वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 82
From जैनकोष
मक्खी सिलिम्मि पडियो मुबइ जहा तह परिग्गहे पडियो।
लोही मूढो खवणो कायकिलेसेसु अण्णाणी।।82꠰꠰
पर्यायविमूढ अज्ञानी परिग्रहपतित क्षपण के जीवन की व्यर्थता―जो पुरुष अज्ञानी है जिसको आत्मा के सहज स्वरूप का परिचय नहीं है अर्थात् जिसको अपना पता ही नहीं है ऐसा पुरुष यदि मुनि बन जाये, क्षपण हो जाये तो वह मूढ़ लोभी अज्ञानी कायक्लेशों में पड़कर मरण करता है जैसे कि मक्खी कफ में गिरकर कर मरण करती है यहाँ दृष्टांत दिया है कि जैसे सब लोग जानते हैं कि यदि कोई मक्खी कफ पर आ जाये तो ऐसा फटकती है कि उसको निकालना कठिन हो जाता है। तो फिर बेचारी उस कफ में पड़े मरण कर जाती है। अंतरंग मरण तो सभी पुरुष करेंगे ही पर जो साधु परमेष्ठी का बाना रखकर आत्मज्ञान से शून्य है केवल मन के परिग्रह में पड़ा हुआ है वह पुरुष कायक्लेश में समय गुजारकर मरण को प्राप्त हो जाता है जिसको निःसंग अविकार सहज चित्प्रकाश की सुध नहीं है और उस चित्प्रकाश मैं यह मैं हूँ मैं अन्य कुछ नहीं ऐसा दृढ़ विश्वास नहीं है उस पुरुष का उपयोग कहीं तो लगना चाहिए। आत्मा में तो उपयोग लग नहीं सकता, क्योंकि आत्मा का ज्ञान ही नहीं। अज्ञात वस्तु में कहीं दिल टिकता है क्या किसी का? जो ज्ञान में आया हो वह क्षपण याने निर्ग्रंथ भेषी मुनि जो आत्माज्ञान से रहित है उनका उपयोग आत्मा में तो लग नहीं सकता तो लगेगा कहीं बाहर सो यह अज्ञानी मुनिवेशी परिग्रह में पतित होकर कायक्लेश सहता हुआ मरण को प्राप्त होता है। अज्ञानी का स्वपद में रमण क्षमता के अभाव से परपद में रमण―चारित्र गुण ठाली नहीं रह सकता। यदि आत्मज्ञान नहीं है तो किसी पर पदार्थ में उपयोग रमेगा। आत्मा का रमण करने का भी स्वभाव है तो वह रमता है बहिस्तत्त्व में जैसे शरीर को देखकर मैं मुनि हूँ लोगों को देखकर ये मेरे भक्त हैं, मैने तपस्या की है, ये लोग कुछ समझ जावें या मैंने यह मुनि भेष रखा है तो मुझे यों चलना चाहिए, इस तरह की मन में जो पर्याय के प्रति बुद्धि है उसके कारण जो ज्ञात बात है उसमें मन लगता है और ज्ञात बात क्या है सब बाह्य पदार्थों की बात और बाह्य तत्त्व क्या है? सब परिग्रह, तो वह परिग्रह में पतित है, परिग्रह मात्र बाहरी चीज का नहीं है घर छोड़ दिया कुटुंब छोड़ दिया तो परिग्रह छूट गया ऐसी बात नहीं है अंतरंग परिग्रह में चार प्रकार की कषायें क्रोध मान माया लोभ 9 नो कषायें मोह ये परिग्रह कहलाते हैं इन परिग्रहों हो से इस उपयोग से तो वह अभी पृथक् नहीं हुआ है और न समझ पाया है कि ये तो विकार हैं औपाधिक हैं मेरे स्वरूप नहीं है कहने को तो सब कह देंगे ग्रंथों में भी लिखा हुआ है। बोलते भी है मगर आत्म स्वरूप का ज्ञान हुए बिना यह विकार है यह भी नहीं जाना जा सकता। जैसे दर्पण में बाहरी चीजों का प्रतिबिंब आया कोई छाया है फोटो है तो यह छाया है फोटो है औपाधिक हैं, विकार है यह वही तो समझ सकेगा जो उस ऐना की सही स्वच्छता को भी पहिचानता है तो ऐसे ही क्रोधादिक भाव विकार हैं औपाधिक है यह वही तो समझ सकेगा जो आत्मा के स्वच्छ स्वरूप को भी पहिचानता हो, तो जिसको अविकार अंतः स्वरूप की अनुभूति नहीं हुई है और अलौकिक आनंद का अनुभव नहीं हुआ है वह क्षपक याने मुनि कायक्लेश भी परिग्रह में पतित होकर मरण कर जाता है। अज्ञानी की सर्ववृत्तियों की परपद रूपता―काय क्लेश भी उनका परिग्रह है यह मैं हूँ। मैं ऐसा तपश्चरण करता हूँ। मैं यों तपस्या करूँगा और यह भावना ही उसे नहीं बनती कि मैं पदार्थ स्वरूप ही मात्र हूँ। मैं तो केवल जाननहार रहूँगा। मैं अन्य विकल्प न करूँगा केवल प्रतिभास मात्र इस तत्त्व की खबर नहीं है सो वह लोभी मूढ़ अज्ञानी है। तीनों ही रूप रखकर काय क्लेश में रहकर परिग्रह में पतित होकर मरण करते हैं। यहाँ तीन विशेषण दिया है गाथा में लोभी मूढ अज्ञानी। ये बाहरी विकल्पों का परिग्रहण करते हैं इनसे विविक्त जो आत्मा का अविकार स्वरूप है उसमें उनका ध्यान नहीं जागता। यह तो सब माया है। मैं तो परमार्थ कारण समयसार हूँ। तो जो कुछ बाहर की भक्ति विनय या और-और भी बातें होती हैं उनमें यह तृप्त होता। उसका यह लोभी है मूढ़ कैसे है कि वह बेहोश है, अपने आत्मा का उसे होश नहीं है। कर्म इस भेष से नहीं डरा करते। कर्म तो आत्मा के शुद्ध स्वभाव की भावना होने पर दूर हुआ करते हैं। काय की चेष्टा से कर्मों के निर्जरण का कोई संबंध नहीं हैं, और आत्मा की शुद्ध भावना होने पर कर्मों का निर्जरण होता, संवर भी होता, सो यहाँ कुंदकुंदाचार्य देव उन साधुवों को संबोधन करते हैं कि जो आत्मज्ञान से रहित हैं और केवल बाह्य भेष आदिक में तृप्त रहते हैं। और इसी में मौज मानकर अपना समय गंवाते हैं। कहते हैं कि उनकी स्थिति ऐसी है कि जैसे कफ में गिरी हुई मक्खी की स्थिति होती है। परिग्रह में पतित होकर मरण वह वहाँ ही पड़ी-पड़ी मरण को प्राप्त होती है। इससे यह आगाह किया गया कि वस्तु स्वरूप को निरखकर आत्मा के स्वरूप तत्त्व को देखकर जो अविकार सहज शुद्ध है, सदा सिद्ध है उस स्वरूप में आपा का अनुभव करें कि मैं यह हूँ।