वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 81
From जैनकोष
‘साल विहीणो राओ दाणदयाधम्मरहिय गिहि सोहा।
णाणविहीणतवोवि य जीवविणा देहसोहा णो।।81।।’
ज्ञानरहित तप से सिद्धि असंभवता―ज्ञान से रहित तप की कोई शोभा नहीं। ज्ञान का ज्ञान रूप से बना रहना इस स्थिति से कर्म निर्जरा होती है, शरीर की क्या चेष्टायें हैं और बाहर में क्या क्रिया चल रही है, कर्म का इसमें निमित्त नैमित्तिक संबंध नहीं है। कर्मबंध का कर्माश्रव का निमित्त है उदय में आये हुए कर्म, द्रव्य प्रत्यय और इन द्रव्य प्रत्ययों में कर्म के आश्रय का निमित्तपना आ जाय इसका नाम है जीव के राग द्वेषादिक भाव। तो मूल में जीव के अपराध से ही आश्रव हुआ। जैसे कोई पुरुष अपने कुत्ते को धुधकार दे किसी मनुष्य पर और वह कुत्ता उस मनुष्य को काट ले तो अपराधी कौन हुआ? वह मनुष्य मालिक जिसने कुत्ते को धुधकारा है तो जैसे काटा तो कुत्ते ने पर अपराध माना गया मालिक का ऐसे ही कर्म का आव तो हुआ उदयगत द्रव्य प्रत्यय से किंतु छुछकारा है द्रव्य प्रत्यय को इस जीव के राग द्वेष ने, तो मूल में अपराध जीव का रागद्वेष भाव हुआ। तब यह समझियेगा कि कर्म की निर्जरा का निमित्त वह क्रिया नहीं जैसे कि कर्मों के आश्रव क्रिया नहीं किंतु द्रव्य प्रत्यय अथवा रागद्वेष भाव हैं। कर्म भी निर्जीर्ण होते हैं तो इसके शरीर की दशा देखकर नहीं होते कि यह देखो बेचारा पहाड़ पर चढ़ गया दोपहर में तो इसके कर्म झड़ने ही चाहिए, कर्मों की निवृत्ति कहीं काय क्लेश करने से नहीं होती किंतु शुद्ध भावों से होती है। आत्मा के शुद्ध भावों का निमित्त पाकर पूर्व बद्धह कर्म स्थिति कांडक अनुभाग कांडक सब नष्ट हो जाया करते हैं तो यहाँ मूल बात यह कही जा रही है कि यदि ज्ञान भाव न जगा। अपने अविकार सहज स्वरूप की दृष्टि न पायी तो कितने ही तप कर लिए जायें उनसे कर्म निर्जरा नहीं होती। एक बात यहाँ थोड़ा समझने की यह है कि फिर ये तप व्रत वगैरह क्यों किये जाते? तो तपश्चरण करना किस प्रयोजन के लिए? मेरे ज्ञानभाव में विशुद्धि आये ऐसा जिनका लक्ष्य है उनके लिए तपश्चरण में भी यह विशुद्धि प्रकट होती है। तपश्चरण के दो प्रयोजन―तपश्चरण करने के दो कारण हैं। एक तो यह कि आराम से जो ज्ञान उत्पन्न किया भेद विज्ञान आत्मदृष्टि तत्त्वबोध जो कुछ आराम से किया तो वह पाया हुआ ज्ञान कदाचित कष्ट के आने पर नष्ट हो सकता है क्योंकि उसने कहीं कष्ट सहा नहीं। जानकर सहा नहीं। अपने आप कष्ट आने पर सहा तो उसको पाया हुआ ज्ञान सुरक्षित करने के लिए यह आवश्यक है कि वह ज्ञान जान कर कष्ट सहता रहे उससे यह अभ्यास बन जायगा कि कदाचित कष्ट आने पर भी उसका ज्ञान नष्ट न होगा। एक कारण तो यह है दूसरा कारण यह है कि मन चंचल है कषाय का संस्कार है, अशुभोपयोग आने की नौबत बनी रहती है। तो इस वासना को दूर करने के लिए अनशन आदिक तपश्चरण किए जाते हैं ताकि उपयोग बदल जाय और अशुभोपयोग से हट जाय। कभी देखा होगा कि किसी बालक को यदि हुचकी आती हो तो उसे लोग ऐसी कोई बात कह देते कि जिससे है रानी में पड़ जाय तो उसकी हुचकी बंद हो जाती है जैसे उसके घर रात को क्यों गया था, या तू उसकी चीज चुराकर क्यों लाया बस उसकी हुचकी बंद हो जाती है। यह तो बच्चे की बात कह रहे, उसका उपयोग बदलने को इतना ही काफी है, मगर कषायों का संस्कार बदलने के लिए गप्प सप्प काफी नहीं होता। बड़े-बड़े तपश्चरण अशुभोपयोग के संस्कार बदलने के लिए हुआ करते हैं। तो तपश्चरण के दो कारण हैं। तपश्चरण के प्रयोजन से अनभिज्ञ अज्ञानी जीव की तपस्या की दुर्ग रहित राजा की तरह अशोभा व अरक्षा―अब यदि कोई साधु कि मैं आज तेज धूप में बैठकर खूब तपस्या करूंगा और खूब कर्मों की निर्जरा करूंगा तो यह उसकी अज्ञान भी कल्पना है यहां तपश्चरण करूंगा के मायने हुआ तेज गर्मी सहूंगा, कई दिनों के लिए भोजन छोड़ दूँगा और इस तरह कर्म खिरा दूँगा, पर यह तो बताओ कि ऐसी अज्ञान भावना से कर्म मिटेंगे कि बढ़ेंगे? बढ़ते ही हैं। तो जब तक अपने सहज ज्ञान स्वभाव की रुचि, अनुभूति, प्रतीति न जगे तब तक ज्ञान विहीन यह तप ऐसा व्यर्थ है या शोभा रहित है जैसे कि दुर्ग के बिना राजा की शोभा नहीं रहती। दुर्ग होता है किला खूब मजबूत किला होता, उसमें राजा के महल होते हैं और वहाँ रहकर राजा अपने को सुरक्षित अनुभव करता, और यदि दुर्ग नहीं है, प्रजाजनों की भाँति सीधे मैदान में ही कुछ महल बने हैं, वहीं रहता हो राजा तो एक तो शोभा नहीं, दूसरे सुरक्षा नहीं ऐसे ही ज्ञानरहित तप में शोभा नहीं कार्य सिद्धि नहीं। कर्मनिर्जरण का निमित्त वीतराग भाव―एक कुँजी यह जानें कि जो काम होने की बात की जावें। उस काम की विधि समझना और विधि निमित्त नैमित्तिक भाव समझने से जानी जाती है। उस का कार्य है कि कर्म दूर हों तो कर्मों की निर्जरा होने का निमित्त आत्मा का वीतराग भाव हैं। गर्मी के दिनों में तप्तायमान पहाड़ पर बैठ जाना यह कर्म निर्जरा का निमित्त नहीं है। सीधा देखो ना जो नवीन कार्य नैमित्तिक कार्य जिस स्थिति में होता है वही स्थिति तो निमित्त है। विज्ञानरूप रहे ज्ञानमात्र रहे ज्ञातादृष्टा रहे, शुद्ध चित्प्रकाश ऐसी ही अपनी सामान्य स्थिति बन जाये तो कर्म की निर्जरा होती है सामान्य का बड़ा महत्त्व होता है और विशेष तो निंद्य है परंतु लोक में उससे उल्टी बात है कि विशेष आदमी आया था विशेष आदमी की चर्चा यहाँ महत्त्वशाली मानी जाती है। पर अध्यात्म में आत्मकल्याण में विशेष तत्त्व तो हेय है छोड़ने योग्य है और सामान्य तत्त्व उपादेय है। एक बात और ध्यान में लायें कि यदि कोई पुरुष अपने आप को एक साधारण अनुभव करता सब जीवों की तरह तो सबमें समान रहकर अपने आप में एक निर्विकल्पता उत्पन्न करने का अवसर पाता है और यदि से दृष्टि बने कि मैं विशेष हूँ, ऐसी विशेषता अपने आप में अनुभव की जाये तो मोक्ष का हेतुभूत वह शुद्धभाव वहाँ आ नहीं पाता। सामान्य का प्रतिभास, सामान्य और सामान्य स्थिति यह बहुत उपकारक स्थिति है, विशेष स्थिति है संसार और सामान्य स्थिति है मोक्ष। निस्तरंग, नीरंग, निसंग, यह अवस्था विशेष में नहीं होती, सामान्य में होती है और भी सामान्य का महत्त्व देखिये अपने आप को किस रूप में अनुभवा जाय कि अपने में समता जगे समाधि बने निर्विकल्पता बने। यदि अपने को विशेष रूप अनुभवा जाय और बहुत विशेष की बात तो दूर रहो अपने में अपना व्यक्तित्व भी देखा जाये कि यह हूँ मैं यह चैतन्य यह जीव यह ज्ञान स्वरूप यह हूँ मैं इतना तक भेद भाव हो तो वह परिणामों में परम समता को नहीं लाने देता परम समाधिभाव को वह उत्पन्न नहीं करने देता। ये बातें हैं तो ज्ञातव्य समझते भी हैं किंतु जब समाधि का प्रसंग आया निर्विकल्प निराकुल एक रस ज्ञान मात्र अनुभव में है जब ऐसा अपना अंतः पौरुष चले उस समय यह मैं यह हूँ ऐसा सामने अपने को रखकर अपना मनन करना यह भी बाधक है। समझ तो यह बनानी पड़ेगी मगर इस समझ को बनाकर फिर इस समझ को भी त्यागकर निर्विकल्प अपने में परम विश्राम चाहिए। तपश्चरण के मूल प्रयोजन की जिज्ञासा―भोजन किसलिए बनाते कि बना कर उसे खाया जाय। क्या कहीं कोई ऐसा भी मूर्ख देखा कि जो खाना तो दिन भर बनाये और उसे खुद न खाये? ऐसा तो शायद कभी न देखा होगा कभी ऐसा हो जाता है कि किसी महिला ने मानो खाना बनाया तो सब को खिला दिया, खुद ने उस समय न खाकर शाम को खा लिया तो वह तो एक परिस्थिति है समझकर ऐसा करती है पर अज्ञानवश तो ऐसा कोई नहीं करेगा। यदि अज्ञानवश इस तरह करे तब तो रोज-रोज वैसा ही करे। तो ऐसा कोई न मिलेगा कि जो भोजन तो रोज-रोज बनाये पर उसको खाने का उद्देश्य न रखे। काहे के लिये भोजन बनाया? उदर पूर्ति के लिए तो काहे के लिए व्रत तप संयम कर रहे है? इसका जिसके पास उत्तर नहीं वह ज्ञान विहीन है और वह कितने ही तप करे तो भी उसका कुछ प्रयोजन नहीं है ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो इसके लिए ये तप व्रत किये जा रहे हैं? जितने ही व्यवहार धर्म के कार्य हैं इसका उत्तर यह ही एक है। मंदिर जाने और देवदर्शन करने के प्रयोजन की जिज्ञासा―आप किस लिए मंदिर जाते तो इसका उत्तर होना चाहिए कि मेरे ज्ञान में मेरा ज्ञान स्वरूप समाया रहे निर्विकल्प परम समता रास का अनुभव करूँ इसके लाभ के लिए मंदिर जाते। वहाँ प्रभु के प्रतिबिंब से ऐसी प्रेरणा मिलती है कि संसार में कहीं कुछ सार नहीं है मेरी तरह पद्मासन से एक जगह बैठ जाओ। दुनिया में चलने से कुछ नहीं मिले। जिस मुझसे यह शिक्षा मिलती है कि तुम किस-किस कार्य को करने का अहंकार और आरंभ कर रहे हो? जगत में कोई भी पदार्थ कोई भी कार्य ऐसा नहीं है कि जो आत्मा में शांति उत्पन्न कर सके तब फिर मेरी ही तरह (प्रभु की तरह) हाथ पर हाथ रखकर विश्राम से बैठकर रह जावो, इन आँखों को चंचल क्यों कर रहे हो? इनको यहाँ वहाँ क्यों घूमा रहे? यत्र तत्र क्यों देखा करते हो? जगत में ‘कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं कि जो अपने लिए शरणभूत हो तब फिर मेरी ही तरह नासाग्र दृष्टि रखकर निश्चल होकर बैठ जावो। यह शिक्षा जिसकी मुद्रा से मिल रही है बस उस मुद्रा से यह भाव भरा और उस मुद्रा में जिसकी स्थापना की गई है मान लो उस मूर्ति में महावीर स्वामी की स्थापना है तो उस मूर्ति में उसके स्वरूप चिंतन में लगना कि वे अनंत चतुष्टय के धनी अनंत ज्ञान व दर्शन आनंद व अनंत शक्ति कैसा निराकुल वीतराग सर्वज्ञ अब उस चैतन्य स्वरूप पर दृष्टि जा रही है इससे क्या होगा? ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो। उपवास के प्रयोजन की जिज्ञासा―किसलिए उपवास कर रहे? उपवास करने वालों से पूछो उनका जवाब लो तो यह ही जवाब आयगा ज्ञानी पुरुष का कि उसका विकल्प मिटे इसके लिए अनशन किया यदि यह ऐसा बन जाये तो कोई उपवास नहीं करेगा जिसमें रात दिन विकल्प बन जाते हैं हाय-हाय करते हैं उसका एहसान थोपते हैं कि हमने आज उपवास में कुछ नहीं लिया सिर्फ पानी पूनी रख लिया था अब बताओ अपनी इस पानी पूनी पानी में पानी तो सस्ता है पूनीबंपरा मंहगा पड़ जायेगा। पूनी का अर्थ है मुनक्का, किसमिस, बादाम पिस्ता आदि। अरे उपवास किस लिए किया था? इसलिए कि आत्मा में विकल्प ना जगें विकल्प से निवृत्त होने के लिये तो उपवास किया था और इसके एवज में ओर भी विकल्प बढ़ते हैं तो अपना उद्देश्य कहाँ सम्हाला उसने? ज्ञान विहीन तपश्चरण। न तो शोभा है और न आत्मा की सुरक्षा है वह किस तरह? इसके लिये यहाँ उदाहरण दिया गया है कि जैसे दुर्ग से रहित राजा की शोभा नहीं, दुर्ग किसे कहते हैं जहाँ बड़ी मुश्किल से पहुंचा जाये बड़ी कठिनाई आये जिसके अंदर घुसने में उसे कहते दुर्ग यदि दुर्ग नहीं तो जो चाहे जैसे चाहे आक्रमण करके उसे नष्ट कर दे उस राजा की न तो रक्षा है और न ही शोभा है ऐसे ही ज्ञान रहित तप से न उस जीव की शोभा है और न रक्षा है। दान या धर्म रहित गृहस्थ की तरह ज्ञान विहीन तप की अशोभा―दूसरा उदाहरण ज्ञान विहीन तप की व्यर्थता पर दिया गया है कि दान दया धर्म से रहित गृहस्थ की न तो शोभा है और न सुरक्षा। और दान वही कहलाता है कि अपने भावों की उत्सुकता से किया जाये। यदि यह भाव नहीं हे दान नहीं है तो गृहस्थ की शोभा नहीं, दया बिना तो साधु की भी शोभा नहीं है। पर यहाँ एक लौकिक प्रसंग का उदाहरण है साधु को दया आयेगी तो वह किस तरह क्या करेगा? क्या किसी को रोटी खिला देगा कि जावो ढाबे से रोटी खा आवो हम उसका पेमेन्ट कर देंगे...? अरे साधुजन ये लौकिक बातें नहीं किया करते। साधुजनों की दया किस प्रकार है? वे वचनों से आत्मा का बोध करायेंगे ज्ञान करायेंगे कि जिससे उसके संकट कम हो जाये। तो लौकिक बातों में गृहस्थ जन की दूसरों को आराम दे सकते इसलिए दया बिना गृहस्थ की शोभा नहीं यह उदाहरण दिया जाता है और धर्मरहित गृहस्थ में जो भी बातें उपयुक्त हैं उन कर्तव्यों से रहित गृहस्थ की शोभा नहीं। जीव बिना शरीर की तरह ज्ञान विहीन तप की अशोभा―तीसरा उदाहरण है कि जीव के बिना शरीर की शोभा नहीं। जो लोग प्रेम करते हैं किसी से तो वहाँ एक यह निर्णय करके तो बताओ कि वे शरीर से प्रेम करते या आत्मा से? यदि शरीर से प्रेम करते होते तो जीव के निकल जाने के बाद उन्हें रोना तो न चाहिए, क्योंकि जिस शरीर से प्रेम करते थे वह शरीर तो अभी वहाँ पड़ा हुआ है, उन्हें कष्ट न मानना चाहिए क्योंकि वे तो शरीर से प्रेम करते थे। बल्कि थोड़ा खुशी माननी चाहिए थी कि वह शरीर अब कहीं भाग नहीं सकता उससे खूब मनमाना प्रेम किया जाय। तो इस शरीर से कौन प्रेम करता है शरीर प्रेम की वस्तु नहीं है। तो क्या प्रेम करने वाले लोग जीव से प्रेम करते हैं? जीव से भी प्रेम नहीं करते। यदि जीव से प्रेम करते होते तो जैसे इसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र बने। मोक्ष मार्ग में लगें, विकल्प न जगें, निर्विकल्प समाधि के अनेक अवसर आयें, इसी तरह की भावना होनी चाहिए ऐसी भावना कहाँ होती? और साधारण रूप से देखो तो माता पिता अपने पुत्र के प्रति प्रश्नोत्तर करने लगते। पुत्र से प्रेम है तो यह बतलाओ कि पुत्र के शरीर से प्रेम है या उसके आत्मा से प्रेम है? शरीर से प्रेम तो नहीं रखते, गुण न हों, बुद्धि उसकी अच्छी न हो, बड़ा ऊधमी हो, या उपद्रव करता हो, धनार्जन करने का काम न करता हो तो उसके शरीर से कौन प्रेम करता? तो क्या जीव से प्रेम करता? अगर जीव से प्रेम हो माता पिता का तो उसकी यह भावना रहनी चाहिए कि यह पुत्र खूब अध्ययन करे, विद्वान बने और उसकी ऐसी सद्बुद्धि हो कि यह विवाह भी न करे और ब्रह्मचारी बने, अपने आत्मा की साधना करे, संसार के संकटों से सदा के लिए मुक्त हो जाय ऐसी भावना करने वाला अगर इस नगर में हो कोई तो हमें भी बता देना कि जो पुत्र की आत्मा के प्रति ऐसा भाव करता हो या दुनिया में कहीं कोई ऐसा दिखे तो हमें भी बता देना, होते तो हैं, मना तो नहीं किया जा सकता, पर वे ही माता पिता ऐसे होते हैं कि जो स्वयं विरक्त हैं, स्वयं को भी जिन्हें संसार नहीं सुहा रहा और अपने आत्मा में, ब्रह्म स्वरूप में मग्न होने का भाव रखते हैं, ऐसे माता पिता अपने पुत्र के प्रति यह एक कामना रख सकते हैं कि मेरा पुत्र कल्याण के मार्ग में लगे। तो कोई न तो किसी के शरीर से प्रेम करता न जीव से प्रेम करता, किंतु अपने आप के अंदर जो भाव उठता, जो कषाय जगती उसको शांत करने के लिए यह सब व्यवहार होता है। तो प्रकरण यह है कि जीव के बिना शरीर की शोभा नहीं है। वैसे भी शोभा नहीं, मुर्दापन छा जाता है किसी काम का नहीं रहा इसलिए भी उसकी शोभा नहीं तो ऐसे ही ज्ञान से रहित तपश्चरण की न शोभा है और न उसमें कुछ आत्मा की रक्षा है।