वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 28
From जैनकोष
उदधीव रदणभरिदो तबविणयंसीलदाणरयणाणं ।
सोहेतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तयं पत्तां ।।28।।
(58) तप व्रत आदि रत्नों की शील से शोभा―यह शीलपाहुड ग्रंथ है । इसमें आत्मा के शील का याने स्वभाव का वर्णन किया है । आत्मा का धन है तो आत्मा का शीलस्वभाव धन है । शील को छोड़कर, स्वभाव की दृष्टि को छोड़कर यदि बाह्य पदार्थों में यह लगता है तो यह आकुलित रहता है सो सारी शोभा, समस्त विकास आत्मा के शील पर अवलंबित है । एक दृष्टांत यहाँ देते हैं कि जैसे समुद्र रत्नों से भरा है, समुद्र का नाम रत्नाकर भी है, जिसमें रत्न पड़े हों वह समुद्र है, पृथ्वी में भी रत्न पड़े हुए हैं, समुद्र में भी रत्न पड़े हुए हैं और उनमें रत्न क्या-क्या पड़े हैं? अनेक प्रकार के रत्न जो कुछ होते हैं । तो समुद्र रत्नों से भरा है और जल से भी भरा है अगर समुद्र का जल सूख जाये या जल न हो तो भले ही वे रत्न ऊपर आये हों, मगर उनका महत्त्व, उनकी शोभा जल के बिना नहीं बनती । ऐसे ही इस आत्मा में तप विनय, शील, दान आदि रत्न भरे पड़े हैं, पर रत्नों की शोभा जैसे जल के बिना नहीं बढ़ती, ऐसे ही यहाँ शील न हो तो इनकी शोभा नहीं है । शील हो तो उसी के प्रताप से तप विनय आदिक भी मोक्ष के कारण बन जाते हैं । देखिये, धर्म के लिये सब लालायित हैं । कोई मंदिर आता है, पूजा करता है, दर्शन करता है । धर्म के कोई कार्य हों तो इन कार्यों में वह लगन रखता है । यहाँ तक कि अपना सर्वस्व भी सौंप देता है, इतना तो बड़ा त्याग लोग करते, परिश्रम करते हैं, पर धर्म का आधार है आत्मा का स्वभाव समझ लेना, अपना निरपेक्ष वास्तविक स्वरूप जान लेना, यदि स्वरूप नहीं जान पाया तो जितने भी हम कार्य करते हैं उनसे कुछ पुण्य तो बंध जाएगा, मगर मोक्ष का रास्ता न मिलेगा । तो मोक्षमार्ग पाने के लिए आत्मस्वरूप के जानने का मुख्य कर्तव्य है । आत्मस्वरूप को जानने के बाद फिर जब भगवान की भक्ति करेंगे तो उनका स्वरूप समझ लेंगे तभी उत्तम भक्ति बनेगी । आत्मा का स्वरूप जानने के बाद व्रत, नियम, उपवास आदिक जो-जो भी धार्मिक क्रियायें की जायेंगी तो वहाँ सही लक्ष्य बन जाने से सही बनती जायेंगी और एक आत्मस्वरूप को ही न जाने और कुछ भी व्रत, तप आदिक क्रियायें करता रहे तो उसका चित्त कहीं बैठा है? वह कहीं बाहर ही बैठा है, इसलिए उसे मोक्ष का मार्ग नहीं मिलता । कुछ पुण्यलाभ तो मिल जायेगा । जितना पुण्यबंध हुआ उसके अनुसार, मगर मुक्ति का रास्ता आत्मा के ज्ञान बिना तीन काल में भी संभव नहीं ।
(59) दुर्लभ मनुष्यजीवन में आत्मशील के परिचय की नित्य आवश्यकता―यह मनुष्यभव पाया तो सोचिये कितना दुर्लभ नरभव पाया ? अनंतानंत जीव है संसार में, अनंतानंत तो निगोद जीव हैं, जिनका नाम सुनते तो हैं, पर वे दिखते नहीं, सूक्ष्म हैं, हम आपके शरीर में भी अनंत निगोद पड़े हैं और जो शकरकंद आदिक हैं उनमें भी निगोद पड़े हैं । जितनी भी सब्जी हैं, फल हैं, जब ये बहुत छोटे रहते हैं तो इनमें भी निगोद पड़े रहते हैं, बड़े होने पर तो नहीं रहते उन फलों में । जो भक्ष्य हैं उनमें भी जब छोटे होते हैं तब तो उनमें अनंत निगोदिया जीव रहते हैं, लेकिन बड़े हो जाने पर नहीं रहते । जहाँ यह पोल है वहाँ पर भी अनंतानंत सूक्ष्म निगोद ठसाठस भरे हैं । वे जीव क्या हैं? आखिर हम आप भी तो वैसे ही थे । हम आप भी अनादिकाल से अनंतकाल तक निगोद में रहे, वही से निकल आये, प्रथम तो निगोद से निकलना ही बहुत कठिन था । वहाँ से निकलने के बाद पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति हुए । तो ये भव भी पाना कठिन था । आप देखते जाइये कितना मंजिल तय करके हम मनुष्य पर्याय में आये फिर एकेंद्रिय से भी निकलकर दोइंद्रिय होना कठिन था, फिर तीनइंद्रिय होना कठिन था, फिर चारइंद्रिय होना कठिन था, फिर असंज्ञी पंचेंद्रिय होना कठिन था, फिर संज्ञी पंचेंद्रिय होना तो और भी अधिक कठिन । उसमें भी नारकी रहे तो क्या, पशु रहे तो क्या, मनुष्य होना बहुत कठिन है । आज हम मनुष्य हो गए, उसी में हमला कर रहे, कषायों के वंश रहे, परिग्रह की इतनी तीव्र धुन है कि बस वही-वही समाया रहता है और चित्त परेशान रहता है । इतना दुर्लभ मनुष्यभव पाया तो यह निर्णय बनाकर चलें जीवन में कि मेरा सार, मेरा शरण, मेरा सर्वस्व मेरा यह परमात्मस्वरूप है । उसकी दृष्टि होगी तो समझो कि हमें सब कुछ मिल गया और एक अपने परमार्थ स्वरूप की दृष्टि नहीं है तो ये जड़ पुदगल यहाँ पड़े ही हैं, मान लिया कि ये मेरे हैं, केवल कल्पनायें बना बनाकर अपना समय गुजार लेते हैं, पर सार कुछ नहीं । सार तत्त्व तो अपने आत्मा में अपना स्वरूप है । सो उस स्वरूप पर हमने कर्म की गांठ बना रखी थी उसे हम ही ने खोला और खोलकर जब हमने अपना स्वभाव पहिचाना लिया, एक प्रकाशमात्र ज्ञानमात्र यह मैं आत्मस्वरूप हूँ जब इस ज्ञानप्रकाश को जान लिया वो बस इस शील के कारण अब आप जो भी धर्म के कार्य करें, दान, पूजा, व्रत, उपवास, सत्संग, स्वाध्याय आदि, उन सबमें अतिशय आ जायेगा और मोक्षमार्ग के ढंग से आपकी दिशा चल उठेगी और एक आत्मज्ञान पाया तो जैसे अशुभ कार्यों का फल कुगति है, ऐसे ही शुभ कार्यों का फल कुगति है, पर मोक्षफल न मिलेगा । इसलिए शीलसहित जो पुरुष है वही इस अनुत्तर सर्वोत्कृष्ट निर्वाण को प्राप्त करता है ।