला जाय तो वृक्ष हरा भरा बना रहता है। ऐसे ही मोह के छूटने के बाह्य कितने ही उपाय कर लिए जायें वे सब निष्फल रहेंगे, पर एक उपाय ऐसा है कि वह कभी निष्फल नहीं जाता। अब मोह मेटने का वह सही उपाय क्या है सो सुनो―अपने स्वरूप को जानने का एक अच्छा अभ्यास बनावें, यह मैं आत्मा स्वयं सहज अपने ही सत्त्व के कारण विकारशून्य हूँ, किसी भी पदार्थ में खुद में अकेले ही पर संपर्क बिना विकार नहीं आया करते। कहीं भी आप देख लीजिए तो मैं तो अपने सत्त्व मात्र हूँ। किसी बाह्य पदार्थ का संबंध बना तो वह मेरा स्वरूप तो नहीं बना। मैं जो स्वयं सत् हूँ वह केवल अकेला हूँ, विकाररहित हूँ, यह दृष्टि दृढ़ हो जाय, अपने में ऐसा ही अनुभव बने जिस भव्य जीव का उसका मोह दूर हो जाता है और मुक्ति का मार्ग प्राप्त हो जाता है। सिद्धि की अंतः प्रयोग साध्यता―भैया केवल बार-बार बोलने चालने मात्र से मोक्ष का मार्ग नहीं मिलता, किंतु भीतर में ऐसे ही ज्ञान का अनुभव हो तो मिलता है। इसके संबंध में एक दृष्टांत देखिये―एक ब्राह्मण के यहाँ तोता पाला हुआ था, वह तोता पालने का शौकीन था। एक दिन मौका पाकर वह तोता कहीं उड़ गया। ब्राह्मण को दुःख हुआ और तुरंत ही तोता खरीदने बाजार पहुँचा। उस बाजार में किसी दुकानदार के पास एक तोता था। उस तोते को दुकानदार ने एक पाठ सिखा रखा था―‘इसमें क्या शक’। तोते तो वाक्य के वाक्य बोलना सीख जाते, दोहे तक बोल देते। तो उस तोते को सिखा दिया―इसमें क्या शक। बस उसी तोते को देख लिया उस ब्राह्मण ने, वह तोता उसे सुहा गया और पूछा कि भाई यह तोता बेचोगे? तो वह दुकानदार बोला―हाँ-हाँ बचेंगे। ...कितने का दोगे? ...1॰॰ का। ..अजी 1॰॰ की इसमें क्या बात है। तोते तो 8-8 आने के या 1-1 रुपये के मिला करते हैं। तो दुकानदार बोला―अजी इस तोते में बड़े गुण हैं, अब इसी से पूछ लो कि तुम्हारी कीमत 1॰॰ है या नहीं? तो उस ब्राह्मण ने तोते से कहा―ऐ तोते बताओ तुम्हारी कीमत 1॰॰ हैं या नहीं? तो वह तोता बोला―इसमें क्या शक? इतनी बात सुनकर उस ब्राह्मण के मन में आया कि यह तोता तो बहुत समझदार, गुणी मालूम होता है सो झट 1॰॰ में खरीद लिया जब घर ले गया तो घर पर उसके सामने वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण आदि लेकर बैठ गया और कथायें सुनाने लगा। मानो श्रीरामचंद्रजी की पहले कथा सुनाया―श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हुए, वह बड़े गंभीर रघुकुल तिलक हुए आदि ― /फिर तोते से पूछा―कहो तोते ठीक हैं ना? तो तोते ने क्या कहा? इसमें क्या शक? तोते का इस प्रकार का उत्तर सुनकर ब्राह्मण ने समझा कि यह तोता तो बहुत ही ज्यादह समझदार मालूम होता है सो बड़ी ऊँची-ऊँची चर्चायें उसके सामने करने लगा-मानो सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण की चर्चा छेड़ दिया, वहाँ पूछा―बताओ तोते ठीक हैं ना? तो वहाँ भी वह तोता बोला―इसमें क्या शक? अब तो ब्राह्मण ने समझा कि यह तोता इससे भी अधिक समझदार समझ में आता है सो उसके सामने ब्रह्मस्वरूप की चर्चा छेड़ दिया―ब्रह्मस्वरूप, अपरिणामी, सर्वव्यापक, सबका स्रोत ― कहो तोते ठीक हैं ना? तो फिर वही उत्तर―इसमें क्या शक। अब तो उस ब्राह्मण को भी शक हो गया कि कहीं यह तोता सिर्फ इतना ही तो नहीं बोलना जानता सो पूछ बैठा―कहो तोते क्या मेरे 1॰॰ पानी में गए? तो तोता बोला―इसमें क्या शक ! अब बताओ एक ही बात तो उस तोते को रटा रखी थी। केवल कुछ शब्दों के रट लेने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं होती, किंतु उसके लिए भीतर में ज्ञानानुभव होना चाहिए। अभी आप लोग भी यहाँ पर पूजा पाठ रट लिया करते और वही-वही पाठ प्रतिदिन बोल दिया करते, पर जब तक उसका भीतर में सही ढंग से अनुभव नहीं होता तब तक उसे कार्यकारी न समझें। पद्य में रटा हुआ पाठ बोलने से पाठ भी पूरा हो जाता पर उसका भाव चित्त में नहीं जम पाता। भला उस को गद्य में बोलते तो उसका कुछ भाव चित्त में जम सकता था। एक रटा रटाया पाठ कार्यकारी नहीं होता। तो जब तक अपने उपयोग में निर्मलता नहीं होती याने उपयोग में सिर्फ ज्ञानस्वरूप, ब्रह्मस्वरूप अविकार प्रकाश, यह मैं ही हूँ, यह बात न समाये, और ऐसा ही प्रभु में न निरखे तब तक मोक्षमार्ग नहीं मिलता। इस मोक्ष का कारण है अविकार सहज स्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसा अनुभव करना। अनुप्रेक्षणों में वर्तने का शुभ भाव―यहाँ शुभ भाव का वर्णन किया जा रहा है। शुभ भाव साक्षात तो सांसारिक सुख के कारणभूत पुण्य कर्म का बंध करते हैं किंतु विशिष्ट शुभ भाव हों तो उनकी धारा में, उनकी परंपरा में चलता हुआ जीव शुभ भाव से हट कर शुद्ध भाव को प्राप्त कर लेता है। इस कारण शुद्धि का परंपरा कारण भी है। उस शुभ भाव का वर्णन चल रहा है। बारह अनुप्रेक्षाओं में भी होता है शुभ भाव। अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं? अनुप्र-ईक्षा ऐसे इसमें 3 शब्द हैं। अनु और प्र ये तो उपसर्ग हैं और ईक्षा तकना मायने देखना उसे कहते हैं ईक्षा। जिसमें आत्मा का हित हो प्रकृष्ट रूप से उस तत्त्व को निरखना से अनुप्रेक्षा है। जिसे सुगम शब्दों में कहते हैं भावना। इनका चिंतवन करने से समता का सुख प्राप्त होता है। उन तत्त्वपूर्ण भावनाओं का बारबार विचार करने को भावनायें कहते हैं। वे बारह होती हैं। (1) अनित्य (2) अशरण (3) संसार (4) एकत्व (5) अन्यत्व (6) अशुचि (7) आश्रव (8) संवर (9) निर्जरा (1॰) लोक (11) बोधिदुर्लभ और (12) धर्म। भावनावों का बड़ा सहारा है इस जीव को संकटों से छूटने के लिए। बाहर में कहीं कोई वास्तविक सहारा नहीं इस जीव का। सब ही प्राणी मोह में कल्पनायें करके इस जीवत्व को बरबाद कर रहे हैं। और देखिये धर्म तो सब करते हैं, करना चाहते हैं, कुछ धर्म की प्रवृत्ति में लगे हैं, पर जब तक यह बात चित्त में न जमी हो कि मेरा तो मेरा आत्मस्वरूप ही सरोवर है। इसको छोड़कर जगत का कोई भी अणु मेरा नहीं है। मुझसे अत्यंत भिन्न हैं। उनके लगाव से ही संसार का संकट है। इतना निर्णय जिसके नहीं है वह धर्म क्या कर रहा होगा? धर्म की स्थिति उसके नहीं आ सकती। बाह्य क्रियाकांडों से धर्म नहीं मिलता किंतु बाह्य क्रियाकांड तो एक वातावरण है ऐसा कि जिसमें रहकर कोई आत्मदृष्टि करे तो धर्म हो जायगा, सो उसको कारण में कार्य का उपचार करके बोलते हैं। अनित्य भावना के मनन का शुभ भाव―अनित्य भावना क्या? सारा जगत दृश्यमान यह लोक जो भी दिखता है वह सब मायास्वरूप है और वह नियम से विनाशीक है यह शरीर, ये सब प्राणी, ये सब पुद्गल पदार्थ विनाशीक है। देखो बहुत बड़ी विपत्ति है यह कि जिस में सार नहीं, जो मुझसे अत्यंत भिन्न हैं उनमें लगाव है। उनकी पकड़ है, उनको अपना सर्वस्व मानते हैं, यह एक बहुत बड़ी विपत्ति हैं। जो समझ लेता है वह अपना बोझ हल्का कर लेता है। धर्म में लग लेता है। जो नहीं जान पाता वह इसी तरह संसार बढ़ाया करता, जैसा कि अनादि से अब तक चला आया। अनित्य भावना कही जा रही है। अगर कोई इन सब समागमों को विनाशीक समझ लेवे तो उनका वियोग होने पर उसे दुःख न होगा। जो समझता ही नहीं, ऐसी अगर दृढ़ता का निर्णय है कि यह घर, यह कुटुंब समागम, यह वैभव जो भी मिला है वह नियम से बिछुड़ेगा, ऐसा जिसका निर्णय है वह बिछुड़ने पर दुःखी नहीं होता। वह तो समझेगा कि देखो जो जानता था सो ही हो गया, किंतु जो मिले हुए समागमों को नित्य ध्रुव हितकारी अपना मानता है वह दुःखी होता है। तो अनित्य भावना में बताया है कि यह सारा समागम विनाशीक है। और जरा ध्यान से परखें तो इसके अंदर एक बात और छिपी हुई है। यह ज्ञानी यह समझ रहा है कि मेरा जो सहज अविकार आत्मस्वरूप है बस वह तो नित्य है और बाकी जो परिणमन हैं वे सब अनित्य हैं। प्रत्येक पदार्थ में जो द्रव्यस्वरूप है वह तो सदा रहने वाला है मगर उसकी परिणति यह विनाशीक है। तो अनित्य भावना में जब सबको विनाशीक निरख रहे हों तो यह श्रद्धा भी होना आवश्यक है कि मेरे जो आत्मा का सहज स्वरूप है वह विनाशीक नहीं। तो उस अनित्य भावना में सार्थकता हो जायगी। मैं आत्मद्रव्य वस्तु स्वरूप तो कभी नष्ट होता नहीं, पर जो दशायें चल रही हैं, मनुष्य हुआ जो-जो भी अवस्थायें चलती हैं ये सब विनाशीक हैं। ऐसी भावना रखें तो उसको धर्ममार्ग मिलता है। अनित्यता के निर्णय से वियोगज दुःख का अभाव―लौकिक हिसाब से भी देखो-एक घटना लावो चित्त में कि लोग विवाह बारात में सैकड़ों रुपयों की आतिशबाजी फूँक देते हैं और खुश होते हैं। कुछ कष्ट नहीं मानते और उनका अगर एक दो ढाई रुपये का पेन खो जाये तो उसका कष्ट मानते हैं। तो उस पेन के खोने पर कष्ट मानने का कारण क्या है कि उस आतिशबाजी के प्रति पहले से ही यह निर्णय कर लिया था कि यह तो फूँकने के लिए ही है। मगर पेन के प्रति यह विश्वास बना रखा था कि यह तो मेरी जेब में सदा रहेगी, तो ऐसे ही समझिये कि जो सारे जगत को, समस्त समागम को यह निर्णय कर रखा कि ये सब नष्ट होने वाले हैं तो विकार होने पर उसको कष्ट न होगा और जो यह मानकर रहे कि नष्ट तो अन्य लोगों के हुआ करते हैं, मेरे घर के लोग या मेरे घर की चीजें नष्ट नहीं होती तो ऐसा निर्णय पहले से ही होने से उनके वियोग पर कष्ट अवश्य होगा। यह बारह भावनाओं की बात कही जा रही है। इनकी रोज-रोज भावना रखना चाहिए। पहली है अनित्य भावना―राजा राणा छत्रपति, बड़े-बड़े लोग, हाथियों के असवार सबको एक दिन मरना है। सबका समय आता है, उसमें अपने को भी शामिल करके समझियेगा। यह पर्याय भी विनाशीक हैं। दुःख काहे का होता? प्राप्त समागमों के अनित्यत्व के निर्णय से धर्मोत्साह―एक नीति है―अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थंच चिंतयेत्। गृहीत इव केशेषु मृत्युन्न धर्ममाचरेत्। हितोपदेश में बालकों को यह नीति पढ़ाई जाती कि विद्या और धन इनका उपार्जन वहीं पुरुष कर पाता है जो अपने को अजर अमर की तरह मानता है, और जो मानता कि हम तो कल ही मरने वाले हैं तो वह संस्कृत पढ़ने में अपने दाँत क्यों खटखटायगा? जब वह समझता है कि हमको बहुत दिन जीना है तो वह विद्या का भी अर्जन करता और धन का भी। जैसे मानो किसी को फाँसी का हुक्म हो गया तो एक रिवाज है कि फाँसी देने के 5 मिनट पहले उससे पूछा जाता कि बताओ कि तुम क्या चीज खाना चाहते हो या किससे मिलना चाहते हो? जो चाहे ऊँची से ऊँची चीज खा लो तो भला बताओ जिसका मरण अभी 5 मिनट बाद में होने वाला है उसको खाना पीना भी रुचेगा क्या? न रुचेगा, तो ऐसे ही जिसको यह निर्णय है कि मृत्यु ने तो मेरे केशों को पकड़ रखा है, किसी भी दिन झटक देगी और मरना पड़ेगा। जो मृत्यु को अपने सिर पर मंडराता हुआ देखेगा वह धर्म का आचरण कर सकेगा, क्योंकि जीवन का कुछ भरोसा नहीं। धर्मकार्य कर लें, जितना अपने ज्ञानस्वरूप की भावना बना लेंगे उतना तो यह साथ जायगा बाकी यहाँ का कुछ भी साथ नहीं जाने का। अनित्य भावना में अंतरंग बहिरंग दोनों तथ्यों का निर्णय―अनित्य भावना में दोनों बातें ध्यान में रखना कि मेरा जो सहज अविकार स्वरूप है वह तो नित्य है। शाश्वत है और जो दशा बन रही है। जो विकार चल रहे, परिणमन हो रहे वे सब अनित्य हैं। यह निर्णय रखना, इससे लाभ क्या है कि जिसको अनित्य समझ लिया उसमें आपको प्रीति न आयगी और जिसको अपना स्वरूप और नित्य समझ लिया उसमें आपको उमंग जगेगी। तो भावनाओं का ही क्या, जितने भी धार्मिक कार्य हैं उन सबका प्रयोजन एक है विकार से हटना और स्वभाव में लगना। अगर यह बात नहीं बन पाती तो वह धर्मकार्य नहीं है। एक कुन्जी है जिससे आप सब निर्णय कर पायेंगे। चाहे आप के पर्व हों चाहे कोई समवशरण हो, चाहे आपकी दैनिक चर्या हो, धर्म के उद्देश्य को लेकर, तो वहाँ आप यह परख लेंगे कि हमको इन विकारों से, कषायों से, रागद्वेषादिक भावों से हटने की उमंग मिल रही या नहीं, और मेरा जो अविकार सहज स्वरूप है उसमें लगने की प्रेरणा मिल रही या नहीं? अगर मिलती है तो आपका वह धर्म पर्व है। धर्म समारोह है। धार्मिक क्रिया है और यदि विकार से हटने की उमंग नहीं मिलती, स्वभाव में लगने की प्रेरणा नहीं जगती तो वे सब ऊपरी काम हैं। लौकिक काम है। धर्म के अभिमुख करने वाली आपकी क्रिया नहीं है। तो भावनाओं में आप यह लखते जायेंगे कि मुझको इस भावना के भाने से, इसके मनन से विकार से हटने की उमंग यों मिल रही और स्वभाव से लगने की ऐसी प्रेरणा जग रही है। अनित्य भावना में दो निर्णय हुए कि मेरा यह सहज स्वरूप तो ध्रुव है और ये औपाधिकभाव जो क्षण-क्षण में नष्ट हो रहे वे सब अनित्य हैं। अनित्य से क्या प्रेम करना और आनंद धाम ज्ञानस्वरूप जो अपना सहज अविकार रूप है उसमें प्रीति करना। अध्यात्म मनन की प्रतिदिन आवश्यकता―आप लोग प्रायः रोज सुनते आये हैं और सोचते होंगे कि एक ही बात रोज-रोज कही जा रही है क्या कि आत्मा का जो सहज अविकार स्वरूप है उसमें लगना। तो हम भी सोच सकते हैं कि आप लोग रोज-रोज वही-वही दाल रोटी चावल खाते रहते हैं फिर भी कोई दिन ऐसा नहीं होता जिस दिन आपके मन में आ जाय कि आज तो मेरा दाल रोटी चावल का खाना बंद। उसकी लालसा रोज-रोज लगी रहती है, मानो कल खाया था तो आज फिर भूख लगेगी, आज खा लिया तो कल के दिन फिर भूख लगेगी। तो ठीक है खावो, उससे कोई हानि नहीं, तो ऐसे ही यहाँ समझिये कि कुछ आत्मस्वरूप की दृष्टि की थी कल शाम को और उसके बाद अनेकों कामों में लगने से चित्त यहाँ वहाँ डोलता रहा, तो वे जो सारे क्रियाकांड थे अपने आत्म उपवन में वे सबके सब हमने नष्ट कर दिया और फिर हम रीते के रीते रहे। अब फिर आत्म जागृति की आवश्यकता हुई। आनंद दो प्रकार के होते हैं―एक तो क्षणिक, पराधीन, कल्पित आनंद और एक शाश्वत स्वाधीन स्वाभाविक आनंद। अच्छा और जिसको चाहो उसको पा सकते। शाश्वत स्वाभाविक आनंद उससे भी अधिक स्वाधीन है। पर पुण्य वाला आनंद उसमें बहुत सी अपेक्षायें भी होती हैं। तो क्षणिक सुख पाकर क्या लाभ होगा? उसमें क्यों रमते हैं? आत्मा का जो अविनाशी आनंद है उसमें क्यों नहीं कोशिश करते। ज्ञाता दृष्टा रहें, साक्षी रहें, यथार्थ जानते रहें। यथार्थ तथ्य के ज्ञानी होकर परिस्थितिवश प्रवृत्ति करने में विवेक―भैया, आप लोग घर में रहते हैं, कुटुंब के लोग हैं। इसी तरह घर में रहना हुआ करता है। धर्म, अर्थ, काम, पुण्य, धन की कमायी और पालन पोषण ये तीन काम आवश्यक रहा करते हैं, किये जा रहे हैं, पर मेरा परमाणु मात्र भी इस लोक में नहीं है। ऐसा अपना भीतरी निर्णय रखें। और न रखेंगे तो कष्ट कौन भोगेगा? कोई एक किसान था तो हल चलाते हुवे में एक साँप निकल आया और उस साँप पर बैल का पैर पड़ गया और सांप ने उस किसान को काट खाया। तो साँप के काटने पर उस किसान के 5-7 मेहर (लहर) चढ़ गई। तो उस स्थिति में वह अटपट बकने लगा, मानो उसने अपने को साँप रूप अनुभव किया तो साँप की ओर से वह बोलने लगा--अरे तूने मेरे ऊपर पैर क्यों धर दिया और बैल को डंडे से पीटना भी शुरू कर दिया। बहुत देर तक पीटता रहा। जब उसका पीटना बंद न हुआ तो पड़ोस के लोगों ने उसे समझाया--अरे तेरे पास दो ही बैल है। यदि इनमें से एक बैल मर गया तो फिर तेरा जीवन दुःखी रहेगा...। उसने किसी की न सुनी, पीटना शुरू रखा, पर एक व्यक्ति ने उसके कान में कहा―अरे भाई तुम व्यर्थ में इस बैल को मत पीटो, तुम्हारा विष तो उतर जायगा पर बैल मर गया तो वह वापिस कहाँ से आयगा? तुम कैसे खेती करोगे? बच्चों का पालन पोषण कैसे करोगे, तुम बड़े दुःखी हो जावोगे, इसलिए बैल को मत पीटो। तो उसकी समझ में बात आ गई और बैल का पीटना बंद कर दिया। तो ऐसे ही धर्म के विरुद्ध हम आप प्रवर्तन करते हैं। मोह रागद्वेष में हम बढ़ते रहते हैं तो उसका फल दुर्गति में जाना है। अगर दुर्गति में जाना है तो इसी भाँति आत्मघात करते रहो और अगर दुर्गति में नहीं जाना है तो कुछ अपने पर दया करके कुछ समताभाव लाना है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों के बोझ से लदे हुए है अज्ञानी प्राणी, कुछ अपने आप पर दया तो कर, अपने आपको कुछ हल्का तो अनुभव कर। एक क्षणमात्र को भी अपने आपको हल्का नहीं अनुभव कर पाते। मैं ज्ञानज्योतिमात्र हूँ। मेरा कहीं कुछ नहीं, कोई विकल्प ही न आये और एक आनंद घन यह चित्प्रकाश इसके ध्यान में रहे। अनित्य भावना का सदुपयोग न करने के दुष्परिणाम―आत्मसावधानी की स्थिति यदि नहीं मिल पाती तो उसका फल यही है कि जो संसार में भ्रमते फिरते रुलते हुए ये संसारी जीव प्रत्यक्ष प्रमाण रूप में दिख रहे। एक शराबी पुरुष किसी शराब वाले की दुकान पर पहुँचा और बोला―मुझे बहुत अच्छी शराब चाहिए। तो दुकानदार बोला―हाँ भई हमारे पास बहुत अच्छी वाली ही शराब है। उसका कोई नाम भी ले लिया। तो फिर वह शराबी बोला―अजी, बहुत ही बढ़िया वाली शराब चाहिए। ...हाँ जी बहुत ही बढ़िया वाली शराब हमारी दुकान में है। और यदि इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखना है तो चलो हमारे साथ। (दुकान के पीछे ले जाकर) ये देखो तुम्हारे चाचा, मौसा, दादा आदि बेहोश हालत में नापदान में पड़े हैं, अपना मुख फैलाये हैं। कुत्ते लोग आ आकर उनके मुख में पेशाब भी कर रहे हैं। तो उस दृश्य को देखकर वह शराबी समझ गया कि सचमुच इस दुकान में बहुत अच्छी वाली शराब है। तो ऐसी ही बात इस संसार में समझिये। यहाँ जो कीट पतिंगे, शूकर गधा, मुर्गा मुर्गी आदिक पशुपक्षी बड़ी खोंटी स्थितियों में दिख रहे हैं वे ही इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि एक इस आनंदघन चित्प्रकाश अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मा का ध्यान न करने से इस जीव की ये खोटी दशायें होती हैं। जो लोग इस शरीर को ही देखकर मानते हैं कि मैं तो यह हूँ, उनको इस मिथ्या मान्यता के कारण पर्याय में आत्मा की बुद्धि हो जाती है। इस पर्याय में ही अहंबुद्धि हो जाती है। इसी के प्रति ममत्त्वबुद्धि भी बन जाती है, पर इसका फल दुर्गति है। यह दृष्टामान शरीर एक दिन नष्ट हो जायगा, मरने के बाद लोग इसे श्मशान भूमि में ले जाकर जला देंगे―इसके संबंध में एक घटना देखें―कोई दो मित्र थे, तो उनमें से जब एक मित्र मरने वाला हो गया तो वह बोला―‘‘यार मरते वक्त होगा, एक बेअदबी का कार। यार तो पैदल चलेंगे, हम जनाजे पर सवार।’’ याने हे मित्र हमने जीवन भर तुम्हारा अविनय नहीं किया, पर मुझे खेद है कि अब मरने पर मेरे द्वारा आपका अविनय होगा। कैसा अविनय? अरे आप सभी लोग तो पैदल चलेंगे और मैं आप सबके सिर पर लदकर जाऊँगा। अर्थी में ऐसा ही तो होता है। तो भाई एक न एक दिन मरना यहाँ सभी को होगा, ऐसा जानकर पर्याय में आत्मीयता की बुद्धि छोड़ दें। शरीर में ममत्व न रखें। इन पाये हुए समस्त समागमों को अनित्य जानकर उनसे प्रीति न करें, अपने स्वरूप को नित्य जानकर उसमें लगें। यह है (1) अनित्यभावना की शिक्षा। अशरण भावना के मनन का शुभभाव―(2) अब दूसरी भावना है अशरणभावना--मेरा जगत में कोई शरण नहीं। किसी भी एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ से कुछ सहारा नहीं। जो कल्पना में आ रहे कि ये लोग मेरे मददगार हैं तो वे कोई इस जीव के मददगार न बनेंगे। हाँ आज कुछ पुण्य का उदय है सो कुछ ऐसा लगता कि देखो ये लोग कैसा मेरे मददगार बन रहे हैं, पर वास्तव में यहाँ कोई किसी का मददगार नहीं। खूब विचार लो, मेरे लिए यहाँ कोई शरण नहीं। जैसे फुटबाल को कहाँ कहीं शरण मिलती? वह बेचारा जिस बालक के पास शरण लेने पहुँचता बस वहीं से ड्खोकर मिलती। कोई बालक उसे गोद में लेकर चूमता तो नहीं, ऐसे ही यह जीव जिन जिनकी शरण में पहुँचता वहीं से इसको निराशा की ठोकर लगती या यों कहो कि वियोग की लात लगती, जिसके फल में यह दर-दर ठोकरें खाता है और दुःखी होता है। बाहर में कोई भी पदार्थ मेरे को शरण नहीं। ‘‘मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावे कोई।’’ पर इसके साथ यह भी ध्यान दें कि मेरे आत्मा का जो शाश्वत स्वरूप है चैतन्य प्रकाश, वह मेरे को कभी धोखा नहीं देता। उसकी दृष्टि अगर कोई करे तो वह नियम के उसके लिए शरण है और इसके अतिरिक्त बाहर में कोई भी पदार्थ इस जीव का शरण नहीं। बाहर में अशरण अंतः स्वयं शरण, ऐसी दृष्टि बने। बाहरी पदार्थों का द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव, सब कुछ उनका उनमें है उनसे मेरे में कुछ नहीं आता। फिर कोई मेरे को कैसे शरण होगा? मेरे लिए मैं ही सदा शरण हूँ। घबड़ाने की बात नहीं। अपना स्वरूप अपनी दृष्टि में रहे तो वहाँ किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं है। जहाँ अपने भगवतस्वरूप को भूले, उस स्वरूप से, उस ज्ञानज्योति से, उसकी भक्ति से हटे कि बस सारे दुःख ही दुःख मिलते हैं। एकमात्र अंतस्तत्त्व की शरण्यता―ज्ञानी जीव बाहरी पदार्थों की ओर से तो अपने को अशरण समझता है और अपने आप के स्वरूप की ओर से सशरण समझता है। बाहर में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो मेरे लिए शरण हो। कुछ कभी शरण सा लगता है तो वहाँ दो घटनायें होती हैं--एक तो इसका पुण्य का उदय और दूसरे कोई अपना स्वार्थ। ऐसा योग होने पर लगता है कि मेरे को अमुक शरण है, पर शरण कोई किसी का नहीं है। मोह की कल्पना है। काम कोई आये या न आये, आता तो है ही नहीं फिर भी मोहवश उसकी ओर दृष्टि रहती है। मनुष्यों की बात तो छोड़ो, तिर्यंचों में परख लो―कुतिया का बच्चा (पिल्ला) या गाय का बच्चा (बछड़ा) ये बड़े होने पर अपनी माँ की कुछ मदद करते हैं क्या? कुछ भी तो मदद नहीं करते फिर भी ममता ऐसी है कि ये बिल्ली, गाय वगैरह अपने बच्चे को किसी को छूने न देंगी। यह मोह की ही तो बात है। मोह से माना है इस जीव ने कि मेरे को यह शरण है। शरण तो अपने आप में अंतः प्रकाशमान सत्य स्वरूप सहजज्ञान एक ज्योति जो प्रतिभास स्वरूप है उसकी दृष्टि हो तो वह शरण है। अशरण भावना में यह बताया गया है कि बाहर में कहीं कुछ शरण नहीं। अपना स्वरूप अपने को शरण है। विकारों से हटने की, बाह्य पदार्थों के लगाव से हटने की और अपने स्वरूप में रमने की प्रेरणा मिलती है। संसार भावना में संसरण व संसरण हेतु का चिंतन―तीसरी भावना है संसार भावना। संसार कैसा है उसका यथार्थ चिंतन करना। प्रथम तो यह ही विचारें कि संसार नाम किसका है। यह क्षेत्र इतना, यह आकाश क्या इसका नाम संसार है? अगर क्षेत्र और आकाश का नाम संसार है तो इससे तो मेरा कुछ बुरा नहीं होता है, पड़ा है। उससे मेरे को क्या कष्ट? संसार से तो कष्ट होता है। तो संसार नाम है अपने विकार का। अपना विकार ही अपना संसार है। विकार न रहे तो संसार समाप्त। कल्पना, मोह, रागद्वेष, यह अच्छा, यह बुरा ऐसी बुद्धि यह सब है संसार और संसार असार है याने बाह्य पदार्थ विषयक जो भी भाव उठता है वह सब असार है, क्योंकि बाह्य से मेरा संबंध नहीं, उनका अस्तित्व निराला, मेरा अस्तित्व निराला। आज घर के जिन लोगों से राग मोह हो रहा है मानो ये जीव न आये होते, कोई दूसरे ही जीव आये होते तो इसको तो मोह करने की आदत है, उनसे मोह करता। कहीं अन्य जीव के साथ इसकी सत्ता नहीं है, किसी के साथ कोई संबंध नहीं है, किंतु स्वयं कषायवश अपनी कल्पना करता है और दूसरों को अपना मानता है। मिथ्यात्व इस जीव का बहुत बड़ा बैरी है। अब तक संसार में भ्रमण किया उसका कारण है। मिथ्यात्व ‘‘ऐसे मिथ्या दृग ज्ञान चरन, वश भ्रमत भरत दुःख जनम मरण।’’ संसार का मूल है मिथ्यात्व। मिथ्यात्व दो प्रकार का होता है। अगृहीत और गृहीत। अगृहीत मिथ्यात्व तो सब जीवों के हैं जितने भी मिथ्यादृष्टि हैं। शरीर को मानना कि यह मैं हूँ, रागभाव से मानना कि यह मेरा है, इससे मुझे सुख मिलता है, ऐसी मान्यताओं को कोई सिखाता नहीं है। कहीं कोई ऐसी पाठशाला नहीं खुली है कि जिसमें सिखाया जाय कि तुम इस शरीर को अपना मान लो। यह तो बिना करवाये ही चल रहा है--मोह और गृहीत मिथ्यात्व क्या है कि देखा देखी या किसी के समझाने से जो मान्यता बनती है―रागी द्वेषी जीवों को देव मानना, आरंभी परिग्रही मुनि को गुरु मानना, यह तो सिखाया जाता है, इसे कहते हैं गृहीत मिथ्यात्व। तो यह जीव इस मिथ्यात्व के वश होकर संसार में जन्म मरण करता रहता है। यह मिथ्यात्व है सो संसार है। संसार की असारता व असंसार सहज भाव की सारता―मिथ्यात्व सारहीन है। मेरे भगवान अंतस्तत्त्व का घात करने वाला है और बाहरी दृष्टि से देखें तो कहते हैं ना―‘‘दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान। कहूँ न सुख संसार में, सब जग देखहु छान।’’ इस लोक में बताओ तो सही कि कौन है सुखी? जिसके पास दाम नहीं वह तो तरस कर दुःखी है और जिसके पास दाम है वह तृष्णावश दुःखी है। यों दुःखी सब हैं। तृष्णा होने पर जो अपने को मिला है उसका भी सुख नहीं लूट पाता। जो नहीं मिला उस पर तो दृष्टि रहती है और जो मिला है उस पर दृष्टि नहीं रहती और सोचता है कि ऐसा तो होता ही है। तो तृष्णावश यह जीव दुःखी है। यहाँ संसार में कोई सुखी नहीं। सुखी केवल ऋषिराज हैं, जिन्होंने समस्त आरंभ परिग्रहों का विकल्प भी छोड़ दिया है। तब सार क्या है? सार है अपना अमूर्त स्वरूप, जिसमें कोई बाधा दे सकता नहीं, जिसमें कष्ट का नाम नहीं, स्वयं आनंदरस से भरा हुआ है वह है सारभूत। तो ऐसे बाह्य तत्त्वों की असारता का अंतस्तत्त्व की सारता का चिंतन करना संसार भावना है। इसमें भी विकार में हटने की और स्वभाव में लगने की प्रेरणा मिलती है। ये शुभ भाव हैं। शुभ भावों का फल है सद्गति का लाभ। एकत्व भावना व अन्यत्व भावना में विकार से उपेक्षा होने व स्वभाव में लगने की प्रेरणा― (4) एकत्व भावना―अपने आपके अकेलेपन के विषय में चिंतन करना। इस लोक में अकेला ही हूँ। दूसरा मेरा कुछ नहीं। एकत्व और अन्यत्व भावना ये परस्पर सहयोगी हैं और एक में दूसरा अपने आप सिद्ध है। मैं अकेला हूँ अर्थात् मेरा कोई दूसरा साथी नहीं है। सब जीव अकेले हैं, अणु-अणु अकेला है। एक स्कंध में अनंत अणु मिलते हैं फिर भी प्रत्येक अणु स्वतंत्र है, वह अपनी सत्ता से है, एक का दूसरे के साथ स्वरूपतः संबंध नहीं बाहरी तो संबंध है तब तो यह पुद्गल स्कंध बनाकर प्रत्येक अणु अपने आपके स्वरूप में ही है। कोई किसी के स्वरूप में नहीं है। (5) अन्यत्व भावना―यों तो सब जानते हैं कि यह जीव खुद अकेला जन्मता, खुद अकेला मरता है अकेला ही सुख दुःख भोगता है पर और भीतर चलकर उस एकत्व को देखिये तो शाश्वत है, अविकार है। केवल चैतन्यस्वभाव मात्र है। उसकी दृष्टि हो तो शरण है, सहाय है, सारभूत अपना उद्धार है और एक अपने सहज स्वरूप की सुध नहीं है तो बाहर में कितना ही कुछ कर लिया जाय चाहे धर्म के नाम पर, पर उसकी रंच भी प्रगति नहीं होती। मैं मैं हूँ, मैं अन्य कुछ नहीं हूँ। तन धन मित्र परिवार इन सब की परिणति इनके ही साथ है, फिर मेरा कुछ क्या होगा? ऐसा चिंतन करना अन्यत्व भावना है। इससे भी प्रेरणा लीजिए विकार से हटने की और स्वभाव में लगने की। अशुचि भावना में देह की अशुचिता का दर्शन―(6) अशुचि भावना―अशुचि कहते हैं अपवित्रता को। अपवित्र कौन है? तो व्यवहार में लोक में तो देह को अपवित्र समझा गया। यह शरीर अपवित्र है। हाड़ मांस खून आदिक अनेक धातु उपधातुवें हैं जो कि अपवित्र हैं। उनका यह पिंड हैं एक कथानक आया है कि कोई एक राजपुत्र अपनी बग्घी पर बैठा हुआ शहर की गलियों से जा रहा था। अचानक ही उसकी दृष्टि किसी एक मकान के ऊपर गई तो वहाँ उसे एक सेठ की नई बहू दिख गई उसके रूप तथा सौंदर्य को देखकर राजपुत्र मोहित हो गया। वह जब अपने घर पहुँचा तो उसे कुछ खाना पीना ही न सुहाये, बस वही एक धुन, उस स्त्री विषयक विशेष चिंतन। उस राजपुत्र की ऐसी दशा देखकर किसी दासी ने कहा―हे राजकुमार आप सच-सच अपनी उदासी का कारण बताओ। तो वहाँ उस राजपुत्र ने दासी ने अपनी उदासी का कारण बता दिया। तो दासी बोली―यह कौन सी बड़ी बात। मैं उस स्त्री के पास जाकर तुम्हारी सारी बात बता दूँगी और उससे तुम्हें मिला दूँगी। ...ठीक है। अब वह दासी (दूती) पहुँची उस सेठ के घर और उस बहू से राजकुमार की उदासी का कारण कहा। तो वह सेठ की बहू बड़ी बुद्धिमान थी, चतुर थी, सो बोली―ठीक है, तुम उस राजकुमार से जाकर बोल देना कि यह 15 दिन बाद हमारे घर आवे। ...ठीक है। दासी ने यही बात राजकुमार से कह दिया। अब उधर उस स्त्री ने क्या किया कि एक बड़ा सजा सजाया मटका तैयार किया और दस्त की दवा लिया, जुलाब किया, और उसी घड़े में वह दस्त करती जाय। यही काम उसने लगातार 15 दिन किया। अब विचारो तो सही 15 दिन जिसके दस्त लगें उसके शरीर की क्या हालत होगी। एक दो दिन में ही दस्त लगने से सारा शरीर शिथिल हो जाता है। पंद्रह दिन लगातार दस्त चलते रहने से वह स्त्री सूखकर काँटा हो गई, शरीर कांतिहीन हो गया। 15 दिन बाद वह राजपुत्र उस सेठ के घर पहुंचा और उस सेठ की बहू को देखा तो देखकर दंग रह गया। अरे कहाँ गया वह रूप? कहाँ गया वह सौंदर्य? आश्चर्य भरे शब्दों में पूछता है―क्या आप ही हैं वही स्त्री जिसे मैंने 15 दिन पहले देखा था? -― हाँ वही स्त्री है जिसके पास आपने अपनी दासी भेजी थी और 15 दिन बाद मिलने का वायदा किया था। -― बताओ क्या हो गया तुम्हें? कहाँ गया वह रूप और सौंदर्य? ― हमारा वह सारा रूप और सौंदर्य एक जगह रखा है चलो चलकर दिखायें, उससे आप खूब प्रीति करो। (कुछ चलकर) वह देखो इसे घड़े के अंदर रखा है। राजपुत्र ने जब उसे खोलकर देखा तो मारे दुर्गंध के वह घृणा से विह्वल हो गया और शर्मिंदा होकर अपने घर चला गया। अशुचि देह से उपयोग का हटाव और शुचि आत्मा में उपयोग का लगाव―शरीर की अपवित्रता की बात कह रहे। इसमें काहे की सुंदरता? यह शरीर तो महा घिनावना है। इसमें मल मूत्रादिक महा गंदी चीजें भरी हैं। इसमें जो ऊपर से चिकना चाम दिखता उससे सुंदरता जंचती पर उसके अंदर क्या भरा है, इस पर यदि विचार किया जाय तो पता पड़ेगा कि यह शरीर महा अपवित्र है। बताओ इस अपवित्र देह के मिलने का कारण क्या है? तो उसके कारण है मोह, मिथ्यात्व देह से मोह है सो देह मिलते रहते हैं तो असली अशुचि कौन रहा? मोह। यह मोह महा अपवित्र है और मेरा जो ज्ञानस्वरूप हैं वह स्वभाव पवित्र हैं। अब अपवित्र का नेह छोड़कर पवित्र की ओर आइये। देखिये चित्त में यदि यह बात जगती है कि हमें आज यह दुर्लभ मानव जीवन मिला है, इस जीवन का कुछ भरोसा नहीं कि कब तक है। आखिर जल्दी ही किसी न किसी दिन इस शरीर को छोड़कर जाना पड़ेगा। जब शरीर छोड़कर जायेंगे तो फिर यहाँ का मेरा क्या रहा? आगे नये-नये समागम मिलेंगे। उनमें अपना मोह रखेंगे। तो मुझे क्या करना चाहिए जो ये संकट टलें और प्रभु की तरह सदा के लिए संकटों से छूट जायें। अगर यह भावना चित्त में बन जाय तो कल्याण निकट है, पर जिनका होनहार भला है उनके ही तो यह भावना बनती है। उन्हीं में क्यों न अपना नाम समझना? अशुचि है यह शरीर और शुचि है इस शरीर से निराला, विकार से निराला यह हैं सहज ज्ञानमात्र परमात्मतत्त्व। विकार से हटना है और स्वभाव में लवलीन होना है। यह इस अशुचि भावना से शिक्षा मिलती है। (7) आश्रवभावना―‘‘आश्रव दुःखकार घनेरे’’ याने आश्रव घने दुःख देता है। आश्रव मायने ये विकार राग द्वेषादिक भाव, मोह करते अघाते नहीं, राग करते थकते नहीं, विकार करने के लिए उमंग बनी रहती है। यह इतनी बड़ी भारी विपत्ति है। यह भावना लाइये कि कब वह समय आये कि मेरे में विकार रंच न जगे और मैं अपने सहज ज्ञानस्वरूप का ही ज्ञान करता रहूँ देखो मन में है कि नहीं कि मुझे सिद्ध भगवान होना है। अगर यह बात मन में नहीं है और यह ही बात बसी हुई है कि यह परिवार यह समागम, ये ही मेरे लिए सब कुछ हैं, इनकी बढ़ोतरी हो, बस यह ही चाहिये। यदि यहाँ तक ही चाह है तो वह जीव अज्ञानी है। क्यों चाह करता है? ये क्या तेरे साथ जायेंगे? ये क्या तेरा साथ निभायेंगे! ये तेरे को दुःख नहीं देते, किंतु अपने आपकी जो भूल है वह इस जीव को दुःख देती है। ये बाहरी पदार्थ दुःख देने वाले नहीं, किंतु भीतर में जो रागद्वेष भाव आ गए हैं वे मुझको दुःख देते हैं जैसे पीपल या छेवले वगैरह किसी पेड़ में लाख लग जाय तो वह पेड़ कभी जल्दी ही सूख जाता है। वह लाख कहीं बाहर से नहीं आती, वह तो उस पेड़ में से ही प्रकट होती है मगर पेड़ को मेटने के लिए होती है ऐसे ही यह राग, ये कल्पनायें किसी बाहरी पदार्थ से नहीं आयीं, किंतु कर्मोदय का वातावरण पाकर ये जीव की प्रवृत्ति से हो गए हैं, ये इस जीव को बरबाद करने के लिए हुए हैं। इष्ट पदार्थ को देखकर हर्ष मत मानो, अनिष्ट पदार्थ को देखकर खेद मत मानो, क्यों जगत में कुछ भी इष्ट अनिष्ट नहीं, किंतु भूल से, बेसुधी से यह जीव किसी को इष्ट और किसी को अनिष्ट मानता है यहाँ कुछ नहीं रखा तथ्य और स्वरूप अपना सही विकसित हो तो वहाँ अपना हित है। तो इन आश्रव भावों से तो प्रीति हटायें, इन बाह्य पदार्थों से तो आशक्ति दूर करें और अपने आपका जो आनंदधाम स्वरूप हैं उस स्वरूप में रमकर तृप्त हों। ‘आश्रव दुःखकार घनेरे’ यह भावना, यह चिंतन शुभ भाव है, इस जीव को सुगति के देने वाली हैं। संवर भावना में संवरतत्त्व की महिमा का चिंतन―संवर भावना में अपने विशुद्ध ज्ञानस्वरूप को ही निरखते रहें तो कर्म न आयेंगे। और, कर्म न आयें तो भविष्य के लिए कष्ट न रहेगा और वर्तमान में चूँकि शुद्धभाव हैं किसी रागद्वेष प्रसंग में नहीं हैं तो इस समय भी वह शांत रहेगा। तो जहाँ अपने शुद्ध अंतस्तत्त्व पर दृष्टि हो वहाँ अपना शरण है, वहाँ संसार बंधन नहीं; कर्मबंध नहीं। एक ही सारभूत बात अपना स्वरूप है अविकार जगत से न्यारे, दुःख का जहाँ कुछ काम ही नहीं। स्वरूप ही आनंद है, वह दृष्टि में रहे तो इस जीव का भला है। निर्जरा भावना में जो यह शुद्ध भाव है वहाँ पहले के बाँधे हुए कर्म झड़ जाते हैं। कर्म सब के साथ लदे हैं, उनका बंधन हैं, उनका उदय विपाक में आये तो इस जीव को वेदना होती हैं, पर जो ज्ञानी जीव है, जिसने अपने स्वरूप को जाना है कि मेरा स्वरूप केवल जाननहार रहने का है और जो विकल्प प्रतिफलन हो रहा वह सब कर्मोदय का एक निमित्त है। मैं वह हूँ जो अपने आप हूँ, मैं वह नहीं जो निमित्त पाकर हुआ है। ऐसा अपना स्वतः सिद्ध ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व में अनुभव करें कि मैं यह हूँ, उसके होती है, कर्म की निर्जरा, उस कर्मनिर्जरा के ही भाव हैं ये दशलक्षण। यदि कोई यह सोचता हो कि दशलक्षण के दिनों में शास्त्र भी सुनें, पूजा पाठ भी करें, जाप भी दें, बस उतना कर लेने मात्र से हमारा धर्म हो जायगा, तो ठीक है, हो तो जायगा मगर जिसमें धर्म की बुद्धि आयी है वह यह सीमा न रखेगा कि बस मेरे लिए तो ये 1॰ ही दिन धर्म करने के हैं। संसार में दुःख न आने की अभ्यर्थना के बजाय सहनशीलता की अभ्यर्थना में लाभ―अरे यह संसार बड़ा दुःखमय है। इसमें विजय वही पा सकता है जिसका ज्ञान सही और पुष्ट हो। यह भावना क्यों बनाना कि जगत में मरे को दुःख न आये। कैसे दुःख न आयगा? जब जगत में रह रहे, जगत ही इष्ट हो रहा तो कष्ट क्यों न आयगा? एक घटना देखिये―कोई सेठ किसी अपराध में पहुंच गया जेल खाने में। वह ही क्लास का जेल था। अब वहाँ सेठ को उस जेल के अंदर सभी प्रकार के कार्य करने पड़ते थे, जैसे चक्की पीसना, झाडू गोहारू करना, फावड़ा चलाना, व पुलिस मैन की गालियां सुनना आदि, इन सब बातों से वह सेठ अपने को बड़ा दुःखी अनुभव कर करके रोया करता था। वह सेठ अपने घर के ऐश आराम के सारे साधनों का ख्याल करके और भी अधिक रोता था। उसकी ऐसी दशा देखकर किसी दूसरे कैदी को सेठ पर दया आयी और सेठ के पास आकर बोला―सेठ जी आप यह तो बताइये कि इस समय आप कहाँ हैं? तो सेठ बोला--जेल में। ― क्या करना होता है जेल के अंदर? ― बस यही चक्की पीसना, झाडू गुहारू करना, भूख प्यास, गाली आदि के दुःख सहना। ― तो फिर क्यों व्यर्थ में दुःखी होते और रोते? अरे यह कोई ससुराल या अपना निजी घर तो है नहीं कि जैसे चाहे आराम से रहो। यहाँ जेल में तो यही करना होता है। तो सेठ की समझ में वह बात आ गई और उसका दुःख बहुत कुछ कम हो गया। वह सेठ उस जेल के अंदर सारे काम भी करता था फिर भी वह अपने अंदर कोई कष्ट नहीं मान रहा था, क्योंकि वह समझ चुका था कि जेल के अंदर तो ऐसा ही करना पड़ता है। तो ऐसे ही यह संसार दुःखमय है। यहाँ यह क्यों सोचना कि मेरे को कष्ट न आये। क्या ऐसा हो सकता है कि संसार में रहें और कष्ट न आये? नहीं हो सकता। तब फिर क्या सोचना चाहिए कि हे प्रभो मेरे को ऐसा ज्ञान―प्रकाश मिले कि कितने ही कष्ट आयें उनमें घबड़ायें नहीं। उनसे उपेक्षा करके मैं किसी आनंदधाम में पहुचूँ, याने सहनशीलता माँगूं प्रभु से, कष्ट न हो यह बात मत माँगे, क्योंकि यह बात बनेगी नहीं संसार में रहते हुए, और सहनशीलता माँगें तो फिर कितने ही प्रकार के कष्ट आयें फिर भी उनमें विह्वलता न होगी, सहनशीलता प्राप्त होती है तत्त्वज्ञान से। तो ज्ञान ही एक श्रेष्ठ तत्त्व है जिसके बल से कर्मों का संवर होता, कर्मों की निर्जरा होती। यह ही भावना बनाइये कि मेरे को तत्त्वज्ञान जगे जिससे कि कर्मों का संवर और निर्जरा हो। निर्जरातत्त्व की भावना में शुभभाव―शुभभाव कौन होते हैं उनका संक्षिप्त वर्णन चल रहा है। बारह भावनाओं के संबंध में मनन करना शुभभाव है। (9) निर्जरा तत्त्व―झड़ने का नाम निर्जरा है। झड़ना? कहा तो यह है कर्म का झड़ना, पर कर्म के झड़ने का अर्थ यह है कि कार्माण वर्गणाओं में कर्मत्व का निकल जाना, झड़कर कहाँ जायेंगे? विस्रसोपचय रूप में जीव के साथ रह गए, तो क्या वह झड़ना नहीं कहलाया? रहे आवो जीव के साथ, पर उनमें से कर्मत्व निकल गया तो वह झड़ जाना कहलाता है। जैसे घर में दो चार व्यक्ति रह रहे हैं तो रहे जायें, मगर किसी एक का किसी अन्य से अनबन है, मुख भी नहीं देखना चाहता तो वह घर में रहना क्या कहलाया, न रहना ही कहलाया। ऐसे ही जीव के साथ जो कार्माण-वर्गणायें कर्मरूप बन गई थीं वे अब कर्मरूप नहीं रहती, यह ही उनका झड़ना है। सो कैसे निर्जरा होती है? अपने स्वभाव की दृष्टि रखने से। जैसे कोई महिमान है और उससे बहुत प्रीति बढ़ाई जाय घर जैसी तो वह उस घर खूब रहेगा, बड़े आनंद से रहेगा और किसी से यदि प्रीति ही न दिखाई जाय तो वह घर आयगा ही क्यों? तो ऐसे ही समझो कि ये कर्म महिमान यहाँ आये हैं, इनमें लगाव लगायें तो ये घर में जम जायेंगे और जमे हुए भी हों पहले से ये कर्म-महिमान और उनसे उपेक्षा हो जाय, उनसे विमुख होकर अपने स्वभाव में लग जायें तो वे भी भाग जायेंगे। महिमान कहते हैं उसे कि जिसकी महिमा न, जिसका कोई बड़प्पन नहीं। घर के छोटे बच्चे का जैसे दिल में जमाव है क्या उस भाँति रिश्तेदार का जमाव बनता है? नहीं बनता, इसलिए उसे महिमान कहते हैं। महिमान मायने जिसकी कोई महिमा नहीं, कुछ बड़प्पन नहीं और नातेदार मायने ना मायने नहीं, ते मायने वे और दार मायने संबंधी, याने जिससे अपना कुछ संबंध नहीं उसे कहते हैं नातेदार। लोग तो यह कहते हैं कि मान न मान मैं तेरा महिमान याने तुम मुझे मानो या न मानो पर मैं तुम्हारा महिमान हूँ। ये सब चाहे चेतन हों चाहे अचेतन आपके कोई नहीं लगते। आप ही मोह बनाकर उनके प्रति लगते हैं। तो कर्मों के प्रति कर्मरस के प्रति यदि उपेक्षा है और स्वभाव की ओर दृष्टि है तो ये कर्म झड़ जाते हैं। विकार की औपाधिकता के परिचय से विकार से हटने व स्वभाव में जुटने की प्रेरणा―ज्ञानी जानता है कि ये विकार, ये रागद्वेष भाव, ये कषाय, यह कर्मरस की झलक है। जैसे जिस रंग का कपड़ा दर्पण के सामने हो दर्पण में वैसी ही झलक आती है ऐसे ही जिस प्रकृति का उदय हो वैसी ही प्रकृति इस आत्मा में प्रतिफलित होती है। तो दर्पण में आयी हुई फोटो को सब जानते हैं कि दर्पण की चीज नहीं। यह तो सामने कपड़ा आया तो फोटो आ गया, तो ऐसा अपने भीतर क्यों नहीं समझना चाहते कि ज्ञाता दृष्टा रहने के अलावा जो कुछ भी विकल्प बनते हैं, जो भी कषायें जगती हैं वह सब की सब कर्म की फोटो है। मेरी चीज नहीं है और फोटो तो आयी पर जब उसमें लग बैठे तो अज्ञानी ने अपनी चीज मान ली। मान ली सो उसकी हो थोड़े ही गई पर यह जीव दुःखी होता है जैसे किसी दुष्ट से प्रेम जताये तो उसका फल बुरा निकलता है ऐसे ही दुष्ट स्वभाव वाले इन कर्म रसों से कोई लगाव जताये तो उसका फल बुरा ही निकलता है। क्या फल बुरा निकला? संसार में अब तक जन्म मरण करते चले आये, बताओ यही जन्म मरण करते रहना पसंद है क्या? तो आगे के जन्म मरण के लिए तो भले ही यह कह दे कि हाँ हमको जन्म मरण पसंद नहीं यह तो बड़ी खराब बात है कि जन्मेंगे फिर मरेंगे यों परंपरा जन्म मरण की चलती रहेगी, मगर वर्तमान जो जन्म है उस जन्म से तो उपेक्षा नहीं हो रही जो वर्तमान संयोग है उसे तो यह भला मान रहा है तो फिर आगे के जन्म मरण क्यों न होंगे? जिनको जन्म मरण न चाहिए वे यहाँ के इन मायावी समागमों को असार जानकर उनसे विरक्त रहें। अगर विरक्त नहीं रह सकते तो दुःखी होना ही होगा। तो निर्जरा क्या कि कर्मोदय में आये और उनके प्रति लगाव न रखें, दृष्टि रखें परमात्मस्वरूप की ओर तो वे कर्म झड़ेंगे और ऐसा झड़ेंगे कि फिर वे नवीन कर्म बँध न कर सकेंगे। जो अव्यक्त बंध हो उसकी यहाँ गिनती नहीं है, क्योंकि बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ में जो होता है चर्चा उसी की की जाती है। निर्जीर्ण कर्म का पुनः जीव में अबंधन―जब जीव के ज्ञान जगता है तो कर्म जो झड़े वे फिर इसमें कैसे आ सकेंगे? जैसे फल पक जाय और वह वृक्ष से गिर जाय तो वह पका फल फिर वृक्ष में कैसे लग सकता हैं? जिसने यह जाना कि ये कषाय, ये कर्मरस ये सब जड़ हैं, पौद्गलिक हैं, असार हैं, अज्ञानमय हैं। मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा निर्णय रखने वाले के वे कर्म झड़ गए फिर इसमें कैसे लग सकते? अब यह उन कर्मरसों को अपना स्वरूप नहीं मान सकता। यों कर्म झड़ जाते हैं। कोई धोती धोई और खूँटी पर सूखने डाल दिया और खूँटी से गिर गई तो उसमें धूल चिपक गई। तो गैर समझदार क्या करता है कि उस धोती की धूल हाथ से छुटाता है, पर समझदार लोग क्या कहते हैं कि तुम उस धूल को छेड़ो मत, उसे यों ही सूखने के लिए डाल दो। जब सूख जायगी तो सारी धूल झिटका देने मात्र से स्वयं ही झड़ जायगी। तो जैसे धोती की गीलाई, चिकनाई दूर हो गई, धोती सूख गई तो उसमें धूल चिपकी नहीं रह सकती, वह तो झड़ जायगी, इसी प्रकार राग, मोह की गीलाई से जो कर्म इस जीव के साथ चिपके हैं वे इस राग मोह के सूख जाने पर तड़-तड़कर झड़ ही जायेंगे। कर्म वहाँ चिपके नहीं रह सकते। कर्मों का बड़ा बोझ है इस जीव पर। कभी पुण्य का उदय आता और उसमें यह मस्त हो गया तो कर्म का बोझ और भी बढ़ गया, पाप का उदय आया तो उसमें यह खेद खिन्न हो गया, अपने को दुःखी अनुभव करने लगा तो कर्म भार और भी बढ़ेगा, जो सुख दुःख में समता रखता है उनके कर्मभार नहीं बढ़ता। तो निर्जरा तत्त्व एक सारभूत अपना कदम है। इससे यह शिक्षा मिली कि कर्मशत्रु को झड़ाने के लिए विभावों से, विकारों से हटना है और अपने स्वभाव में लगना है। लोकभावना में शुभभाव―(1॰) लोकभावना―इस लोक में कोई सा भी स्थान ऐसा नहीं जहाँ यह जीव अनंत बार जन्मा न हो और मरा न हो। जहाँ हम आप बैठे हैं यहाँ भी अनंत बार जन्म मरण कर चुका यह जीव। उसका कारण है अज्ञान। अज्ञानवश यह जीव लोक में सर्वत्र अनंत बार जन्मा और मरा, पर इसका निस्तार नहीं हुआ। यह लोक क्या है? सब द्रव्यों का समूह। शब्द के अर्थ से अगर चलें तो बहुत सी समस्याओं का हल हो जाता है। लोक मायने क्या? लोक-लोक्यंते यत्रद्रव्याणि लोकः जहाँ समस्त द्रव्य देखे जायें उसे लोक कहते हैं। लुक धातु से लोक बना, उसका अर्थ है देखना। तो ये सब द्रव्य जहाँ देखे जायें उसे कहते हैं लोक। तो देखे ही तो गए कि किसी के द्वारा बनाये गए? जो सत् हैं वह हैं ही, उसे बनाना क्या? जो नहीं हैं बिल्कुल उसे किसी तरह बनाया ही नहीं जा सकता। तो ऐसे अनादि निधन इस लोक में अज्ञानवश यह जीव दुःख का बोझ उठाता रहा। अब अपने मन की सम्हाल करे, विकारों से प्रीति तजे, स्वभाव के अभिमुख हो तो यह लोक का परिभ्रमण मिटेगा। अन्यथा इस लोक में भ्रमते ही रहेंगे और दुःखी होते ही रहेंगे। माया में मोह करने की मूढ़ता―एक बात और भी सोचिये इस भव में आये, अब इस भव से पहले भी कुछ थे ना? चाहे मनुष्य हों चाहे तिर्यंच हों, कुछ न कुछ अवश्य थे। तो जब थे तब क्या इस जन्म की बात समझ में आ रही थी कि मेरा यह गाँव है, मेरा यह घर है, मेरे ये परिजन हैं ― ? और अब से पहले भव में यदि कुछ भी मैं न था तो मेरे लिए ये कुछ भी तो न थे और इस भव के बाद मरण के बाद जिस भव में जायेंगे, पहुंचेंगे वहाँ मेरे लिए कुछ होगी क्या यहाँ की बात? कुछ भी नहीं। तो यह सब थोड़े दिनों का स्वप्न है जो न पहले कुछ न बाद में, कुछ, और थोड़े समय को जच रहे कुछ, तो वह तो एक स्वप्न है। वह है नींद का स्वप्न और यह है मोह का स्वप्न। एक आदमी को स्वप्न आया कि मुझ पर राजा बड़ा प्रसन्न हो गया और मुझे 1॰॰ गायें इनाम में दे दी। अब स्वप्न में ही उन 1॰॰ गायों को देख देखकर वह बड़ा खुश हो रहा था। स्वप्न में ही वह क्या देखता है कि कोई एक ग्राहक गायें खरीदने आया। उसे 1॰ गायें चाहिये थीं। सो पूछा बैठा―भाई गायें बेचोगे? ― हाँ-हाँ बेचेंगे? कितने-कितने में दोगे? ― 1॰॰-1॰॰ रुपये में। ― क्या 5॰-5॰ रुपये में न दोगे? ― नहीं, 1॰-1॰ रुपये में दे देंगे। ― अच्छा 6॰-6॰ रुपये में बेच दो। ― नहीं, 8॰-8॰ रुपये में दे देंगे। अच्छा 7॰-7॰ रुपये में बेचो तो खरीद लें। ― 7॰-7॰ में नहीं बिकेंगी। ―अच्छा तो हम नहीं लेते यह कहकर चल दिया तो वह आवाज देकर पुकारने लगा―अच्छा भाई लौट आवो, चलो 7॰-7॰ रुपये में ही ले लो। इतने में ही उसकी नींद खुल गई और क्या देखता है कि वहाँ तो कुछ भी न था। वह सब स्वप्न की बात थी। वह उस समय बहुत-बहुत अपनी आँखें मींचने लगा कि फिर नींद आ जाय और वैसी ही स्वप्न जैसी बात दिख जाय, पर कहाँ दिख सकती। तो ऐसे ही समझो कि आज को कुछ वर्तमान में मिला है वह न पहले आपका कुछ था न वर्तमान में कुछ है, न बाद में कुछ आपका रहेगा, यह सब थोड़े समय का समागम है। इस समागम में मुग्ध मत हो। एक ऐसा साहस बना लेना चाहिए कि ये सब दृश्यमान पदार्थ मेरे कुछ नहीं हैं। आज जिनको अपना माना जा रहा है बताओ वे अब से पहले भव में आप के कुछ थे क्या? आगे भी कुछ रहेंगे क्या, और इस भव में भी कुछ हैं क्या? ये तो कल्पना से मान रहे कि ये तो मेरे हैं और ये पराये हैं। तो दो तरह का कठिन व्यवहार चल रहा। जिनको माना कि ये मेरे नहीं उनसे तो एकदम दृष्टि हट गई और जिनको माना कि ये मेरे हैं उनके लिए अपना तन, मन, धन, बचन सर्वस्व अर्पण करने को तैयार हो जाते। तो अज्ञानवश यह जीव इस लोक में भ्रमण करता है और कष्ट पाता है। इस भवभ्रमण से घुटने का उपाय क्या है? विकार से हटना और स्वभाव में लगना। बोधिदुर्लभ भावना में शुभभाव―(11) बोधिदुर्लभ भावना, बोधि कहते हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को, रत्नत्रय का नाम बोधि है। इस लोक में बोधि दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र, अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप का विश्वास, आत्मा के यथार्थ, स्वरूप का ज्ञान और आत्मा में ही अपने ज्ञान का रमण, यह स्थिति दुर्लभ है, बाकी दुनिया में कुछ चीज दुर्लभ नहीं। धन कन कंचन राज सुख सब ही सुलभ कर जान। दुर्लभ है संसार में एक यथारथ ज्ञान।’’ यहाँ सब कुछ मिलना सुगम है पर रत्नत्रय का लाभ मिलना दुर्लभ हैं। और एक बार लाभ हो जाय ज्ञान का तो फिर यह संसार के संकटों से पार हो जायगा, और ज्ञान नहीं हैं तो चाहे करोड़ों का भी वैभव हो, राज्य भी मिल गया हो तो भी उसका क्या बड़प्पन? आखिर राजा भी तो मरकर पीट बन जाता, तो उस राजापने का क्या बड़प्पन? बड़प्पन सब कुछ अपने आप में है, निहार लो। लेकिन खेद की बात तो यह है कि यह अपनी पर्याय बुद्धि की हठ से रंच भी हटना नहीं चाहता। जिंदगी गुजर गई, थोड़ी उम्र रही। बुढ़ापे के सम्मुख है, पर खुद के अंदर विचारें कि मोह में कुछ अंतर आया कि नहीं। भले ही उम्र बढ़ती जा रही, और-और कलायें भी आ गईं, पर यह तो निहारो कि अब तक 1॰-2॰-5॰ दशलक्षण पर्व भी कर चुके होंगे पर यह तो देखिये कि मुझमें कुछ मोह की मात्रा कम हुई या नहीं। जिन परिजनों को अपना मान रखा उन पर उतना ही मोह रहता है या कुछ भेद ज्ञान भी पाया है, कुछ प्रकाश भी पाया है। परिजनों को हैरान करने की बात नहीं कर रहे, काम सब वही होंगे जब तक कि घर में रहेंगे, पर एक ज्ञानप्रकाश हो गया तो उसका इतना अंतर आयगा कि उसके अब खोंटी प्रकृतियों का आश्रव नहीं होता। तो यथार्थ ज्ञान होना दुर्लभ हैं, पर यथार्थ ज्ञान के प्रति रुचि उसके ही हो सकती है जिसका होनहार भला है। जिसका होनहार भला नहीं उसको यथार्थ ज्ञान के प्रति रुचि नहीं जग सकती। उसके लिए तो ज्ञान की चीज कुछ कीमत ही नहीं रखती। मानो कि वह केवल फोकट की ही बात है। मगर तिरेंगे तो ज्ञान द्वारा ही तिरेंगे, और ज्ञान में रुचि जगेगी, ज्ञान के प्रति आदरभाव होगा, ज्ञान के लिए हम अपना सर्वस्व समर्पण करने का साहस रख सकेंगे तो यह संस्कार केवलज्ञान का बीज बनेगा। उस ज्ञान से प्रेम होना बहुत दुर्लभ है। जिसको ज्ञान प्रकाश हुआ है वह विकार से हटकर स्वभाव में लगता है। धर्मभावना में शुभभाव―(12) धर्मभावना―धर्म हितकारी है, धर्म शरण है। धर्म का स्वरूप यह है जो सहज अविकार चैतन्य स्वरूप है, इसकी ओर दृष्टि होना, इसका चाव होना सो धर्म भावना है। देखिये―ज्ञानरुचि जगे बिना धर्म रंचमात्र हो ही नहीं सकता। चाहे सुबह से शाम तक कोई पूजा करे, बड़ी-बड़ी बातें बनावे, और-और तरह की सेवायें करे, सब कुछ भी कर ले, बड़े-बड़े तप भी कर ले, मगर जब तक अपने इस सहज अविकार ज्ञानस्वभाव के प्रति रुचि नहीं बनती तब तक धर्म लेशमात्र भी नहीं हो सकता। अब रही पुण्य की बात तो पुण्य हो जाय, पुण्य तो अन्य रीतियों से भी होता है, जैसे भूखों को खिलाने से भी पुण्य होता है, और-और भी पुण्य के कारण होते हैं। एक पुण्य का साधन यह भी बना लिया जाता कि जो 8-1॰ दिन पर्व के दिनों में धार्मिक क्रियायें कर लेते हैं, पर उन क्रियाओं के करने वाले यदि ज्ञान के प्रति रुचिवंत हैं तो समझो उन्होंने धर्म किया और यदि ज्ञानस्वभाव के प्रति रुचि नहीं है तो समझो कि उन्होंने लेशमात्र भी धर्म नहीं किया। पुण्य करके थोड़ा संतोष हो जाय तो समझ लो कि यह उनकी कल्पना है मगर ज्ञानहीन ये क्रियायें ये मोक्ष के हेतुभूत नहीं बन सकती। तो भला बतलाओ इतना सुगम उपाय, अपने ज्ञानस्वरूप की दृष्टि होना, जो कि अपने आधीन है, अपनी ही दृष्टि से पाया जा सकता है उसको तो कोई करे नहीं और अनेक प्रकार के कष्ट सहे तो यह तो कोई भली बात नहीं। यथार्थ ज्ञानप्रकाश का लाभ होने पर सत्क्रियावों का महत्त्व―एक यह ज्ञान प्रकाश ही कोई पा ले तो समझो कि जितनी बिंदियाँ हम धरेंगे, (ये बाहरी क्रियाकांड सब बिंदियाँ हैं) उतना ही इनका महत्त्व बन जायगा और एक ज्ञानस्वभाव की दृष्टि न बने तो बाहरी क्रिया का यह अन्य-अन्य तपश्चरण आदि की कितनी ही बिंदियाँ धरते जायें, पर उन सारी बिंदियों के जोड़ में एक भी संख्या नहीं आ पायी। और यदि एक (1) का अंक है उसमें एक बिंदी (॰) धर दी गई तो दस गुनी उसकी कीमत हो गई, और उसमें एक बिंदी और धर दी गई तो 1॰॰ गुनी कीमत हो गई। यों जितनी भी बिंदियाँ उसके आगे रखते जायेंगे उतनी ही अधिक कीमत उसकी बढ़ती जायगी। तो ऐसी ही बात यहाँ समझो, अगर अपने आत्म तेज का ज्ञान यह मुख्य तत्त्व अगर दृष्टि में है तो आप जो कुछ भी क्रियायें करेंगे वे सब मोक्षमार्ग में वृद्धि करायेगी और एक यही बात नहीं है तो फिर चाहे कितनी ही क्रियायें कर ली जायें, मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए जरा भी प्रगति नहीं की जा सकती। धर्म कहते किसे हैं? ‘‘जो भाव मोह तैं न्यारे, तप ज्ञान व्रतादिक सारे, सो धर्म।’’ यह ही धर्म है। मोह राग द्वेष से अलग ज्ञानमात्र जो स्थिति हैं वही धर्मपालन हैं। जहाँ धर्म है वहाँ नियम से शांति है। धर्म का फल ही है शांति। कहीं ऐसा नहीं है कि धर्म तो अब किया और उसका फल मिले बहुत काल बाद। अरे धर्म करने का फल तो तुरंत ही प्राप्त हो जाता है। धर्म किया कि शांति प्राप्त हुई हाँ पुण्य में तो यह बात अवश्य है कि पुण्य आज किया और फल मिलेगा कुछ काल बाद। जैसे मान लो यहाँ पुण्य करके देवगति का बंध किया तो तुरंत तो उसका फल न मिल पाया मगर धर्म करने का फल तत्काल ही मिल जाता है। जिसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप में वृत्ति है उसे अशांति कहाँ? उसके तो कर्म तत्काल झड़ रहे हैं। तो धर्म का बहुत अद्भुत प्रभाव है। धर्मरहित जीव का दुष्परिणाम―जो धर्म न करेगा उसकी दुर्गति निश्चित है। इस संबंध में एक कथानक है कि कोई राजा रानी थे। उनमें रानी तो थी धर्मात्मा और राजा धर्म कर्म को कुछ नहीं मानता था। सो रानी ने उसे बहुत-बहुत समझाया कि देखो धर्म किया करो। अगर धर्म न करोगे तो मरकर ऊँट बनोगे। आखिर हुआ भी वैसा हे। वह रानी तो मर कर एक बादशाह की लड़की बनी और वह राजा मरकर उसी बादशाह की पशुशाला में ऊँट बना। वह ऊँट देखने भालने में बड़ा सुंदर था। जब वह लड़की सयानी हुई तो बादशाह ने उसका विवाह किया। विवाह में दहेज में उस बादशाह ने सब कुछ दिया, साथ में वह ऊँट भी दे दिया। अब लड़की के ससुर ने सोचा कि इस ऊँट की पीठ पर क्या चीज लाद दी जाय, उसे खाली जाना शोभा नहीं देता, तो उस लड़की का सारा सामान (धोती, लहंगा, गहना आदिक) सब उस ऊँट की पीठ पर लाद दिया। खैर कुछ दूर तो वह ऊँट चलता गया पर रास्ते में उसे जाति स्मरण हो गया―अरे यह तो मेरी पूर्वभव में स्त्री थी जिसका सारा सामान मेरी पीठ पर लदा है, सो स्त्री का सामान मेरी पीठ पर, इस बात का ख्याल उसे बार-बार हैरान कर रहा था, सो वह आगे बढ़े ही नहीं। सभी ने बड़ा प्रयास किया, काफी मारा पीटा भी फिर भी आगे न बढ़ा। सभी लोग काफी हैरान हो गए पर वह आगे बढ़े ही नहीं। उसी समय उस लड़की को भी जाति स्मरण हो गया और वह समझ गई कि यह ऊँट क्यों नहीं आगे बढ़ रहा। सो वह लड़की बोली--सभी लोग अलग हो जावें, मैं इस ऊँट को समझाये देती हूँ, तब यह आगे बढ़ेगा। सभी लोग अलग हो गए। वहाँ लड़की ने ऊँट के कान में कहा--देखो मैं तुमसे बार-बार कहा करती थी कि धर्म करो, धर्म करो, नहीं तो मरकर ऊँट बनोगे, पर तुमने हमारी बात नहीं माना सो देखो तुम्हें ऊँट ही बनना पड़ा। अब हम यहाँ किसी के सामने किस मुख से कहें कि यह मेरे पति हैं, इन पर मेरा सामान न लादो। अब तो भलाई इसी में हैं कि बस रहे चलो। यह बात सुनकर ऊँट की समझमें आ गया और आगे चलता गया तो भाई इस कथानक से अपने लिए शिक्षा की बात यह लेना कि जो धर्म के विरुद्ध चलेगा याने अपने जीवन में धर्म का महत्त्व न देगा, अपने जीवन में अधर्म का आदर करेगा उसकी दुर्गति निश्चित है। अतः धर्मधारण करना ही योग्य है। रत्नत्रय की भावना में शुभभाव―पहले बताया था कि अशुभभाव से तो नरकगति होती है और शुभ भाव से स्वर्ग सुख होता है, उसी सिलसिले में अशुभभाव का वर्णन किया गया था और अब शुभभाव का वर्णन चल रहा है, शुभभाव क्या है, इस संबंध में बहुत कुछ कहा गया। अब बतलाया जा रहा है कि रत्नत्रय के स्वरूप में जो वर्तन करता है वह शुभ भाव कहलाता है। रत्न कहते हैं श्रेष्ठ को। पत्थर का नाम रत्न नहीं हैं, किंतु जो श्रेष्ठ हो उसे रत्न कहते हैं यज्जाते श्रेष्ठं तद रत्नं, जो जिस जाति में श्रेष्ठ है वह उस जाति का रत्न है। अगर रत्न नाम पत्थर का होता तो जो रत्न की उपाधि दी जाती―जैसे धर्मरत्न, जैनरत्न, श्रावकरत्न, आचार्यरत्न आदिक तो क्या उसका अर्थ यह होगा―श्रावक पत्थर आचार्य पत्थर? अरे श्रेष्ठ को रत्न कहते हैं। तो ऐसा वह रत्न क्या है, श्रेष्ठ तत्त्व क्या है? तो वे हैं तीन―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इनके बिना मोक्ष नहीं हो सकता। सम्यग्दर्शन के मायने तो मौलिक बात यह है कि अपने आत्मा का जो अविकार चैतन्य स्वरूप है उसमें यह ही मैं हूँ। ऐसा अनुभव बनना और यह ही हितरूप है, ऐसी रुचि जगना और इस तत्त्व का विस्मरण न होवे ऐसी प्रतीति रहना यह सम्यक दर्शन है। इस जीव ने अब तक सम्यक्त्व नहीं पाया इस कारण संसार में रुल रहा है। सम्यक्त्व बहुत बड़ा वैभव है, मगर यह संसार कभी खाली होने का नहीं है सो तो जीव इतने भरे हैं अनंतानंत कि अनंत भी मोक्ष जायें तो भी अनंत रहने हैं लेकिन मोक्ष जाने वाले विरले होते हैं। जिसको धर्म के प्रति रुचि जगी हैं, जिसने इस आत्मतत्त्व की चर्चा भी सुनी है प्रेमपूर्वक वह निश्चित भव्य हैं, ऐसा पद्मनंदि पंचविंशति में आचार्य देव ने एकत्व सप्तति अधिकार में बताया है, पर जिनका होनहार संसार में रुलते रहने का है उनको आत्मचर्चा सुहाती ही नहीं है। उनको धर्मचर्चा सुनने का भाव ही नहीं जगता। उपयोग लगा रहता है बाह्य पदार्थों में। बहिस्तत्त्व के संपर्क से शांति की असंभवता―अच्छा एक यह ही निर्णय बनावें कि ऐसा वर्तमान में कौन सा उपाय है कि इसी समय शांति मिल जाय। कोई कहे कि परभव हम मानते नहीं, परभव देखा नहीं किसी ने और आगे का क्या कहना, क्या हो क्या न हो, तो उसे वर्तमान में शांति किस तरह मिल सकती, यह ही सोचकर बतलाओ। क्या पंचेंद्रिय के विषयों के भोगने में इस वक्त भी अशांति हैं? अरे उसमें कितनी हैं आपत्तियाँ हैं। साधन जुटाया तो वे जुटे हुए साधन कहीं बिगड़ न जायें, नष्ट न हो जायें। उनको भोगने के लिए इंद्रियाँ भी समर्थ चाहिए। तब कहीं वह इंद्रिय सुख प्राप्त होता है। मगर वह काल्पनिक सुख है। तत्काल ही नष्ट हो जाता है। इसमें वास्तविक शांति नहीं। और भी खूब सोचिये―धन का पहाड़ बनाकर उसके सामने रख दिया जाय तो क्या उससे शांति हो जायगी? बताते हैं कि अमेरिका में जो फोर्ड नाम का महान धनिक व्यक्ति है, जिसके पास मोटर का इतना बड़ा कारखाना है कि जिसमें हजारों लाखों की संख्या में लोग काम करते हैं और प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में मोटरें बनती हैं वह भी सुखी नहीं है। वह भी जब छोटे-छोटे कर्मचारियों को हँसते, गाते, खुश रहकर काम करते हुए देखता है तो उसके मन में भी इस प्रकार की ईर्ष्या हो जाती कि देखो हमसे तो ये मजदूर लोग मजे में हैं। इन्हें कोई फिक्र नहीं, आराम से कमाते खाते और खुश रहते हैं, यहाँ हमें अनेक प्रकार की चिंतायें करनी पड़ती, विश्राम करने की भी फुरसत नहीं ― तो बताओ इस धन वैभव से शांति मिलती है क्या? तो शांति का उपाय धन दौलत नहीं। शांति का उपाय आत्मज्ञान―शांति का उपाय है केवल आत्मज्ञान। ज्ञान सिवाय शांति का कोई दूसरा उपाय नहीं, वैभव नहीं। आत्मा का सर्वस्व ज्ञान ही है। अब इस ज्ञान की जिसको रुचि नहीं, उमंग नहीं, पाये हुए समागम का समर्पण मात्र कुटुंब के लिए है, इस ज्ञानतत्त्व के प्रचार प्रसार या अभ्यास के लिए न तन है। न मन है, न धन है, न वचन है, रुचि ही नहीं है, ऐसे प्राणी पवित्र कैसे बनेंगे? यदि ज्ञान चाहिए तो ज्ञान के प्रति रुचि चाहिए। ज्ञान के लिए तीव्र रुचि है तो यह ही संस्कार केवलज्ञान का बीज बनेगा। तो ज्ञान ही आत्मा का सर्वस्व शरण है। उस सहज ज्ञान में यह मैं हूँ, ऐसा अनुभव बने तो वहाँ सम्यग्दर्शन समझिये―सम्यग्दर्शन हुआ कि वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जो ज्ञान था पहले वह अनुभवरहित था, उसमें दृढ़ता न थी, एक परोक्ष जैसा था। अनुभव बनने के बाद, सम्यक्त्व होने के बाद वह सुसम्वेदन प्रत्यक्ष बन जाता और इस ज्ञान में दृढ़ता आ जाती है, तत्त्व इसी प्रकार ही है, तो सम्यक्त्व के होने से ज्ञान भी सम्यक् बनता और चारित्र भी सम्यक् बनता। चारित्र नाम यथार्थतया शुद्ध ज्ञान की स्थिरता का है। ज्ञातादृष्टा, एकोहं, मैं ज्ञाता हूँ, दृष्टा हूँ, एक हूँ, सो इस ज्ञातापन और दृष्टापन की धारा बन जाय, वही तो चारित्र है। तो सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र, स्वरूप के प्रति जिसको रुचि है और यही मात्र अभिलाषा है, इसकी भावना है तो वह शुभ भाव है। निकटभव्यों को सन्मार्ग दर्शन―आत्मा में भीतर की ग्रंथि खुल जाना और स्पष्ट मार्ग नजर आना यह निकट भव्यजनों को प्राप्त होता है। सम्यक्त्व हुआ तो उसे चारित्र का मार्ग दिख गया। मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए उपाय नजर आ गया और दुःख से छुटकारा पाने का उपाय नजर आ जाय, चाहे उस पर चल भी न सके तो भी उस व्यग्रता नहीं रहती, निराकुलता ही रहती है। जैसे कोई पुरुष शाम के समय अपने गाँव को जा रहा हो अपरिचित जगह से और रास्ते में किसी जंगल में फंस जाय, हो गई रात, 1॰-11 बज गए, चलता ही जा रहा इस आशा से कि मैं इस जंगल से अलग होकर किसी रास्ते पर आ जाऊँगा, पर भयानक जंगल, बहुत बड़ा जंगल, वह नहीं आ पाता है किसी रास्ते पर, पर इतना विवेक कर लेता है कि मैं अब अधिक आगे न बढूं। जितना चल गया बस यहीं तक ही रहूँ, फिर सुबह होगा, देखा जायगा। वह रुक गया भयानक जंगल में। इतने में मेघों में एक बिजली चमकी, जिससे प्रकाश हो गया और उस प्रकाश में उसे सड़क दिख गई। बिजली तो समाप्त। जंगल में वह वहीं का वहीं बैठा है। कुछ चल भी नहीं पा रहा है मगर मार्ग चूँकि उसे दिख गया इस कारण वह निराकुल है। सुबह होगा बस वही तो मार्ग है, उससे चला जाऊँगा। तो मार्ग का दिख जाना यह निराकुलता का संपादक है। तो मार्ग दिख गया, दृढ़ता से जान लिया यह तो है सम्यग्दर्शन और तद्विषयक जो ज्ञान चल रहा वह है सम्यग्ज्ञान। और सम्यग्ज्ञान, सहज ज्ञान की दृष्टि निरंतर रहे यह कहलाया सम्यक्चारित्र। सो जो रत्नत्रय के स्वरूप में अपना चिंतन मनन करता है वह शुभ भाव कहलाता है। आर्यकर्म में, देवपूजा में शुभभाव―आर्य कर्म भी शुभभाव हैं, श्रेष्ठ काम हैं, जैसे गृहस्थी को बताये गए देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इनमें वृत्ति चलना यह शुभ भाव हैं। वीतराग सर्वज्ञ देव की वंदना, पूजा, गुणस्मरण, ये शुभ भाव हैं, जिनमें विषय कषाय न पोषे जायें और रत्नत्रय से संबंध हो वे सब शुभ भाव कहलाते हैं। अब देवपूजा करके विषय कषायों को कौन पोषता है और यदि कोई पोषता है, जैसे मेरा यह काम बन जाय जो मैं प्रभु पर छत्र चढ़ाऊँगा या अमुक तीर्थ की वंदना करूँगा या वंदना करके सोचे कि भगवान मेरा यह कार्य बन जाय, मुकदमें का विजय हो जाय या जो भी लाभ चाहता हो, तो इस भाव को अशुभ भाव कहते हैं। भले ही वह तीर्थ में खड़ा, मंदिर में खड़ा मगर उस भाव से पुण्य नहीं बँधता बल्कि पाप बँधता है। तो जिसके विषय कषाय पोषने का भाव हुआ वह सब अशुभ भाव हैं। कोई कहे कि कुदेवों को पूजते थे तो उससे तो बच गए और अपने देव की मान्यता कर रहा। अपना कोई स्वार्थ चाहता तो उससे तो अच्छा है, तो भले ही आगे सुधर सके उस संभावना में अच्छा कह लिया जाय मगर जैसे वह कुदेवों को पूजता था तो यहाँ अरहंत की मूर्ति को भी कुदेव बनाकर पूज रहा है, क्योंकि जिसका स्वरूप ऐसा सोचा जाय कि ये मुझको मुकदमा जितायेंगे, ये मुझको संपदा देंगे, इनकी कृपा से पुत्र हो जायगा, ऐसा उनका स्वरूप माना तो उसने तो कुदेव बना दिया। सबके लिए कुदेव की मूर्ति नहीं हैं, पर उसने तो अपने मन में उस मूर्ति का, उस प्रभु का ऐसा स्वरूप सोचा दो देव के स्वरूप से विपरीत हैं तो वहाँ उसे पुण्य कैसे लगा? धर्म कहाँ लगा जो सांसारिक सुख की इच्छा रखता है प्रथम तो वही पाप है और फिर धर्मसाधना करके सांसारिक सुखों को चाहता है तो वह तो निदान नाम का आर्तध्यान है, वहाँ पुण्य की आशा न कीजिए। पुण्य वहाँ होता है जहाँ विषय कषायों का पोषण नहीं, किंतु कुछ निर्मल भाव बने। (1) तो देवपूजा यह श्रावक का कर्तव्य है और विवेकसहित देवपूजा में बर्ते तो वह शुभ भाव है। गुरुसेवा व स्वाध्याय की क्रियावों में शुभ भाव―(2) गुरुसेवा रत्नत्रय के धारक आत्मतत्त्व की ही जिसको धुन है, अपने आपके उपयोग में यह सहज अविकार आत्मस्वरूप समाये ऐसा जिसका प्रयत्न है, ऐसे गुरुराज की जो सेवा करना है वह शुभभाव है। शुभभाव से पुण्य बंध होता है। उनके उदय में स्वयं इष्ट समागम मिल जाते हैं, पर गुरुसेवा करके सांसारिक सुखों की आशा रखना कि इस सेवा के प्रसाद से मुझे अमुक सांसारिक सुख मिले, तो वह धर्म का अंग नहीं, किंतु वह तो पाप का ही बंधक है। गुरु सेवा होती रत्नत्रय की प्रीति से, और गुरु में रत्नत्रय की झलक दिखती रहे। ऐसे भाव को शुभ भाव कहते हैं। (3) तीसरा श्रावक का कर्तव्य है स्वाध्याय। स्वाध्याय बिना इस उपयोग को कौन सम्हाल सकेगा? यह तो मोक्षमार्ग में गमन करें उसमें साधक है आगम ज्ञान। वह होता है स्वाध्याय से। सो 5 प्रकार के स्वाध्यायों को करके उस ज्ञानस्वरूप के अनुभव का सहज आनंद पायें। गुरु वही होता जो विषयों की आशा के वश न हो। आरंभ परिग्रह से रहित हो, ज्ञान ध्यान तप में लीन हो, अथवा ज्ञानध्यान तप की ही उसको रटन हो, वह सब शुभ भाव हैं। तो गुरु सेवा में वर्तना शुभभाव है। स्वाध्याय में लगना शुभभाव है। श्रावक के संयम तप और दान के आवश्यक कर्तव्य में शुभभाव―(4) संयम अपनी रक्षा करना और दूसरे जीवों की रक्षा करना। अपनी रक्षा तो विषय कषायों के त्याग में है और पर की रक्षा, उन पर दया करके उनको न सताये इसमें है। तो संयम धर्म का अंग है और इसमें शुभभाव होते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह का त्याग और अपने अविकार ज्ञानस्वरूप में मग्न होने का प्रयत्न, ये सब संयमभाव में मिलते हैं। जिसके समय नहीं वह विरतिभाव के कारण तृष्णा बढ़ा-बढ़ाकर दुःखी होता है। संयम हो यावज्जीवन और जो कुछ समय की म्याद लेकर संयम लेता है सो उसका कुछ लाभ तो है कि उसका अभ्यास बनता है मगर भीतर में भाव बना रहता है कि यह दिन निकला तो जाय फिर तो आनंद से विषय प्राप्त होंगे। जो बनावट से, दिखावट से कोई उपवास करता है तो उसके चित्त में तभी से यह बैठा रहता है कि चौदस की रात्रि पूरी होने तो दो, बड़े सुबह से ही खाना पीना चलता रहेगा, और जो अभ्यास सहज भाव से करता है, खायगा वह भी मगर उसके चित्त में यह उत्सुकता नहीं रहती कि समय पूरा तो हो, बस तुरंत ही खूब खाऊँगा। तो अपने मन को वश रखना। विषयों पर विजय करना और हिंसा आदिक से दूर रहना, पापों से दूर रहना यह सब संयम है, और संयम में वर्तना शुभ भाव है। (4) संयम―अपनी रक्षा करना और दूसरे जीवों की रक्षा करना। अपनी रक्षा तो विषय कषायों के त्याग में है
और इसमें शुभभाव होते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह का त्याग और अपने अविकार ज्ञानस्वरूप में मग्न होने का प्रयत्न, ये सब संयमभाव में मिलते हैं। जिसमें संयम नहीं वह विरतिभाव के कारण तृष्णा बढ़ाकर दुःखी होता है। संयम तो यावज्जीवन और जो कुछ समय की म्याद लेकर संयम लेना है सो उसका कुछ लाभ तो है कि उसका अभ्यास बनता है मगर भीतर में भाव बना रहता है कि यह दिन निकल तो जाय फिर तो आनंद से विषय प्राप्त होंगे। जो बनावट से, दिखावट से कोई उपवास करता है तो उसके चित्त में तभी से यह बैठा रहता है कि चौदस की रात्रि पूरी होने तो दो, बड़े सुबह से ही खाना पीना चलता रहेगा और, जो अभ्यास सहज भाव से करता है, खायगा वह भी मगर उसके चित्त में यह उत्सुकता नहीं रहती कि समय पूरा तो हो बस तुरंत ही खूब खाऊँगा। तो अपने मन को वश रखना। विषयों पर विजय करना और हिंसा आदिक से दूर रहना, पापों से दूर रहना यह सब संयम है, और संयम में वर्तना शुभ भाव है।
(5) तप गृहस्थ का कर्तव्य है इच्छा निरोध, इच्छाओं को रोकना। अगर इच्छाओं को नहीं रोकते तो कितना ही धन बढ़ जाय तृष्णा के कारण, उसे अशांति रहेगी। अपने से अधिक दूसरों को देखकर मन में डाह बनेगा--मैं क्यों न ऐसा होऊँ? और जिसके इच्छा का निरोध है वह दूसरों को कुछ नहीं निरखता कि यह कितना बड़ा हो गया या इसके पास क्या-क्या हो गया? ज्ञानी तो अपनी सम्हाल करता है। तो इच्छा निरोध भी तप है और ये बातें छोटे-छोटे प्रयोग से सीखी जाती हैं। जैसे खाने पीने में किसी की इच्छा हुई कि थोड़ी ही देर में उसका त्याग कर दिया। क्यों इच्छा जगी? उसका तो हमें त्याग है और फिर बड़े-बड़े संयमों में प्रवृत्त हो जाता है। और, इच्छा निरोध करके एक परमार्थ तप का प्रयोग करता है। (6) छठा कर्तव्य है दान स्वामी समंतभद्राचार्य ने बताया है कि गृह कार्य से जो पाप उत्पन्न हुए हैं उनको धोने वाला केवल दान है और जो कमायी तो करता रहता है। करते ही हैं सब और उसको ही बढ़ाने की तृष्णा रहे और दान के लिए मन न चाहे तो समझो कि जो पाप कर रहा था उस पाप की ही अनुमोदना की जा रही है। और उसको इसमें विशेष पाप का बंध होता है। तो ऐसे श्रावकों के ये 6 कर्तव्य हैं। मुनिजनों की आवश्यक क्रियावों में शुभभाव―मुनियों के भी 6 आवश्यक कर्तव्य हैं। (1) समता परिणाम रखना―भक्त पर राग नहीं, शत्रु पर द्वेष नहीं, क्योंकि उसने अपना ध्येय ही कुछ बनाया है, तो इन बाहरी छोटी चीजों में कौन पड़ेगा? (2) सामायिक समता परिणाम (3) वंदन-भिन्न भिन्न तीर्थंकरों की वंदना करना, उनका गुणस्तवन करना, यह आर्य कर्म है। स्तवन करना, वीतराग भगवंतों का स्तवन करना, (4) प्रतिक्रमण करना, प्रायश्चित करना, जो भी दोष लगते हैं उन दोषों की निवृत्ति के लिए कोई प्रायश्चित लिया जाता है। (5) स्वाध्याय करना, जिससे विकारों से हटने की और स्वभाव में लगने की उमंग बने। (6) कायोत्सर्ग करना। शरीर से ममता का त्याग। जिसकी शरीर से ममता छूटी उसके फिर अन्य चीज में ममत्त्व क्या रहा? सबसे कठिन है शरीर का मोह त्यागना। किसी का शरीर कैसा ही दुर्बल हो, हड्डियाँ भी निकली हों। कुरूप हो, उस बुड्ढे को कुछ अंधेरे उजेले में यदि कोई वह भयानक चेहरा निरख ले तो वह डर जायगा, ऐसे शरीर में भी लोग मोह बना रहे हैं। यह मैं हूँ, यह मेरा है। यही सर्वस्व है...ऐसा मानते हैं। भले ही वेदना न सही जाय और उसका प्रतिकार कर ले तो भी तो एक चारित्र मोहकृत कमजोरी है, किंतु शरीर में यह ही मैं हूँ, यह ही हितरूप है, इस प्रकार का विश्वास बने तो यह दर्शन मोह है। तो ऐसे अशुचि दुर्गंधित शरीर से ममता का त्याग रहता है मुनिराज के। यह है उनका कायोत्सर्ग। बाह्य पदार्थों का भी त्याग किया, शरीर से भी ममता का त्याग किया। केवल एक निज चेतना मात्र अपने स्वरूप को निरखा, ऐसी मुनिराज के यह कायोत्सर्ग नामक क्रिया चला करती है। तो जो धर्म से संबंध रखे ऐसी क्रिया में भाव रहे वह भी शुभभाव है। रत्नत्रय से जिन-जिन क्रियावों का कुछ संबंध नहीं जंचता वे सब क्रियायें मिथ्या हैं। वे व्यवहार धर्म भी न कहलायेंगी और जिन-जिन क्रियावों का रत्नत्रय से संबंध है और उस विधि से उन क्रियावों को करे तो वह कल्याण से पतित नहीं है। जैसे देवपूजा और दान, इनका श्रद्धान से संबंध है। गुरुपास्ति संयम, तप, इनका चारित्र से संबंध है, और स्वाध्याय का ज्ञान से संबंध है। तो रत्नत्रय से जिन क्रियावों का संबंध हो वे सब क्रियायें व्यवहार धर्म कहलाती हैं और उनमें वर्तना सो यह शुभ भाव है। स्वदया परदया के भाव में शुभभाव―प्रसंग यह चल रहा है कि जीव के अशुभ भावों का फल है नारकादिक दुःख भोगना और शुभ भावों का फल है स्वर्गादिक के सुख भोगना, और धर्मभाव का फल है मोक्ष की प्राप्ति। सो धर्मभाव जब तक नहीं है तब तक शुभभाव ही इस जीव के लिए एक अच्छी चीज है, मगर वह धर्मभाव को न बना सकेगा। धर्म का लक्ष्य हो फिर अशुभ से बचने के लिए शुभभाव हो, यह है मार्ग। तो धर्म तो बुद्धिपूर्वक बनेगा नहीं, वह तो बनेगा सहज। पौरुष जितना भी किया जाता है वह सब शुभभाव है। कोई धर्म के लिए भी पौरुष बनाये तो जब तक पौरुष है, प्रयत्न है, बुद्धि है तब तक वह शुभ भाव है। उस शुभ भाव का वर्णन चल रहा है। दया आदिक सद्धर्मों की भावना होना शुभ भाव है। दया को धर्म बताया है। वह दया स्वदया और परदया दो प्रकार से होती है। स्वदया तो है अपने आत्मा की रक्षा करना, अपने आत्मा में समता का अनुभव करना, शांति धाम निज सहज ज्ञानस्वरूप में अपने उपयोग को रमा देना यह तो है अपनी दया और परदया भी दो तरह से होती है―एक तो परमार्थ, पर दया भी व्यावहारिक परदया, दूसरे जीव भी इस सहज ज्ञानस्वरूप का अवलोकन करें और इस ही ज्ञानस्वभाव में मग्न हों, इस प्रकार की भीतर में करुणा जगे, यह तो है परमार्थ पर दया, ऐसी दया से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। दर्शनविशुद्धि में केवल सम्यक्त्व का ही नाम दर्शन विशुद्धि नहीं, जो कि तीर्थंकर प्रकृति के बंध के हेतुभूत भावना रूप है, क्योंकि अगर सम्यक्त्व से तीर्थंकर प्रकृति बँधे तो सम्यक्त्व बिना तो किसी को भी मोक्ष नहीं मिलता। जितने भी सिद्ध हुए उन सभी को तीर्थंकर हो जाना चाहिए, तो सम्यक्त्व के कारण तीर्थंकर नहीं बनते, किंतु सम्यक्त्व के होने पर जो परमार्थ पर दया के भाव रखता है उसके तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है, ऐसी विशुद्धि सम्यक्त्व के बिना नहीं हो सकती। तो परमार्थ पर दया है यह। अलौकिक दया का अधिकारी―अलौकिक पर दया वही पुरुष कर सकता है जिसने अपने आप पर दया करके अपने आप में अलौकिक आनंदामृत का अनुभव किया है। जैसे कि बड़ी बूढ़ी महिलायें किसी बात से सुख पावें बच्चों से, अन्य प्रकार से तो उनके मुख से एक ऐसा आशीष निकलता है कि ऐसा ही सुख सबको होवो। तो जिसने अपने आप में अपने स्वरूप का अनुभव किया है उस ही पुरुष को परमार्थ पर दया भाव हो सकता है। जो बात खुद जानी नहीं गई उस बात का प्रयोग दूसरों पर कैसे जा सकता? और व्यवहार पर-दया है--भूखे प्यासे दुःखी रोगी का उपचार करके उसका दुःख दूर हो जाय ऐसा पौरुष करना। तो दया एक सद्धर्म है। उसमें स्वदया पर कुछ अधिक उपयोग देना चाहिए। स्वदया का भाव होने पर स्वदया की वृत्ति होने पर जब तक विकल्प है तब तक परदया तो होवेगी ही। स्वदया में अपने आप की रक्षा करना अपने को विषय कषायों में मलिन भावों में न डालना; आशक्त न होना, यह हैं अपनी आपकी दया। दूसरे जीवों पर क्षमा का भाव रखना, यह अपनी दया है। स्वदया का बड़ा महत्त्व होता है। स्वदया बिना कोई संसार से पार नहीं हो सकता। जो स्वयं में बसे हुए भगवान को सतायेगा वह नरक निगोद अवश्य जायगा, दुर्गति को अवश्य प्राप्त होगा। भला बाहर में किसी एक जीव को सताये तो उसे राजदंड मिलता है, कैद मिलता, प्राणदंड मिलता, और जो अनंत गुण का भंडारी निज में अंतः प्रकाशमान सहज परमात्मा को सतायेगा उसकी संसार में दुर्गति ही है, और वह सताया जाता रहा अब तक, उसका फल है कि अब तक संसार में भ्रमण करता आ रहा। क्षमा का अर्थ है कि दूसरों का अनिष्ट चिंतन न करना, दूसरे प्राणियों के प्रति ईर्ष्या द्वेषादिक बात विकार न रखना और अपने आपके स्वभाव की दृष्टि करना यह है क्षमा का रूप। दया के कार्यों में स्वदया की वृत्ति में सर्वप्रधान है क्षमा। यह जीव अपने आप में अनंतानुबंधी कषाय का विकार बना बनाकर अपने भगवंत पर अन्याय करता चला आया। हिंसा करता चला आया, मिथ्यात्व का पोषण करने वाली जो कषाय है वह अनंतानुबंधी कषाय है। सम्यग्ज्ञान को बिगाड़ने की जो भावना है वह अनंतानुबंधी कषाय है। जिसके यह कषाय है वह क्षमा-भाव नहीं पा सकता। ज्ञानपुंज की उपास्यता―देवशास्त्र, गुरु क्या चीज हैं? ज्ञानमूर्ति, देव क्या? ज्ञान पुज्ज। वह क्या आँखों से दिख सकेगा? नास्तिक लोग यही तो कहा करते कि भगवान हैं कहाँ, दिखाकर बताओ। क्या यह ज्ञानपुंज आँखों से दिख सकता? यह पावन स्वरूप क्या चमड़े की आँखों से पाया जा सकता है? पावन स्वरूप तो पवित्र ज्ञानवृत्ति से ही पाया जा रहा है। देव क्या है? ज्ञानपुंज। जो देव के शरीर को देखकर, देवों के मुख, नाक, आँख आदि को देखकर और उससे प्रसन्न होकर उसकी भक्ति करके जो अपने को संतोष मान लेता है उसने अभी देव की स्तुति नहीं की। देव की भक्ति नहीं की। देव तो हैं ज्ञानपुंज। जो स्वयं सहज आनंद से भरा हुआ है। अगर देवभक्ति यथार्थ रूप से होती तो यह कर्मबंधन अपने को न सताता। ज्ञानपुंज की किसने भक्ति की? शास्त्र क्या हैं? ज्ञानपुंज। यह चेतन तो नहीं है, यह स्वयं ज्ञानपुंज तो नहीं हैं, पर उस ज्ञानपुंज की ही बात बतलाते हैं, तो यह है ज्ञान। और, गुरु क्या हैं? ज्ञानपुंज। गुरु के चाम को कौन पूजता। गुरु की शकल आकृति को कौन पूजता है? वह आत्मा जो अपने ज्ञानोपयोग से वजनदार बन गया, गुरु बन गया याने जहाँ ज्ञान विकसित हैं वह आत्मा गुरु है। तो गुरु क्या कहलाया? ज्ञानपुंज। जो जीव निकट भव्य हैं, जिनको दुर्गति में भ्रमण करना नहीं बदा है उन पुरुषों की ज्ञान की ओर दृष्टि होती है। धर्म ही एक मात्र है ज्ञानदृष्टि। कर्तव्य ही एक मात्र है ज्ञानदृष्टि। और उस ज्ञान से विमुख रहना, जिसे कहते हैं अक्ल के दुश्मन। ज्ञान के बैरी बनना, यह अपने आप पर बड़ी भारी हिंसा है, इसको कोई क्षमा नहीं कर सकता। स्वयं ही किसी भव में कभी भी इस ज्ञान की आराधना के बल से कभी ज्ञान विकसित हो और उस ज्ञान का आदर बन सके तो यह ही जीव अपने उन अपराधों की क्षमा कर सकता है। सो दया क्या है? ज्ञान का आदर करना। पर दया क्या है? ज्ञानपुंज स्वभाव वाले संसारी जीव हैं। ज्ञान के विकास की भावना होना यह है पर दया। ज्ञानोपासना हुए बिना अपराधों की अक्षम्यता―अपने ज्ञान के विकास की भावना होना यह है स्व दया। ज्ञान के सिवाय कुछ भी वैभव नहीं है। क्षमा करना है तो उसका मूल साधन यह है कि ज्ञान का आदर करें, उसके बिना क्षमा बन ही न सकेगी। लोक व्यवहार में एक अपनी इज्जत बनाने के लिए या अज्ञान से दूसरों को ही अपना सर्वस्व जानकर उन को प्रसन्न करने के लिए कुछ वचन बोल दिया एक कलापूर्ण, उससे इस आत्मा को क्षमा नहीं मिलती। इसने अपनी अज्ञान लीला से इस ज्ञानपुंज भगवान पर जो आक्रमण किया है, घात किया है, वह बहुत बड़ा अपराध है, और उसका ही फल जानो संसार। इस दंड की विधि पर चिंतन करें तो हैरान हो जायेंगे। एक मनुष्य मरा तो कहो एकेंद्रिय हो गया, वह जीव कहाँ गया, किस शरीर को ग्रहण किया, न जाने किन-किन शाखाओं में फैल गया, यह सब कैसे हो गया। और अपने ज्ञान भगवान पर इसने आक्रमण किया तो उसका फल है कि यह पेड़ बन गया। ज्ञान, अपना स्वरूप न सुहाये जो उसका फल है कि जड़ जैसा बन जाना। जीव जड़ तो नहीं हो सकता, पर एकेंद्रिय आदिक दुर्गतियों में पहुंचना यह है आत्महिंसा का फल। स्वदया सद्धर्म की बात कही जा रही है कि अपने आपके अविकार स्वरूप की भावना रखना, यह मैं अविकार ज्ञानस्वरूप हूँ। एक बार एक कड़ी हिम्मत तो बनानी पड़ेगी। अब बना लें तो अब से पार हो जायेंगे, जब बना पायेंगे तब से पार होंगे, पर अपने आप में दृढ़ साहस बनाना ही होगा कि मेरा मात्र मैं हूँ और यह मैं सहज अविकार ज्ञानस्वरूप हूँ। इस अंतस्तत्त्व का विश्व के किसी भी पदार्थ से अणु-अणु से भी, किसी से भी मेरा कुछ संबंध नहीं, मेरा कहीं कुछ नहीं हैं। मात्र यह सहज ज्ञानस्वरूप ही मेरा सर्वस्व है। ऐसा अंतरंग में बोध आये बिना जीव अपने में क्षमा नहीं कर पायगा। स्वयं में क्षमा कर्तृत्व व स्वयं में क्षमा का प्रभाव―क्षमा दूसरे को नहीं की जाती क्षमा अपने को की जाती। क्षमा परिणति दूसरे में नहीं पहुंचती। क्षमा परिणति अपने आप में ही हुआ करती है। अहर्निश मोह माया ममता क्रोध, मान, माया, लोभ, परिग्रह तृष्णा आदिक अपराध किए जा रहे हैं। ये अपराध इस आत्मा भगवान पर हो रहे हैं तो उनको क्षमा करने कौन आयगा? और, इनके क्षमा हुए बिना तो जैसे लोग कहते हैं मारवाड़ी रोजगार, याने केवल बात-बात का रोजिगार, गाँठ में निजी धन कुछ नहीं, केवल बात-बात से धनी। इस तरह से इस जीव को कोई संतोष न होगा। जीवन में एक दृढ़ संकल्प बना लें कि मुझको अंतस्तत्त्व का ज्ञान करना है और इस ही अंतस्तत्त्व में रमण करना है। इस कार्य के लिए यदि मुझे सर्वस्व त्याग करना पड़े तो वह कुछ भी कठिन नहीं है। सब कुछ किया जा सकता। एक अपने आप के अविकार सहज ज्ञानस्वरूप की दृष्टि जगनी चाहिए। ऐसी भावना अगर 1॰-2॰ आदमियों में हो गई तो वे तो क्षमाशील बन गए और अगर ऐसी भावना एक में भी न आयी और रूढ़ि की क्षमा का बड़ा दौड़ दौड़ा बनाया तो वहाँ एक ने भी क्षमा धारण नहीं की। थोड़ा अपने आप पर तरस आनी चाहिए। मोह ममत्व विकल्प में निरंतर तप-तप कर, हैरान हो होकर व्यर्थ ही समय गुजारा। आखिर उससे फायदा कुछ नहीं मिलता। रहे सहे समय को महत्त्वयुक्त करने का अनुरोध―क्या महिमा है बने की, बिगड़े समय से पूछो, बनते समय की अथवा रहे सहे समय का क्या मूल्य है यह बात बिगड़ा हुआ समय बताता है कि व्यर्थ गया वह सब समय। एक समय की घटना है कि जब कौरव पांडवों के युद्ध में अभिमन्यु मारा गया तो उसके पीछे उसकी माता सुभद्रा बड़ा विलाप कर रही थी। तो वहाँ श्रीकृष्ण बहुत-बहुत समझाते हैं सुभद्रा माता को हि हे सुभद्रा माँ, अब तुम अधिक शोक न करो, शोक करने से अब तुम्हारा बेटा अभिमन्यु वापिस नहीं आने का ― , तो वहाँ सुभद्रा ने कहा―‘‘करुणा निधान करुणा, करुणा भरे से पूछो। ज्वाला वियोग का दुःख, छाती जरे से पूछो।। बनते समय की बातें बिगड़े समय से पूछो। बच्चे का प्यार उसकी माँ के हृदय से पूछो।।’’ तो समय की कीमत कौन कर पायगा? जो अपने बिगड़े हुए समय पर दृष्टि देगा, अभी तक व्यर्थ समय खोया, ममता भव-भव में तो करते आये, कोई एक ही अनोखा भव मिला क्या? अनंत भव पाये और सभी भवों में ममता तृष्णा करते आये, अब उनका कुछ विकल्प भी है क्या? जो जोड़-जोड़कर धर आये होंगे पूर्वभव में उससे कुछ आपको फायदा है क्या? जो कुटुंब पुत्र मित्रादिक का जत्था बना होगा उससे कुछ आज लाभ है क्या? तो जो बात पहले भव की आज के लिए है वही बात इस भव के आगे के लिए है। अपने पर तरस―अगर मूर्खता, मूढ़ता, मिथ्यात्व का उदय, पर पदार्थों के प्रति तृष्णा, लोभ, ईर्ष्या, विरोध ये सब खोंटी बातें चित्त में उपजती हैं तो यह सब क्या हैं? अपने भगवान आत्मा पर हमला करना है। क्षमाशील बनना, पहले अपने को क्षमा करना। कैसा विकार, कैसा विचार, कैसी कषाय, कैसा मोह, देखो इस ज्वाला में यह खुद आत्मा जल रहा है। शांति का धाम तो है यह खुद स्वयं, पर यह शांति चाहता ही नहीं। संसार के सुख चाहता है तो आकुलता से भरे हुए हैं, विनश्वर हैं, पराधीन हैं, जिन पर इस जीव का अधिकार ही नहीं है और व्यर्थ है। केवल काल्पनिक हैं। केवल असार सुख को तो यह चाहता है पर अपने आप के इस पवित्र स्वरूप को नहीं चाहता। तो यह है स्वदया जो अपने आपको विषयकषाय के आक्रमण से बचा लेता, मन को स्वच्छंद नहीं बनाता है। यदि मन नहीं लगता तो इसको कहीं न कहीं तो लगाना ही चाहिए, ऐसा सोचकर विषयों में मन लगाते, अरे अपने आप के स्वरूप की आराधना में क्यों नहीं मन लगाया जाता? उसका उपाय क्यों नहीं बनाया जाता? और पुत्र, मित्र, कुटुंबादिक के ममत्व में ही रुचि होने की वृत्ति की जा रही है और वह अपने आप में शांत नहीं बन पाता, अपने आप में नहीं रम पाता यह क्या है? अपने आप की हिंसा है। कुछ तो ध्यान में आना चाहिए। कहते हैं कि सिद्ध भगवान बनेंगे। यह मालूम है कि सिद्ध भगवान बन कर अनंतकाल के लिए बिल्कुल अकेले रहेंगे। केवल एक अकेले में मग्न रहेंगे। और, यहाँ कुछ समय को भी अकेले रहने में बड़ा बोझ सा लगता। अपने को अकेला-मनन करना, अकेला चिंतन करना और अकेलेपन की बाट जोहना, कब वह समय आये कि मैं एक अकेला रह जाऊँ। मिला हुआ होना तो पाप है। विपत्ति है, विडंबना है और अकेला रह जाना यह तो पवित्रता है, शांति का धाम है। अपने अकेले की भावना बनायें। मुझे सदा के लिए अकेला रहना है। जब मैं अकेला रहूँगा सदा के लिए तो कुछ समय के लिए मैं अपने को अकेला ध्रुव निरखकर अंतः प्रसन्न रह सकूँगा। स्वदया, अपने आप की क्षमा, अपने एकत्व स्वरूप का मनन यह है सद्धर्म। यह तो मूल में होना ही चाहिए। दया सद्धर्मभाव की सर्वत्र उपादेयता―स्वदया सद्धर्म की दृष्टि रखते भी हैं जब घर में रहना या संग में रहना पड़ा रहा है। तो कुछ परस्पर का व्यवहार भी देखना पड़ता। अपने द्वारा किसी दूसरे को कष्ट न हो। अपने द्वारा तो नहीं हो सकता, वह भी विकल्प करके उस दूसरे को निमित्त मानकर खुद दुःखी हुआ। कोई किसी को दुःखी नहीं कर रहा। अगर एक दूसरे के विचार से दुःखी हो रहा है तो एक ने दूसरे को दुःखी नहीं किया। वह अपने आप में दुःखी है, यह अपनी कल्पना से दुःखी है, वह अपनी कल्पना से दुःखी हैं, जैसे जब कोई मर जाता तो फेरी देने के लिए अनेकों लोग आते। तो उनको आता हुआ देखकर घर का कोई रोने लगता, और उसका रोना सुनकर उन आने वालों में से भी कोई रोने लगता, तो बताओ वहाँ एक ने दूसरे को रुलाया क्या? अरे वे दोनों अपने-अपने प्रयोजन से अपना-अपना ख्याल बनाकर रोते हैं। एक तो अपने सुख के लिए रोता और दूसरा कुछ सहानुभूति दिखाने के लिए रोता। तो सब अपने-अपने प्रयोजन से रोते हैं। कोई किसी को कष्ट नहीं पहुंचाता, फिर भी अज्ञानीजन यदि मेरे को निमित्त मानकर कष्ट का विकल्प कर चुके हो और यदि दो बातें नम्रता की सुनकर उनको शांति मिले तो ज्ञानी पुरुष उन नम्र वचनों को कहकर उन्हें तत्काल ही शांति पहुंचाने का यत्न करते हैं। वास्तविक शांति तो उनको उनके ज्ञान से ही मिलेगी। कोई किसी दूसरे को जब दुःखी नहीं कर सकता तो शांत भी नहीं कर सकता। तो यह है दया आदिक सद्धर्म की भावना। इस भाव में जो रहता है वह पुरुष शुभ भाव में है और ऐसा शुभ भाव इस जीव के स्वर्गादिक सुखों का कारण बनता है। ध्येय तो रखना है मुक्ति का, पर मुक्ति में पहुंच तो जाय कोई। ध्येय है, लक्ष्य है, भावना है, कैवल्य की दृष्टि है, किंतु जो मन, वचन, काय की वृत्ति बनेगी तो वह या तो शुभ राग होगा या अशुभ राग होगा। अशुभ राग से तो कष्ट हैं। एकेंद्रिय हो गए और दुर्गति हुई तो फिर वहाँ कल्याण की संभावना क्या? शुभ राग में यह है कि चाहे तो यहाँ से मरण करके देवगति में पैदा हो या मनुष्य गति में। वहाँ कुछ सत्संगति मिलती तो आगे वह अपना उद्धार कर लेगा। तो इस तरह दया के सद्धर्म में शुभ भाव है और उस शुभ भाव का फल सुगति लाभ है।