वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 146
From जैनकोष
सोवण्णियंपि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं ।
बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।।146।।
पुण्य-पाप की बंधन में समानता―जैसे लोहे की बेड़ी पुरुषों को बंधन में डालती है इसी प्रकार सोने की बेड़ी से भी जीव बंध को प्राप्त होता है । किसी बड़े सेठ को जेलखाना हो जाये और वहाँ जेलर तीन सेर वजन की सोने की बेड़ी पहिना दे, उतने ही वजन की लोहे की बेड़ी दूसरा कैदी पहिने है तो उस सेठ को वहाँ खुश रहना चाहिए कि देखो हम को सोने की बेड़ी पहिनने को मिली, इस तरह से वह खुश रहता है क्या? नहीं । अरे ! चाहे सोने की बेड़ी हो या लोहे की बेड़ी हो, दोनों ही बेड़ी बंधन के लिए एक समान हैं । बेड़ी की बात जाने दो । अब तो जेल में तीन क्लास हैं । जेल में ए क्लास, बी क्लास, सी क्लास हैं । ए क्लास में तो बड़ा मौज रहता है । नौकर भी मिलते होंगे, भोजन भी बढ़िया मिलता होगा, चारपाई वगैरह भी मिलती होगी, सिर्फ इतनी बात है कि हद से बाहर नहीं जा सकते और बाकी तो घर जैसा मौज लो । तो वह भी बंधन ही है । इस ही प्रकार चाहे शुभकर्म हो, चाहे अशुभ कर्म हो, वह जीव को बांधता ही है ।
प्रभु और संसारी में अंतर―प्रभु में और अपने में अंतर क्या है? वह प्रभु स्वतंत्र है, आनंदमय है, सारे विश्व का ज्ञाता है, और यहाँ हम आप छोटे-छोटे सुखों को ललचाते हैं; जीवों से, कुटुंब से मोह बनाया करते हैं । भला बतलावो तो सही कि किस जीव के साथ कितना क्या संबंध है? पर मोह की ऐसी विकट प्रेरणा होती है कि जिससे स्नेह है उसे वही भगवान लगता है । जिसके दिल में जो आखिरी बसा हुआ हो उसका तो वही प्रभु है । जिसकी दृष्टि में धन ही सब कुछ है उसका भगवान धन ही है, जिसको पुत्र ही सब कुछ है उसको पुत्र ही भगवान है और जिसको भगवान ही सब कुछ है उसके लिए भगवान, भगवान है । यह थोड़े दिनों का ही स्वप्न है, आखिर ये सब खतम हो जाते हैं, पर उनसे ही मोह करके अपने आपको खो बैठते हैं । सो न यह रहेगा और न धर्म की बात रहेगी । और धर्म की बात पर दृष्टि दें तो इससे कई गुणी सब बातें मिलती हैं । धर्म भी मिले और मोक्षमार्ग भी मिले ।
धर्म की सदा आनंदकारिता―धर्म के फल में तो प्रारंभ से लेकर अंत तक आनंद ही आनंद मिलता है। जैसे लौकिक जन कहते हैं कि चना और स्वसुराल से सब स्थितियों में लाभ है। चना को शुरू से अंत तक जैसे चाहे खाते जावो। छोटा पेड़ हो तो भाजी लोंच खावो, तनिक हरी घेंटी हो तो घेंटी खावो, तनिक अधपकी घेंटी हो तो होरा भूनकर खावो, घेंटी खूब पक जाये तो उसकी दाल करके दाल खावो, पीस करके बेसन बना लो, लड्डू बना लो। तो जैसे चना शुरू से अंत तक काम देता है ऐसे ही यह स्वसुराल है। सगाई हो तो कुछ सगाई में लो, जब आये तब ले जाये, बच्चे की शादी हो तब लो, बच्चे के बच्चे की शादी हो तब तक पिंड नहीं छूटता। तो प्रारंभ से लेकर अंत तक लेवा ही लेवी है। धर्म जब से करो तब से लेकर अंत तक लेवा ही लेवी है । मिलता ही है सब कुछ। जब रागावस्था तब रागभाव के कारण पुण्यबंध हुआ, संपदा मिली, जब वीतराग भाव आया तब धर्म भाव के कारण अलौकिक आनंद मिला। मोक्ष हुआ, वह भी धर्म का ही प्रसाद है। तो धर्म के फल में प्रारंभ से लेकर अंत तक आनंद ही आनंद है। धर्म से विपरीत चलने पर जीव में अनेक संकट आते हैं।
प्रगति के लिये प्रारंभिक प्रथम बात―सबसे पहिली बात यह है कि बड़ों का तो विनय रखें और दूसरी बात 7 व्यसनों का त्याग करें । ये दो बातें यदि होती हैं बच्चों में युवकों में तो उनको जीवन में लाभ ही लाभ है । जो बड़ों का विनय नहीं करते उनकी बुद्धि मारी हुई है । विपरीत बुद्धि में जो कुछ सूझता है वह हितकारी नहीं सूझता । प्रथम तो सभी लोगों का काम है कि सभी का विनय करें । बड़ों का विनय बड़ों के ढंग से है; छोटों का विनय छोटों के ढंग से है किंतु अपना परिणाम विनम्र बनाओ। पहिली बात तो यह समझना चाहिए कि लौकिक सुख का भी मूल विनय ही है । बड़े-बड़े पुरुषों से भी आराम मिले उसका उपाय है विनय । ऊंचे-ऊंचे कामों की भी सिद्धि कर लेवें तो उसका उपाय है विनय ।
प्रगति के लिये प्रारंभिक द्वितीय बात―दूसरी बात है 7 व्यसनों का त्याग करना । जुवा खेलना, मांस भक्षण, मदिरा पान, शिकार खेलना, चोरी करना, परस्त्री सेवन, वेश्या गमन ― ये सब अनर्थ रूप हैं । जुवा खेलने वालों की बुद्धि नष्ट हो जाती है । पहिले तो तृष्णावश जुवा खेलते हैं और फिर बीच में कभी मानवश भी जुवा खेलते हैं । जुवा में हार गए तो वह तो हार है ही, पर जीत गए तो वह भी हार है । वह जीत स्थायी नहीं है । उसके बाद निकट भविष्य में फिर हार होगी । किंतु जुवा का व्यसन तो आ गया ना । जुवा के फड़ पर बैठे हुए जितने जुवारी हैं उनके वचनों के कारण निवृत्ति होना कठिन है । जैसे सांप का फन भयंकर होता है ऐसे ही जुवा का फन भयंकर होता है । यदि कोई वहाँ से उठना चाहे कि हम नहीं खेलना चाहते, मिल गया जितना चाहिए था तो उठना मुश्किल हो जाता है । जितने बाकि जुवारी बैठते हैं वे बोलने लगते हैं―बस इतनी ही दम थी, निकल गए प्राण, यार बड़े खुदगर्ज हो, जीत गए सो उठ लिया । कितनी ही बातें ऐसी बोलते हैं जिससे उस स्थान पर फिर बैठना ही पड़ता है । जैसे कोई पुरुष अपनी गृहस्थी से विरक्त हो जाये और वह वहाँ से उठना चाहता है तो परिवार के लोग, मित्रजन, रिश्तेदार लोग ऐसी बातें कहते हैं कि वह वहाँ से उठ नहीं सकेगा । तो ऐसा है यह जुवा का स्थान ।
सर्व व्यसनों का मूल जुआ―यह जुवा का काम एक हराम का सा काम है । जब यह हराम का काम चल उठा तब उसकी प्रवृत्ति में सदाचार नहीं रह सकता । मदिरा का पीना, मांस का खाना ये दुर्गुण आ जाते हैं । और जुवा खेलने वालों से आप सच बोलने की आशा रख सकते हैं क्या? कई बार तो जुवा में ही झूठ बोलना पड़ता है । अभी तास खेलने को बैठते हो तो तनिक देर में झगड़ा हो जाता है । वह क्या कि वहाँ भी कुछ बदमाशी तो चलती ही है । किसी का पत्ता है और किसी ने उठा लिया । हम ज्यादह जानते नहीं हैं खेलने वाले जाने । तो उनमें जो झगड़ा होता है वह काहे से कि झूठ बोला । और झूठ कोई बरदास्त कर नहीं सकता । चाहे वह खेल का झूठ हो, चाहे घर का झूठ हो और चाहे दूसरों का बोला हुआ झूठ हो, बात बरदाश्त के काबिल नहीं हो सकती । घर में कभी भाई-भाई में, पति पत्नी में, बाप बेटे में जो झगड़ा होता है उसका बहुत बड़ा कारण तो झूठ बोलना है । वे कह देते हैं कि तुम्हारा नुक्सान होता है तो हो जाने दो पर सच तो बोलो । तो झूठ की आदत पड़ जाती है, उन जीवों में फिर चोरी की आदत पड़ जाती है । तो जब मन अच्छा नहीं रहा और मांस आदिक की वृत्ति जग गई तो फिर शिकार खेलने लगता है । फिर परस्त्री, वेश्या उसके लिए न कुछ बात रह जाती है । ये जुवा खेलने वाले लोग 7 व्यसनों में फंस जाते हैं । इनका त्याग करना शांति के लिये अत्यावश्यक है ।
शुभ प्रवृत्ति से जीवन में विशेषता―भैया ! यदि कोई बालक धर्म के मार्ग में लगा हो, मंदिर आए, स्वाध्याय सुने, गुरु की सेवा में रहे तो उसकी बुद्धि निर्मल रहेगी, धन कमाने की भी बुद्धि चलेगी, सद्व्यवहारों में भी बुद्धि काम देगी । धर्म के प्रसंगों से अति दूर रहकर कितनी ही कुसंगतियां हो जाती हैं । धन बर्बाद होता है तो कुबुद्धि और कुसंग से बर्बाद होता है । खर्च से और दान से धन नहीं मिटा करता है । धन तो कुबुद्धि और कुसंग से ही मिटा करता है । किसी के 10 लाख का धन है और वह गुजर गया, बेटा निकला कुपूत तो 3-4 साल में ही वह सारा का सारा धन खतम हो जाता है । अगर खाने में धन खतम होता है तो उसका भी हिसाब लगा लो । अरे 5 रु रोज का खर्च खाने में लगा लो तो डेढ़ सौ रुपया महीना, मायने लगभग डेढ़ हजार रुपया साल से ही पूरा गुजारा हो जायेगा । एक धेला भी न कमायें तब भी कई पैरी तक वह धन चले, पर दो चार वर्षों में ही वह सब धन कुसंग में ही खर्च हो जाता है । इस कारण बेटों का भविष्य अच्छा करना हो तो उन्हें धर्म के मार्ग में लगाए रहिए । बुद्धि व्यवस्थित रहेगी, चित्त श्रेष्ठ रहेगा, उदारता रहेगी, सुखपूर्वक जीवन व्यतीत होगा ।
ज्ञानस्वभाव की झलक का प्रताप―यह पुण्यकर्म सुख का कारण है, करते रहिए, ठीक है, पर ऐसा करते हुए में जब कभी ज्ञान की बिजली चमकेगी, आत्मा में बसे हुए अनादि अनंत चैतन्य प्रभु के दर्शन होंगे तो ऐसे अलौकिक आनंद का अनुभव होगा कि जिसके समक्ष इस सर्व जगत के वैभव को यह तुच्छ समझेगा । उसकी यह स्थिति हो जायेगी जैसे कि एक दोहा में कहते हैं कि― चक्रवर्ती की संपदा इंद्र सरीखे भोग । काक वीट सम गिनत हैं, सम्यग्दृष्टि लोग ।। जिसके सम्यक्त्व जग गया है, जिसको अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया है उसको चक्रवर्ती की संपदा भी काकवीट सम मालूम होती है । कौवा की वीट को कोई अच्छी निगाह से भी देखता है क्या? एक तो कौवा और फिर उसकी वीट । जैसे उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं इसी प्रकार ज्ञानी जीव चक्रवर्ती की संपदा को घृणा की दृष्टि से देखता है । क्या है, जुड़ गया पुद्गलों का ढेर । आखिर भिन्न ही तो हैं । उससे मेरा कोई संबंध नहीं है । जितने भी सुख अथवा दुःख होते हैं वे सब अपने ज्ञानबल से अपने में ही भावना बनाकर सुख अथवा दुःख होते हैं । किसी दूसरे से मुझे सुख अथवा दुःख नहीं होते हैं । जिस भव्यपुरुष को आत्मा के सहज स्वरूप का दर्शन हो जाता है, उस प्रभु के पावन स्वरूप का जिन्हें दर्शन हो जाता है वे संसार संकट से तिर जाते हैं । जिनका चित्त संकल्प-विकल्प में उलझा है वे पुरुष संसार-समुद्र में गोते खाते रहते हैं ।
अल्पपरिग्रह से भी भयंकर परिणाम होने का दृष्टांत―एक साधु था, उसकी लँगोटी को चूहे काट जाया करें । सोचा मुझे रोज लंगोटी ही बनवानी पड़ती है । सो सोचा एक बिल्ली रख लें जिससे चूहे न आया करे । बिल्ली के डर के मारे चूहों का आना बंद हो जायेगा और लंगोटी भी न कटा करेगी । सो बिल्ली पाल लिया । बिल्ली पालना तो सरल है, पर उसका पेट तो पालना चाहिए । सो उसको दूध पिलाने के लिए एक गाय रख लिया । और गाय की खुशामद के लिए एक नौकरानी रख लिया । ऐसा कुसंग हो गया कि बिल्ली के भी बच्चे पैदा हो गए, गाय के भी बच्चे पैदा हो गए और उस नौकरानी के भी बच्चे हो गए । अब तो बड़ा परिवार बन गया । अब किसी काम से जाना था एक गाँव में, सो वे सभी के सभी संग में चले । अब साधु काहे के? साधु बाग बगीचा तथा अन्य कुछ चीजें थोड़े ही रखते हैं पर लोग उन्हें भी साधु कह बैठते हैं । खैर, जब दूसरे गाँव में गए तो रास्ते में पड़ी नदी । सो नदी में से सभी जा रहे थे कि अचानक पानी आ गया ज्यादह, तो सभी के सभी बहने लगे । सो सभी बच्चों सहित उस साधु से लिपटने लगे । अब उस साधु के प्राणों की नौबत आ गई । तो उस साधु को ख्याल आया―अरे इन सारे दंद-फंदों का विस्तार इस लंगोटी पर ही तो हुआ । सो लंगोटी का त्याग किया, मायने सबको हटा दिया । बोला, जावो, सबको हटा दिया । सबको हटा देने से वह साधु पार हो गया और वे सब भी पार हो गए ।
विवेक को कुंठित करने का कारण परवृत्ति में दखल का ख्याल करना―अभी कोई आदमी यहाँ घर में मुखिया हो, या बूढ़ा हो और फिर भी अपने भाइयों भतीजों और लड़कों के काम में दखल भी देता है और स्वयं जिम्मेदार बनकर सबको संभालने की धुन रखता है तो अभी देखो घर में हैं तो लायक पाँच सात बड़े आदमी, पर वह सोचता है कि मैं न इतनी जिम्मेदारी लूँ तो घर का काम न चलेगा । पर बहुत कुछ यह संभव है कि अपनी जिम्मेदारी रखने से और दूसरों को मौका न देने से तुम भी खराब हो गए और वे 5-7 आदमी भी खराब हो गए । उनकी बुद्धि नहीं विकसित हो सकती, क्योंकि उस बड़े एक आदमी ने अपना और दूसरे का विवेक कुंठित कर दिया और यह चिंतावों में पड़ा है । अरे सबको छोड़ दो और कहो तुम अपना काम स्वयं करो, हम कुछ नहीं जानते, तुम सब अपनी-अपनी बुद्धि लगावो । तो फिर देखो सबके कितनी सामर्थ्य हो जाती है और फिर सब कितने आनंद से रहते हैं?
दूसरे का भाग्य समझे बिना कर्तृत्व का अहंकार―भैया ! हम सबकी जिम्मेदारी अपने पर लादते हैं, किंतु घर में जो आज बालक बैठे हैं, कहो उसका पुण्य आप से भी बड़ा हो और उनके उस बड़े पुण्य के कारण आपको खुशामद करनी पड़ती है । किसका भार समझते हो? तुम तो निर्भार हो, शरीर से भी न्यारे हो, इस चैतन्यस्वरूप को तो निरखो । यहाँ किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं है, पर ऐसी जो अपनी अलौकिक दुनिया है वहाँ तो यह रमना नहीं चाहता, सो अध्रुव को ध्रुव माना, मिटने वाली चीज को सदा रहने वाली मान लिया तो उसका फल तो क्लेश ही है ।
पहिले से अवश्यंभावी वियोग की श्रद्धा होने पर वियोग में विषाद का अभाव―जब लड़की की शादी होती है तो वह दूसरे घर जाती है । तो उस लड़की की माँ को क्या दु:ख होता है? नहीं । आप कहेंगे कि वाह! दुःख तो होता है, जब जाती है लड़की तो माँ रोती है थोड़ा । अरे क्यों रोती हो, लड़की दूसरे के घर जाती है तो मत जाने दो । जिंदगीभर रख लो अपने घर में । माँ यही सोचती है कि इसको दूसरे के घर जाना ही है सो ले जाने दो, हम अपने घर में नहीं रख सकती हैं । सो मां के अंतरंग में विषाद नहीं होता है । थोड़ा बहुत जो विषाद दिखता है वह ऊपरी विषाद है । यह जान लिया कि लड़कियां तो दूसरों के घर जाया ही करती हैं सो विषाद नहीं होता । इसी तरह यह जान जावो कि जो कुछ मिलता है वह सब मिटने के लिए है तो विषाद न होगा । मिटने वाली चीजों को मान लिया कि सदा रहनी इसलिए विषाद होता है । और मेरा तो नहीं है उसे मान लिया कि मेरा है, इस कारण विषाद होता है । जो वस्तु का स्वरूप है वैसा ज्ञान में रहे तो कोई हानि नहीं रहती है ।
कल्याण का मार्ग―एक सूत्र में ही सब लिख दिया गया―सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्-चारित्राणि मोक्षमार्ग । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इनकी एकता ही मोक्ष का मार्ग है। जैसा आत्मा का स्वरूप है वैसा ज्ञान करना सो सम्यग्दर्शन है और जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसा जानना सो सम्यग्ज्ञान है। और शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा रहना सो सम्यक् चारित्र है । बस यही आनंद का मार्ग है । सुगम और स्वाधीन कल्याणमार्ग है । अपना श्रद्धान करो, अपने को जानो, अपने में रम जावो । होशियार आदमी उसे कहते हैं जो अपना काम बना ले । बाहर में कहीं कुछ हो, अब कोई लौकिक होशियार होता है, कोई अलौकिक होशियार होता है । यह ज्ञानी संत अलौकिक चतुर हैं । अपने आपको देखते जाये, अपने में रम जावे, इन पुरुषार्थों में लगे हुए होते हैं । कोई कहेगा वाह ! ऐसा किया तो लोक का उपकार क्या हुआ? हम कहते हैं कि लोक भी ऐसा कर ले ना तो सबका उपकार होगा । जो सर्वोत्कृष्ट चीज है उसे कोई कर रहा है, तो उसके साधन से ही लोग अपना उपकार कर लेते हैं । यह जगत रमने लायक नहीं है । यहाँ कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं, जो विश्वास के योग्य हो और हितकारी हो । इस कारण सबका संकल्प विकल्प त्यागकर ज्ञानघन, आनंदमय निजचैतन्यमय भगवान की उपासना करो और सुखी होओ ।
निजस्वरूप की परख में कल्याण की निहितता―यह प्रकरण चल रहा है बड़ी हितदृष्टि का । उसे समझने के लिए यह ध्यान रखना चाहिए कि संसार के समस्त समागम चाहे वह इष्ट समागम हों, चाहे वह अनिष्ट समागम हों पर चैन किसी को नहीं है । सब समागम हेय हैं । एक अपने आपके अंतरंग में बसे हुए शुद्ध ज्ञानस्वभाव प्रभु का शरण ही निजी शरण है । दु:खी होने का तो कोई काम ही नहीं है । आपकी सहाय आपकी बात है । आपका आनंद आपमें ही है । जरा गर्दन झुकाकर अपने आपकी ओर देखो । इस प्रभु के परखे बिना यह सारा जगत दीन हो रहा है । उस प्रभु का जो स्वभाव है उसकी दृष्टि रखना तो धर्म है और दान, दया, परोपकार, भक्ति ― ये सब पुण्य हैं तथा विषय, झगड़ा, विवाद ― ये सब पाप हैं । इस प्रकरण में पुण्य और पाप दोनों हेय बताये जा रहे हैं । सावधानी से सुनने की जरूरत है । इस जगत के जीव अनादि अनंत संस्कारवश खोटी तरफ ज्यादह जा रहे हैं और भली तरफ कम चलते हैं । सो पुण्य और पाप दोनों ही त्याज्य हैं । ऐसा सुनकर पाप त्याज्य है यह तो नहीं बनता, पर पुण्य त्याज्य है यह बड़े आराम से बन जायेगा । सो यह सम्यक्त्व नहीं है ।
स्थायी सुस्थिति की रुचि―भैया ! दृष्टि यह रखो कि अपने आत्मा में जो अनादिअनंत ज्ञानस्वभाव है, शक्ति है, उस शक्ति का अनुभव तो धर्म है; पूजा, आत्मसाधना तो धर्म है और बाकी जितने भी मिटने वाले भाव होते हैं वे सब पाप हैं या पुण्य हैं । किसी से कहा जाये कि तुमको दो दिन के लिए अमुक गांव का राजा बनाए देते हैं और दो दिन के बाद में जो भी तुम्हारे पास सट्ट पट्ट होगा उसे छुड़ाकर तुम्हें गांव से बिल्कुल नंगा निकाल दिया जायेगा । तो क्या वह दो दिन को उस गांव का राजा बनने को तैयार होगा? नहीं तैयार होगा । प्राणी यह चाहते हैं कि मेरी वह भली स्थिति हो जो सदा रह सकती हो । दो दिन को रहे और बाद में मिट जाये ऐसी स्थिति पसंद नहीं है । इसी प्रकार पुण्य की बात समझो । पुण्य रहता है और चंद दिन रहकर खतम हो जाता है । तो जो ज्ञानी पुरुष है वह पुण्य की अशरणता को समझता है, वह पुण्य को नहीं चाहता है तिस पर भी पुण्यवश बहुत संपदा उसे अपने-आप प्राप्त होती रहती है । उस संपदा के न रहने पर, उसमें आकुलता नहीं होती है, निराकुलता रहती है ।
मांगी हुई चीज में ममता व अहंकार का अभाव―पहिले जमाने में जब बारात जाती थी तो गहने पहिन कर जाते थे । पुरुषों की बात कह रहे हैं । पुरुष लोग कमर में करधनी पहनते थे, पांव में तोड़ा पहिनते थे, हाथ में चूरा पहिनते थे, भुजावों में गोल-गोल मोटे-मोटे पहिनते थे और गले में तो गुंज, सांकल आदि पहिनते थे और कान भी खाली नहीं रहते थे । किसी के पास कुछ न हो तो लोगों से मांग कर ले जाते थे और बारात में पहिनकर बैठते थे । उसकी तारीफ यह है कि लोगों को पता न पड़ जाये कि यह माँगे का गहना है । नहीं तो यदि पता पड़ जाये तो पहिने और न पहिने बराबर है । चार आदमियों के बीच बैठे हैं और अपनी शान बताना चाहते हैं । अगर किसी के पता पड़ जाये कि यह पुरुष मांगकर गहना पहिने है तो फिर शान कहाँ रही? शान तो तब है जब यह न पता पड़े कि मांग कर गहना पहिन आये हैं । तभी तो 4 आदमियों के बीच में शान शोभा देगी । सो दूसरों को नहीं पता चलता कि यह गहना मांगकर लाये हैं । सो ठसक के मारे बड़ी-बड़ी बातें करते जाते हैं । मगर खुद को तो पता है कि जो गहना पहिने हैं वह चार दिन को मांग कर आये हैं, फिर देना पड़ेगा । इसमें कोई ठसक नहीं है ठसक तो अपना गहना पहिनने में होती है । फिर भी बाहरी ठसक तो है ही ।
ज्ञानी के पुण्यवैभव में ममता व अहंकार का अभाव―इसी तरह पुण्यवान को संपदा की ठसक है । पुण्यवान पुरुष के पास जो संपदा है वह मांगी हुई संपदा है, खुद की नहीं है । पुण्य के उदय से प्राप्त हुई है ना, तो पुण्य कर्म से मांगी हुई संपदा है। जितना जो कुछ ठाठ है वह सब माँगा हुआ है । इन संसारी जीवों को अच्छी तरह से इसका पता नहीं है । इसके पास जो पाई हुई निधि है वह पुण्य से मिली याने मांगी हुई है । इसलिए पुण्यवान जीव ठसक के साथ, ढाल चाल के साथ इन बरातियों में रहता है, पर इसकी ज्ञानी के आगे नहीं चलती क्योंकि ज्ञानी को तो उसके पोल का पता है कि चाहे लाखों की संपदा क्यों न हो पर यह मांगी हुई है, खुद की नहीं है । इसकी खुद की संपदा तो ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा और आनंद है । सो इन श्रीमंतों की ठसक ज्ञानियों के आगे नहीं निभती । अज्ञानी बरातियों में निभती है । और वे स्वयं यदि ज्ञानी हैं तो भले ही लोक में अपने ऊपर ठसक रखते हैं किंतु वह ज्ञानी मन में समझता है कि मेरे पास जो संपदा है विभूति है वह मांगी हुई है, मेरी खुद की नहीं है, सो उसे उस संपदा पर अभिमान नहीं होता है । पुण्यवान जीव ज्ञानी है तो पुण्य फल को भोगता हुआ वह पुण्य फल में निर्लेप रहता है । ऐसी यह चर्चा ज्ञानियों के बीच की छिड़ गई है इसलिए बड़ी सावधानी से यह सुनना है क्योंकि इसमें पुण्य को जगह-जगह हेय बताया जायेगा । इस समय यह ध्यान रखना है कि आत्मा का जो ज्ञानस्वभावी धर्म है उस धर्म दृष्टि के समक्ष यह सब पुण्य हेय है । आगे पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों का निषेध करते हैं ।