वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 145
From जैनकोष
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं।
किह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि।।145।।
पाप और पुण्य दोनों के कुशीलपना―पापकर्म कुशील कहलाता है और पुण्य सुशील कहलाता है । पर वह पुण्य कर्म सुशील कैसा जो संसार में प्रवेश कराता है । पापकर्म को तो सभी बुरा कहते हैं । पाप के उदय में दरिद्रता हो, आपत्तियाँ आये, खोटी गतियाँ आये, सो पापकर्म तो बुरा है सभी लोग जानते हैं, और लोग कहा करते हैं कि पुण्यकर्म भला है किंतु यहाँ ज्ञानी संत यह कह रहे हैं कि वह पुण्यकर्म भी सुशील कैसा जो आत्मा को संसार में प्रवेश कराता हो । पुण्य का उदय हुआ, संपदा मिली और संपदा मिलती है तब क्या होता है? सो प्राय: करके देखो । क्रोध भी बढ़ जाये, घमंड भी बढ़े, मायाचार भी बढ़ जाये, लोभ भी बढ़ जाता है । अभी 4 लाख की संपदा है तो पेट नहीं भरा क्या? डेढ़ बेथा का पेट चार लाख की संपदा से नहीं भरता है क्या? सोचते हैं कि मैं करोड़पति हो जाऊं । करोड़पतियों के यहाँ जाकर देखो क्या हाल उनका हो रहा है? संपदा से होता क्या है? चिंताएं, संक्लेश बढ़ जाते हैं । संक्लेश करना, विकल्प करना, नाना चिंताएं करना इसके फल में क्या होगा? पापकर्म बंधेगा फिर दुर्गति होगी ।
पुण्यकर्म के सुशीलता का अभाव―भैया ! सबसे अधिक पाप कौन कर सकता है जिसके पुण्य का उदय है वह या जिसके पाप का उदय है वह? बतलावो जरा । जिसके पुण्य का उदय अधिक है वह ही पाप अधिक कर सकता है और वह ही पुण्य-पाप से अत्यंत दूर होकर मोक्ष जा सकता है । स्त्रियों में चक्रवर्ती की रानी छठे नरक तक जा पाती । इससे आगे नहीं जा सकती है । और वज्रवृषभनाराच संहनन जिनका शरीर वज्र की तरह बड़ा मजबूत उनके पुण्य का उदय है वे 7 वें नर्क में भी जा सकते हैं और मोक्ष में भी जा सकते हैं । दृष्टि के फिरने की बात है जिनके सातिशय पुण्य है उसकी चर्चा की जा रही है वह मोक्षमार्ग में शीघ्र प्रगति कर सकता है, तो उस पुण्य के फल में क्या हुआ कि संसार और लंबा हो गया । पुण्य कर्म सुशील कैसा, अच्छे स्वभाव वाला, हितकारी कैसा? पुण्य और पाप दोनों बराबर हैं । इस चर्चा में एक बात का ध्यान रखना नहीं तो सारी बातें आप उलटी समझेंगे । मोक्ष में पहुंचाने वाला जो आत्मा का ज्ञानरूप मर्म है उसके मुकाबले में पाप तो बुरा है ही, मगर पुण्य भी मोक्ष का बाधक है । इस निगाह से कहा जा रहा है कि पुण्य और पाप दोनों ही अहित है ।
शुभ अशुभ कर्म में असमानता व समानता का प्रश्नोत्तर―यहाँ प्रश्नकर्ता पूछ रहा है कि हमें तो पुण्य शुभ लगता है और पाप अशुभ है, क्योंकि पुण्यकर्म बनता है जीव के शुभपरिणाम के कारण और पापकर्म बनता है जीव के अशुभ परिणाम के कारण । जब उनके नाम में फर्क है तो कार्य में भी फर्क होना चाहिए । यह प्रश्नकर्ता कह रहा है । ज्ञानी जन तो दोनों को एक समान कह रहे हैं । एक नागनाथ और एक सांपनाथ, इनमें से अच्छा कौन है? नागनाथ अच्छा होगा क्योंकि उसका नाम जरा अच्छा है । सांपनाथ अच्छा नहीं कहलाता है । अच्छी बात है । और जब डसने की बारी आई तो कौन अच्छा है और कौन बुरा है? दोनों बुरे हैं । नागनाथ हो तो, सांपनाथ हो तो; दोनों ही बुरे हैं । और जब नागपंचमी का अवसर आता है उस समय नागनाथ अच्छा है कि सांपनाथ अच्छा है? उस समय नागनाथ अच्छा रहता है क्योंकि वहाँ तो केवल देखने का काम है । और डसने के मौके पर नागनाथ और सांपनाथ दोनों बराबर है। इसी प्रकार पुण्य तो नागनाथ है और पाप सांपनाथ है । देखने में तो भला लगता है पुण्य । चिकना-चाकना शरीर मिल गया, हृष्ट पुष्ट सुडौल शरीर मिला; हाथ पैर सब अच्छे हैं, अच्छे कपड़े पहिने हैं, पुण्य का उदय है ना, शृंगार भी किये हुए हैं, और बड़े घर में पैदा हो गई, ब्याही गई तो शृंगार का फिर क्या पूछना है? सिर पर मेंढक रख लिया, कान में ततैया लटका लिया, नाक पर मक्खी रख लिया, फिर तो अनोखा शृंगार चलता है । और फिर पुरुषों में पैर टेढ़े न हो सकें ऐसा अच्छा पैन्ट और नाक कटाई याने नेकटाई जो व्यर्थ की चीजें हैं । कुछ काम में नहीं आती । प्यासे हो तो क्या पानी भर लेंगे? और भी ऐसी ही अनेक व्यर्थ की चीजें है याने भेष खूब बनाया करते हैं, क्योंकि पुण्य का उदय है । तो यह पुण्य नागनाथ देखने में सुहावना लगता है । सेठजी के पीछे दो सिपाही तो रहते ही हैं । आगे-आगे अगवानी करने को लोग जुड़ा करते हैं । देखने में पुण्य नागनाथ सुहावना लग रहा है मगर डसने के समय पुण्य कर्म भी जीव को वैसे ही डसता है और पापकर्म भी जीव को वैसे ही डसता है । दोनों में एक-सा तो अँधेरा रहता है । बात ऐसी है किंतु प्रश्नकर्ता तो अपने प्रश्न की कहेगा ।
कारणभेद से पुण्य पाप में असमानता का प्रश्न―पुन: पूछ रहा है प्रश्नकर्ता कि शुभकर्म और अशुभ कर्म दोनों बराबर कैसे? पुण्य तो शुभ परिणाम के कारण होता है और पाप अशुभ परिणाम के कारण होता है । तो कारणभेद है, इस कारण से कार्यभेद भी है एक बात और दूसरी बात सुनो―आचार्य महाराज, कि देखो पुण्यकर्म जो बना है वह शुभ पुद्गल के परिणमन से बना है और पापकर्म अशुभ पुद्गल के परिणमन से बना है । तो इनके निर्माण में भी फर्क है । एक में पुण्य परमाणु हैं, एक में पाप परमाणु हैं, फिर दोनों को तुम बराबर कैसे कह रहे हो? यह है प्रश्नकर्ता का दूसरा प्रश्न।
स्वादभेद से पुण्यपाप में असमानता का प्रश्न―प्रश्नकर्ता कहता जा रहा है कि इतनी ही बात नहीं है आचार्य महाराज ! तुम तो झट कह देते कि पुण्य और पाप दोनों बराबर है । आपने इन दोनों का स्वाद तो किया नहीं है । इसका स्वाद तो हम लोग संसारी जीव जानते हैं कि पुण्य कर्म में मजा क्या आता है। एक बार गुरुजी घूमने जा रहे थे तो एक मदिरापायी थोड़ा बेहोश होकर सड़क के नीचे लुढ़क गया, गिर गया, फिर सम्हल गया, खड़ा हो गया, मगर फिर भी दिमाग होश में न था । थोड़ा होश में भी था । गुरुजी ने पूछा कि तुम मदिरा क्यों पीते हो? तो वह मद्यपायी कहता है कि अजी तुम मदिरा के स्वाद और आनंद को क्या जानो? कभी पिया होता तो मदिरा का पता रहता । मदिरा के स्वाद का पता तो उन लोगों को है जो पीते हैं । तो यों ही प्रश्नकर्ता कह रहा है कि आचार्यदेव ! तुम क्या जानो पुण्य के मजे को । तुमने तो सब कुछ छोड़ दिया, अपने ध्यान में रहते हो । पुण्य का मजा तो हम समझें कि कैसा होता है। कैसे तुमने कह दिया कि पुण्य और पाप दोनों बराबर है । पुण्य का फल तो शुभ है और पाप का फल अशुभ है । पुण्य के फल में इंद्र बन गए, देव बन गए, महाराजा बन गए, लखपति करोड़पति बन गए, पुण्य का फल तो बढ़िया होता है । कैसे पुण्य और पाप को समान कह दिया? यह है प्रश्नकर्ता का तीसरा प्रश्न । हम तो पुण्य को अच्छा फल मानते और पाप को बुरा फल मानते ।
उत्तर सुनने से पहिले दृष्टि की साक्धानी―भैया ! आपको उस प्रधान लक्ष्य का ख्याल है ना जो 2-1 बार बताया है । ध्यान करो उस शुद्ध भाव को, आत्मा के ज्ञाता द्रष्टा रहने के परिणमन को । जहाँ आत्मा मात्र ज्ञाता-दृष्टा रहता है उस परिणमन को धर्म कहते हैं और उस धर्म के समय पाप और पुण्य दोनों एक समान हैं । पाप मोक्ष का बाधक है और पुण्य भी मोक्ष का बाधक है । इस दृष्टि को रखते हुए यह प्रकरण सुनना चाहिए, नहीं तो कोई जबरदस्ती दूसरों को धोखा देने वाला कह सकता है कि वाह पाप भी बुरा और पुण्य भी बुरा । तो पाप तो छोड़ना चाहिए ना? तो लो पुण्य को हम अभी से छोड़े देते हैं । जब पुण्य भी बुरा है और पाप भी बुरा है तो हम पुण्य को अभी से छोड़ देते हैं । पुण्य के छोड़ देने से भला एक बुरा तो छूटा । अब एक बुरा रह गया तो ऐसी बात नहीं है । पुण्य बुरा है, परंतु तब छोड़ने का नंबर उसका आता है जब पहिले पाप को छोड़ दें ।
पुण्य-पाप की असमानता बताने के लिये प्रश्नकर्ता का अंतिम प्रश्न―यहां प्रश्नकर्ता अपनी धुन में कहता जा रहा है कि जब अनुभव जुदा-जुदा है, पुण्य और पाप दोनों का फल न्यारा-न्यारा है तो फिर कैसे कह दिया जाये कि पुण्य और पाप दोनों कुशील हैं । प्रश्नकर्ता अब चौथा प्रश्न कर रहा है कि पुण्य और पाप दोनों एक समान नहीं हो सकते, क्योंकि पुण्य तो जो शुभ मोक्षमार्ग है उसका आश्रय लेता है, उसमें लगाता है और पाप अशुभ जो हुआ बंध मार्ग, उसका आश्रय करता है तो उस आश्रय के भेद से ये पुण्य-पाप दोनों समान नहीं कहे जा सकते । उसमें पुण्य तो शुभ है और पाप अशुभ है ।
प्रथम प्रश्न का उत्तर―अब उसका उत्तर देते हैं कि हे प्रश्नकर्ता ! तुम्हारा पहिला प्रश्न क्या था कि पुण्य का निमित्त शुभ भाव है और पाप का निमित्त अशुभ भाव है, इसलिए पुण्य और पाप में फर्क है । यहाँ उत्तर दिया जा रहा है कि चाहे जीव का शुभ परिणाम हो और चाहे जीव का अशुभ परिणाम हो, दोनों ही परिणाम अज्ञान रूप हैं । यह चर्चा बहुत गहरी है और ध्यान से सुनो तो समझ में आयेगी । और किस्सा कहानी जैसी सरल बातें सुनोगे तो किस्सा कहानी में ही रह जावोगे । कोई कठिन बात सरल बने, इसका भी कुछ उपाय है क्या? हाँ, उपाय है; क्या कि उन बातों को सुनने में लग जावो । 5 दिन में 10 दिन में कभी सरल बन जायेगी । और कठिन को कठिन जानकर उसके निकट ही न जायें तो भला वह सरल कब बन पायेगी और कठिन भी नहीं है । ये तो सभी तुम्हारे हृदय की बातें हैं आत्मा की बातें है । निज की पते की बातें हैं । ये बातें कठिन कैसे लगेंगी? यहाँ कहा जा रहा है कि शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम ये दोनों केवल अज्ञानरूप हैं इसलिए नाम का कुछ फर्क नहीं है । अज्ञान से ही पुण्य बनता है और अज्ञान से ही पाप बनता है और ज्ञान से मोक्ष होता है ।
कोई-सा भी परिणमन हो, शुभ परिणाम हो, गुरुवों के प्रति अनुराग हो, दान का भाव हो, दया का परिणाम हो तो भला बतलावो तो सही कि यह परिणाम केवल ज्ञान से बनता है या राग के कारण बनता है? देव, शास्त्र, गुरु में आपकी भक्ति हुई तो वह सिर्फ ज्ञान के कारण भक्ति हुई या राग के कारण भक्ति हुई? राग के कारण भक्ति हुई । और राग का स्वरूप क्या अज्ञान रूप है? अज्ञान रूप है । तो अज्ञान से ही तो शुभभाव हुए और अशुभ भाव भी अज्ञान रूप है । दोनों ही अज्ञान स्वरूप हैं । तो कारण का कोई भेद नहीं रहता । अज्ञानरूप कारण से ही तो पुण्य कर्म बना और अज्ञानरूप कारण ही पापकर्म बना । इसलिए पहिला प्रश्न तुम्हारा ठीक नहीं है ।
द्वितीय प्रश्न का उत्तर―दूसरे प्रश्न का उत्तर सुनो । क्या कहा था प्रश्नकर्ता ने कि पुण्यकर्म तो शुभ पुद्गल से रचा है और पापकर्म अशुभ पुद्गल से रचा है । सो उनमें स्वभावभेद हो गया । इस कारण पुण्य अच्छा और पाप बुरा, किंतु विचार तो करो शुभ पुद्गल हो या अशुभ पुद्गल हो, हैं तो वे केवल पुद्गल स्वरूप और हमारे लिए तो सब एक समान हैं, तब भिन्नता कहाँ आयी? दोनों एक से ही तो रचे हुए हैं । पुण्य कर्म भी पुद्गल से रचा है और पाप कर्म भी पुद्गल से रचा है, इस कारण स्वभाव से देखते हैं तो दोनों कर्म एक से हैं । धोखे में न रहो ।
किसी बनिया को ब्राह्मण जिमावने थे । वह बनिया कंजूस था । सोचा कि किसी ऐसे ब्राह्मण को जिमा दें जो थोड़ा खाता हो । सोचते-सोचते दृष्टि गई कि उस बुढ़िया के तीन लड़के हैं सो छोटे लड़के को निमंत्रण कर आऊं । सो वह गया बोला, बुढ़िया माँ तुम्हारे छोटे लड़के को कल के लिए हमारे यहाँ निमंत्रण है । तो बुढ़िया कहती है कि बेटा चाहे छोटे लड़के को निमंत्रण कर जावो, चाहे बड़े को कर जावो, चाहे मझले को निमंत्रण कर जावो, हमारे तो सभी लड़के तिसेरिया हैं । तीन सेर खाते हैं । उनमें कम कोई नहीं है । इसी तरह चाहे पुण्य कर्म हो, चाहे पाप कर्म हो, ये दोनों के दोनों पुद्गल कर्मों से रचे हुए हैं ।
पुद्गल कर्म सब एक समान हैं । हमारे लिए तो कौन-सा पुद्गल भला है और कौन-सा पुद्गल बुरा है? अरे चाहे छोटे को जिमा ले, चाहे बड़े को, उसमें यह क्या झगड़ा करना कि बड़ा तो अधिक खाता होगा और छोटा कम खाता होगा । अरे बड़े मोटे पेट में तो कम अनाज पहुंचता है । चर्बी ने भीतर-भीतर स्थान अधिक घेर लिया है । उनमें क्या छंटनी करना? जैसे वहाँ सब ब्राह्मण एक समान हैं इसी तरह ये पुण्य पाप भी एक समान हैं । उनमें क्या देखते हो कि पुण्य भला है और पाप बुरा है । दोनों पुद्गलों से रचे हुए हैं ।
प्रथम समाधान का निष्कर्ष व शिक्षण―इस कारण पुण्य और पाप में तुम भिन्नता मत देखो । दोनों ही कुशील हैं । दृष्टि लगावो भगवान के शुद्ध स्वरूप की ओर, जो केवलज्ञान ज्योतिर्मय, अनंत आनंद में तन्मय है, सदा के लिए संकटों से मुक्त है । पूर्ण, पवित्र उत्कृष्ट स्वरूप है, उसको निरखो और अपने आपको देखो । यद्यपि यह मैं विषय-कषायों के कारण दब गया हूँ, तिरोभूत हूँ, किंतु मेरा आंतरिक स्वभाव और मेरी शक्ति वही है जो प्रभु परमात्मा में है । उस पद की लालसा करो और पुण्य-पाप की छटनी मत करो । ये कर्ममात्र सब कुशील हैं ।
तीसरे प्रश्न का समाधान―तीसरा प्रश्न क्या था कि चाहे पुण्यकर्म हो, चाहे पापकर्म हो, तुम भले ही समझो कि पुण्य और पाप कर्म एक हैं पर मुझे तो ये पुण्य-पाप न्यारे जंच रहे हैं । पुण्यकर्म का फल तो अच्छा है और पापकर्म का फल बुरा है । सो यह बात नहीं है क्योंकि दोनों ही कर्म पुद्गलमय हैं । ये दोनों आत्मा के पुद्गल स्वरूप है और ये अचेतनता ही बरसायेंगे, जड़ता ही प्रकट करेंगे । हमारे स्वरूप की दृष्टि ये कर्म नहीं करा सकते हैं । परमात्मस्वरूप की दृष्टि तो ज्ञान ही करा सकता है । अज्ञान में सामर्थ्य नहीं है कि वह परमात्मस्वरूप की दृष्टि करा दे । तो पुण्य के अनुभव से कौन-सा लाभ पा लोगे ? बतलावो । पापकर्म के अनुभव से जैसी स्थिति है वैसी ही स्थिति पुण्य कर्म के अनुभव से है ।
ज्ञान उपवन की सुरभि―भैया ! ये बातें ज्ञान उपवन में बैठे हुए करना, छोरा-छोरी के बीच घर में बैठकर ये बातें अच्छी न लगेंगी । और शंका होगी कहां का गाना गाया कि पुण्य और पाप दोनों एक समान है । देखो यह लड़का तुतला-तुतला कर पिता-पिता, उड्डा-उड्डा कहकर बोलता है तो दिल तो खुश हो जाता है । पुण्य कैसे बुरा है? देखो धन है तो भाई लोग, मित्र लोग, पड़ौसी लोग कैसी पूछ करते हैं । ये सब बातें घर बैठे समझ में न आयेगी, ज्ञान के बगीचे में पहुंचो और वहाँ बैठकर बातें सुनो, संकल्प, विकल्पों को तोड़कर निज आत्माराम में पहुंचो और वहीं बैठकर सुनो तो यह बात समझ में आ सकती है कि जैसा हमारे हित में बाधक पाप कर्म है वैसे ही हमारे हित में बाधक पुण्य कर्म भी है । इस प्रकार यह तीसरे प्रश्न का उत्तर दिया गया है । अब इसके बाद चौथे प्रश्न का उत्तर आयेगा ।
चतुर्थ प्रश्न का समाधान―पुण्य और पाप ज्ञानी की दृष्टि में एक समान हैं, किंतु अज्ञानी यहाँ प्रश्न कर रहा है कि पुण्य और पाप समान कैसे हो जायेंगे? इस संबंध में चार युक्तियाँ दी थीं जिनमें तीन युक्तियों का तो समाधान हो चुका है । चौथी उसकी युक्ति है कि भाई पुण्य तो शुभरूप मोक्ष का कारण है और पाप अशुभरूप बंध का कारण है । तो उत्तर यह है कि पुण्य मोक्ष का कारण नहीं हो सकता है, पुण्य भी बंध का कारण है और पाप भी बंध का कारण है । दोनों ही बंध मार्ग का आश्रय करते हैं, इस कारण इस पुण्य और पाप में विशेषता नहीं है । तो यावन्मात्र परिणाम हैं रागादिक को लिए हुए हैं, वे सब परिणाम इसके बंध के ही कारण हैं । उसको एक दृष्टांत द्वारा कहते है ।