वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 229
From जैनकोष
जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्म बंधमोहकरे ।
सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वा ।।229।।
जो पुरुष अर्थात् आत्मा कर्मबंध के कारणभूत मोह भाव को उत्पन्न करने वाले मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, इन चार पादों को नि:शंकित होता हुआ काटता है उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए ।
संसार विष वृक्ष का मूल―मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये चार संसारवृक्ष के मूलभूत है । संसार इन ही परिणामों का नाम है, जिनमें मुख्य है मिथ्यात्व । अपने आत्मा के स्वरूप का यथार्थ परिचय न हो और बाह्य पदार्थों को अपना स्वरूप माने यह सब मिथ्यात्व भाव है । जब यह जीव इतनी बड़ी भूल में रहता है कि जिसे अपने और पराये का भी ठीक ठिकाना ज्ञात नहीं है तो उसका काम संसार में रुलना ही है । और मिथ्यात्व होता है तो अविरति, कषाय और योग भी पुष्ट होता है । मिथ्यात्व के नष्ट हो जाने पर भी कदाचित् कुछ समय तक अविरति, कषाय और योग रहता है, किंतु मिथ्यात्व के अभाव में अविरति आदिक में वह जोर नहीं रहता है जो मिथ्यात्व के होने पर रहता है । यह अविरतिभाव मिथ्यात्व के साथ हो तो उसमें अधिक जोर रहता है । जहाँ यह ही पता नहीं है कि विषयों से रहित केवल शुद्ध ज्ञानदर्शनमात्र मैं हूँ तो वह अविरति के भाव में ही अपना हित मानेगा सो अधिक आसक्त होगा । जो मिथ्यात्व से रहित ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव है उसके जब तक अप्रत्याख्यान कषाय का उदय चलता है तब तक अविरति भाव होता है किंतु उस अविरति भाव में रहकर भी, विषयों की साधना करते हुए भी हटाव रहता है, वियोगबुद्धि रहती है कि मैं कब इससे अलग हो जाऊँ? इसी प्रकार कषाय भाव की भी यही बात है । योग भी मिथ्यात्व के मूल से चलकर आगे भी सिलसिला बनाये रहता है । इस प्रकार इन चारों का बंधन मिथ्यात्व में दृढ़ रहता है । मिथ्यात्व के अभाव से इन तीनों का बंधन शिथिल हो जाता है ।
निरंग-निस्तरंग आत्मा में रंग व तरंग का कारण―भैया ! द्रव्यकर्म और भावकर्म व क्षेत्रांतर रूप प्रदेश, क्रिया―इन तीन प्रकार के कर्मों से रहित आत्मा का स्वभाव है, पर इस मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग के निमित्त से द्रव्यकर्म का भी संचय होता है, भावकर्म भी प्रकट होता है और क्षेत्र से क्षेत्रांतर रूप क्रिया भी चलती है । यों यह कर्मों का करने वाला होता है । इसी प्रकार मोह कषाय को भी उत्पन्न करने के कारण है । ये चारों पाद हैं―मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ।
आत्मद्रव्य का निरखन―आत्मद्रव्य मोहरहित है, यह तो शुद्ध प्रतिभासमात्र है । जैसे पुद्गल के ढेले में निरखने चलते हैं तो वहाँ परमाणु मिलता है जो कि पिंड रूप है; रूप, रस, गंध, स्पर्श भी रहता है । इसी तरह आत्मस्वरूप के अंतर में कुछ निरखने चलें तो वहाँ क्या मिलेगा? इंद्रियों को संयत करके सर्वपदार्थों से भिन्न और अहित जानकर उपयोग को दूर करके परमविश्राम के साथ निरखो कि आखिर इस मुझमें बात है क्या? जब तक निरखने की बुद्धि चलेगी तब तक कुछ न मिल पायेगा । निरखने का यत्न प्रथम यत्न है । निरखने के यत्न में आत्मा का निरखना नहीं होता है । निरखने का यत्न एक आत्मा के दरबार के आंगन तक पहुंचा देना है । बाद में स्वयं ही स्वयं को स्वयं के द्वारा सहज ही बिना यत्न किए बल्कि क्रिया के यत्नों के श्रम के अत्यंत दूर करने की विधि से यह आत्मा स्वयं निरखने में आता है । निरखने का यत्न करना मन का काम है और निरखना अनुभवना यह न इंद्रिय का काम है और न मन का काम है । यह आत्मा का स्वरूप सहज होता है । इस आत्मा को निरखें तो क्या मिलेगा? केवल ज्ञानप्रकाश । ज्ञानप्रकाश के अतिरिक्त इस आत्मद्रव्य में और कुछ जानने, समझने ग्रहण करने को नहीं मिलता ।
स्वभाव, परिस्थिति और कर्तव्य―भैया ! कैसा ज्ञान द्वारा रचित यह आत्मतत्त्व है, आकाश की तरह अमूर्त, ज्ञानघन यह एक चेतन पदार्थ जो समस्त पदार्थों से प्रधान व्यवस्थापक एक महान शोभा वाला है । तो यह आत्मद्रव्य मोहभाव से मुक्त केवल शुद्ध भावप्रकाश वाला है । लेकिन इन मिथ्यात्व, अविरति आदि परिणामों के कारण इसमें ऐसी मलिनता उत्पन्न होती है । सबसे महान् पुरुषार्थ यही है कि इस मैली पर्याय के होते हुए भी स्वभाव को दृष्टि में लें और स्वयं अपने आप जो केवल चैतन्यस्वरूप है उस रूप में अनुभव करें यही आनंद का उपाय है । बाकी तो सब झंझट हैं । यहाँ जितनी बुद्धिमानी करो यह उतना ही उलझ जाता है । इस लोकव्यवहार में इन मायाचारी मिथ्यात्वियों को देखकर इनमें कुछ अपना कायम करने के लिए जितनी बुद्धिमानी चतुराई का व्यवहार बनाओ उतना ही यह जीव विकल्पजालों में उलझ जाता है । इस उलझन से मुक्त होने का उपाय सहजशुद्ध जो आत्मस्वरूप है, ज्ञान मात्र अर्थात् आत्मा के सत्त्व के ही कारण आत्मा में जो कुछ भाव है उस भाव की दृष्टि होना है । स्वभाव की दृष्टि होने पर ये सब उलझनें समाप्त हो जाती हैं ।
दुनिया के बीच ज्ञानी का अपूर्व साहस―भैया ! क्या इतना साहस किया जा सकता है कि सारा जहान मिलकर भी कितनी ही निंदा करे, तो हम यह जान सकें कि सारा जहान प्रत्येक जीव अपना परिणमन अपने आप में ही करके समाप्त होता है । उस समस्त जहान से बाहर इस मुझ उत्कृष्ट लोक के भीतर कुछ भी नहीं आता है । इतनी हिम्मत रहती है ज्ञानी पुरुषों में । क्या यह साहस किया जा सकता है कि समस्त जीव लोक भी मिलकर हमारी प्रशंसा के शब्द भी कहें तो हम वहाँ यह जान सकें कि यह समस्त लोक अपने विभाव से रागप्रेरणा से उत्पन्न हुए खुद की वेदना को शांत करने के लिए खुद में परिणमन कर रहे हैं उनसे मुझ उत्कृष्ट लोक में कुछ आना जाना नहीं होता है । ऐसी जीव लोक की परिणति के ज्ञाता दृष्टा रह सकने का साहस इस सम्यग्दृष्टि पुरुष में होता है । सारा महत्त्व जानन का है । कितना ही धन वैभव संचित कर लो, कितना ही परिग्रह जोड़ लो पर उस परिग्रही की त्रुटि ज्ञानी पुरुष को ही मालूम हो सकती है कि देखो यह है तो केवल अपने रूप, केवल चैतन्यमात्र सबसे न्यारा, कुछ भी संबंध किसी परवस्तु से नहीं है किंतु उपयोग द्वारा बहिर्मुख होकर कितना दूर भागा चला जा रहा है, यह त्रुटि ज्ञानी संत पुरुष की ही मालूम हो सकती है ।
मिथ्यात्वादि की बाधाकारिता―ये मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग बाधा के ही करने वाले हैं । इस जीव का स्वरूप अनाकुलता का है किसी पर के द्वारा इसे बाधा आ ही नहीं सकती है । अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव अपने आपमें विकल्प करके अपने आपके ही विभावों से आकुलता मचाता है । एक भी अणु यह सामर्थ्य नहीं रखता कि किसी की आत्मा मैं परिणति बना दूं । किसी भी जीव में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह जीव किसी जीव में किसी प्रकार के गुणों की परिणति कर दे । सुख दुःख, रागद्वेष में कठिन कर्मों का उदय निमित्त हो सकता है और उनका निमित्त पाकर यह जीव अपने आप में रागद्वेष सुख दुःख आदि उत्पन्न करने का असर पैदा करता है । और इस असर के निमित्तभूत होने के कारण यह उदय भी बाधा का करने वाला कहलाता है । किंतु साक्षात् बाधा करने वाले आत्मा के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग भाव ही हैं । इन चारों पैरों से जिसके बल से यह संसार में चक्कर लगाया करता है उन पादों का जो उदय दूर कर देता है उसे निःशंक पुरुष सम्यग्दृष्टि है ऐसा जानना चाहिए ।
सम्यग्दृष्टि की नि:शंकता का विषय―मिथ्यात्व का तो अभावरूप छिदना होता है और अविरति, कषाय और योग कहीं अभावरूप छिद जाता है तो उससे पहिले यह जर्जरित हो जाता है । मिथ्यात्व का अभाव हो तो यह सम्यग्दृष्टि होता है और अविरति आदिक जर्जरित हों और आगे बढ़कर इनका भी अभाव हो ऐसी उत्कृष्टता बढ़ती जाती है । सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक रहता है । यह निःशंक किस विषय में रहता है? शुद्ध आत्मा की भावना के संबंध में । जैसे कोई सांप सामने से आ रहा हो और वह जगह छोड़कर हट जाये तो उस वृत्ति को सम्यक्त्व में बाधा करने वाली शंका नहीं कहते हैं । कोई लोग तो यह मान लेते हैं कि मनुष्य पैदा होता है तो मौज मान लेने के लिए होता है । जैसे बहुतों ने यह बना लिया है कि ‘जिन आलू भटा नहिं खायो, वे काहे को जग में आयो ।’ जिसको जो सुहाता है वह वही गीत बनाता या बताता है । वर्तमान सुख को छोड़कर किस सुख की आशा करते हो? कितना ही बहकाया जाये, किंतु अपने आत्मस्वरूप के संबंध में रंच भी शंका न हो, ऐसा निःशंक सम्यग्दृष्टि पुरुष होता है । सिगड़ी पास जल रही है और चद्दर की खूंट में आग लग गई और उस चद्दर को लपेटे ही रहे तो क्या आप उसे भला कहेंगे? नहीं । अथवा कोई किसी नदी में से निकल रहा हो, चलते-चलते एक ओर जल अधिक गहरा मिले, और यह मालूम पड़ गया कि गड्ढा है तो हटे नहीं और वह गिर जाये तो यह कोई नि:शंकता की बात नहीं है । किंतु शुद्ध आत्मस्वरूप के संबंध में वह सदैव निःशंकित रहता है ।
ज्ञानी की प्रक्रिया―भैया ! वह ज्ञानी पुरुष स्व सम्वेदन ज्ञान के बल से अथवा आत्मसंवेदन रूप शस्त्र से, खड्ग से इन चारों ही संसारवृक्षों को मूल से छेद देता है । उस नि:शंकित आत्मा को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । चूँकि सम्यग्दृष्टि पुरुष टंकोत्कीर्णवत् निश्चल एक ज्ञायकभाव स्वरूप का उपयोगी होता है । अत: कर्मबंध की शंका करने वाले मिथ्यादृष्टि आदिक भाव नहीं पाये जाते हैं । अत: वह निःशंकित रहता है । यह जीव क्या बन सकता है? जो खुद का स्वरूप है उस परमात्मा के किसी भी परिणमन रूप बन सकता है, अपने स्वरूप के विरुद्ध कुछ भी परिणमन नहीं कर पाता है । तो होगा क्या? उसके ये अनंतगुण हैं, उन अनंत गुणों का परिणमन ही होगा और कुछ नहीं हो सकता । यह पूर्ण निश्चित है । इस पर किसी भी परपदार्थ से आपत्ति नहीं आती है । हम ही अपने विभाव भयकारी बनाते हैं तो क्लेश पाते हैं । और यह भयकारी विभाव तब बनता है जब अपने ही कर्तापन को, कर्मफल को और करण को भूल जाते हैं ।
आत्मा की अभिन्नकर्तृकर्मकरणता―मैं ही कर्ता हूँ, किंतु किसका कर्ता हूं? जो मेरे में परिणमन चलता हो उस परिणमन का कर्ता हूँ, अर्थात् मैं मेरा ही कर्ता हूँ और मेरे द्वारा जो कुछ कार्य किया जाता है उसका प्रयोजन भी मैं हूँ, उसका जो फल है वह है सुखदुःख और आनंद । इस तरह से परिणमा हुआ मैं हूँ । अंगुली टेढ़ी हो गई तो यह क्या है? अंगुली ही है । सीधी हो गई तो यह क्या है? अंगुली ही है । किसी भी परिणति में रहे अंगुली-अंगुली ही है । ये सुख दुःख रागद्वेष, ज्ञान, आनंद ये सब आत्मा के हैं, पर अंतर इनमें इतना है कि कोई तो है अस्थिरभाव और कोई है स्थिरभाव । जो स्वभावरूप परिणमन हैं उनकी संतान वैसी ही वैसी चलती है । यह जीव चैतन्यस्वरूप है, टंकोत्कीर्णवत् निश्चल एक ज्ञायकभावमय है । जैसे टांकी से उकेरी गई प्रतिमा अपने ही पाषाणस्वरूप है, किसी दूसरे पदार्थ से लगी हुई नहीं है । जैसे मिट्टी, कागज आदि की प्रतिमा बनाई जाती है वह तो लगाव ही है । उस मूर्ति में एकत्वस्वरूप नहीं है, मगर टांकी से उकेरी हुई प्रतिमा पाषाण के ही स्वरूप है । ऐसे ही आत्मा की अवस्थायें आत्मरूप हैं ।
देवस्थापना में विवेक―जैन सिद्धांत में देव की स्थापना कितने महत्त्वपूर्ण विधि विधान से सोची गई है । यहाँ मिट्टी की मूर्तियां नहीं बनती हैं, कारण यह है कि जैसा शुद्ध आत्मा है, स्वयं के एकत्व स्वरूप में है इसी प्रकार इस मूर्ति को भी आखिर बनाया तो इस ढंग से बनाया कि जिस उपादान से मूर्ति बनी उसका स्वरूप एकत्वस्वरूप है । लगाव वाली मूर्ति जैनसिद्धांत में निषिद्ध है । कागज की बनाना, गोबर की बनाना, मिट्टी की बनाना यह सब निषिद्ध है । दूसरी बात यह है कि मिट्टी, गोबर, कागज से बनाई हुई मूर्ति में विनय नहीं रह सकती है । उसका टूटना फूटना न देखना हुआ तो पानी में सिराया जायेगा । कुछ तो करना ही पड़ेगा । वह स्थिरता से नहीं रह सकती । उस देव की स्थापना अस्थिर तत्त्व में हो और अगर वह टूटती फूटती फिरे या इस भय से सही पानी में सिरवाये तो यह देव का अविनय है । प्रभु की स्थापना पाषाण प्रतिबिंब में ही चिरस्थायी रह सकती है ।
पाषाणबिंब से रहस्यमय शिक्षा―यह प्रतिबिंब यह भी शिक्षा देता है कि जैसे हम किसी वस्तु के द्वारा बनाए हुए नहीं हैं किंतु जो पहिले थे सो ही अब हैं । जो पाषाण का बड़ा शिलाखंड रखा हुआ था या उसके भीतर जिस जगह मैं था मानो प्रतिबिंब पुरुष बनकर कह रहा हो परसोनीफिकेसन अलंकार से कि मैं उस बड़ी शिला में जहाँ का था वहाँ का अब भी हूँ, उस चीज को छोड़कर नहीं बनता हूँ, मुझे कारीगर ने नहीं बनाया है । मैं जो अब व्यक्त हूँ सो पहिले से बना बनाया हूँ । मैं पहिले अव्यक्त था । अब मैं लोक की निगाह में व्यक्त हो गया हूँ । यहाँ कह रहा है पाषाणबिंब । कारीगर ने मेरे स्वरूप को पहिचाना कि उस बड़े पाषाणखंड में यह विराजा है, मेरे इस स्वरूप को ढकने वाले जितने पाषाण थे, जितने अवयव थे उनको कारीगर ने हटाया । और समस्त आवरक अवयव जब हट गए तब मैं सब लोगों की निगाह में प्रकट दिखने लगा । हम तो उतने ही वहाँ भी थे यहाँ भी हैं । हम नये नहीं बने, चीजों के लगाव से नहीं बने ।
सावधानी के तीन कारण―पाषाणबिंब कह रहा है―हाँ यह बात अवश्य है कि मुझे पहिचानने वाला कारीगर बड़ा चतुर था । उसने पहिचाना और आवरक को ऐसी सावधानी से हटाया कि मेरा आघात न हो जाये । पहिले तो बड़े-बड़े पाषाणों को हटाया, उस समय भी हमारी भक्तिवश जितनी चाहिए उतनी सावधानी रखी । बड़ी हथौड़ी और बड़ी छेनी से हटाया आवरण को । बड़ा आवरण हट चुकने पर छोटी छेनी और छोटी हथौड़ी से छोटे-छोटे आवरण भी दूर किये । उसमें भी हमारी भक्तिवश उसने बड़ी सावधानी बरती । अब जब मध्यम प्रकार के आवरण हट गए तब उसने अत्यंत अधिक सावधानी बरती । बिल्कुल पतली छेनी और हथौड़ी लेकर नाम मात्र की चोट देकर बड़ी सावधानी से सूक्ष्म आवरणों को हटाया । इतना काम कुशल कारीगर ने किया था । उसने मुझे नहीं बनाया । मैं तो वही हूँ जो पहिले पाषाण में अव्यक्त था । हे दर्शक ! हे भक्त ! तू भी अपने को सम्हाल । तू भी वही है जो अनादि से है और तू जब परमात्मत्व पायेगा तो कुछ नई बात न पायेगा । जो है सोई होगा । विषयकषायों के आवरणों को तू हटा । तू तो स्वयं सिद्ध परिपूर्ण स्वरूप वाला है, आवरण दूर होने के साथ ही तू व्यक्त हो जायेगा ऐसा यह प्रतिबिंब उपदेश दे रहा है मानो ।
प्रभुस्थापना पुरुष में न किये जाने का कारण―यह मूर्ति या स्थापना किसी अन्य पुरुष में नहीं की जाती है कि बना दें महावीर स्वामी किसी लड़के को । वह रागी है, द्वेषी है, अविवेकी है, कुछ से कुछ वचन बोलने वाला है । महावीर स्वामी का नाटक पूरा हो चुकने पर वह लड़का मूंगफली की गलियों में मूंगफली मांगता फिरे तो क्या वह प्रभु की विनय है? नहीं । जैसे एक बार राष्ट्रपति देश का बना दिया जाता है तब उसका जितना जीवन शेष है तब तक राष्ट्रपतित्व मिटने के बाद भी उसका आदर करते हैं । सरकार उसे बैठे-बैठे पेंशन देती है । जिससे लोग यह न कह सकें कि ये भारत के राष्ट्रपति थे, और आज खेती करके भी पेट नहीं भर पाते हैं । तो हम किसी में प्रभु की स्थापना कर दें और वह फिर दर-दर भीख मांगता फिरे तो क्या यह प्रभु की विनय है? तो कितनी बुद्धिमानी से यह मूर्ति का विधान बना हुआ है । उस मूर्तिवत् निश्चल ज्ञान स्वभावरूप का परिचय है ज्ञानी को तो कर्मबंध की शंका करने वाले मिथ्यात्व आदिक भाव नहीं होते हैं, अत: यह निःशंक है, इसके शंका, बंध नहीं है, शंका ही नहीं है, अत: इसके निरंतर निर्जरा ही चलती है ।
उपदेशों का प्रयोजन―जैनसिद्धांत में जितने भी उपदेश होते हैं उन उपदेशों का प्रयोजन स्वभावदृष्टि कराने का है । यह जीव स्वभावदृष्टि के बिना जगत में अब तक मिथ्यात्वग्रस्त रहकर अनेक संकट भोगता चला आया है । संसार के संकटों को दूर करने का उपाय है तो केवल एक स्वभावदृष्टि है । इसी कारण जितने भी उपदेश किसी भी अनुयोग में हों―प्रथमानुयोग करणानुयोग, चरणानुयोग अथवा द्रव्यानुयोग और उनमें भिन्न-भिन्न प्रकार से कितने भी कथन हों, उन सबका प्रयोजन स्वभावदृष्टि निकालना चाहिए । जिस जीव को स्वभाव दृष्ट होता है वह निःशंक रहता है क्योंकि वह जानता है कि मेरा स्वरूप स्वत:सिद्ध है, इसमें परचतुष्टय का प्रवेश नहीं है । इसका कोई गुण इससे पृथक् नहीं हो सकता है । यह परिपूर्ण स्वरक्षित है । ऐसा बोध होने के कारण वह नि:शंक रहता है और इसही बोध के कारण उसके किसी भी प्रकार के भोग व वैभव की इच्छा नहीं उत्पन्न होती है । आज उसी निःकांक्षित अंग का लक्षण कह रहे हैं ।