वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 76
From जैनकोष
‘‘कायकिलेसुववासं दुद्धरतवयरण कारणं जाण।
तं णियसुद्ध सरुवं परिपुण्णं चेदि कम्मणिम्मूलं।।76।।’’
कर्मों के निर्मूल होने का अमोघ उपाय निज शुद्ध स्वरूप की भावना―कोई कठोर तपश्चरण करे उसके लिए क्या करते हैं लोग? कठोर तपश्चरण का कारण है क्या? वह है काय क्लेश और उपवास। और-और भी हैं। जैसे गर्मी के दिनों में पर्वत पर तपश्चरण करना शीत ऋतु में खुली जगह तपश्चरण करना, बरसात के दिनों में पेड़ों के नीचे खड़े हो कर तप करना यह काय क्लेश अपध्यान अनशन किया। दो चार दिन, महीने भर, छह महीने तक छ महीने से अधिक उपवास की प्रतिज्ञा लेने की बात शासन में नहीं कही गई। भले ही किसी को ख्याल न रहे और एक वर्ष लग जाय तपश्चरण में तो वह लग गया। तो आदिनाथ जिनेंद्र ने छः महीने की प्रतिज्ञा की थी। छमाहा अंतराय आये तो साल भर हो गया। बाहुबलि स्वामी एक वर्ष तक खड़े रहे, उन्हें सुध ही न रही कि हमें क्या करना है। आज कल 4-6 माह के उपवास करने वाले लोग नहीं हैं। संहनन ही वैसा नहीं है। ऐसा कमजोर शरीर है कि उपवास सहन नहीं हो पाता किसी को कोई विरक्त है। ज्ञानी है, चाहता है, पर शरीर का ऐसा ही ढाँचा है, ऐसी ही रीति है कि वह अधिक दिनों तक उपवास नहीं कर सकता। और अब भी अनेक लोग ऐसे मिलते हैं तो 8-1॰ दिन तक का उपवास रखा करते। तो कायक्लेश और उपवास जैसे ये तपश्चरण के कारण हैं ऐसे ही निज शुद्ध आत्मस्वरूप का बोध होना, जो अखंड परिपूर्ण शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप से निर्भर है। शक्ति देखो। स्वभाव देखो कोई कमी नहीं है किसी भी जीव में, उस शुद्ध स्वरूप को पा लेना यह करने का निर्मूल करने का कारण है। जिसमें आत्मतत्त्व का अनुभव नहीं बन पाया वह कर्म को नष्ट करने में समर्थ नहीं हो सकता।