वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 58
From जैनकोष
धरियउ बाहिरलिंगं परिहरियउ बाहिरक्खसोक्खं हि’
करियउ किरियाकम्मं मरियउ जंमियउ बहिरप्पजिऊ।।58।।
बाह्य मुनिवेश रखकर भी अज्ञानी की जन्ममरण परंपरा की निर्विघ्नता―यह जीव कभी बाह्य लिंग को, मुनि भेष को रखता है और अंतः सहज ज्ञानस्वरूप का बोध नहीं है तो उसने केवल बाह्य इंद्रिय सुखों को ही तो छोड़ा पर अंतरंग में तो सांसारिक सुखों की वासना लगी है। सो वह क्रियाकांड को करके भी जन्ममरण करता रहता है। अविकार सहज ज्ञानस्वरूप की अनुभूति जगे बिना मूलतः विषय सुखों का त्याग नहीं बन सकता, उसका कारण यह है कि विषय सुखों को त्यागे तो कहीं तो रमना चाहिए। जीव का तो रमण स्वभाव है। बाह्य सुखों को छोड़कर अन्य कोई रमण का स्थान न हो तो रमण बिना जीव तो रह न सकेगा। सो इस अज्ञानी जीव को अपने आप के शांति धाम चैतन्यस्वरूप की तो सुध है नहीं और बाह्य भेष रख लिया साधु का, अब परिग्रह रख सकता नहीं, विषय सुखों के साधन जोड़ सकता नहीं सो विषय सुखों का त्याग बन गया, मगर विषय सुखों की कामना का त्याग नहीं बन सकता, और विषय सुखों की कामना का त्याग वस्तुतः उनके बन सकता है जिनको अंतस्तत्त्व में रमने का आनंद आ गया तो जिसने अंतरंग ज्ञान ज्योति का प्रकाश नहीं पाया और बाह्य लिंग धारण कर लिया तो वह पुरुष बाहर में सांसारिक सुख से भी गया और भीतर में मोक्ष के साधन से भी गया। यह एक लौकिक विधि से बात कह रहे हैं क्योंकि उसको फल कुछ नहीं मिल रहा, बल्कि विषय सुखों को त्यागकर, उनके साधनों को त्याग कर विषय सुखों की कामना रहे तो उसकी जलन, उसकी कषाय तेज रहती है। मोहवासना की विडंबना―अपेक्षाकृत देखें तो गृहस्थों को जैसे भोग के साधन उपलब्ध हैं पर उनके बीच रहकर उनको उतनी कामना नहीं होती जितनी कि उसको होती जिसने उन विषय के साधनों को छोड़ दिया और आत्मीय आनंद पाया नहीं। उसके भोग भावना रहा करती है तो उससे कोई मोक्षमार्ग तो न मिल सकेगा। बड़ी सावधानी से अपने आपके कल्याण की बात सोचनी चाहिए। सांसारिक सुख समागम ये जीव का भला करने वाले नहीं। इससे यदि जन्म सफल करना है तो अपना एक पक्का निर्णय बना लीजिए कि बाह्य पदार्थों के संचय संग्रह आदि का मेरा कोई उद्देश्य तो अपने अंतःप्रकाशमान ज्ञानस्वरूप को निरखें और उसमें तृप्त हो जायें। तो बाह्य भेष धारण कर लिया है और भीतर में ज्ञानस्वरूप की भावना नहीं बनी है तो उनकी अंतः कामना क्या रहती है? प्रथम तो यह कि कमाने धमाने में तो बहुत कष्ट हुआ करता है, और यहाँ आदर सहित खूब भोजन मिलता है या तो यह भावना है या साधुवों की बड़ी ख्याति चलती है क्योंकि लोग तो कुछ विवेकी होते, कुछ नहीं भी होते, तो दूसरे की ख्याति देखकर खुद की भी भावना बन बैठी कि अर्जन के कष्ट से भी बचे और आराम से विनय भी मिली, सुख के साधन भी मिले, या दुनिया में मेरे नाम की ख्याति हो, यह भावना हो, इन किन्हीं भावनाओं में यह जीव रमता है जिस को वास्तविक रमने का स्थान नहीं मिला तो अब वह जीव जायगा कहाँ? सो ही बात कह रहे हैं कि बाहर के भेष को तो धारण कर लिया और बाहर में इंद्रियसुखों का भी त्याग कर दिया और क्रिया कर्म को भी कर रहे हैं, प्रतिक्रमण का समय आया तो प्रतिक्रमण बाँचने लगे। वंदना का समय आया तो वंदना भी की। चर्या का समय, विहार का समय जब जिस समय आवश्यक है वे क्रियाकांड भी किए जा रहे फिर भी वह पुरुष जन्मता है और मरता है, संसार की परंपरा में वह रुलता है, उसकी रक्षा नहीं होती। आत्मरक्षा का अमोघ साधन यथार्थज्ञान हुए बिना मुनिवेश की विडंबना―रक्षा का साधन तो यथार्थ ज्ञान है, सो ज्ञानी गृहस्थ घर में रहता हुआ भी, घर के काम काज करता हुआ भी उस ज्ञान से रुचि जगे, उसका अभ्यास बने तो गृहस्थ कर सकता। पूज्य समंतभद्राचार्य ने तो बताया है कि ‘गृहस्थो मोक्ष-मार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः।।’ याने वह गृहस्थ तो मोक्षमार्ग में स्थित है जो कि निर्मोह है, पर मोही मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। मोह राग बदल जाय इससे लाभ नहीं है। घर में रहते थे तो मोह और राग की विधि और बनती थी, घर है, कुटुंब है अथवा समस्या दुकान की है घर में है, कमाता है, उस समय और तरह का मोह राग था और मुनि भेष रख लिया तो असली जीव को मोह, राग और तरह का रहता है। और, की तो बात क्या कहें, यदि मुनि को यह श्रद्धा है कि मैं मुनि हूँ और मुझे इस तरह से संयम का काम करना चाहिए, जीव दया पालना चाहिए। इस तरह से दूसरी क्रियाओं को पालना चाहिए, क्योंकि मैं मुनि हूँ, ऐसा भाव भी अगर है, श्रद्धा है तो उसके मिथ्यात्व बताया गया है। सुनने में तो लगेगा ऐसा कि ऐसा कौन सा अपराध बन गया जिससे वह मिथ्यादृष्टि है? जैसे कि कुछ रूढ़ि वाले अज्ञानीजन कह बैठते हैं कि कैसे ही सही, वे मुनि हमसे तो अच्छे हैं, लेकिन हम अच्छे कहाँ है? अगर वह मोही है, अपने आप के स्वरूप को नहीं समझ सका है तो गृहस्थ से अच्छा कहाँ रहा? अज्ञानी मुनिवेशी की मानविडंबना―गृहस्थ की पदवी में जो गृहस्थ रहता है उसे अभिमान तो नहीं रहता, वह नम्र रहता है। वह जानता है कि मैं तो गृहस्थ हूँ, उसके अभिमान नहीं। कोई बात प्रतिकूल आ जाय तो उसको अधिक क्रोध नहीं आता, क्योंकि वह तो जानता है कि मैं तो मामूली पुरुष हूँ, साधारण गृहस्थ हूँ, वह सब बात सह लेता है, पर मुनिभेष रखकर यदि वह अज्ञानी है, अपने आत्मस्वरूप की महत्ता को न जान सके तो जरा सी भक्ति में कमी हुई या किसी ने नमस्कार न किया हो तो उनके तो क्रोध बहुत ऊँचा चढ़ सकता है या पद-पद में गर्व आता है। भारी हिसाब क्यों लगाते रहते हैं कि इससे एक दिन दीक्षा में मैं बड़ा हूँ, मुझे ऊँचा आसन चाहिए। इसे हमसे छोटा आसन चाहिए तो बात यह है कि उस मुनि को देहदृष्टि है, अज्ञान बसा है, मान कषाय उमड़ी है तो ये बातें चलती है। यद्यपि यह कर्तव्य है कि कम दिनों का दीक्षित अधिक दिनों के दीक्षित को पहले नमस्कार करे, लेकिन उसके लिए बड़ा हिसाब क्यों लगाया जाता कि यह कम दिनों का दीक्षित है और मैं अधिक दिनों का, यह मुझे पहले नमस्कार करे ― अरे यह तो एक विकार है, पाप है, विपत्ति है ― वहाँ उस मुनि की सरलता कहाँ रही? दूसरी बात एक यह भी है कि चाहे कोई नया दीक्षित हो, थोड़े दिनों का दीक्षित हो या कोई अधिक दिनों का दीक्षित हो, अगर ज्ञानादिक गुणों से बड़ा हुआ अधिक हो तो उसको अधिक दिनों का दीक्षित भी पहले नमस्कार करे, ऐसी आगम की आज्ञा है। कितनी ही बातें ऐसी होती है। तो भले ही यह मुनिवेशी है मगर कोई मुनि यह हिसाब ही लगाये बैठा रहे तो उसको तो बंधन है पूरा। और, ऐसी अटपट बात क्यों उपयोग में लाना? जहाँ चित्त रमना चाहिए, तो शांति का धाम है, जहाँ मन रमाने के बड़े संकल्प विकल्प नहीं रहते वह धाम इसको मिला नहीं इस कारण उन्हें व्यग्रता रहा करती है। व्यग्रता मिटाने का साधन, मोक्षमार्ग में लगने का साधन बाह्य भेष नहीं किंतु सम्यग्ज्ञान है। मुनिवेश से गुजरकर मुमुक्षु की प्रगति की संभवता―सम्यग्ज्ञान होने पर उस सम्यग्ज्ञान को बढ़ाने के लिए सम्यग्ज्ञान की स्थिरता के लिए जो आगे बढ़ता है वह निष्परिग्रह साधु के भेष में आकर ही बढ़ पाता है इसलिए वह एक रास्ता है, पर कोई रास्ते को ही पकड़ कर रह जाय तो वह इष्ट स्थान पर पहुँच तो न सकेगा। जैसे किसी को यहाँ से बंबई जाना है तो रास्ते मैं सैकड़ों स्टेशन पड़ेंगे। अब कोई-कोई तो बड़े सुंदर स्टेशन भी मिलते जहाँ पर कि ठहरने का भी मन कर जाता, पर वहाँ यदि कोई रम जाय, ठहर जाय तो वह बंबई तो नहीं पहुँच सकता। सो बंबई पहुँचने के लिए जैसे वह सभी स्टेशनों का मात्र ज्ञाता दृष्टा रहता है और आगे बढ़ता रहता है तो बंबई पहुँच जाता है। ठीक ऐसे ही जो पुरुष आत्मा के इस मोक्षमार्ग में बढ़ता है तो उस धुन में रहने के कारण परिग्रह का त्याग हो जाता है आरंभ का त्याग हो जाता। निर्ग्रंथ भेष आ जाता, और ऐसी मुद्रा में रहकर वह आत्मज्ञान को स्थिर बना पाता है। शुक्ल ध्यान उत्पन्न कर अरहंत अवस्था पाता मगर कोई एक इस भेष को ही रखे और इस ही में मुग्ध रहे और उस ही में संतुष्ट हो जाय थोड़ा प्रतिक्रमण आदिक क्रियायें करके मान लिया कि मैंने धर्म किया, अब मैं साधु परमेष्ठी हूँ...तो यह तो उसके लिए बहुत बड़ा संकट है। वह नारकादिक गतियों में जायगा। कपटी साधु और उनके भक्तों की दुर्दशा―इस पंचम काल में छली कपटी जैसे करोड़ों ही मुनि नरक जायेंगे और उससे भी अधिक उनके भक्त जायेंगे ऐसा आगम में बताया है। तो इसका कारण क्या है? कारण उसका यह है कि जो मोक्ष का बीज है सम्यग्ज्ञान, आत्मज्ञान वह प्राप्त नहीं हुआ। सभी मुनि न जायेंगे नरक, किंतु बहुत से मुनि भेष में रहकर जो एक अपने मन के विषयों को पोषते हैं और मुनि धर्म परमार्थ पद को नहीं निभा पाते हैं उनको और उनके भक्तों को बताया है कि करोड़ों की संख्या में इस पंचम काल में नरक जायेंगे, तो इसने मोक्षमार्ग का भेष किया और अंतः अज्ञान अवस्था ला दी, उस अपराध का फल है दुर्गति। क्रिया में लगने की बात क्या बतायें? मानो एक चांडालनी के एक साथ दो पुत्र उत्पन्न हुए। किसी गरीबी हालत में समझो या कुछ अनुचित ढंग से हुए, ऐसा समझो। तो उन दोनों बच्चों को वह चांडालिनी एक पेड़ के नीचे छोड़ आयी। यह सोच कर कि ये मरें तो मर जाये, हम इन्हें न रखेंगे। वे बच्चे पेड़ के नीचे पड़े हुए थे। बड़े ही सुंदर थे। वहाँ से पहले एक ब्राह्मण निकला जिसके कोई संतान न थी सो एक बच्चे को अपने घर ले आया और पालन पोषण करने लगा। बाद में उधर से निकला कोई चांडाल तो वह उस दूसरे बच्चे को अपने घर ले आया और पालन पोषण करने लगा। अब देखिये एक साथ जाये हुए दोनों ही बालक दो जगह पल पूस रहे थे, एक तो ब्राह्मण के घर और एक चांडाल के घर। वह ब्राह्मण का घर भी बड़ा धार्मिक था, अपनी धार्मिक क्रियाकांडों में बड़ा सावधान था। मद्यमांस वगैरह का जहाँ पूर्ण त्याग था। वेद, कथा, भागवत आदि के पठन पाठन में विशेष रुचि थी। तो एक बच्चा तो ऐसे धार्मिक वातावरण में पला पुसा और एक बालक उस चांडाल के घर पला पुसा जिसका मुख्य भोजन मद्य मांस मच्छी वगैरह गंदी चीजों का था। आखिर दोनों ही बच्चे सब सयाने हो गए। उनमें से एक तो मद्य मांस, मच्छी वगैरह को त्याज्य, हेय समझ कर उन्हें छूना भी न पसंद करता था और एक उन सब चीजों को ही अपनी मुख्य भोजन समझता था। दोनों ही बालक अपने-अपने अभिमान में डूबे हुए थे। एक तो मानता था कि मैं ब्राह्मण हूँ। और एक मानता था कि मैं तो चांडाल हूँ। तो ऐसे ही समझो कि जब मैं अपने में एक व्रतीपने का त्यागीपने का, साधुपने का अभिमान रहता, अहंकार रहता कि मैं साधु हूँ, मुझको तो निरख निरखकर ही चलना चाहिए, मेरे को तो शोध-शोधकर ही खाना चाहिए, सारी क्रियायें बहुत सही कर रहा बाहर की, लेकिन भीतर में जो वह नहीं मान पा रहा कि मैं साधु हूँ, और मैं चेतन हूँ। चैतन्यमात्र हूँ, मैं साधु वाधु कुछ नहीं। यह तो एक गुजारे की स्थिति है वास्तव में तो मैं शुद्ध चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व हूँ, इसकी जिसको सुध नहीं है वह एक साधुपने के अहंकार के कारण भले ही इस तरह की नाना प्रवृत्तियाँ करता हो, पर वह मोक्षमार्ग में नहीं है। मोक्ष का कारण ज्ञान और ज्ञानस्थिता―बात यह कही जा रही है कि जैसे किसी को अपनी ठंड मिटाना हो तो उसका मूल साधन है अग्नि। मान लो किसी कमरे में या किसी मैदान में अग्नि तापा तो कहीं उस स्थान से ठंड नहीं मिटी। ठंड मिटने का साधन तो अग्नि है, ऐसे ही मोक्षमार्ग में लगने का साधन तो सम्यग्ज्ञान है। मान लो किसी जंगल में कोई साधु तपश्चरण कर रहा तो जंगल उसके तपश्चरण में मूल साधन नहीं है। मूल साधन है सम्यग्ज्ञान। यद्यपि कोई साधन इस प्रकार का बनाना तो पड़ेगा मगर वह मूल साधन नहीं है। मूल साधन है सम्यग्ज्ञान। जैसे अग्नि तापने पर जो ठंड मिटी उसमें कहीं स्थान के कारण ठंड नहीं मिटी किंतु अग्नि से मिटी, ठीक ऐसे ही जो लोग मोक्षमार्ग में बढ़ रहे वे किसी न किसी भेष में तो रहेंगे ही। जब शरीर है तो कोई न कोई मुद्रा तो रहेगी ही। अब उत्तम मुद्रा है दिगंबर मुद्रा जिसमें चिंता शल्य आदिक कुछ काम नहीं और उस मुद्रा में रहकर सम्यग्ज्ञान की आराधना करके मुक्ति मार्ग में वह बढ़ जायगा। ठीक है बढ़ा मुक्ति मार्ग में मगर वह उस दिगंबर मुद्रा के कारण नहीं बढ़ा, किंतु अपने भीतर जो चैतन्यस्वरूप का कोई प्रकाश है उसके कारण बढ़ा है। यद्यपि उस दिगंबर मुद्रा बिना बढ़ने का मौका नहीं है। चाहिए वह निर्ग्रंथ निरारंभ ही दशा, गात मात्र परिग्रह, अन्य कोई भी परिग्रह साथ न हो, चाहिए वह मुनिदशा ही, मुनि अवस्था हुए बिना मोक्षमार्ग में वह नहीं बढ़ सकता। मगर जो मुनि का बाह्य रूप है उस रूप से नहीं बढ़ा वह मोक्षमार्ग में, किंतु भीतर में उस सहज ज्ञानस्वरूप की आराधना हुई उससे वह बढ़ा है। जैसे एक दृष्टांत लीजिए कि कोई मुसाफिर ठंड के दिनों में एक जगह से दूसरे जगह जा रहे थे। रात्रि हो जाने से रास्ते में वे एक पेड़ के नीचे ठहर गए। अब ठंड काफी थी सो इधर उधर से लकड़ियाँ बीन कर लाये, उन लकड़ियों को इकट्ठा करके उनमें आग लगाया, मुख से फूँका, कुकडू आसन से तापने बैठे और रात्रि भर ठंड से बचकर सबेरा होते ही अपने गाँव के लिए प्रस्थान कर गए। तो यहाँ यह देखो कि उनकी ठंड मिटी उस आग से न कि उसके संबंध की उन अनेक बाहरी क्रियाओं से /ठीक ऐसे ही समझो कि मुनि का जो बाहरी भेष है मात्र उससे मोक्षमार्ग में प्रगति नहीं हो सकती, किंतु उसके लिए तत्त्वज्ञान चाहिए। अविकार सहज ज्ञान स्वभावमात्र आत्मा की प्रतीति का महत्त्व―अब चाहिए तो यह कि निर्ग्रंथ दिगंबर भेष अंगीकार किया जाय, मगर नहीं बनता तो गृहस्थी में रह रहे हैं। वह भी एक धर्म है। मगर चाहे गृहस्थ हो चाहे मुनि, भेष से कर्म नहीं कटते किंतु अपने सहज ज्ञानस्वरूप की आराधना से कर्म कटते हैं। तो वह चीज आज गृहस्थ भी पा सकता है। तो ध्यान करना चाहिए उस ज्ञानभाव का जो कि अपने में शाश्वत मौजूद है। उसमें चित्त लगना चाहिए अनुभव होना चाहिए कि मैं तो यह सहज ज्ञानभाव स्वरूप हूँ। इसमें कैसी दृढ़ता हो? जैसे आपका नाम लेकर कोई पुकारे तो आप झट चौकन्ना हो जाते, देखने लगते कि किसने पुकारा। अधसोये हुए भी हों और कोई धीरे से नाम बोले तो भी आप जग जाते कि किसने मेरा नाम लेकर पुकारा। सभी को अपने नाम पर इतनी अधिक आस्था रहती है, अब ऐसी ही आस्था अगर किसी मुनि को अपने मुनिभेष पर रहती हैं तब फिर कौन सी पुकार चले और अपने भीतर कौन सा निरीक्षण चले कि जिससे मिथ्यात्व न रहे। वह है अविकार सहज ज्ञानस्वरूप। उसमें नाम नहीं भरा हुआ है कि यह अमुक है, यह फलाना है। आत्मा का जो शाश्वत सही स्वरूप है उसमें नाम नहीं पड़ा हुआ है बल्कि ऐसा स्वरूप तो अन्य समस्त जीवों में मौजूद है इसलिए किसी एक नाम से प्रसिद्धि वहाँ होती ही नहीं है ऐसा मैं सहज अविकार ज्ञानस्वरूप यह मैं हूँ, इस प्रकार की भावना बने, प्रतीति बने तो वह मोक्षमार्ग में बढ़ सकता है। अलौकिक आनंदधाम सहजज्ञानस्वभाव की प्रतीति बिना प्राणियों का बाह्य रमण―इस गाथा में कुंदकुंदाचार्य यह बतला रहे हैं कि बहिरात्मा जीव संसार में केवल उसी बाहरी लिंग को भेष को धारण करता है जैसा कि साधु का भेष बताया है सो वह घर भी छोड़ देता है, इंद्रिय के सुख को भी छोड़ देता है, पर उसके अंतरंग में विषयों की लालसा बनी रहती है, और लालसा बनी रहने का कारण क्या है? जहाँ से इसको सत्य शांति मिल सके उसका पता न पाड़ सकना, विषयों की लालसा बनी रहने का कारण है। जैसे कोई भिखारी 8-1॰ दिन की बासी रोटियाँ अपनी झोली में रखे हो खाने के लिए और उससे कोई कहे कि देख तू इन बासी रोटियों को फेंक दे, मैं तुझे ताजी पूड़ियाँ खिलाऊँगा...तो जब तक उसको मिल न जाये ताजी पूड़ियाँ तब तक उसे उसकी बात का विश्वास नहीं रहता, वह उन बासी रोटियों को फेंकता नहीं है, ऐसे ही समझिये कि बाहर में चाहे घर द्वार कुटुंब परिजन का त्याग किया हो, पर जो आत्मा का सही शाश्वत अविकार स्वरूप है उस स्वरूप का अनुभव न पाया हो, वह अलौकिक आनंद अपने में न मिल पाया हो तो वह विषय सुखों की लालसा को छोड़ नहीं सकता। मन से विषयसुख वासना तब ही छूट सकती है जब कि उससे बढ़िया कोई अलौकिक आनंद अपने आप में मिल सके। वह अलौकिक आनंद है आत्मा के अविकार स्वरूप की प्रतीति में, सो वे सब भी पुरुष अंतरंग में विषयों की लालसा रखते हैं इस कारण वे अनेक धार्मिक क्रियाकांड करते हुए भी, सामायिक प्रतिक्रमण वंदन करते हुए भी संसार में बारबार जन्म मरण करमे हैं। तो कुंदकुंदाचार्य इस रयणसार ग्रंथ में यही बात बताते हैं और सभी ग्रंथों में सभी आचार्यों ने यह बताया है कि धर्म का मूल साधन है आत्मा में यथार्थ स्वरूप का ज्ञान। सो उसको जानने का प्रयत्न कर लें और मैं हूँ, उस अपने सत्त्व का अनुभव कर लें, नियम में मोक्ष मिलेगा। एक यह ही काम अगर न कर पाये तो जैसे बताया है छहढाला में कि ‘‘मुनिव्रत धारि अनंत बार ग्रैवेयक उपजायो, पै निज आतम ज्ञान बिना सुख लेश न पायो।’’ याने अनंते बार मुनि हुए पर भीतर में मिथ्यात्व बसा रहा, और बड़ी-बड़ी तपस्यायें की, शुक्ल लेश्या रखा, समता परिणाम किया तो वह नवग्रैवेयक तक उत्पन्न हो गया, पर वहाँ भी उसने शांति का लेश नहीं पाया। तो आत्मा के स्वरूप का यथार्थ परिचय यह धर्मपालन के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके बिना धर्म होता ही नहीं है।