वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 19
From जैनकोष
एवं सहिओ मुणिवर संजहमज्झम्मि बट्टदे णिच्चं ।
बहुलं पि जाणमाणो भावविणट्ठो ण सो समणो ।।19।।
(41) संयतों मध्य रहते हुए भी व बहुत जानकार होने पर भी कुप्रवृत्तिमुक्त मुनिवेषियों की भावविनष्टता―जैसे पहले अब तक मन, वचन, काय की खोटी प्रवृत्तियां बताते आये हैं उन प्रवृत्तियों से जो सहित हैं वह मुनि श्रमण नहीं है । इस लिंगपाहुड ग्रंथ में जो मुनि के योग्य कार्य हैं उनका वर्णन किया जा रहा है । मुनि के योग्य कर्तव्य, मुनि में शील स्वभाव का परिचय आदिक सब पहले मोक्षपाहुड तक ग्रंथों में आ गए । यहां तो वह ही कहा जा रहा है कि जो मुनियों को करना न चाहिए । तो जो उन कंदर्प आदिक खोटी प्रवृत्तियों से युक्त है वह साधु संयमी जनों के बीच भी निरंतर रहें और बहुत प्रकार के शास्त्रों का ज्ञाता भी बन जाये तो भी वह भाव से नष्ट है, वह श्रमण नहीं है जिसको निरंतर विषयों की वासना रहती हो? अपने इस शरीर को स्वयं आत्मा जानकर जो उसकी प्रीति में लग रहा हो वह श्रमण श्रमण नहीं है और ऐसे खोटे संस्कार वाला मुनिभेषी संयमी, मुनियों के आचार्य के संघ में भी बहुत-बहुत रहे तो भी जो इस तरह की कल्पनायें चलायी हैं, हठ किया है उन प्रवृत्तियों को छोड़ नहीं सकता, ऐसा मुनि भेषी जो मन, वचन, काय की खोटी प्रवृत्तियों में रहता है वह बहुत से शास्त्र भी जान ले तो भी वह भाव से विनष्ट है । आचरण का बहुत अधिक महत्त्व है । ज्ञान का फल आचरण है । ज्ञान भी बहुत करें, पर आचरण खोटा हो, आचरण से रहित हो तो कर्मबंध आदिक जो कुछ भी होते हैं वे निमित्त के अनुरूप होते ही रहेंगे ꠰ तो इन खोटे संस्कारों के कारण मुनियों के बीच बहुत समय भी रहे तो भी वह अपने विकल्पविष को नहीं छोड़ता । यह मुनिभेषी शास्त्रों का जानकार है तो वहाँ ज्ञानावरण का क्षयोपशम है । ज्ञान बढ़ जाये या ज्ञान कम हो जाये, इससे बंध नहीं होता, बंध होता है दर्शनमोह और चारित्रमोह के परिणाम होने से । सो ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने में भले ही कुछ बात जानी गई पर मुनिभेषी कोई पुरुष लौकिक आचरण से शून्य है, विषयों से प्रीति है, कषायों का आदर है और आत्मतत्त्व को छू भी नहीं सकता है तो वह पुरुष श्रमण नहीं, किंतु तिर्यंचयोनि वाला है ꠰ मुनिपना तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के कारण होता है । यही न हो तो केवल भेष मात्र से कर्मबंध सकता नहीं है मोक्षमार्ग की प्रगति होती नहीं है । सो ऐसा कोई मुनिभेषी भाव से ही नष्ट है, उसके भावों से प्रगति नहीं है ।