वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 20
From जैनकोष
दंसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देहि वीसट्ठो ।
पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो ।꠰20।।
(42) महिलावर्ग में विश्वस्त व व्यवहारयुक्त मुनिभेषियों की भावाविनष्टता―जो मुनिलिंग स्त्रियों के समूह में विश्वास करता, विश्वास कराता और अधिक रुचि रखता प्रवचन आदिक करने में तो स्त्रीगणों के बीच उसका उपयोग रहने से यह श्रमण श्रमण नहीं रह पाता, किंतु वह विषयकषायों का आदर करने वाला बन जाता है, चरणानुयोग की परंपरा है उन बाह्य विषयों को, साधनों को त्याग दे, जिनके आलंबन से भावों में विकार होता है । सो त्यागने की बात तो दूर रही, किंतु विपरीत साधनों में रमता है, तो वह भाव से विनष्ट है । भले ही कोई साधु महिलावर्ग को अधिक पढ़ाये, ज्ञान दे, चर्चा करे, लेकिन उसकी केवल महिलावर्ग में एक रुचि और आस्था होने से उसके भावों में विशुद्धि नहीं हो पाती, इसी कारण श्रमण जनों का साधु जनों का महिलावर्ग में व्यवहार नहीं बताया गया है । यद्यपि ऐसा मुनिभेषी साधु महिलावर्ग को ज्ञानदान देता, सम्यक्त्व की बात बताता, चारित्र की बात बताता, काम तो अच्छा कर रहा उस महिला समाज के उपकार के लिए, पर महिला वर्ग में ऐसा व्यवहार करने में, समय बिताने में परिणामों में विशुद्धि कम हो जाती है और वह पुरुष शाश्वत आनंद को प्राप्त नहीं कर सकता । सो खोटी प्रवृत्ति वाला मुनिभेषी तो पार्श्वस्थ साधु से भी निकृष्ट है जो साधु यद̖वा तद̖वा प्रवृत्ति करके जैनशासन से विमुख हो गया है उससे भी अधिक निकृष्ट है वह पुरुष जो महिलावर्ग में विश्वास कराये और विश्वास करे, ऐसा उपयोग क्यों यहाँ रम रहा? रमना चाहिए आत्मा के दर्शन, ज्ञान चारित्रस्वरूप में, और धर्मात्मा पुरुष जनों में, पर इस और जिसकी दृष्टि न हो और केवल विषयकषाय के आधीन होकर ही कुसंग करे तो वह पुरुष पार्श्वस्थ साधु से भी निकृष्ट है ।