वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 230
From जैनकोष
जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु ।
सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।230।।
चूंकि सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्णवत् ज्ञायकस्वभाव का उपयोगी है, इसी कारण किसी भी कर्मफल में और सर्व वस्तु धर्मों में कांक्षा को नहीं करता है । उस निष्कांक्ष सम्यग्दृष्टि के कांक्षाकृत बंध नहीं होता है ।
इच्छा के विवरण का ज्ञापन―इच्छा होना आत्मा का स्वभाव नहीं है । जैसे कि अभी बताया गया था कि जैनसिद्धांत के उपदेशों का मूल प्रयोजन स्वभावदृष्टि करने का है । जैसे कि पदार्थ के स्वरूप के कथन में जहाँ स्याद्वाद का पुट न हो वह कथन प्रमाण नहीं होता, इसी प्रकार जिस कथन में प्रयोजन स्वभाव दृष्टि का न हो या सुनने का प्रयोजन स्वभावदृष्टि का न हो तो वह अपने लिए उपदेश नहीं हुआ । पदार्थों के स्वरूप का भी जितना वर्णन है वह वर्णन भी स्वभावदृष्टि कराने के लिए है, न कि जैसे कहावत है कि ठाढ़े बैठे बनिया का बेटा बैठा तराजू के बाट यहाँ से वहाँ रखे । खाली समय है तो बाटों से बाट तौलता है और अपना समय बिताता है । इसी तरह यहाँ पर सर्व रचनाओं के परिज्ञान करते रहना, उस ओर बाह्यदृष्टि करना, लो यह है, यह ऐसा है, इस तरह जानते रहने से कार्य सिद्ध नहीं होता । समग्र उपदेश का प्रयोजन स्वभावदृष्टि कराने का है । जहाँ विभाव का लक्षण किया है, स्वरूप वर्णन किया है वहाँ भी समस्त विवरण का प्रयोजन स्वभावदृष्टि कराने का है । जरा इच्छा के स्वरूप पर दृष्टि करो ।
इच्छा के स्वरूप का विवरण―इच्छा का परिणाम आत्मा में स्वरसत: नहीं होता है । यद्यपि है आत्मा के चारित्र गुण की विकारपरिणति । पर ऐसा नहीं है कि आत्मा में इच्छा या सभी विभाव भाव आत्मा में स्वभाव से बंधे हुए हों―और एक के बाद एक पर्याय बनने का इसमें स्वरसत: अधिकार हो । किंतु कर्मोदय का निमित्त पाकर आत्मभूमि में इच्छा का विकाररूप परिणमन होता है । ऐसा भी नहीं है कि जब आत्मा में विभावपरिणमन होता हो तब कर्मोदय को हाजिर होना पड़ता हो । जितने भी पदार्थ हैं वे सब अपने आपके स्वरूप में रत हैं । एक दूसरे के सत् के कारण अपनी परिणति किया करता हो, ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, पर अपने विकारपरिणमन में एक दूसरे का निमित्त होता है । अब इस वर्णन में भी हम स्वभावदृष्टि का प्रयोजन कैसे निकाल सकते हैं? देख लीजिए । यह इच्छा मेरे स्वभाव से नहीं उत्पन्न होती, कर्मोदय का निमित्त पाकर यह इच्छारूप परिणमन होता है, अत: इच्छा मेरे अंतर का परिणाम नहीं है । इस विभाव से इस दृष्टि की उपेक्षा होती है और स्वभावदृष्टि में इसे प्रेरणा मिलती है ।
अध्यात्म में जानने योग्य नयों का विवरण―अध्यात्म में जानने योग्य नय चार हैं―परमशुद्ध निश्चयनय, शुद्ध निश्चयनय, अशुद्ध निश्चयनय और व्यवहारनय । इन चारों नयों का प्रयोजन स्वभावदृष्टि कराने का है । परम शुद्ध निश्चयनय में साक्षात् प्रयोजन पड़ा हुआ है । परम शुद्ध निश्चयनय का विषय है वस्तु के अखंडस्वभाव का देखना, वस्तु के स्वभाव का भेद न करके स्वभावमात्र वस्तु निरखना यह परम शुद्ध निश्चयनय का कार्य है । परमशुद्धनिश्चयनय ने सीधा स्वभाव दृष्ट कराया । शुद्ध निश्चय का विषय है जो पर्यायत: शुद्ध है, जैसा शुद्ध प्रभु है, परमात्मा है, उस शुद्ध प्रभु को शुद्ध पर्याय परिणत निरखना और उस शुद्ध पर्याय का विकास उन्हीं के स्वभाव से होता है, इस तरह की युक्ति सहित निरखना । इस शुद्ध निश्चयनय के निरखने में चूंकि वह पर्याय स्वभाव के अनुरूप है अत: उस पर्याय के स्रोतभूत स्वभाव की दृष्टि कर लेना सुगम कार्य होता है ।
अशुद्धनिश्चयनय से स्वभाव देखने की पद्धति―तीसरा नय है अशुद्ध निश्चयनय । अशुद्ध निश्चयनय का यहाँ विषय है अशुद्ध पर्याय परिणत आत्मद्रव्य को निरखना और इस पद्धति से निरखना कि अशुद्ध परिणति किसी अन्य द्रव्य से नहीं होती है, किंतु इस निज से ही होती है जिसमें यह अशुद्ध परिणति है । ऐसा देखना अशुद्ध निश्चयनय का काम है । ये दृष्टियां हैं । सभी दृष्टियां अपना-अपना कार्य करने में समर्थ हैं, दूसरों के कार्य की परवाह नहीं करती । समन्वय प्रमाण करता है । अब यह देखिए कि अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से वस्तु को निरखते हैं । इससे स्वभावदृष्टि का प्रयोजन सिद्ध होता है या नहीं? अशुद्ध निश्चयनय में ये निरखे गए जीव हैं―इनमें यह राग परिणमन है । यह राग परिणमन इस जीव के चारित्रगुण के विकाररूप है और यह रागादि परिणति इसे चारित्र गुण की विकृत परिणति से हुई । यह अशुद्धनिश्चयनय का विषय है । निश्चयनय केवल एक वस्तु को देखा करता है―दो पर दृष्टि नहीं देता है और न वहाँ दो का संबंध देखा जाता है । इस अशुद्ध निश्चय की दृष्टि में जहाँ यह देखा गया कि ये राग क्रोधादिक पर्यायें आत्मा के चारित्र शक्ति की परिणति से हुई तो ऐसा निरखने में चारित्रशक्ति मुख्य हो जाती है और होने वाली पर्याय गौण हो जाती है । जब ऐसा निरखते हुए में यथाशीघ्र पर्याय से हटकर पर्याय के स्रोतभूत मूल शक्ति पर उपयोग पहुंचता है और उस आधारभूत शक्ति पर उपयोग पहुंचते ही स्वभावदृष्टि बन जाती है ।
व्यवहारनय से स्वभाव देखा जा सकने की पद्धति―चौथा नय है व्यवहारनय । व्यवहारनय में भी यह देखना है कि हमें स्वभावदृष्टि से उत्साह कैसे जगता है? व्यवहारनय दो या अनेक पदार्थों का संबंध बतलाता है । चूंकि कोई भी विकारपरिणमन किसी पर का निमित्त पाये बिना नहीं हो सकता है, अत: यह निमित्तनैमित्तिक संबंध वास्तविक है, परंतु व्यवहारनय से कुछ निमित्तनैमित्तिक संबंध को देखते रहने तक का ही अपना प्रयोजन बनाया तो हमने उस उपदेश से लाभ न उठाया । समग्र उपदेश का प्रयोजन स्वभावदृष्टि कराने का है क्योंकि स्वभावदृष्टि के बिना ही ये जगत के जीव अनादि काल से अब तक इस जगत में रुलते चले आए हैं । जहाँ यह देखा कि इस जीव में ये विषय कषाय के परिणाम स्वरसत: नहीं हुए हैं पर उपाधि का निमित्त पाकर हुए हैं, तब आत्मा का जैसा सहज स्वभाव है, उसको सुरक्षित तक लिया जाता है । यह मैं आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वभावमात्र हूँ, यह जो राग परिणमन हुआ है यह कर्मोदय का निमित्त पाकर हुआ है मेरे स्वभाव से नहीं हुआ है । ऐसा व्यवहारनय से जानने पर स्वभावदृष्टि के लिए हमें उत्साह जगता है ।
ज्ञानी की लीला में स्वभावदर्शन―भैया ! जैनसिद्धांत में कितनी ही जगह निश्चयनय के उपाय ने स्वभावदृष्टि में पहुंचाया है और कितनी ही जगह व्यवहारनय का वर्णन करके स्वभावदृष्टि पर पहुंचाया है । जैसे किसी खेल में निपुण बालक जो बहुत अधिक निपुण है उस खेल को खड़े, बैठे, डोलते हुए टेढ़े मेढ़े किसी भी प्रकार से अपने खेल को खेलता है । इसी प्रकार मर्मरूप से स्वभाव का परिचय पाने वाला ज्ञानी पुरुष किन्हीं भी नय के उपायों से या किन्हीं भी वर्णनों से, किन्हीं भी कथनों से अपनी स्वभावदृष्टि को कर लेने से उसके विलास को उत्पन्न कर लेता है ।
नि:कांक्षता पाने की रीति―यहाँ नि:कांक्षित अंग का वर्णन चल रहा है । सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी कर्मफल में और वस्तुधर्म में कांक्षा को उत्पन्न नहीं करता है । इस जीव पर सबसे महान् संकट है तो विकल्पों का संकट है । बाह्य पदार्थों से संकट नहीं आते हैं । धन नहीं है तो संकट है ऐसा नहीं है किंतु जीव में विकल्प मच रहा है यह संकट है । यह विकल्प कैसे टूटे? इसके टूटने की रीति निर्विकल्प निज स्वभाव के दर्शन करने में है । अब निर्विकल्प निज स्वभाव के दर्शन कैसे हों, इसका उपाय दो पद्धतियों में बताया है । एक तो यह बतलाते हैं कि हे आत्मन् तेरा जो कुछ है वह तुझ में है, तेरा जो कुछ बनता है तुम से बनता है, तेरा पर में कुछ नहीं होता है । तुझमें पर का अभाव है पर में तेरा अभाव है, ऐसे एकत्व की मुख्यता से आत्मा को निज स्वभाव के दर्शन में पहुंचाया जाता है, विभाव से हटने की दूसरी पद्धति यह है कि जो ये विकल्प उत्पन्न हो रहे हैं ये विकल्प तेरे निज की चीज नहीं हैं । ये कर्मोदय का निमित्त पाकर हुए हैं । तेरा तो टंकोंत्कीर्णवत् स्वरस से जैसा सहज स्वभावरूप है वैसा ही तेरा स्वरूप है । पर ये जो विकार आए हैं ये कर्मोदय विपाक विभाव भाव हैं, ये मेरे स्वभाव नहीं है । ऐसे व्यवहारनय के उपाय से स्वभावदृष्टि तक पहुंचने की पद्धति भी यह सम्यग्दृष्टि करता है । जब तक निर्विकल्प शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मस्वभाव की दृष्टि नहीं जगती है तब तक वह आत्मीय आनंद नहीं प्रकट होता, जिस आनंद में सामर्थ्य है कि भव-भव के संचित कर्म भी नष्ट हो जाते हैं । यह सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध आत्मा की भावना कर रहा है । और उसी भावना के परिणाम में परम आनंद की परिणति में तृप्त हो रहा है ।
ज्ञानी के पराधीन व विनाशीक सुख में अनास्था―जो ज्ञानी अनुपम स्वाधीन आनंद को प्राप्त कर चुका हो वह पराधीन विनाशीक सुख की वांछा कैसे करे? ये जगत के सुख पराधीन हैं । प्रथम तो इस सुख का मुख्य कारण कर्मोदय है । कर्मोदय अनुकूल हो तो यह सुख प्राप्त हो । फिर बाद में तो सुख के लिए आश्रयभूत वे अनेक पदार्थ जुटाने चाहिए । सो कर्म के उदय को जब नोकर्म नहीं मिलता तो वे कर्म भी संक्रांत हो जाते हैं । यह सुख पराधीन है । पराधीन ही सही लेकिन जब मिला तब तो अच्छा है ना? ऐसा न सोचना चाहिए क्योंकि जो सुख उत्पन्न होकर नष्ट हो जाने वाला हो, जो विनाशीक हो उसके पाने का क्या आनंद है? सम्यग्दृष्टि जानता है कि संसार का सुख मिलता है तो वह नियम से यथाशीघ्र नष्ट हो जाया करता है । अत: सम्यग्दृष्टि को जगत के सुख का आदर नहीं होता है ।
इंद्रियज सुख में दुःखबहुलता―कोई कहे कि पराधीन सही और विनाशीक सही मगर जिस क्षण को सुख मिल जायेगा उस क्षण तो मौज यह जीव पा ही लेगा । सो इतनी भी बात नहीं है । कोई भी जगत का सुख ऐसा नहीं है जिसके भोगने के बीच-बीच में दुःख न आया करते हों । कोई भी सुख ऐसा नहीं है । धन के कमाने का सुख है तो उसके अर्जन के बीच-बीच में कितने ही संकट आया करते हैं । कोई समारोह करने का सुख है, पुत्र का विवाह है, बारात बड़ी ठाठबाट से जा रही है तो क्या उस पुत्र का पिता या जो अधिकारी माना जाये, जो अपने को सुखी समझता हो, या वह दूल्हा ही स्वयं क्या एक दो घंटे या आधा घंटे लगातार सुख से रह सकता है? नहीं । बीच-बीच में उसे कितने ही दुःख भोगने पड़ते हैं । अधिकारी तो अमुक को मनाएं, अमुक को मनाएं, कोई नाराज हो गया तो उसके हाथ जोड़े । भैया ! आपको जाना तो पड़ेगा । आपके जाये बिना काम ठीक न होगा । कितनी-कितनी बातें करते हैं? सुख में कौन रह पाता है? सारे लौकिक सुख दुःख से भरे हुए हैं । भोजन भी कोई करता हो तो प्रथम तो जो तृष्णा लगी है, आसक्ति लगी है, उसके मारे सब आनंद किरकिरा हो जाता है । दुःख से ही कौर उठाता है । क्षोभ से भरा हुआ होकर वह भोजन कर रहा है । कौनसा सुख ऐसा है जो निरंतर शांति को बहाता हुआ उत्पन्न होता है? ये समस्त सुख दु:खों से भरे हुए हैं और फिर इतना ही इनमें अनर्थ नहीं है । यह भी अनर्थ है कि पापबंध करा देता है । आगामी काल के लिए भी सुख का साधन जुटाकर यह सुख जाया करता है । ऐसे सुख में सम्यग्दृष्टि को आदर नहीं होता है ।
ज्ञानी के पुण्येच्छा का अभाव―सम्यग्दृष्टि ने शुद्ध ज्ञानमात्र अपने आपको तकने के उपाय से एक अनुपम आनंद का अनुभव किया है जिस आनंद में तृप्त होकर यह पंचेंद्रिय के विषय सुखों में वांछा नहीं करता है । वह इन्हें आफत जानता है । इनके प्रसंग में विकल्प करना पड़ता है । यह विकल्प होना कलंक है, क्लेश है । उन विकल्पों में इस सुदृष्टि की भावना नहीं रहती है । इसी प्रकार विषयसुख के कारणभूत नाना प्रकार के पुण्यरूप धर्मों में इसकी चाह नहीं रहती है । यद्यपि शुद्ध दृष्टि के कारण जब तक राग शेष है तब तक इसके पुण्यरूप कार्य होता है, पर अंतर में से चाह कर कि इस पुण्य से मुझे मुक्ति मिलेगी अथवा मुझे पुण्य बंध जाये इसके लिए मैं पूजन करूँ ऐसी आशा रखकर वह पुण्यरूप कार्य को नहीं करता है । कहते भी हैं कि पुण्य की आशा रखने से पुण्यबंध नहीं होता है किंतु विशुद्धि के शुद्ध प्रताप से इस जीव के पुण्य कार्य होता है, पर उन पुण्य कार्यों में यह आशा नहीं रखता है कि मुझे पुण्य बँधे अथवा इस पुण्य के प्रताप से मेरी आगामी स्थिति उत्तम हो ऐसी वांछा ज्ञानी पुरुष नहीं करता है ।
ज्ञानी का आशय―ज्ञानी सब प्रकार के वस्तुधर्मों में अथवा कुधर्मों में वांछा उत्पन्न नहीं करता । मिथ्यात्वरूप कोई कुधर्म चमत्कार संपन्न होने से कायर जनों को सत्पथ की दृष्टि से विचलित कर सकने के कारण है ऐसे कुधर्म में उसकी वांछा उत्पन्न नहीं होती । मुझमें लौकिक चमत्कार न सही मुझे लौकिक चमत्कार की आवश्यकता नहीं है । मुझे तो एक स्वभाव दृष्टि चाहिए जिसके प्रताप से संसार के समस्त क्लेशों से मुक्त हो सकूँ । ज्ञानी पुरुष को भोगों में अथवा भोगों के कारणभूत पुण्यबंध में, उन चमत्कारों से भरे हुए धर्मों में वांछा नहीं होती है । वह ही आत्मा सम्यग्दृष्टि है जो संसार के सुखों की वांछा से रहित है । जिसके विषय सुखों की वांछा नहीं है, इच्छा नहीं है उसके विषय सुखों के इच्छाकृत बंध नहीं होता है । बल्कि विषय सुखों की इच्छा दूर होने के कारण स्वयं संवररूप भाव होने से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा ही होती है । इस तरह सम्यग्दृष्टि के नि:कांक्षित अंग में वांछारहित स्वरूप बताया गया है ।
धर्मधारण के प्रयोजन में भोगेच्छा के स्थान का अभाव―छहढाला में नि:कांक्षित अंग के स्वरूप में लिखा है―‘वृष भव सुख वांछा भाने ।’ धर्मधारण करके भव सुख की इच्छा न करना सो निःकांक्षित अंग है । कहीं ऐसा नहीं है कि सम्यग्दृष्टि जीव के किसी प्रकार की इच्छा ही न उत्पन्न होती हो, व्यक्तरूप इच्छा छठे गुणस्थान तक चलती है, पर धर्मधारण करके उन धर्मों के प्रयोजन में किसी प्रकार के संसारी सुख की इच्छा करना यह ज्ञानी पुरुष के नहीं होता है । धर्मकार्य करता है, पुण्यकार्य करता है, स्वभावदृष्टि की महिमा जानकर उस स्वभाव का जहाँ पूर्ण विकास है ऐसे परमात्मप्रभु की भक्ति में गद्गद होकर वंदना और स्तुति में, स्तवन में प्रायश्चितरूप यह अपनी आत्मनिंदा कर लेता है और प्रभु के शुद्ध स्वरूप को देखकर बड़ा आह्लाद उत्पन्न करता है । ऐसी वंदना, स्तुति के प्रसंग में यह जीव रहता तो है मगर उस कार्य से मेरे में पुण्य बंधे अथवा मुझे ऐसी-ऐसी स्थिति मिले इसकी रंच इच्छा नहीं होती है ।
ज्ञानी गृहस्थ के मूल में निरीहता―सम्यग्दृष्टि जीव भी जो गृहस्थ है तो दुकान क्यों जाता है? क्या थोड़ी बहुत मन में यह बात न आती होगी कि काम करना है? कुछ आय होना चाहिए । वह निरुद्देश्य ही जाता होगा क्या? इच्छा होती है वह विकार है, कमजोरी है । पर धर्मधारण करके उसने अपने जीवन का उद्देश्य ही इस चीज को बनाया ऐसी ज्ञानी के प्रवृत्ति नहीं है । मेरे जीने का उद्देश्य यह है कि खूब धन जोड़ लें, ऐसा ज्ञानी के भाव नहीं रहता है । अथवा पूजा पाठ धर्मध्यान गुरु सेवा आदिक रखे यह प्रयोजन रखे कि मेरे सब प्रकार का आराम और कुशलताएँ रहें ऐसा ज्ञानी के परिणाम नहीं होता है । यह ज्ञानीपुरुष नि:कांक्षित होता है । इसके कांक्षाकृत बंध इसी कारण नहीं है कि वह अंतर में इसकी वान्छा नहीं रखता, किंतु परिहरण स्वभाव होने से, उन सबसे हटा हुआ परिणमन बनाने वाला होने से उसके पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है । यों नि:कांक्षित अंग के प्रकरण में सम्यग्दृष्टि को निरीहता की मूर्ति, इच्छारहित मूर्ति जानो, इस तरह का स्वरूप दिखाया है ।
ज्ञानी के वैषयिक सुख से उपेक्षा का कारण―जो जीव कांक्षा आदि भावरहित निज शुद्ध आत्मा का संवेदन करता है, ज्ञानमात्र स्वरूप में अपने आपको निहार कर उत्कृष्ट देखता है, उसी के साथ लीला करता है, उससे जो आनंद प्राप्त होता है उस आनंद में स्थित हुए ज्ञानी पुरुष के वैषयिक सुखों से प्रीति नहीं होती है । इस ज्ञानी ने ऐसा कौन-सा बल पाया जिस बल के कारण यह निरंतर स्वाधीन आनंदरस में तृप्त रहा करता है? वह बल है शुद्ध ज्ञानस्वभाव के दर्शन का । जगत में जितने भी समागम हैं उन समागमों से आत्मा में न कोई सुधार होता है और न कोई बिगाड़ होता है । कम बिगाड़ होने का नाम सुधार है । लेकिन कहा जाता है कि जैसे 104 डि0 बुखार हो और कभी दो डिग्री बुखार कम हो जाये तो वह बुखार वाला अपने में सुख का अनुभव करता है । कोई दूसरा पूछे कि अब कैसी हालत है तो वह कहता है कि हाँ अब अच्छी हालत है । वस्तुत: बुखार तो अब भी है लेकिन बुखार की जो कमी है उसमें सुख का अनुभव करता है । इसी प्रकार जगत में बाह्य पदार्थों से कहीं सुख नहीं है किंतु जब कभी दुःखों में कमी होती है तो उसे सुख कहा करते हैं । वस्तुत: सुख नहीं है । सुख तो आत्मा के शुद्ध ज्ञायकस्वरूप के अनुभव में ही है ।
कालस्थिति व कर्मस्थिति की ओर से सम्यक्त्व की पात्रता का समय―अब बाह्यपरिस्थितियों से इस ज्ञानी के सम्यक्त्व का निर्णय कीजिये तो प्रथम प्रश्न यह होता है कि सम्यक्त्व का पात्र यह जीव किस समय होता है काल की अपेक्षा से? तो बताया गया कि जब अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन संसार रह जाता है तब जीव में सम्यक्त्व होने की योग्यता होती है । फिर कर्मों की स्थिति के प्रश्न में पूछा जाये कि कर्मों की कितनी स्थिति बँधने पर जीव के सम्यक्त्व की योग्यता होती है? तो बताया है कि अंत: कोड़ाकोड़ी सागर मात्र स्थितिबंध हो तब जीव के सम्यक्त्व की योग्यता होती है । अंत:कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति का कभी अभव्य के भी बंध रहता है और प्रायोग्य बंध में कम-कम होता हुआ हजारों सागर कम अंत:कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति में बंध होता है । फिर भी वह सम्यक्त्व का पात्र नहीं है । मंद कषाय में और वस्तुस्वरूप के संबंध में कुछ चिंतन में इतनी सामर्थ्य है कि स्थितिबंध कम हो जाये, स्थिति सत्त्व भी कम हो जाये तिस पर भी यदि शुद्धस्वभाव की दृष्टि नहीं जगती है तब आत्मा में सम्यक्त्व नहीं होता ।
सम्यक्त्व की महिमा―सम्यक्त्व की महिमा के संबंध में समंतभद्रस्वामी ने कहा है कि सम्यक्त्व समान तीन लोक और तीन काल में श्रेयस्कर कुछ भी वस्तु नहीं है और मिथ्यात्व के समान तीन लोक तीन काल में अश्रेयस्कर वस्तु और कुछ नहीं है । लेना न देना, पदार्थ सब अपने-अपने सत् में हैं; लेकिन अज्ञानी जीव प्रत्येक पदार्थ के संबंध में ऐसे आत्मीय विकल्प करता है कि वह सर्व जगत को अपना बनाने में उत्सुक रहता है । ज्ञानी जीव को समस्त परवस्तु पर नजर आती है इसलिए उसके वैराग्य निरंतर रहता है । ज्ञानी के यह प्रतीति है कि मेरा ज्ञानस्वरूप समस्त परपदार्थों से और परभावों से हटा रहने का स्वभाव रखता है । यह स्वभाव कभी भी किसी विभाव या परपदार्थ में मिल नहीं सकता । ऐसे अछूता निर्लेप अबंध आत्मस्वभाव को निरखने वाला ज्ञानी पुरुष विभाव में व परपदार्थ में मुग्ध नहीं हो सकता । उसे तो कल्याणमय केवल अपना स्वरूप ही दृष्ट होता है ।
पंचपरमेष्ठी की उपासना में ज्ञानी का मूल उद्देश्य―भैया ! पंचपरमेष्ठी की आराधना में यह ज्ञानी जीव आता है वहाँ भी इसका प्रयोजन आत्मस्वभाव का दर्शन है । वह परमेष्ठियों को ही आत्मविकास के रूप में समझता है । इन परमेष्ठियों में सर्वप्रथम साधु परमेष्ठी होता है । सर्व आरंभ परिग्रह के त्याग से पहिले आत्मा में परमेष्ठित्व नहीं उत्पन्न होता है । ये ज्ञानी गृहस्थ जो भी साधु हैं वे पहिले घर में तो थे ही । पैदा तो जंगल में नहीं हुए । भले ही कोई बचपन से ही 8 वर्ष की ही उम्र से साधु बना हो पर था तो वह घर में ही । कोई साधु ऐसे भी हुए हैं कि जब से पैदा हुए तब से ही उन्होंने कपड़ा नहीं पहिना । हुआ क्या कि बचपन में ही उनके माता पिता ने किसी मुनि के साथ पढ़ने को रख दिया तो मुनि के संघ में भी नग्न रहते हुए बच्चे की शक्ल में पढ़ता रहा और पढ़ते ही पढ़ते छोटी उम्र में, मानों 8 वर्ष की उम्र में ही उसे बोध होता है, सम्यक्त्व जगता है और संयम धारण कर लेता है तो उसने तो कपड़ा कभी भी नहीं पहिना । ऐसे भी साधु हुए हैं पर उत्पत्ति और सारा पालनपोषण तो प्राय: मनुष्यों का घर में ही होता है ।
साधुता का प्रारंभ―गृहस्थ ज्ञानी पुरुष सम्यग्ज्ञान के जगने से जब विरक्त होता है तब आरंभ परिग्रह का परित्याग करके साधु व्रत ग्रहण करता है । साधु का स्वरूप ऐसा है कि जो आत्मा को निरंतर साधता रहे वह साधु है । साधु की वृत्ति, प्रवृत्ति मात्र आत्महित के लिए होती है । वह किन्हीं भी बाह्य परिकरों से प्रसन्न नहीं रहता । वह किन्हीं भी शिष्य आदिक की सेवा से अथवा भक्त श्रावक जनों से अपने में गौरव नहीं अनुभव करता । साधु तो निरंतर आत्मतत्त्व के दर्शन किया करता है । ऐसे आत्मतत्त्व के साधक साधु पुरुष जब अनेक साधुवों द्वारा प्रमाणित और हितकारी माना जाता है तब किसी आचार्य के द्वारा दिए गए पद से या समस्त साधुओं द्वारा चुने गए की विधि से कोई आचार्य होता है । आचार्य परमेष्ठी भी इतने विरक्त होते हैं कि उनके द्वारा लोक में कल्याण भी हो जाता है और अपने स्वभाव की दृष्टि से चिगते नहीं ।
बहिर्मुखी वृत्ति में साधुता का अभाव―यदि कोई साधु लोककल्याण में ही लग जाये, शिष्य आदिक के संग्रह में ही लग जाये, बाहरी व्यवस्था में ही लग जाये और अपने हित की कोई वृत्ति न करे तब वहाँ आचार्यपरमेष्ठित्व तो दूर रहो सम्यक्त्व का भी संशय है । साधु उसे ही कहते हैं जो ज्ञायकस्वरूप निजआत्मतत्त्व की साधना में निरंतर रत रहता हो । जिसे केवल एक ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप ही लक्ष्य में रहता है उसे साधु कहते हैं । कोई राग मोह में ग्रस्त हो और गृहस्थ भी इसी प्रकार ग्रस्त है, फिर उनमें परमेष्ठिता कहां आयी, पूज्यता कहाँ आयी?
असावधानी का फल दुर्निवार विपत्तियाँ―ज्ञानी गृहस्थ चूँकि यह जानता है कि रागद्वेष मोह ही विपत्ति है, संकट है । और आज के समय में चूँकि हम मनुष्य हैं इसलिए संकटों का कुछ निवारण भी कर लेते हैं, पर अन्य-अन्य गतियों के संकट तो देखो दुर्निवार संकट हैं । कीड़े मकोड़े, पेड़ पौधे, पशु पक्षी इन अनेक जीवों के संकट तो निहारो, ऐसे घोर संकट इस संसार में हैं । ये संकट बढ़ते हैं रागद्वेष मोह के कारण । भले ही वर्तमान समय में रागद्वेषमोह रुच रहा हो क्योंकि पर्यायबुद्धि है, घरवालों के मुख से प्रशंसा की बात सुनने में आ रही हो, विनयशील और आज्ञाकारी बन रहे हों, इनके शरीर की सुख साता में लग रहे हों, ये सब भले मालूम होते हैं पर अंतर में कुछ रुच जाने का जो परिणाम बन रहा है, रागपरिणति हो रही है इससे ऐसे कर्मों का बंध हो रहा है जिसके फल में इसके संकट दुर्निवार हो जायेंगे ।
तीव्र मोह का फल―भैया ! एक किसी समय के तीव्र मोह के फल में 70 कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति के कर्म बंध जाते हैं, दर्शन मोहनीय कर्म बंध जाते हैं । अर्थात् किसी समय में बँधे हुए कर्म 70 कोड़ाकोड़ी सागर तक अपना पिंड नहीं छोड़ते । सागर कितना कहलाता है उसको हम कल्पना से न जान सकेंगे । न तो वहाँ तक गिनती की पहुंच है, क्योंकि वह गिनती से परे है, असंख्यात काल कहलाता है । जिसकी गिनती नहीं वह अनंतकाल कहलाता है । अनंत का अर्थ है जिसका कभी अंत न हो अथवा अवधिज्ञानी जीव के अवधिज्ञान से दूर हो । सर्वोत्कृष्ट अवधिज्ञान सर्वावधिज्ञान भी जितनी संख्या को नहीं जान सकता उसको भी अनंत कहते हैं ।
सागर का प्रमाण―तो अब सागर को कल्पना के प्रमाण से सोचिये । मान लो, 2 हजार कोस का लंबा चौड़ा गहरा गड्ढा है और उसमें उत्तम भोगभूमि के 7 दिन के जाये हुए मेढ़ा के बच्चे के बाल कैंची से उतने छोटे टुकड़े करके जिनका दूसरा हिस्सा न हो ठसाठस भर दिये जायें । ऐसा न तो करना है और न कोई कर सकेगा, पर जो संख्या के हद से बाहर की बात है उसको बताने का उपाय केवल कल्पना हो सकती है । यह बात सर्वज्ञदेव की ज्ञानपरंपरा से चली आयी हुई है, यह मनमानी कल्पना नहीं है । उस खूब ठसाठस धसे और भरे हुए गड्ढे में से एक बाल 100 वर्ष में निकाला जाये, वे समस्त बाल के टुकड़े जितने वर्षों में निकल सकेंगे उतने वर्षों का नाम है व्यवहारपल्य । और व्यवहारपल्य से असंख्यात गुणा होता है उद्धारपल्य । और उद्धारपल्य से असंख्यात गुणा होता है अद्धापल्य । एक करोड़ अद्धापल्य में एक करोड़ अद्धापल्य का गुणा किया जाये तो उसे कहते हैं एक कोड़ाकोड़ी अद्धापल्य । ऐसे 10 कोड़ाकोड़ी अद्धापल्य का एक सागर होता है । एक करोड़ सागर में एक करोड़ सागर का गुणा किया जाये तो कहलाता है एक कोड़ाकोड़ी सागर । ऐसे-ऐसे 70 कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति एक समय की खोटी भावना में बंध जाती है । इस कारण जीव को सदा सावधान बना रहना चाहिए ।
शुभ उपयोग―भैया ! अशुभ परिणामों से बचने के लिये व शुद्ध उपयोग की पात्रता के लिये अपनी प्रवृत्ति किसी न किसी धर्मकार्य में, पूजा में, सामायिक में, स्वाध्याय में, व्रत उपवास में, संयम की स्थिति में, सत्संग में व्यतीत करना चाहिए । इस पुण्यकर्म के समय इतना तो सुनिश्चित है कि विषय कषाय के अशुभ भाव नहीं होते हैं जिन अशुभ भावों के कारण तीव्र अनुराग बढ़ता है । पुण्यकार्य में लगे हुए भी दृष्टि अपने आत्मस्वरूप की रखना चाहिए । हम परमेष्ठियों को क्यों पूजते हैं? हम वहाँ शुद्ध स्वभाव का विकास देख रहे हैं । साधु, आचार्य और उपाध्याय―ये तीनों आत्मा के शुद्ध विकास के यत्न में लगे हैं । आजकल उपाध्यायों का मिलना बड़ा कठिन है । कहीं न सुना होगा कि फलाने मुनि उपाध्याय हैं । चाहे आचार्य जल्दी बन जाये पर उपाध्याय का बनना बड़ा कठिन हो रहा है, क्योंकि उपाध्याय बनने का मूल तो ज्ञान है । ज्ञान बिना उपाध्याय पद नहीं मिलता । केवल बातों के कहने से ही उपाध्याय पद हो नहीं पाता ।
परमात्मत्व―ये तीनों प्रकार के साधु जब आत्मस्वभाव में रत रहते हैं तो इनमें से किसी के भी, आजकल तो नहीं हो सकता, किंतु पद के स्वरूप की बात कह रहे हैं कि जब स्वरूपाचरणचारित्र में उत्कृष्ट प्रवेश हो जाये, जहाँ ध्यान, ध्याता, ध्येय का विकल्प न हो, केवल शुद्ध ज्ञानमात्र, जो उदार है, धीर है, गंभीर है ऐसे ज्ञानस्वरूप का ही उपयोग अभेदवृत्ति से रह जाये तो इस उत्कृष्ट अभेद आत्मस्वभाव के ध्यान के प्रसाद से चार घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है । दर्शनमोहनीय का क्षय पहिले हो चुका था । चारित्र मोहनीय का क्षय क्रम-क्रम से होता है और शेष तीन कर्मों का क्षय एक साथ होता है । घातिया कर्मों का क्षय होने के बाद वह अरहंत प्रभु हो जाता है ।
वीतरागता का प्रताप―उनमें से जिन आत्माओं ने पूर्व काल में संसार के जीवों पर तीव्र दया बुद्धि की और यह भावना की थी कि देखो ये संसार के प्राणी स्वयं तो ज्ञानानंदस्वरूप वाले हैं, इनका स्वयं प्रभुता का स्वरूप है किंतु एक अंतर में दृष्टि भर नहीं दी जा रही है कि बाह्य पदार्थों की ओर इतनी वेगपूर्वक दृष्टि दौड़ गई है कि व्याकुल रहता है । इसे यह अंतरदृष्टि प्राप्त हुई है, ऐसा परमकरुणा का परिणाम जिनके हुआ था, और तीर्थंकरप्रकृति का बंध किया था उन अरहंत देवों का समवशरण बनता है, बड़े इंद्रदेव सब दास होकर, सेवक बनकर धर्मप्रभावना करते हैं । सो अरहंत परमेष्ठी का स्वरूप, समवशरण का स्वरूप जब आप ध्यान में लायें तो यह न भूलें कि यह सब वीतरागता का चमत्कार है ।
समवशरण―अहो ! कैसी अपूर्व समवशरण की रचना है? पृथ्वीतल से कुछ कम 5 हजार धनुष ऊपर से ये सब रचनाएँ चलती हैं । भगवान 5 हजार धनुष ऊपर विराजमान रहते हैं । चारों ओर से रम्य पहाड़ियां बनी हुई हैं । जमीन पर समवशरण कैसे बने, पर्वत हैं, नदी है, नगर हैं, ये कहाँ हटा दिये जायें? कहाँ मिलेगा ऐसा मैदान जहाँ 12 कोस तक मैदान ही मैदान पड़ा हो । जरा कठिन हो जाता है । ऐसी प्रकृत्या रचनाएँ चलती हैं, बुद्धियां चलती हैं । इस पृथ्वी तल से 5 हजार धनुष उपर ये समस्त रचनाएँ है । सीढ़ियों से ऊपर जाकर मानस्तंभ है । मानियों का मान उस अद्भुत रचना को देखकर गल जाता है । आगे बढ़ते जाते हैं तो गोलाकार में पहिले किला जैसा, फिर खातिका, फिर वेदिका, फिर ध्वजा इस तरह अनेक अद्भुत रचनाएँ चलती जा रही हैं । जब अंदर के गोल में पहुँचते हैं तो वहां 12 सभाएँ हैं । एक-एक दिशा में तीन-तीन सभायें बनी हुई हैं । एक बड़ी स्फटिक की वेदिका है, उसके अंदर गंधकुटी विराजमान है जिस पर भगवान विराजे हैं, चारों ओर से देवी देवता मस्त होकर भक्ति से ओतप्रोत बड़े आह्लाद से गानतान करते चले आ रहे हैं । अहो, इतना अद्भुत चमत्कार, यह किसका प्रताप है? यह वीतरागता का प्रताप है ।
निःकांक्षिता की पूजा और विकास―एक आत्मा जो कुछ नहीं चाह रहा है, जिसने एक शुद्ध स्वभाव का अवलंबन किया था, जिसके फल में ऐसा सहज पूर्ण विकास है कि तीनलोक तीन काल के समस्त पदार्थ स्पष्ट प्रतिबिंबित हो रहे हैं ऐसे सर्वज्ञ वीतराग प्रभु की सेवा में मनुष्य क्या, बड़े-बड़े तिर्यंच क्या, देव देवियाँ सभी एक साथ आ रहे हैं । यह सब वीतरागता का प्रभाव है । आनंद वीतरागता में ही है । शुद्ध विकास वीतरागता में ही है । जगत के जीवों को जितना भी क्लेश है वह सब राग का क्लेश है । इस जगत के जीव में यदि किसी चीज का राग न रहे तो फिर उसे क्लेश ही किस बात का है? इन जीवों को जितने भी क्लेश प्राप्त हो रहे हैं वे सब राग के ही कारण प्राप्त हो रहे हैं । और इस राग से भी अधिक महान् क्लेश है मोह का । अरहंत परमेष्ठी बहुत समय पर्यंत जब तक उनकी आयु के थोड़े ही दिन बाकी नहीं रहते हैं तब तक उनके द्वारा धर्मोपदेश विहार आदि हो रहे हैं । वे प्रभु अंत में योग निरोध करते हैं । पहिले तो लोगों को दिखने वाले योग रुक जाते हैं, जैसे विहार करना आदि दिव्यध्वनि होना । पश्चात जब अंतर्मुहूर्त शेष रहता है एक अंतर्मुहूर्त में अनेक अंतर्मुहूर्त होते हैं । तब उनके मन का निरोध अर्थात् जो द्रव्य मनोयोग था उसका निरोध, वचन का निरोध, श्वासोच्छ्वास निरोध हुआ, स्थूलकाय योग का निरोध ― ये सब निरोध होकर अंत में अयोगकेवली बनकर पंच ह्रस्व अक्षरों के बोलने में जितना समय लगता है उतने ही मात्र समय में अयोगकेवली गुणस्थान में रहकर वे मुक्त हो जाते हैं ।
आत्मा का चरम विकास व उसकी भक्ति में कर्तव्य―अब चार अघातिया कर्मों से वे मुक्त हो गए, शरीर से वे मुक्त हो गए । अब धर्म आदिक द्रव्यों की तरह सर्व प्रकार से शुद्ध वे आत्मदेव हो जाते हैं । वे सिद्ध परमेष्ठी हैं । इनका ध्यान ज्ञानी पुरुष शुद्धस्वभाव के नाते से कर रहा है । पंचपरमेष्ठियों की पूजा आत्मविकास के नाते से की जा रही है । आत्मविकास ही उपादेय है ऐसा जानकर जहाँ आत्मविकास मिलता है ज्ञानी पुरुष के वहाँ ही प्रीति उत्पन्न होती है और उस ज्ञानविकास, आत्मविकास की प्रीति में ही ये सब प्रवृत्तियां चलती हैं । अत: हमें अपना लक्ष्य योग्य बनाना है । शुभोपयोग से हटने के लिए हम शुद्धोपयोग के कार्यों में अधिकाधिक लगें । और दृष्टि के लक्ष्य में शुद्धस्वरूप के विकास का भाव बनाये, चाहे वह कभी भी हो । लक्ष्य तो अभी से बना लेना चाहिए । यों ज्ञानी पुरुष शुद्ध आत्मा की भावना में जो आनंद उत्पन्न होता है उस आनंद से तृप्त होकर संसार सुख की इच्छा नहीं करता है ।
सम्यक्त्वोन्मुख आत्मा की विशुद्धि एवं लब्धियां―भैया ! सम्यक्त्व के परिणाम का तो महत्त्व ही क्या कहा जाये, कैसे कहा जा सकेगा जबकि सम्यक्त्व के उन्मुख होने वाले जीव के परिणाम में ही इतनी बड़ी महिमा है कि उस अभिमुखता में ही कितनी प्रकृतियों का बंध रोक लेता है, जो 5वें, 6वें, 7वें गुणस्थान में बँध सकती हैं । कुछ प्रकृतियाँ ऐसी हैं जो छठे गुणस्थान तक भी बंधती है उनका बंध मिथ्यादृष्टि जीव जो सम्यक्त्व के अभिमुख हो रहा है उसके रुक जाता है । गुणस्थान के हिसाब से उन्हें सम्वर नहीं कहा गया, किंतु सम्यग्दर्शन के अभिमुख जो जीव है उसके कितनी ही प्रकृतियां बंधने से रुक जाती है । सम्यग्दर्शन 5 लब्धियों के बाद उत्पन्न होता है―पहली क्षयोपशमलब्धि, दूसरी विशुद्धिलब्धि, तीसरी देशनालब्धि, चौथी प्रायोग्यलब्धि, पांचवीं करणलब्धि । क्षयोपशमलब्धि में इस जीव के साथ जो कर्म बँधे हुए है उन कर्मो में क्षयोपशम विशेष होने लगता है, जिस क्षयोपशम के फल में इस जीव में विशुद्धि आने लगती है । जिस विशुद्धि से बढ़कर यह जीव इतना पवित्र बनता है कि उसमें दूसरे के तत्त्व के ग्रहण करने की शक्ति आ जाती है । उपदेश ग्रहण करने की शक्ति आना इसे देशनालब्धि कहते हैं । अब वर्तमान में देखो तो तीन लब्धियों के पाने की सभी के योग्यता है । कर्मों का इतना क्षयोपशम है कि जो निगोद पर्याय से निकलकर, स्थावरों से निकलकर, विकलत्रिकों से निकलकर संज्ञी पंचेंद्रिय हुए और संज्ञी पंचेंद्रिय में भी मनुष्य हुए ।
मनुष्यगति की विशिष्टता―सब गतियों से बड़ी विशेषता मनुष्य में होती है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की पूर्णता इस गति में ही हो सकती है । मन की स्थिरता मनुष्यगति में ही होती है । देवगति के जीव भी सम्यग्दृष्टि होते हैं, ज्ञानी होते हैं, किंतु उनके चित्त में स्थिरता नहीं होती है। चित्त स्थिर रख सकने की योग्यता मनुष्य में है । कारण यह है कि संसार में जिसको जितनी सुविधा, सिद्धि ऋद्धि प्राप्त होती है उसके चित में प्राय: स्थिरता कम होती है । कहते तो लोग यह है कि भाई कुछ साधन अच्छा जुट जाये तो चित्त स्थिर हो जाये । इतनी संपत्ति हो जाये कि किराये भाड़े से अपना काम चलने लगे तो चित्त स्थिर हो जाये । बैठे-बैठे रहें, आरंभ कुछ न करना पड़े, फिर तो खूब धर्म करेंगे पर जैसे ही उस लक्ष्मी की शक्ल सूरत सामने खूब आ जाती है तो इसका चित्त अस्थिर हो जाता है । न कुछ परिकर हो उस स्थिति में यह अपने चित्त को स्थिर बना सकता है पर जहाँ संपत्ति इसको प्राप्त होती है, संपत्ति बढ़ जाती है वैसे ही चित्त में अस्थिरता बढ़ जाती है । प्राय: देखो धर्म के भक्त कितने लोग हैं? धर्म की तरफ थोड़ा लोगों को ख्याल भी कम है । आप देख लीजिए कि धर्म करने वालों की संख्या कितनी है? सारे देश में दृष्टि डाल लो और कोई खेल खिलौना, सिनेमा आदि होने लगे तो कितनी संख्या जुड़ सकती है? कितना उपयोग और उत्साह जगता है? तो क्या कारण है कि सर्व प्रकार की पात्रता भी है और फिर भी स्थिरता नहीं होती है । देवगति के जीवों में चित्त में स्थिरता नहीं है इसलिए वे संयम के पात्र नहीं होते हैं । उनको भूख नहीं लगती, प्यास नहीं लगती । हजारों लाखों वर्षों में यदि भूख प्यास लगी भी तो उनके कंठ से अमृत झर जाता है किंतु यत्न नहीं करना पड़ता है । कितनी सुविधा है उनको? इतनी सुविधा में भी देव गति के जीव स्थिर नहीं रह पाते हैं । उनका चित्त डोलता रहता है । तो वैभव संपन्न होने से चित्त स्थिर होगा ऐसा भ्रम है । ज्ञानबल होगा तो चित्त स्थिर होगा, संपन्नता से चित्त स्थिर न होगा । चारों गतियों के जीवों में खूब परख लो मनुष्य का कितना उत्कृष्ट जीवन है?
उत्कृष्ट अवसर से लाभ न उठाने का खेद―इतना उत्कृष्ट जीवन पाकर भी हम अपने सहजस्वरूप की दृष्टि में नहीं लगते, जिसके आलंबन से मोह रागद्वेष दूर होते हैं । जो यत्न, पुरुषार्थ पुराणपुरुषों ने किया है और वे परमात्मा हुए हैं उस शुद्ध सहज स्वरूप का हम दर्शन नहीं करें उसकी उत्सुकता न जगायें और बाह्य पदार्थों में ही दृष्टि फंसाकर अपना समय गुजारें तो कहना होगा कि जैसे लोक में अनंत भव गुजारे इसी प्रकार यह भी भव गुजार दिया । कमजोरी तो अपने आपकी है किंतु यह कमजोरी अपने आपका स्वभाव तो नहीं है, यह नैमित्तिक चीज है । जो औपाधिक, नैमित्तिक मायामय होता है वह दूर हो सकता है और जो स्वभावरूप होता है वह दूर नहीं होता है ।
स्वभावदर्शन का प्रकाश―स्वभावदर्शन करने वाले ज्ञानी पुरुष की लीला अकथनीय है । वह ज्ञानी पुरुष किसी भी कथन में अपने स्वरूपदर्शन का प्रयोजन निकाल लेता है । शब्द वे ही हैं पर जिसकी जैसी योग्यता है वह अपनी योग्यता से उसमें वैसा ही अर्थ निकाल लेता है । एक बच्चा बारह भावना का कोई दोहा पड़े, उस दोहा को सुनकर किसी के चित्त में तो वैराग्य बढ़ा, किसी के चित्त में स्वरूपदृष्टि जगी और कोई इतना ही जानकर अपना उपयोग कर लेता कि यह पढ़ रहा है, इसने अच्छा याद किया है । बात वही है और उसको सुनकर जिसकी जितनी योग्यता है वह अपनी योग्यता माफिक उसमें अर्थ देख लेता है । तो ज्ञानी पुरुष व्यवहारनय से यों देखता है कि ये रागादिक पुद्गलकर्म के उदय के निमित्त से होते हैं । ये स्वभाव भाव नहीं हैं तो इस कथन में उसे स्वरूपदर्शन की उत्सुकता जगती है । वह खिंचता किस ओर है? स्वभाव की ओर । जैसे एक गृहस्थ का लड़का और एक पड़ोस का लड़का दोनों में कुछ कलह हो तो न्याय-नीति की बात कहकर वह झुकता है जिसमें अपनी रुचि हो इसी प्रकार स्वभाव और विभाव के कथन में भी सारी दृष्टियों का वर्णन करते हुए भी झुकता किस ओर है? जो अपना अनादि अनंत स्वभाव है उस ओर झुकता है ।
प्रायोग्यलब्धि में विशुद्धि―यह जीव जब सम्यग्दर्शन के अभिमुख होता है तब उस समय के ही विशुद्ध परिणाम का हम वर्णन करने में असमर्थ होते हैं तो सम्यग्दर्शन के परिणाम का तो वर्णन ही कौन कर सकेगा? जिन प्रकृतियों का बंध छठे गुणस्थान तक भी चल सकता है उन प्रकृतियों का बंध यह मिथ्यादृष्टि जीव जो सम्यक्त्व के अभिमुख है वह रोक लेता है । जिस समय कर्मों के अंत:कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिबंध होने लगता है तब जीव सम्यक्त्व के अभिमुख हो सकता है । कोई हो अथवा न हो, यह स्थिति एक कोड़ाकोड़ी सागर से बहुत नीचे है । यह परिस्थिति प्रायोग्यलब्धि के प्रारंभ में है ।
मिथ्यादृष्टि की इस विशुद्धि में आयुबंध का निरोध―अब सम्यग्दर्शन के अभिमुख जीव के परिणामों का प्रताप देखिए । अंत:कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिबंध करने वाला जीव विशुद्ध परिणामों में बढ़कर जब सात आठ सौ सागर कम स्थितिबंध करने लगता है तब वह नरक आयु का भी बंध नहीं कर सकता है । इतनी विशुद्धि इस मिथ्यादृष्टि जीव के हुई । जो सम्यक्त्व के अभिमुख जैसी स्थिति में है, चाहे आगे सम्यक्त्व हो अथवा न हो, यह बंध पहिले कम हो-हो करके कितनी ही देर बाद सैकड़ों सागर की कम स्थिति होती है, फिर इसी तरह कम होता हुआ जब सात आठ सौ सागर और कम स्थितिबंध होने लगता है तब इसके इतनी विशुद्धि बढ़ती है कि तिर्यंच आयु का बंध नहीं होता है । और सात आठ सौ सागर कम बंध होने पर मनुष्य आयु का बंध नहीं होता है । सात आठ सौ सागर और कम होने पर देव आयु का बंध नहीं होता है । इसे कहते हैं पृथक्त्व शत सागर में होने वाला प्रकृति-बंधापसरण ।
विशुद्धि के प्रताप में और वृद्धि―इतना ही नहीं, और कम बंध होने पर नरकगति नरकगत्यानुपूर्वी का बंध नहीं हो सकता है । आगे यह दिखाया गया है कि ऐसी भी प्रकृतियां हैं जो छठे गुणस्थान में बंध जाती हैं, पर उस मिथ्यादृष्टि के नहीं बंधती है जो थोड़े समय के सम्यक्त्व के अभिमुख हो रहा है । बाद में सम्यग्दर्शन होने के बाद वे प्रकृतियाँ चाहे बंधने लगे, मगर विशुद्धि का प्रताप तो देखिये कि मिथ्यादृष्टि जीव के कितनी प्रकृतियों का बंध रुक जाता है । इसके बाद जब सात आठ सौ सागर और कम स्थितियों का बंध होने लगता है तो सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण―इन तीनों का एक साथ बंध रुक जाता है । याने त्रिक का युगपत् बंध नहीं होता । जब सात आठ सौ सागर और कम स्थितिबंध हो जाता है तब सूक्ष्म, अपर्याप्त, प्रत्येक इस त्रिक का बंध नहीं होता है । इसी तरह चलते जाइए, फिर दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय, चार इंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय अनुत्कृष्ट संहनन और संस्थान और अंत में अस्थिर, अशुभ, अयश, असाता, अरति, शोक, जिनका छठे गुणस्थान में तो बंध होता है इनका भी बंध उस सम्यग्दर्शन के अभिमुख होने के समय में नहीं होता है । यह सब प्रायोग्यलब्धि की बात कह रहे हैं । इतनी विशेष योग्यता इस चौथी लब्धि में हो जाती है ।
सम्यक्त्व प्राप्ति में करणलब्धि की साधकतमता―इतना काम हो चुकने के बाद भी करणलब्धि प्राप्त न हो तो सम्यक्त्व नहीं होता है । करण तीन हैं―अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । तो यह समझिये कि निर्मलता में बढ़ने के ये तीन परिणाम हैं । कोई जीव जब निर्मलता में बढ़ता है तब उसके बढ़ाव में ये तीन तरह की स्थितियां होती हैं । पहिले बढ़ाव में ऊपर के समय के परिणाम नीचे से मिल जायें, दूसरे बढ़ाव में ऊपर के समय के परिणाम नीचे तो न मिलें, पर बराबरी के समय वालों में मिल भी जायें, न भी मिलें । और तीसरे बढ़ाव में एक समय वाले के एक सदृश ही परिणाम होते हैं । ये बढ़ने में तीन बातें आती ही हैं । पूरी सावधानी तीसरी बार में होती है । व्यवहार में भी तो किसी काम को करने के लिए तीन मौके दिए जाते हैं । जब स्कूलों में खेल कूद दौड़ धूप आदिक प्रतियोगिताएं होती हैं तो उन्हें वन टू थ्री कहकर कार्य शुरू कराते हैं । सावधानी के ये तीन अवसर हैं ।
सावधानी के अवसरों का एक दृष्टांत―जैसे बहुत से सिपाही लोग अपनी मौज में बैठे हुए हैं, कमांडर ने उन्हें बुलाया तो उसके पास सब सिपाहियों को लेफ्ट राइट की विधि से एक लाइन में पहुंचना चाहिए । अभी गप्प-सप्प कर रहे हैं, सो कमांडर के पास जाने में उनके तीन यत्न होते हैं । पहिले यत्न में वे झट लाइन बनाते हैं, सो कुछ लाइन बनी कुछ न बनी । उनमें कुछ पीछे हैं, कुछ आगे हैं । दूसरे सावधानी में लाइन तो ठीक हो गई पर अभी लेफ्ट-राइट के कदम ठीक नहीं हुए । तीसरी सावधानी में अब सब लेफ्ट राइट की हालत में हो गए । तीसरे यत्न में एकदम से उनमें समानता हो जाती है । उन सब के हाथ और पैर दोनों एक साथ उठ रहे हैं । ऐसे ही निर्मलता में बढ़ रहे इस सम्यक्त्व के अभिमुखी जीव को ये तीन परिणाम होते हैं । इन तीनों परिणामों के हो चुकने पर अंत में प्रथम उपशम सम्यक्त्व होता है ।
स्वभावानुभूतिपूर्वक सम्यक्त्व की जागृति―भैया ! सम्यक्त्व जब जगता है तब स्वरूप का अनुभव करता हुआ जगता है, और निजस्वभाव के अनुभव में उत्पन्न हुए आनंदरस से तृप्त होता हुआ जगता है । पीछे चाहे उपयोग स्वभाव पर न रहे, कषाय विपाक में प्रवृत्तियां होने लगें, लेकिन लब्धिरूप में वह सब ज्ञान बना रहता है । ऐसा विशुद्ध परिणामी सम्यग्दृष्टि जीव जिसने आत्मीय आनंदरस का स्वाद लिया है वह वैषयिक सुख में आदर बुद्धि कैसे करेगा? यह विकार पिशाच है । पंचेंद्रिय के विषय संबंधी विचार विकल्प इस जीव को भुलावे में डाल देते हैं । तो विकल्पों में यह जीव विषयों में भोगों में प्रवृत्त होता है । आसक्ति हुई तो यह जीव हित-अहित कुछ नहीं गिनता है, किंतु जिसकी दृष्टि विशुद्ध है, स्वभाव में दृष्टि है, ज्ञान है और सहज वैराग्य है ऐसे जीव को विषयों के सुख में प्रेम नहीं उत्पन्न होता है । ये इंद्रियविषय बहुत धोखे से भरपूर हैं, स्वभावदृष्टि के बाधक हैं । विषय यद्यपि कषाय के ही रूप हैं पर कषाय से भी अधिक धोखे वाला समझकर कषाय से पहिले विषय शब्द लगा देते हैं । “आत्मा के अहित विषय-कषाय” ।
इंद्रियविषय से अनर्थ―अहो! एक-एक इंद्रिय के वश में होकर जीव अपने प्राण गंवा डालता है, बहुत-सी प्रसिद्ध बातें हैं । स्पर्शन इंद्रिय के वश में होकर हाथी जैसा बड़ा जानवर जिसमें इतना बल है कि सिंह को भी पकड़कर दो टूक कर दे । सिंह में फुर्ती है इस कारण हाथी पर विजय कर लेता है पर बल देखा जाये तो हाथी में बल अधिक होगा । ऐसा बलवान जानवर भी स्पर्शन इंद्रिय के वश में होकर बंधन में होता है । पकड़ने वाले लोग हाथी को इसी तरह पकड़ते हैं कि एक बड़ा गड्ढा खोदा, उसके ऊपर पतले बाँस बिछा दिये और ऊपर बहुत सुंदर रंगों से रंगकर एक हथिनी बनाते हैं और होशियार पकड़ने वाले हुए तो एक हाथी और बना देते हैं एक या दो फर्लांग दूर पर । उस हाथी को दौड़ने की शक्ल वाला बना देते हैं । जंगल का हाथी उस हथिनी को देखकर मोहित हो जाता है और उस हाथी को देखकर द्वेष भी करता है कि यह हाथी दौड़कर आ रहा है । यह न आ सके, मैं पहिले पहुंचूं । इसमें देखो―जंगल के हाथी में मोह, राग और द्वेष तीनों परिणतियां चल रही हैं । मोह तो यही है अज्ञान । यथार्थ स्वरूप का पता न रहा क्योंकि विषयों में आसक्ति है । कुछ भी विचार कर सकने का उसके अवसर नहीं है । कहीं गड्ढा है या नहीं, जान आफत में आ जायेगा कि नहीं, यह कुछ विवेक नहीं रहता है । सोचने का अवसर ही नहीं रहता है क्योंकि कामवासना की वृत्ति इतनी है कि उसे अन्य बातें नहीं सुहाती है । यह तो हुआ मोह । और हथिनी के रूप में राग हुआ, और दूसरा हाथी उसके पास पहिले न जा सके यह उसका द्वेष हुआ । सो राग द्वेष मोह के वश में होकर वह हाथी उस गड्ढे पर पहुंचता है, बाँस टूट जाते हैं और वह गिर जाता है । कई दिन तक उसे भूखा रखा जाता है । फिर रास्ता बनाकर उसे निकाल लिया जाता है और अपने वश में कर लिया जाता है या भूखे ही वह हाथी अपने प्राण गंवा देता है ।
रसना आदिक इंद्रियों से अनर्थ―रसना इंद्रिय के वश में मछली का दृष्टांत बड़ा प्रसिद्ध है । शिकारी लोग जाल में कुछ खाने की चीज, मांस जैसी चीज या जीव जंतु लगाकर जल में डाल देता है । उसमें कांटा तो लगा ही रहता है । उसको वह मछली खा लेती है, वह कांटा उसके गले में फंस जाता है और वह मछली अपने प्राण गंवा देती है । भंवरा गंध में आसक्त होकर कमल के फूल में छिप जाता है, जिस भंवरे में इतनी शक्ति है कि वह काठ को भी छेद भेद करके निकल जाता है पर गंध में आसक्त होने के कारण कमल के फूल को भी वह छेद भेद नहीं सकता है और उस कमल के फूल में छिपकर वह भँवरा अपने प्राण गंवा देता है । दीपक पर बैठकर पतंगे अपने प्राण गंवा देते हैं । यद्यपि वे दूसरे पतंगों को देखते हैं कि मर रहे हैं पर चक्षुरिंद्रिय के वशीभूत होकर वे पतंगे अपने प्राण गंवा देते हैं । हिरण, सांप ये संगीत के वश में होकर शिकारी के फंदे में पड़ जाते हैं ।
विषयों के अनर्थ के परिज्ञान से शिक्षा―एक एक इंद्रिय का विषय भी विनाश के लिए हो रहा है । तो अज्ञानी मनुष्य की तो कहानी देखो कि कौन-से विषयों में यह कमी कर रहा है या गम खाता है? सर्व इंद्रियों में व्यर्थ की इंद्रिय है नाक । इस तक का भी तो ये जीव बड़ा ख्याल रखते हैं । इत्र चाहिए, फुवा लगाना चाहिए, नाक में लगाना चाहिए । कैसा इंद्रिय के वश में है यह जीव कि उसे अपनी स्वभावदृष्टि का कुछ श्रद्धान ही नहीं होता है । और स्वभावदृष्टि के बिना इस जीव को शांति नहीं मिल सकती । अत: हमें ज्ञान, ध्यान आदि समस्त प्रवृत्तियों से अपनी स्वभावसाधना के लिए यत्न करना और इसके लिए उत्सुक रहना चाहिए ।
अब अष्ट अंग के प्रकरण में तीसरा निर्विचिकित्सा अंग है, उसका यहाँ वर्णन किया जाता है ।