वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 39
From जैनकोष
सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा ।
पप्फोडियकम्मरया हवंति आराहणा पयडा ।।39।।
(82) क्षीणकर्मा सुखदु:खविवर्जित पवित्र आत्माओं का सफल आराधनातंत्र―मोक्षमार्ग के कर्तव्य में मरण समय में सल्लेखना करने का विधान है । सल्लेखना का अर्थ है कषायभाव को कृश कर देना । कषाय को कृश करने का जो पुरुष पुरुषार्थ करता है उसके काय कृश होता ही है । जहाँ क्रोध, मान, माया लोभ को क्षीण कर दिया गया और इसी कारण आहार आदि के प्रति रुचि न रहीं, आहार का परित्याग भी किया गया वहाँ काय कृश होता ही है, किंतु काय कृश होने की स्थिति में भी भव्य पुरुष प्रसन्न रहा करते हैं । तो ऐसे मूल गुण और उत्तरगुण के द्वारा जिन्होंने कर्मों को क्षीण किया है वे महात्मा सल्लेखना को भली प्रकार निभाते हैं । सल्लेखना में चार मकार की आराधना का उपदेश है―(1) दर्शनाराधना, (2) ज्ञानाराधना, (3) चारित्राराधना और (4) तपाराधना । इन आराधनाओं के प्रताप से कर्म क्षीण होते हैं । तो पहले सम्यग्दर्शनसहित मूल गुण और उत्तरगुण होने से कर्म की निर्जरा होती है जिसमें कर्मों की स्थिति और कर्मों का अनुभाग क्षीण हो जाता है । कर्म की स्थिति और अनुभाग के क्षीण होने से यह जीव सुख दु:ख से रहित हो जाता है । सुख दुःख मन की कल्पना पर आधारित रहते हैं । जब इस जीव को निज सहज ज्ञानस्वरूप की दृष्टि नहीं रहती है, सहज ज्ञानस्वभाव का जिसको परिचय नहीं हुआ है वह पुरुष अपने उपयोग को कहाँ रमाये? कहीं न कहीं रमाने का स्वभाव है इस जीव का । तो निज स्वरूप का तो परिचय नहीं और विषय प्रसंग का परिचय अनादि से चल रहा है तो यह जीव उन विषयसाधनों में चित्त रमाता है, किंतु जिसने सम्यक्त्व पाया और उस सम्यक्त्व ज्ञान के प्रताप से कर्मो को क्षीण किया, उनके निरंतर आत्मस्वभाव में दृष्टि रहने से या अपने को चैतन्यस्वभावमात्र अनुभवने से सुख दु:ख वहाँ नहीं हुआ करते । तो जो श्रमण सुख दुख से रहित हैं उनके ही चार प्रकार की आराधना बनती है । जहाँ रागद्वेष नहीं है, सुख का लगाव जहाँ नहीं है वहाँ मन पवित्र होता है । जिसका मन पवित्र है, यथार्थस्वरूप को समझने के कारण सर्व बाह्य पदार्थों से विरक्त है वह पुरुष विशुद्धि में प्रगति करता रहता है । सो ये विशुद्ध मन वाले जीव कर्मरज को तोड़कर, हटाकर वास्तविक ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की आराधना को प्राप्त होते हैं ।
(83) मोक्षमार्ग में प्रगति का साधारण विधान―भव्यजीवों की कैसे प्रगति होती है ? सुनिये, इस जीव ने सम्यक्त्व पहले पाया, उससे हुई विषयविरक्ति, फिर वह निष्परिग्रह बना, सुख दु:ख से रहित बना, आत्मा के सहज ज्ञानस्वरूप का ध्यान बढ़ा । जब श्रेणी चढ़कर इसका उपयोग विशुद्ध होता है तो श्रेणी में कषाय का उदय अव्यक्त है । सो कषाय अव्यक्त होने से सुख दुःख की वेदना वहाँ भी नहीं चलती, पीछे मन विशुद्ध होने से क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा यह ज्ञेय से ज्ञेयाकार परिवर्तन करता रहता है । रागद्वेष न होकर भी चूंकि अभी वीतराग नहीं हुआ, अव्यक्त राग है तो क्षायोपशमिक ज्ञान के कारण यह उपयोग किसी एक ज्ञेय पदार्थ पर टिककर नहीं रहता, सो यह ज्ञेयांतर जाननरूप विकल्प में रहा, लेकिन इस क्षायोपशमिक ज्ञान की विशेषता को उस ज्ञेयांतर परिणमन को भी जब मेट देते हैं, तब एकत्ववितर्क अवीचार नाम का शुक्लध्यान 12वें गुणस्थान में होता है । फिर अंत में मन का विकल्प सब खत्म हो जाता । अब संज्ञी भी न कहलायेंगे, 12वें गुणस्थान के अंत में और 13वें गुणस्थान के प्रारंभ में वहाँ केवलज्ञान होता है । जब तक यह मन कार्य करता है तब तक केवलज्ञानी नहीं बनता, मन का कार्य जहाँ समाप्त होता, मन भी शांत हो जाता वहाँ वीतराग के केवलज्ञान प्रकट होता है, केवलज्ञान होते ही केवलदर्शन, अनंतसुख, अनंतशक्ति सब एक साथ
हो जाते हैं । तो वहाँ आराधना पूर्ण हुई सो ऐसे जो परम शरीरी हैं वे आराधना प्रकट करके मोक्ष प्राप्त करते हैं और जिन गृहस्थजनों की आराधना एक देश हो पाती है वे उस आराधना के प्रताप से स्वर्ग में जन्म लेते हैं, सागरोपर्यंत सुख भोगते हैं और वहाँ से चलकर मनुष्यभव में आराधना संपूर्ण कर लेते हैं, यों जो भव्यात्मा सिद्धालय को प्राप्त होता है वह सब शील का प्रताप है ।