वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 77
From जैनकोष
‘‘कम्मुण खवेइ जो हुपनबम्हु णजाणेइ सम्मउम्मुक्को।
अत्थुण तत्थु ण जीवो लिंग छेतुण किं करई।।77।।’’
बाह्य स्वरूप से अनभिज्ञ मुनिवेशियों के कृत्य की व्यर्थता―जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से रहित है। अपने परम ब्रह्म स्वरूप को जानता नहीं है वह न यहाँ का है न वहाँ का है याने न गृहस्थ है न मुनि है चाहे वह निर्ग्रंथ दिगंबर भेष धारण करले किंतु यदि सम्यक्त्व रहित है परम ब्रह्म स्वरूप का जानन हार नहीं है तो ऐसे निर्ग्रंथ भेष को धारण करने वाला मुनि तो रहा नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व ही नहीं। सम्यक्त्व हुए बिना छठा 7वाँ गुणस्थान कैसे? भीतर में वह शांति भी नहीं मिलती जो उस शांति का कारण केवल अविकार सहज चैतन्य स्वरूप का आश्रय है, दूसरा है ही नहीं कुछ। वह उसे प्राप्त नहीं हुई, तो न कर्म नष्ट हो सकते और न कुछ शांति मिलती है और छोड़ दिया सब कुछ सो उसका कष्ट जुदा भोग रहा है। जो सम्यक्त्व से रहित है, परम ब्रह्म स्वरूप को नहीं जानता है वह कर्मों का क्षय नहीं कर सकता। और वह न यहाँ का रहा न वहाँ का रहा। जैसे कहावत में कहते―धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का, ऐसी बात हो जाती है बताओ मुनि भेष धारण करने का प्रयोजन क्या है? मुनि हो जाना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी की बात है। भीतर में आत्मानुभव हो, सत्य वैराग्य हो, ज्ञान का योग हो, निराकुलता का भाव हो, अपने स्वरूप में रहा हो वह मुनि होता है और अपने स्वरूप से अनभिज्ञ है और किसी भी भावुकता में या देखा देखी जिसने मुनि भेष धारण किया है वह अपने को ठग रहा है और दूसरे भी उससे ठगे जा रहे हैं, तो ऐसे भेषधारी मुनियों को बताया है कि इस पंचम काल में कई करोड़ मुनि दुर्गति में जायेंगे। तो यह मुनि पद ग्रहण करना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी की चीज है। जिसके सम्यक्त्व है, बाह्य स्वरूप का बोध है वह साधु परमेष्ठी है, पंच परमेष्ठियों में आया हुआ है। ज्ञानी देवत्व निरीक्षण―आचार्य समंतभद्र ने तो एक बड़ी खुली घोषणा की थी कि यह मस्तक कोई नारियल नहीं है जो कि यहाँ चाहे पटक दिया जाय। तो इस अरहंत की तीर्थंकर की, प्रभु की बहुत-बहुत परीक्षा की, चतुर्विंशति जिनेंद्र का स्तवन रचा तो उस परीक्षण में 7 तीर्थंकरों की स्तुति तक स्तोत्र में वंदना शब्द नहीं आया जिन्होंने वृहृत स्वयं भूस्तोत्र का अध्ययन किया उनको मालूम होगा कि ऋषभदेव से लेकर सुपार्श्वनाथ तीर्थंकर तक स्तुति खूब की पर उन की स्तुति में वहाँ तक कहीं वंदना शब्द नहीं आया। जब चंद्रप्रभ देव का स्तवन प्रारंभ हुआ तब प्रथम छंद में वंदे शब्द आया। वंदन तो पहिले भी था, किंतु देखो प्रभाव कि वंदे कहते ही एक चमत्कार जमा। छंद है वह यह चंद्रप्रमं चंद्रमरीचिगौरं चंद्रं द्वितीयं जगतीव कांतं। वंदेभिवंद्यं महतामृषींद्रं जिनं जितस्वांत कषा बंधम्। यहाँ आया वंदना शब्द और जहाँ वंदना की वहाँ चंद्रप्रभु की प्रतिमा प्रकट हुई। तो साधारण विवेक तो गृहस्थ में भी होना चाहिए कि देव का स्वरूप क्या? शास्त्र का स्वरूप क्या और गुरू का स्वरूप क्या? ज्ञानी की देवभक्ति―देव वीतराग सर्वज्ञ चाहे उस स्वरूप को प्रतिमा में स्थापना कर लिया तो प्रतिमा स्वयं देव नहीं हुई किंतु प्रतिमा उत्पन्न देव है और स्थापना में भी विनय होता है। जैसे सभी लोग जानते हैं कि जब किसी का पिता गुजर जाता तो उस पिता की फोटो अपनी दुकान में लगाते। यद्यपि वे जानते हैं कि यह हमारे पिता जी नहीं यह तो फोटो है फिर भी विनय की बात देखिये कि जितनी विनय उस पिता की कर सकते थे उतनी ही विनय वे फोटो की कर रहे। कोई अगर उस फोटो को उतार कर फेंकना चाहे तो वहाँ तो बड़ा विवाद खड़ा हो जाता। तो जैसे उस फोटो में यह जानते हुए भी कि यह मेरा पिता नहीं, यह तो फोटो है फिर भी विनय में कसर नहीं रखते ऐसे ही ज्ञानी पुरुष जानता है कि परमात्म देव तो मोक्ष में विराजे हैं। चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेंद्र देव मुक्त हो गए हैं, अब आप उनकी कितनी ही स्थापनायें करें फिर भी वे मोक्ष से चिगकर वापिस लौटकर न आयेंगे। नहीं आते तो मत आयें, अपने ही स्वरूप में रमते रहें, निज आनंदरस में लीन रहें। अगर आवोगे प्रभु तो तुम में कमी हो जायेगी, फिर तुम्हारी प्रभुता भी न रहेगी। सो तो यह अच्छा है कि प्रभु मोक्ष से वापिस नहीं आते, मगर प्रभु में इतनी भक्ति है कि जब प्रभु साक्षात् नहीं मिलते तो प्रभु की स्थापना उस प्रतिमा में करते। कर लें स्थापना ये रहते हैं स्थापना निक्षेप से प्रभु, भाव निक्षेप से वे प्रभु है जो मोक्ष में विराज गए। तो ये स्थापना के प्रभु हैं, किंतु प्रभुता के अनुराग से उतना ही विनय इस प्रतिमा में होता है जितना विनय साक्षात् अरहंत तीर्थंकर जिनेंद्र प्रभु परमात्मा मिलें तो वहाँ कर सकते हैं। तो देव की भी परीक्षा कर समंतभद्र ने वंदना किया था। तो अपनी भी एक शक्ति का उन्होंने गौरव रखा। मेरे में क्या सामर्थ्य है? सिद्ध प्रभु होने का सामर्थ्य है ऐसा मुझे होना है, तो यह भावना जो पायी जाय वह तो गुरु हो सकता है और जिसमें आत्म हित की भावना नहीं, सहज आत्मस्वरूप का ज्ञान नहीं वह गुरू नहीं हो सकता। वही इन स्थलों में बहुत विस्तार से कहा जा रहा है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से रहित है, अपने आत्मा को जानता नहीं है वह मुनि भेष धारण करले तो उससे क्या लाभ? वह कर्मों का क्षय नहीं कर सकता और वह तो गृहस्थ भी नहीं, मुनि भी नहीं। उसे तो मुनिपने का आनंद भी नहीं मिल रहा और गृहस्थों जैसा आराम भी नहीं मिल रहा। प्रयोजन यह है कि मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ भला है। कर्म निर्जरण का उपाय निजशुद्ध स्वरूपानुभूति―चाहे गृहस्थ हो चाहे मुनि हो, सबके कर्मों की निर्जरा निज शुद्ध आत्मस्वरूप की अनुभूति से होती है। अपने इस शुद्ध अंतस्तत्त्व के बोध बिना यह जीव चाहे धर्म के नाम पर कैसा ही प्रसंग बना ले, पर कर्मों का क्षय नहीं कर सकती तो इससे शिक्षा क्या लेना कि मुनि भेष धारण करने वाले भी जिस सम्यक्त्व के प्रताप से सिद्ध हो सकते हैं, कर्मों की निर्जरा कर सकते हैं वह सम्यक्त्व भी निज शुद्ध आत्मा की अनुभूति से प्राप्त होता। शिक्षा यहाँ यह लेना, कहीं निंदा की शिक्षा न लेना, न निंदा के लिए उत्सुकता जगाना। इस कथन का उद्देश्य यह है कि जिस सम्यग्दर्शन के बिना मुनि भी कल्याण नहीं कर सकता वह सम्यग्दर्शन उपादेय है और मेरे को तो वह सम्यक्त्व प्राप्त होवे जिसके प्रताप से गृहस्थ रहेंगे तो ढंग से रहेंगे और मुनि होवेंगे तो सही होवेंगे। तो सम्यक्त्व यदि मूल में हैं तो यह जीव कर्मों का क्षय कर सकता है और सम्यक्त्व नहीं है तो उसका मुनि भेष वह क्या कर सकता है। यह सब जानकर एक ही बात अपने कर्तव्य में समझना कि मेरे को तो मेरे स्वरूप में समाया हुआ रहना है। बस ऐसा ही मानकर रह जाऊं कि यह मैं अविकार चैतन्य स्वभाव मात्र हूँ। अन्य रूप से मुझे मेरी प्रतीति न हो तो अवश्य ही आत्महित होगा।